पूर्ण उपादान उत्पादकता किसे कहते है ? टी एफ पी की परिभाषा क्या है total factor productivity in hindi

total factor productivity in hindi tfp definition meaning पूर्ण उपादान उत्पादकता किसे कहते है ? टी एफ पी की परिभाषा क्या है ?

पूर्ण उपादान उत्पादकता (टी एफ पी)
हमने ऊपर श्रम और पूँजी उत्पादकता की प्रवृत्तियों के बारे में चर्चा की। अब हम पूर्ण उपादान उत्पादकता में प्रवृत्तियों पर विचार करते हैं। तालिका 20.2 भारतीय उद्योग के लिए किए गए अनेक अध्ययनों से प्राप्त पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि-दर का अनुमान दर्शाती है।

1950 और 1960 के.दशकों में पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि
1950 और 1960 के दशकों में, भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि-दर अत्यंत ही कम थी (देखिए तालिका 20.2)। इस अवधि में पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि की औसत दर एक प्रतिशत से भी कम थी। कुछ अध्ययनों से इस अवधि में विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता में गिरावट का भी पता चलता है।

1950 और 1960 के दशकों में भारतीय विनिर्माण क्षेत्र की उत्पादकता कार्य-निष्पादन निम्नलिखित कारणों से खराब थी:
प) आयात नियंत्रण और घरेलू औद्योगिक लाइसेन्स पद्धति ने प्रतिस्पर्धा पर अंकुश लगा दिया; प्रतिस्पर्धा की कमी से कार्य अक्षमता को संरक्षण मिला तथा लागत में कमी के लिए प्रोत्साहन को खत्म कर दिया;
पप) विदेशी मुद्रा विनिमय और महत्त्वपूर्ण कच्चे मालों पर नियंत्रण, एकाधिकार को नियंत्रित करने की नीतियों से उद्योगों का विखंडन हुआ; इसने कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला;
पपप) सामान्य आर्थिक दशा (सामग्रियों और विद्युत की कमी, परिवहन संबंधी कठिनाइयाँ और कटु औद्योगिक संबंध) उत्पादकता वृद्धि के लिए अनुकूल नहीं थी।

1970 और 1980 के दशकों में पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि: एक विवाद
भारतीय उद्योग में 1970 और 1980 के दशकों में भारतीय उद्योग में पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि अत्यधिक विवाद का विषय रहा है। आहलूवालिया भारतीय उद्योग में 1965-66 से 1979-80 के दौरान पूर्ण उपादान उत्पादकता में गिरावट तथा 1980-81 से 1985-86 के दौरान पूर्ण उपादान उत्पादकता में तीव्र वृद्धि देखती हैं (देखिए तालिका 20.2)। वृद्धि-दर में – 0.3 से 3.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ोत्तरी हुई है। उन्होंने 1980 के दशक में उत्पादकता वृद्धि में देखे गए ‘‘आमूल पुनरुद्धार‘‘ का कारण आर्थिक नीतियों में उदारीकरण बताया है।
तालिका 20.2: भारतीय उद्योग में, 1951 से 1997-98 तक पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि
लेखक पद्धति अवधि टी एफ पी वृद्धि-दर
(प्रतिशत प्रतिवर्ष)
गोल्डार वी ए एस डी 1951 से 1965 1.27
1966 से 1970 0.51
1970 से 1980 0.42
आहलूवालिया वी ए एस डी 1959-60 से 1965-66 0.2
1965-66 से 1979-80 -0.3
1980-81 से 1985-86 3.4
बालाकृष्णन वी ए एस डी 1970-71 से 1980-81 -0.61
और पुष्पांगदन 1980-81 से 1988-89 2.39
वी ए एस डी 1970-71 से 1980-81 4.67
1980-81 से 1988-89 -0.11
राव वी ए एस डी 1973-74 से 1980-81 -0.2
1981-82 से 1992-93 2.1
वी ए एस डी 1973-74 से 1980-81 4.6
1981-82 से 1992-93 -0.2
जी ओ एफ 1973-74 से 1980-81 5.5
1981-82 से 1992-93 -2.2
त्रिवेदी इत्यादि वी ए एस डी 1973-74 से 1980-81 1.04
1980-81 से 1990-91 3.54
1990-91 से 1997-98 1.95
वी ए एस डी 1973-74 से 1980-81 1.99
1980-81 से 1990-91 7.35
1990-91 से 1997-98 3.70
जी ओ एफ 1973-74 से 1980-81 0.57
1980-81 से 1990-91 1.64
1990-91 से 1997-98 0.94

स्रोत: (1) बी.एन. गोल्डार, उद्धृत कृति में; (2) आई.जे. आहलूवालिया, उद्धृत कृति में; (3) पी. त्रिवेदी, इत्यादि; उद्धृत कृति में; (4) पी. बालाकृष्णन और के. पुष्पांगदन, ‘‘टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी ग्रोथ इन मैन्यूफैक्चरिंग इंडस्ट्री; ए फ्रेश लुक‘‘ इकनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली, 30 जुलाई, 1994; (5) जे. एम. राव ‘‘मैन्यूफैक्चरिंग प्रोडक्टिविटी ग्रोथ; ‘‘मेथड एण्ड मीजरमेंट‘‘ इकनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली, 2 नवम्बर, 1996।
नोट: वी ए एस डी = एकल अपस्फीती योजित मूल्य; वी ए डी डी = दोहरा अपस्फीत योजित मूल्य; जी ओ एफ = सकल निर्गत फलन अर्थात् श्रम पूँजी और सामग्रियों को आदान के रूप में लेकर तीन-आदान मॉडल और निर्गत के रूप में उत्पादन के सकल मूल्य पर आधारित ।

भारतीय उद्योग में 1980 के दशक में उत्पादकता वृद्धि में ‘‘आमूल पुनरुद्धार‘‘ के आहलूवालिया के निष्कर्षों को बालाकृष्णन और पुष्पांगदन द्वारा चुनौती दी गई है। उन्होंने वास्तविक योजित मूल्य की माप के लिए एकल अपस्फीति प्रक्रिया के उपयोग पर गंभीर प्रश्न उठाए हैं। एकल अपस्फीति योजित मूल्य के बदले में दोहरे अपस्फीति योजित मूल्य के उपयोग द्वारा, उन्होंने यह बतलाया है कि पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि में कोई ‘‘आमूल पुनरुद्धार‘‘ नहीं हुआ है (देखिए तालिका 20.2)।

आगे बढ़ने से पहले, मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि दोहरा अपस्फीति योजित मूल्य क्या है और यह एकल अपस्फीति योजित मूल्य से किस तरह से भिन्न है। एकल अपस्फीति योजित मूल्य का सामान्यतया उत्पादकता अध्ययनों में उपयोग किया गया है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत, योजित-मूल्य श्रेणी सीधे विनिर्मित उत्पादों के मूल्य सूचकांक से कम कर दी जाती है। दोहरा अपस्फीति योजित मूल्य प्राप्त करने के लिए, हम उत्पादन का मूल्य और सामग्रियों का मूल्य अलग-अलग कम करते हैं (ऊर्जा आदान सहित)। विनिर्मित उत्पादों के मूल्य सूचकांक द्वारा उत्पादन का मूल्य कम कर दिया जाता है। सामग्रियों के उपयुक्त मूल्य सूचकांक द्वारा सामग्रियों का मूल्य कम कर दिया जाता है। तब, वास्तविक योजित मूल्य निकालने के लिए उत्पादन के वास्तविक मूल्य में से सामग्रियों का वास्तविक मूल्य घटा दिया जाता है।

1970 के दशक में, सामग्रियों के मूल्य सूचकांक में विनिर्मित वस्तुओं के मूल्य सूचकांक की तुलना में तेजी से वृद्धि हुई। 1980 के दशक में, स्थिति इसके विपरीत थी। सामग्रियों के मूल्य में उत्पाद मूल्यों की तुलना में धीमी वृद्धि हुई। वैसी स्थिति में एकल-अपस्फीति योजित मूल्य का उपयोग अनुपयुक्त है क्योंकि यह उत्पादन में वृद्धि का सही-सही माप नहीं करता है। दोहरी अपस्फीति योजित मूल्य पद्धति अपेक्षाकृत अच्छी है। किंतु, सकल निर्गत फलनय जो श्रम, पूँजी और सामग्रियों को तीन आदान के रूप में और उत्पादन के सकल मूल्य को निर्गत के रूप में लेता है, उपयोग के लिए सर्वोत्तम पद्धति है।

राव, द्वारा किए गए अध्ययनों के निष्कर्ष (देखिए तालिका 20.2), बालाकृष्णन और पुष्पांगदन के निष्कर्षों की पुष्टि करते हैं। ये दोनों अध्ययन यह दिखलाते हैं कि 1970 के दशक में भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई थी और 1980 के दशक में पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि में गिरावट आ गई।

 उत्पादकता वृद्धि अंतर-उद्योग विवाद के समाधान की ओर
त्रिवेदी, प्रकाश और सिनेट द्वारा हाल ही में किए गए उत्पादकता अध्ययन में प्रस्तुत पूर्ण उपादान उत्पादकता अनुमान से पता चलता है कि 1970 के दशक में भारतीय उद्योग में पूर्ण उपादान उत्पादकता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई थी, और 1980 के दशक में तीव्रतर वृद्धि हुई (देखिए तालिका 20.2)। पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि में, एकल अपस्फीति प्रक्रिया अथवा दोहरा अपस्फीति प्रक्रिया अथवा सकल निर्गत फलन चाहे जिस किसी भी पद्धति का उपयोग किया गया हो, समान स्वरूप दिखाई पड़ता है। औद्योगिक उत्पादकता के संबंध में हाल ही में किए गए कुछ अन्य शोधों में भी यह पाया गया है कि 1980 के दशक में भारतीय उद्योग में पूर्ण उपादान उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।

इस प्रकार विभिन्न अध्ययनों में लगाए गए पूर्ण उपादान उत्पादकता अनुमानों से कुल मिलाकर हम यह इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि 1970 और 1980 के दोनों दशकों में विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता में भारी वृद्धि हुई। वृद्धि-दर संभवतया 1980 के दशक की तुलना में अधिक तीव्र थी।

 1990 के दशक में पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि

जैसा कि आप भलीभाँति जानते हैं, 1991 के बाद आर्थिक सुधारों के नाम से औद्योगिक और व्यापार नीतियों में महत्त्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले परिवर्तन किए गए हैं। इन नीतिगत सुधारों का उद्देश्य भारतीय उद्योग को अधिक कार्यकुशल, प्रौद्योगिकीय रूप से आधुनिक और प्रतिस्पर्धी बनाना था।

क्या आर्थिक सुधारों के परिणामस्वरूप भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में उत्पादकता में तीव्र वृद्धि हुई? इसका उत्तर है, नहीं। जैसा कि तालिका 20.2 में दिखाया गया है, त्रिवेदी, प्रकाश और सिनेट के उत्पादकता अनुमानों से पता चलता है कि विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि-दर में 1990 के दशक में गिरावट (वृद्धि होने की अपेक्षा) आई है। हाल ही में किए गए कुछ अन्य अध्ययनों से भी पता चलता है कि 1990 के दशक में भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि-दर में गिरावट आई है।

1990 के दशक में जब बड़े पैमाने पर आर्थिक सुधार किए गए तो भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता में वृद्धि की गति धीमी क्यों हुई? इसका उत्तर अभी तक नहीं मिला है। किंतु, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है जिसकी जाँच करने की आवश्यकता है। उत्पादकता वृद्धि की गति मंद पड़ने के दो संभावित कारण हैंः

प) आयात से प्रतिबंध हटाने के बाद कुछ उद्योगों को कड़ी आयात प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। इससे क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं हो सका और फलतः उत्पादकता में गिरावट आई।
पप) औद्योगिक सुधारों के फलस्वरूप निवेश संबंधी गतिविधियाँ बढ़ गई। इसका उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा होगा क्योंकि निवेश के तत्काल बाद उत्पादन में वृद्धि नहीं होती है। (इसका कारण उत्पादन पूर्व अवधि या परिपक्वता अवधि होती है)।

हालाँकि, यह उल्लेखनीय है कि ये अल्पकालिक प्रभाव होते हैं। चूंकि भारतीय उद्योग आयात प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए पुनःसंरचना कर रहे हैं तथा आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया के और आगे बढ़ने पर उत्पादकता वृद्धि भी बढ़ेगी।

बोध प्रश्न 3
1) रिक्त स्थानों की पूर्ति करें:
1950 और 1960 के दशकों में भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि की औसत दर बहुत …………………. (अधिक/कम) थी। 1970 और 1980 के दशक में पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि-दर में …………………(वृद्धि/कमी) हुई सुधार पश्चात् अवधि 1990 के दशक में, पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि-दर में …………. (वृद्धि/कमी) हुई है।
2) 1950 और 1960 के दशक में भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता की निम्न, वृद्धि-दर के किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
3) दो अध्ययनकर्ताओं के नाम बताइए, जिन्होंने 1970 के दशक की तुलना में 1980 के दशक में भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि-दर में महत्त्वपूर्ण सुधार संबंधी निष्कर्ष निकाला है।
4) 1990 के दशक के दौरान भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि की गति मंद होने के दो संभावित कारण बताएँ।

 उत्पादकता वृद्धि में अंतर-उद्योग विविधता

समुच्चय स्तर पर उत्पादकता वृद्धि पर चर्चा करने के बाद, अब हम उद्योग-वार उत्पादकता वृद्धि कार्य निष्पादन पर चर्चा करेंगे। तालिका 20.3 में 1959-60 से 1985-86 तक की अवधि में 30 महत्त्वपूर्ण उद्योगों की उत्पादकता वृद्धि-दरों को दर्शाया गया है।

उत्पादकता वृद्धि-दरों में अंतर
तालिका 20.3 में आप देखेंगे कि विभिन्न उद्योगों में भी उत्पादकता वृद्धि-दर में अत्यधिक अंतर है। वर्ष 1959-60 से 1985-86 की अवधि के दौरान समुच्चय विनिर्माण स्तर पर पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि-दर 0.4 प्रतिशत वार्षिक थी। किंतु, कई उद्योगों में, गिरावट की दर 2 प्रतिशत प्रतिवर्ष से अधिक थी। इन उद्योगों में चीनी, खांडसारी और गुड़, तम्बाकू उत्पाद, अलौह धातुएँ, पेट्रोलियम और कोयला उत्पाद, टायर और ट्यूब, बोल्ट, नट्स, कील और हाथ के औजार (हैंडटूल्स), तथा रंजक द्रव्य और पेंट सम्मिलित हैं। दूसरी ओर, कई उद्योगों में पूर्ण उपादान उत्पादकता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई थी। पूर्ण उपादान उत्पादकता की वृद्धि-दर दो प्रतिशत प्रतिवर्ष से भी अधिक हो गई। इन उद्योगों में विद्युत उत्पादन उपकरण, बॉयलर और आंतरिक दहन इंजिन, दूरसंचार-उपकरण तथा मोटर साइकिल और बाईसाइकिल सम्मिलित हैं।

तालिका 20.3: 1959-60 से 1985-86 के दौरान चयनित विनिर्माण उद्योगों में उत्पादकता वृद्धि
क्रम सं. विवरण वृद्धि-दर (प्रतिवर्ष प्रतिशत में)
वास्तविक
योजित मूल्य टी एफ
पी श्रम
उत्पादकता पूँजी
उत्पादकता

सूती वस्त्र
लोहा और इस्पात
चीनी को छोड़कर खाद्य उत्पाद
चीनी, खांडसारी और गुड
भारी वाहन और मोटरकार
जूट वस्त्र
पेपर और न्यूजप्रिण्ट
(कागज और अखबारी कागज)
उर्वरक और कीटनाशक
रेलवे उपकरण
मुद्रण और प्रकाशन
तम्बाकू उत्पाद
विद्युत उत्पादन उपकरण
अलौह धातुएँ
कृत्रिम रेशम
भारी रसायन .
पेट्रोलियम और कोयला उत्पाद
मानव निर्मित रेशे और
सिन्थेटिक रेसिन
सीमेण्ट
मशीनों के आम मदें
निर्दिष्ट उद्योगों के लिए मशीनें
टायर और ट्यूब
बॉयलर और आतंरिक
दहन इंजन
बोल्ट, नट, कील और
हाथ के औजार (हैंड टूल्स)
रंजक द्रव्य और पेंट
दूरसंचार-उपकरण
विद्युत केबुल और तारें
साबुन, ग्लिसरीन और
परफ्यूम
बीवरेज (शीतल पेय)
मोटर साइकिल और
बाइसाइकिल
कुल विनिर्माण 2.0
3.4
2.7
4.0
7.3
0.6
5.9

13.1
2.9
3.8
2.4
10.7
0.4
10.0
8.9
5.2
10.4

5.1
10.5
5.5
4.9
8.1

2.9

4.7
10.7
6.9
7.1

8.8
10.1

5.3 0.2
-1.6
-1.9
-2.3
-0.9
0.1
-0.7

13.2
1.3
0.9
-3.1
4.3
-7.3
0.7
-1.7
-3.7
0.4

-0.5
1.2
-0.5
-3.8
2.4

-2.1

-2.9
3.5
0.1
-1.2

-0.2
2.1

-0.4 1.9
0.1
0.1
-2.3
1.3
0.8
1.5

6.3
2.6
2.8
-2.0
6.1
-3.0
3.3
1.0
-2.7
2.2

1.3
5.3
2.6
-1.2
5.1

0.1

-0.6
5.9
2.3
1.7

1.2
3.8

2.2 -3.0
-2.8
-2.9
-2.1
-2.4
-2.4
-2.0

-1.0
-3.8
-2.1
-4.0
2.6
-9.3
-0.6
-2.7
-2.7
-0.3

-1.4
-2.1
-3.7
-5.0
0.3

-4.0

-3.7
0.8
-1.0
-2.5

-0.7
0.5

-2.5
स्रोत: आई.जे. आहलूवालिया, प्रोडक्टिविटी एण्ड ग्रोथ इन इंडियन मैन्यूफैक्चरिंग, दिल्लीय ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी
प्रेस, 19911

ठीक इसी प्रकार श्रम उत्पादकता और पूँजी उत्पादकता की वृद्धि-दरों में व्यापक अंतर-उद्योग भिन्नता है। वर्ष 1959-60 से 1985-86 के दौरान, उर्वरक और कीटनाशक, विद्युत उत्पादन उपकरणों, मशीनों के सामान्य मदों, बॉयलर और आतंरिक दहन इंजन और दूर संचार उपकरण में श्रम उत्पादकता की वार्षिक वृद्धि-दर पाँच प्रतिशत से अधिक थी। दूसरी ओर, चीनी, खांडसारी और गुड़, तम्बाकू उत्पाद, अलौह धातुओं तथा पेट्रोलियम और कोयला उत्पादों में श्रम उत्पादकता में प्रतिवर्ष दो प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गई।

आप तालिका 20.3 में पाएँगे कि पूर्ण उपादान उत्पादन का अंतर-उद्योग वृद्धि ढाँचा श्रम उत्पादकता और पूँजी उत्पादकता के ही समान है। पूर्ण उपादान उत्पादकता वृद्धि और श्रम उत्पादकता वृद्धि में सह-संबंध गुणांक 0.92 प्रतिशत है। श्रम उत्पादकता वृद्धि और पूँजी उत्पादकता वृद्धि में सह-संबंध गुणांक 0.76 प्रतिशत है।

इन उच्च सह-संबंध गुणांकों का अभिप्राय क्या है? इसका अर्थ यह है कि जिन उद्योगों का श्रम उत्पादकता वृद्धि के मामले में कार्य निष्पादन अच्छा है उनका पूँजी उत्पादकता और पूर्ण उपादान उत्पादकता में भी सामान्यतया कार्य निष्पादन अच्छा रहता है।

यहाँ पर यह जानना आवश्यक है कि आहलूवालिया के पूर्ण उपादान उत्पादकता अनुमानों जो कि तालिका 20.3 में दिखाए गए हैं, पर कई प्रश्न उठाए गए हैं। यह अनुमान एकल अपस्फीति योजित मूल्य पर आधारित है जिसकी सर्व-विदित सीमाएँ हैं तो भी इन अनुमानों का प्रयोग यहाँ पर इसलिए किया गया है क्योंकि आहलूवालिया की पुस्तक मशहूर है और उसके बाद इस तरह की कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है जिसमें कि बहुत सारे भारतीय उद्योगों के उत्पादकता वृद्धि अनुमान प्रस्तुत किए गए हों।

बोध प्रश्नों के उत्तर अथवा संकेत

बोध प्रश्न 3
1) क्रमशः कम; वृद्धि; कमी;
2) उपभाग 20.3.1 देखें।
3) आहलूवालिया; त्रिवेदी, प्रकाश और सिनेट
4) उपभाग 20.3.4 देखें।