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Categories: chemistrychemistry

लिगेण्ड दन्तुकता किसे कहते हैं , ligand dentin bonding agents in hindi

ligand dentin bonding agents in hindi लिगेण्ड दन्तुकता किसे कहते हैं ?

संकुलन तथा लिगेंड दन्तुकता

अपेक्षा के अनुसार एक दन्तुक लिगण्डों की तुलना में बहुदन्तुक लिगण्ड अधिक संख्या में स्थायी संकुल बनाते हैं। कीलेट बनाने वाले लिगण्डों में O-दाता परमाणु वाले लिगण्ड अधिक उपयुक्त पाये गये हैं। उदाहरणार्थ, कार्बोक्सिलेट (RCOO ) समूह युक्त लिगण्ड जैसे C2O4 2, B- डाइकीटोनेट जैसे ऐसीटिल ऐसीटोन, EDTA आदि लैन्थेनाइडों के साथ स्थायी संकुल बनाते हैं। इन लिगण्डों की अनुनादी संरचनाओं के कारण कीलेट वलय को इतना स्थायित्व मिल जाता है कि OH- तथा H2O समूह वलय को स्थिापित नहीं कर पाते हैं। लेकिन नाइट्रोजन तथा सल्फर के माध्यम से जो लिगण्ड लैन्थेनाइड आयनों से बंधित होते हैं वे जल की उपस्थिति में स्थाई नहीं रह पाते हैं। अतः ऐसे लिगण्डों के संकुलों का निर्माण अजलीय विलायकों की उपस्थिति में किया जाता है।

लैन्थेनाइड आयनों की समन्वय संख्या सामान्यतः 6 से 9 के मध्य होती है। लेकिन NO 3– जैसे द्विदन्तुक लिगण्डों के साथ उच्च समन्वय संख्या के यौगिकों का भी निर्माण होता है। FH2O CI- इत्यादि एकदन्तुक लिगण्ड सामान्यतः 6, 7 व 8 समन्वय संख्या वाले संकुल बनाते हैं। विभिन्न ऑक्सीकरण अवस्थाओं से बने संकुल

विभिन्न ऑक्सीकरण अवस्थाओं से बनने वाले लैन्थेनाइड संकुलों का वर्णन संक्षेप में इस प्रकार है- (1) +4 ऑक्सीकरण अवस्था – लैन्थेनाइड श्रृंखला का सीरियम ही एक मात्र ऐसा सदस्य है जिसके +4 ऑक्सीकरण अवस्था में स्थायी संकुल बनते हैं। अन्य लैन्थेनाइडों, Pr Nd तथा Dy के केवल ऑक्साइड तथा फ्लुओराइड तथा कुछ फ्लुओरो संकुल जैसे कि Na2 PrF6Cs3 NdF7 तथा Cs3DyF7 बनते हैं।

सीरियम के इस ऑक्सीकरण अवस्था में बनने वाले संकुलों में सेरिक अमोनियम नाइट्रेट (NH4)2 [Ce (NO3)6], तथा सेरिक अमोनियम सल्फेट, (NHQ4 )4 [Ce(SO4)4], सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ये जल में विलेय हैं। ऋणायन [Ce(NO3)6]2- में Ce की समन्वय संख्या 12 होती है। NO 3 आयन का एक और संकुल यौगिक [Ce(NO3)4 (OPPh3)2] है जिसमें धातु की समन्वय संख्या 10 है। इन लिगण्डों के अतिरिक्त आयोडेट, तथा B – डाइकीटोनेट आदि +4 ऑक्सीकरण अवस्था में सीरियम के साथ स्थायी संकुल बनाने वाले अन्य लिगण्ड हैं । फ्लुओराइड आयनों के साथ + 4 ऑक्सीकरण अवस्था में सीरियम [CeF8]+ तथा [CeF6]2- एवं क्लोराइड के साथ [CeCI6] 2- संकुल ऋणायन बनाता है।

(ii) +3 ऑक्सीकरण अवस्था : लैन्थेनाइडों की सर्वाधिक स्थायी ऑक्सीकरण अवस्था होने कारण इनके सर्वाधिक संकुल यौगिक इसी अवस्था में बनते हैं। सभी लैन्थेनाइड आयन H2 O के साथ अम्लीय माध्यम में [Ln(H2O)n]3+संकुल धनायन बनाते हैं। ” का मान सामान्यतः 8 अथवा 9 होता है। आयनों का आकार कम होने के साथ-साथ इनके जलयोजित आयन का आकार बढ़ता जाता है। प्रथम दृष्टि में यह क्रम अविश्वसनीय प्रतीत होता है क्योंकि धातु आयन के आकार में कमी के साथ-साथ जलयोजित आयन के आकार में कमी अपेक्षित है । परन्तु फायन के नियमानुसार धनायन का आकर घटने पर उसकी ध्रुवण क्षमता (polarisation power) बढ़ती है। अतः लैन्थेनाइड आयनों के आकार में कमी होने पर इनके साथ जुड़े H2Oअणुओं का ध्रुवण अधिक हो जाता है जिसके कारण ये H2O अगु अन्य H2O अणुओं से हाइड्रोजन बन्ध बनाकर द्वितीयक जलयोजन क्षेत्र (secondary hydration sphere) का निर्माण करते हैं। द्वितीयक जलयोजन क्षेत्र में हाइड्रोजन बन्धन से जुड़े H2O अणुओं की संख्या धातु आयन की ध्रुवण क्षमता पर निर्भर करेगी। ध्रुवण क्षमता बढ़ने, अर्थात् आकार घटने, पर यद्यपि प्राथमिक क्षेत्र के जल अणुओं की संख्या घटती है, लेकिन द्वितीयक जलयोजन क्षेत्र निर्माण की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण जलयोजित आयन की त्रिज्या में वृद्धि होती है।

लैन्थेनाइड आयन बहुत से O- दाता परमाणु युक्त कार्बनिक एवं अकार्बनिक अम्लों के ऋणायनों जैसे कि ऑक्सेलेट, साइट्रेट, टार्टरेट, नाइट्रेट एवं सल्फेट आदि के साथ संकुल आयन बनाते हैं। इन सभी संकुलों में लैन्थेनाइड आयनों की समन्वय संख्या काफी अधिक होती है । उदाहरण के लिए [Ce(NO3)5]2- तथा [Ce (NO3)6]3 में Ce 3+ की समन्वय संख्या क्रमशः 10 तथा 12 होती है । B-डाइकीटोनेट (RCOCHCOR) ऋणायन लैन्थेनाइड आयनों के साथ क्रिया कर्के [Ln(B-डाइकीटोनेट) J , [Ln(3-डाइकीटोनेट)3L] [L=H2O, पिरिडीन आदि] तथा [Ln (B- डाइकीटोनेट),] प्रकार के संकुल बनाते हैं। ये संकुल अन्य सभी प्रकार के लैन्थेनाइड आयनों की तुलना में अधिक स्थायी होते हैं। EDTA+ ऋणायन भी सभी लैन्थेनाइड आयनों के साथ [Ln(EDTA). 3H2O]- संकुल ऋणायन बनाता है।

यद्यपि नाइट्रोज युक्त एकदन्तुक लिगण्ड लैन्थेनाइडों के साथ स्थायी संकुल नहीं बनाते परन्तु यदि लिगण्ड में दो नाइट्रोजन इस प्रकार स्थिति हों कि वे धातु आयन से जुड़कर कीलेट वयल (chelate ring) का निर्माण करें, अर्थात् यदि लिगण्ड द्विदन्तुक हों तो प्राप्त संकुल स्थायी होते हैं। उदाहरण के लिए, एथिलीनडाइऐमीन (en) लैन्थेनाइड आयनों के साथ ध्रुवीय कार्बनिक विलायकों में [Ln(en4) ]3+ संकुल धनायन बनाते हैं ।

(iii) +2 ऑक्सीकरण अवस्था : +2 ऑक्सीकरण अवस्था वाले लैन्थेनाइडों के कुछ संकुल केवल Smll, Eull तथा Ybll के लिए ज्ञात हैं। ये त्रिसंयोजकीय लैन्थेनाइड संकुलों के अपचयन से बनाये जाते हैं तथा बहुत अस्थाई होते हैं जिससे ये तेजी से वापिस ऑक्सीकृत हो जाते हैं। इन तीनों आयनों में Eu2+ आयन के संकुल अपेक्षाकृत अधिक स्थाई होते हैं।

 लैन्थेनाइड तत्वों का प्राप्ति स्थान (Occurrence) तथा पृथक्करण (Isolation) A. प्राप्ति स्थान (Occurrence)

लैन्थेनाइड तत्व अब दुर्लभ नहीं है, अपितु प्रकृति में बहुतायत से पाए जाते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार इनके एक सौ से अधिक तरह के खनिज ज्ञात हैं। चूँकि रासायनिक गुणों में लैन्थेनाइड काफी समान होते हैं, इसमें से अधिकांश तत्व एक ही खनिज में पाए जाते हैं। अतः ऐसा कोई खनिज ज्ञात नहीं है जिसमें केवल एक ही लैन्थेनाइड पाया जाता हो। हालांकि कुछ खनिज ऐसे भी हैं जिनके मुख्य अवयव तो लैन्थेनाइड ही होते हैं, पर उनमें से कुछ ही अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं ।

लैन्थेनाइड क्रियाशील तत्व हैं, अतः वे प्रकृति में स्वतंत्र रूप में नहीं पाए जाते हैं। मोनेजाइट सर्वाधिक मुख्य तथा महत्त्वपूर्ण खनिज है, जिसे इन तत्वों के व्यावसायिक निर्माण के काम में लिया जाता है। लैन्थेनाइड फॉस्फेंटों के अतिरिक्त इस खनिज में काफी मात्रा में थोरियम (ऑक्साइड के रूप में 4.9 से 30% तक), थोड़ी मात्रा में जर्कोनियम (सिलिकेट के रूप में), टाइटेनियम तथा आयरन (इलमेनाइट के रूप में) पाए जाते हैं। यह खनिज भारत, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, अमेरिका तथा दक्षिण अफ्रीका में मुख्य रूप से पाया जाता है। मोनाजाइट रेत में हल्के लैन्थेनाइड काफी मात्रा में पाए जाते हैं। इनमें लैन्थेनम, सीरियम, प्रेसिओडायमियम तथा निओंडायमियम कुल लैन्थेनाइडों का 90% भाग बनाते है। (i) सीराइट (cerite) (हाइड्रेटेड सिलिकेट जिसका संघटन M2 (Ca, Fe) Ce3 Si3 O13) है व (ii) ऑरथाइट (orthite) (हल्के लैन्थेनाइडों, ऐलुमिनेियम का द्विक सिलिकेट तथा कैल्सियम ऑक्साइड) इस प्रकार के अन्य मुख्य खनिज है जिनमें हलके लैन्थेनाइडों की प्रतिशत मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है।

गैडोलिनाइट (gadolinite) (मिश्रित बेसिक सिलिकेट) व जीनोटाइम (xenotime) (मोनेजाइट रेत का फॉस्फेट समरूप) भारी लैन्थेनाइड के मुख्य खनिज है ।

पृथक्करण :- लैन्थेनाइडों के गुणों में आपस में इतनी समानता होती है कि सभी तत्व प्रकृति में एक ही स्थान पर खनिज में पाये जाते हैं। खनिजों में इनकी प्रतिशतता के आधार पर खनिजों को दो भागों में बाँटा जा सकता है। (i) सीरियम वर्ग में सीरियम (58) से टर्बियम ( 65 ) तथा (ii) दूसरा वर्ग जिसे इट्रियम वर्ग कहते हैं, में Dy (66) से Lu (71) तक के

तत्व आते हैं। लैन्थेनाइडों के विभिन्न खनिजों में एक वर्ग के तत्व अधिक मात्रा में तथा दूसरे वर्ग के तत्व कम मात्रा में पाये जाते हैं ।

लैन्थेनाइडों के निष्कर्षण के लिए मुख्यतः मोनाजाइट (Monazite) खनिज को व्यावसायिक स्त्रोत के रूप में काम में लिया जाता है। मोनाजाइट खनिज लैन्थेनाइड फास्फेटों MPO4 का मिश्रण है जिसमें थोरियम 10% तथा जिर्कोनियम, लोहा व टाइटेनियम अल्प मात्रा में पाये जाते हैं। मोनाजाइंट खनिज से लैन्थेनाइडों का पृथक्करण निम्न पदों में पूर्ण होता है:

(1) सान्द्रण (Concentration) :- खनिज के सान्द्रण के लिए मुख्यतः भौतिक विधियाँ काम में ली जाती हैं। खनिज को पीसकर रेत जैसी हल्की अशुद्धियाँ गुरूत्वीय विधि द्वारा पृथक कर ली जाती हैं। इस विधि में पिसे हुए खनिज को जल की धारा के साथ प्रवाहित किया जाता है जिससे रेत आदि तो जल के साथ बह जाते हैं तथा भारी खनिज, जिनमें लैन्थेनाइड होते हैं, पीछे रह जाते हैं। अब लोह पदार्थो को चुम्बकीय विधि से पृथक कर लेते हैं।

(2) भंजन (Cracking):- सान्द्रित खनिज के भंजन के लिए पुरानी विधि आज भी उपयोगी है। इस विधि में खनिज का उच्च ताप पर सल्फ्युरिक अम्ल के साथ पाचन किया जाता है। प्राप्त ठोस पदार्थ का शीतल जल की सीमित मात्रा के साथ उपचार करने पर लैन्थेनाइडों के सल्फेट विलेय हो जाते हैं तथा अविलेय सिलिका, जिर्कोन आदि अलग कर दिये जाते हैं। विलयन को एक पूर्व निश्चित अम्लता तक तनु करने के पश्चात् थोरियम को पायरोफास्फेट के रूप में अवक्षेपित कर अलग कर लिया जाता है। शेष त्रिधनीय लैन्थेनाइड आयनों को तब पृथक्करण से पूर्व ऑक्सेलिक अम्ल द्वारा अवेक्षेपित कर प्राप्त किया जा सकता है। अवक्षेप में लैन्थेनाइडों के ऑक्सेलेट होते हैं जिसे सल्फ्यूरिक अम्ल में विलेय करके तनु जलीय विलयन में सोडियम सल्फेट विलयन डालते हैं जिससे लैन्थेनाइड उपर्युक्त दो वर्गों-हलके लैन्थेनाइड तथा भारी लैन्थेनाइड – में विभाजित हो जाते हैं। सीरियम वर्ग के लैन्थेनाइडों के द्विक सल्फेट सोडियम सल्फेट विलयन में अविलेय रहते हैं जबकि इट्रियम वर्ग के लैन्थेनाइड विलेय होते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को निम्न प्रवाह चित्र (flow chart) द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।

द्विक सल्फेटों को सोडियम हाइड्रॉक्साइड के साथ अभिक्रिया द्वारा ऑक्साइड या हाइड्रॉक्साइड में परिवर्तित कर लिया जाता है जो अम्लों में विलेय होते हैं। सामान्यतः सीरियम को पृथक् करने के लिए इसका चतुर्धनीय अवस्था में ऑक्सीकरण कर दिया जाता है।

लैन्थेनाइड तत्वों के गुणों में समानता के कारण मिश्रण से इनका पृथक्करण प्रारम्भ से ही जटिल से एक रही है। इसके भौतिक गुणों में बहुत कम अन्तर के कारण इन पर आधारित विधियाँ जैसे प्रभाजी क्रिस्टलन, प्रभाजी अवक्षेपण, अथवा लवणों का प्रभाजी तापीय विघटन लैन्थेनाइडों के पृथक्करण में विशेष सफल नहीं रहा है। अतः आयन विनिमय तथा विलायक निष्कर्षण जैसी सतत् विधियों के विकास से पूर्व केवल उन तत्वों का पृथक्करण ही संभव हो पाया था जो + 3 के अतिरिक्त + 4 अथवा + 2 ऑक्सीकरण अवस्था प्राप्त करने में सक्षम है। अधिक श्रमकारी तथा कम उपयोगी होने के कारण, भौतिक गुणों पर आधारित इन विधियों का लैन्थेनाइडों के पृथक्करण में उपयोग आजकल बहुत सीमित रह गया है। अतः हम इन विधियों का संक्षेप में तथा आधुनिक विधियों का थोड़ा विस्तार से वर्णन करेंगे-

(1) प्रभाजी क्रिस्टलन विधि (Fraction crystallization method) : लैन्येनाइड आयन इस प्रकार के द्विक लवण (double salt) बनाते हैं जिनकी विलेयता कक्षीय ताप पर कम होती है तथा तापक्रम बढाने के साथ-साथ परिवर्तित होती है। अतः भिन्न-भिन्न विलेयता के ये यौगिक विलयन से भिन्न-भिन्न तापक्रमों पर क्रिस्टलित होते हैं। यद्यपि प्रारम्भ में प्रभाजी क्रिस्टलन विधि सभी लैन्थेनाइड तत्वों के पृथक्करण में प्रयुक्त होती थी, परन्तु आजकल यह केवल कुछ तत्वों, विशेष रूप से लैन्थेनाइड श्रृंखला के आरम्भ व अन्त में स्थित तत्वों के पृथक्करण के लिए प्रयुक्त होती है। लैन्थेनाइडों के द्विक मैंगनीज नाइट्रेट, द्विक अमोनियम नाइट्रेट, द्विक ब्रोमेट अथवा एथिल सल्फेट लवण इस उद्देश्य के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं

(2) प्रभाजी अवक्षेपण विधि (Fractional precipitation method) : प्रभाजी अवक्षेपण से पृथक्करण की विधि लैन्थेनाइडों की क्षारकता अन्तर पर निर्भर करती है। तत्वों की क्षारकता बढ़ने से उनके लवणों की विलेयता बढ़ती है। लैन्थेनाइडों में लैन्थेनम से ल्यूटीसियम तक आयनिक त्रिज्या में होने वाले निरन्तर कमी के कारण क्षारकता भी कम होती जाती है। अतः लैन्थेनाइडों के लवणों उदाहरणार्थ, हाइड्रॉक्साइड, ऑक्सेलट, क्रोमेट, हेक्सासायनोफैरेट ( II अथवा III) की विलेयता लैन्थेनम से ल्युटीसियम तक घटती जाती है। अतः लैन्थेनाइड आयनों के मिश्रण में OH-, C2O42- , CrO42-, [Fe(CN)g]4 के विलयन को धीरे-धीरे मिलाने पर सबसे पहले भारी लैन्थेनाइडों के लवण अवक्षेपित होंगे उसके बाद हलके लैन्थेनाइडों के लवण क्रम से अवक्षेपित होते जायेंगे। चूंकि पड़ौसी लैन्थेनाइडों की क्षारकता, अतः उनके लवणों की विलेयता में बहुत कम अन्तर पाया जाता है, इस विधि से सही पृथक्करण संभव नहीं हैं।

(3) लवणों की प्रभाजी विघटन विधि (Fractional decomposition of salts method) : लैन्थेनाइडों के साधारण लवण जैसे कि नाइट्रेट, ऑक्सेलेट, ऐसीटेट, आदि गर्म करने पर ऑक्साइड अथवा ऑक्सीलवणों में विघटित हो जाते हैं- विघटन ताप लैन्थेनाइडों की क्षारकता पर निर्भर करते हैं। लैन्थेनाइडों की + 3 ऑक्सीकरण अवस्था से बने लवणों का विघटन तापक्रम क्षारकता कम करने पर कम होता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न तापक्रमों पर भिन्न-भिन्न धातुओं के ऑक्साइड अथवा ऑक्सीलवण प्राप्त किये जा सकते हैं।

(4) संकुल निर्माण विधि (Complex formation method) : लैन्थेनाइडों के + 3 ऑक्सीकरण अवस्था में बने संकुलों का स्थायित्व परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ-साथ बढ़ता जाता है। चूँकि अधि कि स्थायी संकुल आयनों की अभिक्रिया दर कम स्थायी संकुलों की तुलना में धीमी होती है, यदि लैन्थेनाइडों के संकुलों (उदाहरण के लिए EDTA संकुल) के विलयन में ऑक्सेलेट अथवा क्रोमेट ऋणायन मिलाया जाये तो सबसे पहले कम स्थायी संकुल बनाने वाले लैन्थेनाइड आयनों का ऑक्सलेट लवण अवक्षेपित होगा। इस प्रकार श्रृंखला के आरम्भ वाले लैन्थेनाइड पहले तथा अन्त में आने वाले तत्व बाद में अवक्षेपित होंगे ।

(5) ऑक्सीकरण एवं अपचयन विधि (Oxidation and redction method) : ऑक्सीकरण अवस्था परिवर्तन के साथ लैन्थेनाइडों की क्षारकता का तेजी से परिवर्तन होता है। यह देखा गया है कि ऑक्सीकरण अवस्था बढ़ने पर लवणों की जल में विलेयता कम हो जाती है। इस प्रकार, +3 की तुलना में + 4 अवस्था में लैन्थेनाइड आयनों के लवणों की जल में विलेयता कम होती है तथा + 2 आयनों के लवणों की विलेयता +3 आयनों की तुलना में काफी अधिक होती है। अतः +4 आयन बनाने वाले तत्वों को लैन्थेनाइड मिश्रण से ऑक्सीकरण द्वारा + 4 अवस्था में परिवर्तित करके तथा + 2 आयन बनाने वाले तत्वों को अपचयन द्वारा + 2 अवस्था में परिवर्तित करके अलग किया जा सकता है ।

(6) विलायक निष्कर्षण विधि (Solvent extraction method) : लैन्थेनाइड आयनों के संकुल कार्बनिक विलायकों मे विलेय होते हैं तथा संकुलन की प्रवृत्ति +4 आयनों में (अधिक आवेश घनत्व के कारण) अधिक होती है। तथा +2 आयनों में (कम आवेश घनत्व के कारण) कम होती है। +3 आयनों में यह प्रवृत्ति आयनिक त्रिज्या घटने (अतः आवेश घनत्व बढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जाती है। अतः लैन्थेनाइड आयनों के मिश्रण को दो आंशिक मिश्रणीय विलायकों, जैसे जल एवं कार्बनिक विलायक (ईथर, एल्कोहॉल आदि) में लेकर संकुलकर्मक मिलाकर निष्कर्षण करने पर कार्बनिक सतह में पहले +4 आयनों के संकुल, फिर +3 के सबसे भारी तत्वों के आयनों के संकुल तथा अन्त में +2 आयनों के संकुल प्राप्त होंगे। उदाहरण के लिए, लैन्थेनाइडों के मिश्रण के HNO3 में बने विलयन को केरोसीन में बने ट्राइब्युटिल फॉस्फेट विलयन मिलाकर निष्कर्षण करने पर मिश्रण में उपस्थित लैन्थेनाइड आयन पृथक किया जा सकते हैं क्योंकि लैन्थेनाइड आयन विलयन से निकलकर कार्बनिक जलीय विलयन ट्राईब्यूटिल फॉस्फेट में आ जाते हैं।

(7) आयन विनिमय विधि (Ion exchange method) : पहले भी लिखा जा चुका है कि आयन विनिमय तकनीक खोज से पूर्व लैन्थेनाइड आयनों का पृथक्करण अत्यधिक जटिल एवं मेहनत का कार्य था। आयन विनिमायक धनायन या ऋणायन युक्त ऐसे पदार्थ होते हैं जो किसी अन्य आयनिक पदार्थ के सम्पर्क में आने पर अपना आयन विलयन को देकर विलयन का समावेशित आयन स्वयं ले लेते हैं। आयन विनिमय तकनीक की खोज के पश्चात् पुरानी सभी तकनीकें, कुछ विशेष तत्वों के पृथक्करण (विशेष रूप से यूरोपियम) को छोड़कर, आजकल प्रयोग में नहीं ली जाती है । आयन विनिमय विधि मुख्यतः इस तथ्य पर आधारित है कि जब परमाणु आकार में निरन्तर कमी होती है तो उसके साथ-साथ उसकी क्षारकता अर्थात् उसके लिगण्डों से जुड़ने की प्रवृत्ति में भी वृद्धि होती हैं। स्पष्ट है कि लैन्थेनाइडों परमाणु क्रमांक बढ़ने से आकार में कमी तथा संकुलन की प्रवृत्ति बढ़ती है। इसका पहला प्रभाव जलयोजित आयन की त्रिज्या पर पड़ता है। परमाणु क्रमांक बढ़ने पर लैन्थेनाइड आयनों की संकुल बनाने की प्रवृत्ति में वृद्धि होने पर इसमें अधिकतम जल अणुओं से संकुलन की प्रवृत्ति पायी जायेगी जिससे जलयोजित आयन की त्रिज्या बढ़ती जायेगी। चूँकि विनिमायक की ऋणात्मक स्थल (negative site) पर धनायन विद्युताकर्षण बल से बन्धे होते हैं, स्पष्ट है कि बड़े आकार के आयन कम आकर्षण बल से तथा छोटे धनायन प्रबल आकर्षण बल से आयन विनिमायक से जुड़ेंगे। इसी प्रकार, जब इस विनिमायक मे संकुलनकर्मक मिलाया जायेगा तो सबसे पहले आयन विनिमायक से दुर्बल बलों से जुड़े आयन मुक्त होंगे। अतः जब लैन्थेनाइड आयनों के अम्लीय माध्यम से बने जलीय विलयन को धनायन विनिमायक (cation exchanger) में मिलाया जाता है तो सबसे छोटा लैन्थेनाइड आयन (Lu3+) जो कि सबसे बड़ा जलयोजित आयन बनाता है सबसे दुर्बलता से इस ऋणात्मक स्थल (negative site ) से जुडेगा। दूसरी ओर, सबसे बड़ा लैन्थेनाइड आयन (Ln3+ ) जो कि सबसे छोटा जलयोजित आयन बनाता है, सबसे अधिक प्रबल बन्ध से आयन विनिमायक से जुड़ेगा। अब जबकि स्तम्भ का किसी संकुलनकर्मक (complexation reagent) के साथ निक्षालन (elute) करते हैं तो सबसे दुर्बल बंध से आयन विनिमायक साथ जुड़ा आयन (Luth) सबसे पहले इसके साथ बन्ध बनाकर निक्षालित होगा। इस प्रकार ल्युटेशियम आयन का निक्षालन सबसे पहले तथा लैन्थेनम आयन का सबसे बाद होगा। इस प्रकार प्रत्येक लैन्थेनाइड को पृथक किया जा सकता है। निक्षालन में निम्न प्रकार का साम्य स्थापित होता है-

Ln3+ +3RM + R3Ln3+ + 3M+

यहाँ R आयन विनिमायक रेजिन तथा M+ वह धनायन है जो लैन्थेनाइड आयन के रेजिन से जुड़ने होता है अर्थात् जो Ln3+ आयन से विनिमय करता है। चित्र 4.5 में एक धनायन रेजिन द्वारा आयनों के पृथक्करण का निक्षालन वक्र (elution curve) दिया गया है।

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