तेलंगाना किसान आन्दोलन कब हुआ | तेलंगाना कृषक आन्दोलन के नेता कौन थे नेतृत्व telangana farmers movement in hindi

telangana farmers movement in hindi तेलंगाना किसान आन्दोलन कब हुआ | तेलंगाना कृषक आन्दोलन के नेता कौन थे नेतृत्व किसने किया था ?

बोध प्रश्न 2
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
प्रश्न:  1) औपनिवेशिक काल में कृषकों का किस प्रकार शोषण किया गया?
प्रश्न:  2) तेलंगाना आन्दोलन क्या था?
प्रश्न:  3) नक्सलवादी आन्दोलन पर टिप्पणी करें।

बोध प्रश्न 2 उत्तर
उत्तर : 1) वे एक वर्ग-समूह द्वारा शोषित किए गए, उदाहरणार्थ, जमींदारों व उनके एजेण्टों, साहूकारों और औपनिवेशिक राज्य के अधिकारियों द्वारा । जमींदार किसानों पर लगान बढ़ाते ही रहते थे, बलात् उपहार लेते थे और उनसे बेगार वसूलते थे। लगान चुकाने और अपने भरण-पोषण की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वे साहूकारों के भारी कर्ज से दबे रहते थे। जब किसान लगान, सेवाएँ अथवा बेगार नहीं चुका पाते थे, उनको जमीन से बेदखल कर दिया जाता था। उनको शारीरिक रूप से भी उत्पीड़ित किया जाता था।
उत्तर : 2) 1946 में, निजाम शासित हैदराबाद के राजसी राज्य में तेलंगाना आन्दोलन शुरू हुआ। यह आन्दोलन जागीरदारों द्वारा बलात् अत्यधिक लगान वसूली के खिलाफ एक विरोध-प्रदर्शन के रूप में शुरू हुआ। आरम्भ में नेतृत्व धनी किसानों के हाथों में था और निजामशाही से सम्बद्ध बड़े दूरवासी जमींदारों के विरुद्ध दिशानिर्देशित था। लेकिन बहुत जल्दी ही पहल शक्ति गरीब किसानों व कृषिक मजदूरों के हाथों में चली गई जिन्होंने जमींदारों की जमीनें, बंजर भूमियों घेरना और उसे अपने बीच बाँट लेना शुरू कर दिया। 1947 आते-आते इस आन्दोलन ने उन गरीब किसानों और कृषिक मजदूरों को लामबंद कर एक गुरिल्ला सेना गठित की जिनमें अनेक लोग जनजातीय और अछूत थे। इस सेना ने जमींदारों से भारी मात्रा में हथियार छीन लिए और स्थानीय सरकारी अधिकारियों को भगा दिया। उन्होंने 40,000 की आबादी वाले एक 15,000 वर्ग मील क्षेत्र पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इन क्षेत्रों में प्रशासन कृषक सोवियतों द्वारा चलाया जाता था। 1951 में स्वतंत्र भारत की सेना तेलंगाना आन्दोलन को कुचलने में कामयाब हो गई।
3) नक्सलबाड़ी आन्दोलन उत्तरी बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में जन्मा। यह जमींदारों और राज्य-अभिकर्ताओं के विरुद्ध दिशानिर्देशित था। यह आन्दोलन हिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था। यह आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार जैसे अन्य राज्यों में फैला हुआ था।

बोध प्रश्न 3
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) मुख्य किसान संगठनों की उनके मुख्य नेताओं व उनके संचलन क्षेत्रों के साथ पहचान करें।
2) धनी कृषक आन्दोलनों की मुख्य माँगें क्या हैं?
3) कर्मचारियों पर ‘नई आर्थिक नीति‘ का क्या प्रभाव पड़ा है?

 बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 3
1) ये हैं – पंजाब और उत्तरप्रदेश में दो भारतीय किसान यूनियनें (बी.के.यू.) क्रमशः भूपेन्दर सिंह मान और महेन्द्रसिंह टिकैत के नेतृत्व मेंय शरद जोशी के नेतृत्व में महाराष्ट्र में शेतकारी संगठनय प्रो. नन्दुजप्पा स्वामी के नेतृत्व में कर्नाटक में कर्नाटक राज्य रैथ संघय गुजरात में खाद्युत समाजय और तमिलनाडु में विवसायिगल संगम ।
2) उनकी मुख्य माँगें रही हैं – लाभपरक मूल्य, मूल्यपूरित निवेश, ऋणों को माफ करना, बिजली का बिल घटाना, नहर-शुल्क में वास्तविक कमी, कृषि मूल्य आयोग में किसानों का प्रतिनिधित्व। महाराष्ट्र के अपवाद के साथ, इन आन्दोलनों ने छोटे उत्पादकों की समस्याएँ नहीं उठाईं। बल्कि, टिकैत ने भूमि अधिसीमन कानूनों और न्यूनतम वेतन अधिनियम को निरस्त कर देने की माँग की।
3) श्रमिकों पर ‘नई आर्थिक नीति‘ का प्रभाव इस प्रकार से प्रतिबिम्बित होता है – उनकी भौतिक दशाओं में गिरावट, निजीकरण, छंटनी और स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति योजना, आदि।

 सारांश
इस इकाई में अपने भारत में कामगारों व किसानों की सामूहिक कार्यवाहियों अथवा सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलनों के बारे में पढ़ा। ये समूह अपनी शिकायतों के निवारणार्थ उपनिवेश काल से आन्दोलन करते रहे हैं। उन्होंने अपने संगठन बनाए और अपने नेतृत्व के आह्वान का प्रत्युत्तर दिया । कामगारों की समस्याओं में मुख्यतः शामिल थीं – वेतन, बोनस, कार्मिक (विभाग), अवकाश तथा कार्य के घण्टे, हिंसा व अनुशासनहीनता, औद्योगिक तथा श्रम नीतियाँ, आदि किसान कोई सजातीय वर्ग नहीं हैं। गरीब और छोटे किसान अपनी नाजुक सामाजिक व आर्थिक दशाओं से ताल्लुक रखते हैं। वे कृषक जिनको धनी किसान, कुलक अथवा पूँजीपति कृषक भी कहा जाता है, विकसित व वाणिज्यीकृत कृषि से संबंधित विषयों के इर्दगिर्द लामबन्द हैं । सत्तर के दशकोपरांत उन कामगारों व किसानों के संगठनों का उदय देखा गया जो किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं थे। ये कृषक और किसान आन्दोलन एक महत्त्वपूर्ण सीमा तक भारत में राजनीतिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
ओम्वेट्ट, गेल, री-इन्वेंटिंग रिवलूशन: न्यू सोशल मूवमेण्ट्स एण्ड द सोशलिस्ट ट्रेडीशन इन् इण्डिया, एम.ई. शप्रे, आर्मोक, 1993।
बर्च, बरबरो (सं.), क्लास, स्टेट एण्ड डिवेलपमेण्ट इन इण्डिया, सेज पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 1992।
वर्धन, प्रणव (सं.), पॅलिटिकल इकॉनमी ऑव डिवेलपमेण्ट इन इण्डिया, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1998।
सिंह, जगपाल, कैपिटलिज्म एण्ड डिपेण्डेन्स: एग्रेरियन पॉलिटिक्स इन् वेस्टर्न उत्तर प्रदेश (1951-1991), अध्याय-ट, मनोहर, नई दिल्ली, 1992 ।
शाह, घनश्याम (सं.), सोशल मूवमेण्ट्स इन्, इण्डिया: ए रिव्यू ऑव लिटरेचर, सेज पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 1990।
हसन, जोया (सं.), पॉलिटिक्स एण्ड स्टेट इन इण्डिया, सेज पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2000।