गठबंधन सरकार किसे कहते हैं | विशेषताएं क्या है गठबंधन सरकार के गुण और दोष के बारे में coalition government in hindi

coalition government in hindi गठबंधन सरकार किसे कहते हैं | विशेषताएं क्या है गठबंधन सरकार के गुण और दोष के बारे में बताइए ?

बोध प्रश्न 1
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) गठबंधन का अर्थ संक्षेप में स्पष्ट करें।
2) गठबंधन राजनीति के विभिन्न प्रकारों को स्पष्ट करें।

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) गठबंधन का अर्थ है – पार्टियों का एक संघ। राजनीतिक संदर्भ में गठबंधन सरकार बनाने हेतु राजनीतिक ताकतों के किसी गठजोड़ अथवा अस्थायी संघ को इंगित करता है।
2) तीन प्रकार के गठबंधन होते हैं – संसदीय, चुनावी तथा सरकार-संबंधी। संसदीय गठबंधन तब किया जाता है जब सरकार बनाने हेतु किसी भी एक दल के पास बहुमत नहीं होता। चुनावी गठबंधन तब किया जाता है जब दो या दो से अधिक राजनीतिक दल प्रत्याशियों के नाम वापस लेने के लिए परस्पर सहमत हो जाते हैं ताकि अपने उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहाँ वे मजबूत स्थिति में हैं, उनके वोट न करें। तीसरे प्रकार का गठबंधन तब किया जाता है जब किसी देश में राष्ट्रीय आपास्थिति में राजनीतिक दल सरकार बनाते हैं। ऐसे मामले में पार्टियाँ एक सर्वमान्य राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए अपने मतभेद भुलाने हेतु कठोर प्रयास करती हैं।

 केन्द्र में गठबंधन सरकार का उद्गमन (1977-1979)
गठबन्धन राजनीति के उद्भव में तीसरा चरण 1977 के संसदीय तथा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार से संकेतित था। पार्टी में राजनीति के जनवादी, दफ्तरशाह और सत्तावादी तरीके के पदार्पण ने कांग्रेस सरकार द्वारा थोगी गई आपास्थिति की ओर प्रवृत्त किया। आपास्थिति और विपक्षी दलों का एक जल्दबाजी में जुटा गठजोड़, दोनों ही मुख्य कारक थे जो केन्द्रीय व राज्य, दोनों स्तरों पर कांग्रेस की चुनावी पराजय हेतु उत्तरदायी थे।

चार विपक्षी दलों – कांग्रेस (पु.), जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी. का विलय कर ‘जनता पार्टी‘ बनाई गई। जनता पार्टी ने बाद में, 1977 का आम चुनाव लड़ने के लिए एक परस्पर मान्यं चुनाव-चिह्न लेकर तथा प्रतिस्पर्धी प्रत्याशियों की एक ही सूची बनाकर अकाली दल जैसे क्षेत्रीय स्तर के विपक्षी दलों के साथ गठजोड़ कर लिया।

मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार अपने पूरे कार्यकाल नहीं चल सकी क्योंकि पार्टी के भीतर संघटक गुटों ने अपने वे वैचारिक मतभेद बनाए रखे जो उनके विलय-पूर्व दिनों की विरासत थे। आपास्थिति के दौरान लेकर चले गए जुड़वाँ उद्देश्यों को पूरा करते हुए एक बाद गठबन्धन सरकार बनायी गई और संशोधक अधिनियम पारित किए गए – इसके नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं को पार्टी में फूट का सामना करना पड़ा और 1979 में सरकार गिर गई।

दलबदल – भारतीय राजनीति के बाजारीकरण की उपज, का पदार्पण 1967 के चुनावों से हुआ । जनता पार्टी से दलबदल ने वाम दलों तथा कांग्रेस का बाहरी समर्थन लेकर लोकदल तथा कांग्रेस (एस.) की चरणसिंह के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के गठन की ओर प्रवृत्त किया। इस गठबंधनात्मक प्रबंध से फिर वैचारिक विसंगति का संकेत मिला और कोई कौतुक नहीं कि जैसे ही कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस लिया, अपने बनने के तीन सप्ताह में ही सरकार गिर गई।

बोध प्रश्न 3
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें ।
1) भारत में एक-दल प्रभुत्व प्रणाली के दौरान राजनीति की गठबंधन प्रकृति को स्पष्ट करें।
2) 1967 के विधानसभा चुनावों के उपरांत उन गठबंधन सरकारों की प्रकृति क्या थी जो राज्यों में बनाई गई?
3) जनता गठबंधन सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा क्यों नहीं किया?

बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) इस चरण में कांग्रेस ही केन्द्र व राज्यों, दोनों जगह प्रभुत्वसम्पन्न पार्टी थी उस काल के गठबंधन की प्रवृत्ति कांग्रेस के आलोक में समझायी जा सकती है। रजनी कोठारी के अनुसार, यह बहुवाद, उपकारिता तथा सौदेबाजी पर आधारित सहमतिजन्य थी।

2) इस काल में, नौ राज्यों में गैर-कांग्रेसी गठबंधन सरकारों का गठजोड़ संघटन देखा गया। कांग्रेस प्रणाली के गठजोड़ से भिन्न, इस प्रकार का गठबंधन अपसारी विचारधाराओं तथा समर्थनाधार वाले दलों बनाया गया था।
3) निम्नलिखित कारणों से जनता गठबंधन ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया –
अ) गठबंधन सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद थे, और
ब) घटक दलों के नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण।

 गठबंधन राजनीति का पतन (1980-1989)
जनता गठबंधन सरकार द्वारा उसके कार्यकाल पूरा करने में असफलता के रूप में गठबन्धन प्रयोग की विफलता ने 1978 की फूट से उबरती कांग्रेस को एक अवसर दिया कि वह 1980 के चुनावों में इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में सत्ता हासिल करे। कांग्रेस ने 1984 के आम चुनावों में भी एक महाकाय जीत हासिल की। इस प्रकार, दशक भर के लिए केन्द्र में गठबन्धन राजनीति का पटाक्षेप हो गया। राज्य स्तर पर, बहरहाल, गठबन्धन राजनीति जारी रही। कांग्रेस ने, उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर में नैशनल कान्फ्रेंस के साथ और तमिलनाडु में 1980 में द्र.मु.क. तथा 1984 के चुनावों में अन्ना-द्र.मु.क. के साथ गठजोड़ किया। इस अवधि के दौरान केरल, त्रिपुरा एवं पश्चिम बंगाल राज्यों में वाम दलों के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकारें बनाई गईं।

यही वह काल था जब भावी गठबन्धन राजनीति के बीज अंकुरित हुए। जनमत्य चुनावों में अपनी चुनावी विजयों के बावजूद कांग्रेस अपना सैद्धांतिक व संस्थागत आधार निरन्तर खोती जा रही थी। लगता था कि वह लोकतांत्रिक रूप से जाग्रत उन ग्रामीण सामाजिक समूहों की मांगों व आकांक्षाओं का समुचित उत्तर देने में असमर्थ थी जो अपनी चुनावी शक्ति के महत्त्व के प्रति उत्तरोत्तर जागरूक होते जा रहे थे। इसके अतिरिक्त, कांग्रेस में सत्ता के अति-केन्द्रीकरण ने केन्द्र-राज्य तनावों के उच्चीकृत स्तर की ओर प्रवृत्त किया।

भारतीय राजनीति के ग्राम्यकरण और क्षेत्रीयकरण ने उन क्षेत्रीय दलों के उद्गमन की और प्रवृत्त किया जिनको संख्यात्मक रूप से सशक्त और आर्थिक रूप से शक्तिशाली धनी कृषक जातियों द्वारा समर्थन प्राप्त था। आन्ध्र प्रदेश में तेलुगु देशम, पंजाब में अकाली दल तथा असम में अ.ग.प. उन क्षेत्रीय दलों में से थे जिन्होंने राजनीतिक दलों के बीच एक सर्वसुलभ प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित की और विभिन्न समूह आदि में झुकाव के हेर-फेर को बढ़ावा दिया। इन सभी कारकों ने राज्य स्तर पर कांग्रेसी प्रभुत्व की समाप्ति हेतु राह गढ़ी।

राज्यों में एक चीज तेजी से उभरी. वह थी द्वि-ध्रुवीकरण, क्योंकि क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कांग्रेस भी अभी तक दलीय प्रणाली पर चुप्पी साधे थी। ऐसा इस कारण था कि कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर के किसी भी अन्य दल की अपेक्षा अधिक जनाधार निरन्तर प्राप्त था और इस कारण भी कि यही वह अभ्यन्तर था जिसके इर्द-गिर्द दलीय प्रणाली रची गई थी। राज्य स्तर पर इस द्वि-ध्रुवीयता ने, फिर भी, इस द्वि-ध्रुवीयता को राष्ट्रीय स्तर पर नहीं पहुँचाया, जो 1989 के आम चुनावों से प्रकट हुआ।

 गठबंधन सरकारें और गठबंधन राजनीति (1989 से)
1989 के चुनावों की ओर बढ़ते हुए एक अन्य जल्दबाजी में जुटा गठबंधन ‘जनता दल‘ के रूप में साकारं हुआ जो जनता पार्टी, लोकदल (ए), लोक दल (बी) जैसी अनेक पार्टियों के विलय के फलस्वरूप अस्तित्व में आया । जनता दल ने बाद में द्र.मु.क., कांग्रेस (एस.) अ.ग.प.. भा.क.पा., मा. क.पा. व अन्य छोटी क्षेत्रीय पार्टियों से चुनावी गठजोड़ कर लिया। यह चुनावी गठजोड़ ‘राष्ट्रीय मोर्चा‘ पुकारा जाने लगा जिसने 1989 के संसदीय चुनावों में सीटों के बँटवारे पर भा.ज.पा. के साथ समझौता कर लिया। चूँकि कांग्रेस व उसके सहयोगी दलों ने सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया, जनता दल के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय मोर्चा को ही राष्ट्रपति द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा की गठबंधन सरकार को भा.ज.पा. तथा वाम दलों द्वारा बाहर से ही समर्थन दिया गया, वे सरकार में शामिल नहीं हुए।

राष्ट्रीय मोर्चा की अल्पमत सरकार केन्द्र में पहली वास्तविक गठबंधन सरकार थी क्योंकि जनता सरकार एक प्रतिनिधि ‘गठबंधन सरकार‘ थी और चरणसिंह के नेतृत्व वाली लोकदल तथा कांग्रेस (एस.) की गठबंधन सरकार लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने से पहले ही गिर गई।

राष्ट्रीय मोर्चा सरकार व्यापक स्तर पर लोकतांत्रिक सत्ता-बाँट पर आधारित, एक दृढ़ सहमतिजन्य राज्याधार देने में असफल रही। हरियाणा जनता दल सरकार में नेतृत्व परिवर्तन के कारण इसको आन्तरिक संकट का सामना करना पड़ा। बाहरी संकट ‘अयोध्या‘ मुद्दे पर भा.ज.पा. के साथ मतभेद से पैदा हुआ। जनता दल के भीतर नेतृत्व हेतु गहन प्रतिस्पर्धा ने जनता दल में फूट को प्रवृत्त किया। भा.ज.पा. द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बाद लोकसभा में विश्वास-मत हासिल करने में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार द्वारा असफल रहने के उपरांत कांग्रेस द्वारा बाहर से समर्थन पाकर, नव-गठित जनता दल (शेखर) ने चन्द्रशेखर के नेतृत्व वाली एक अल्पमत सरकार बना ली। 1991 में जब कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया, जनता दल (शे.) की अल्पमत सरकार गिर गई।

1991 के संसदीय चुनावों ने फिर से ‘त्रिशंकु‘ लोकसभा को जन्म दिया। कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी जरूर पर बहुमत के आसपास भी नहीं थी। किसी गठजोड़ की सम्भावना न रहने पर, कांग्रेस ने नरसिम्हा राव के नेतृत्व में एक अल्पमत सरकार बना ली। सता में रहने के लिए इस अल्पमत सरकार ने संसदीय युक्ति-चालन में बड़ी ही निपुणता दर्शायी। अपने हित में जनता दल में फूट डलवाकर तथा उप-चुनावों में विजय दर्ज कराकर यह सरकार अपने बूते एक बहुमत सुनिश्चित कर सकी।

तथापि, 1993 से 1995 के मध्य हुए विधानसभा चुनावों ने पहले जमाने की एक-दल-प्रमुख बहु-दलीय प्रणाली को समाप्त ही कर दिया। कांग्रेस अब वह अभ्यंतर नहीं रही जिसके इर्द-गिर्द दलीय प्रणाली रची गई थी। इन चुनावों ने केरल व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को छोड़कर, जहाँ गठबंधन राजनीति अभी जीवित है, पूरे देश में द्विध्रुवीय समेकन की प्रक्रिया को तीव्र किया। इस प्रकार, कम-से-कम बारह राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार ने 1995 के अंत तक शासन किया।

राज्य स्तर पर एक द्विध्रुवीय राजशासन की दिशा में बढ़ते रुझान ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि राष्ट्रीय स्तर पर एक द्वि-दलीय प्रणाली असंभावित हो गई। उत्तरप्रदेश व बिहार – दो सबसे बड़े राज्यों – में प्रतिस्पर्धा के असली अखाड़े से कांग्रेस के प्रभावशाली उपांतकरण के साथ ही अब यह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के केन्द्र में (मध्यम आधार कब्जाने व सीमांकित करने तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होने, दोनों के लिहाज से, अपनी स्थिति को अब अपने बूते बनाये नहीं रह सकती थी। राज्यों में जिला क्षेत्रीय दल-प्रणालियों के उद्गमन के साथ ही क्षेत्रीयः स्तर पर बहुजन समाज पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी, असम गण परिषद्, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, अकाली दल आदि दलों के उदय का संकेत मिलाय कांग्रेस अब उन अनेक क्षेत्रीय समूहों में ही स्थित अनेक पार्टियों में से एक थी। यह अब वो ध्रुव नहीं रही थी जिस पर प्रत्येक राजनीतिक संरचना सीमांकित होती थी। उन राज्यों में भी जहाँ कांग्रेस व उसके प्रतिद्वंद्वियों के बीच सीधे-सीधे होड़ थी कांग्रेस अब जन्मजात शासक पार्टी नहीं रही थी।

उपर्युक्त प्रवृत्तियाँ 1996 के संसदीय चुनावों में पुष्ट हो गईं। भा.ज.पा. ने उत्तरी व पश्चिमी राज्यों, खासकर बिहार व उत्तरप्रदेश, में काफी अच्छा प्रदर्शन किया और लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। इस पार्टी ने एक अल्पमत सरकार बनायी जो लोकसभा में विश्वास-मत खो देने से पूर्व मुश्किल से दो सप्ताह चली । क्षेत्रीय दलों, यथा तेलुगु देशम पार्टी, द्र.मु.क., अ.ग.प. तथा तमिल मनीला कांग्रेस, ने जनता दल से गठजोड़ कर राष्ट्रीय मोर्चा बनाया जिसमें वाम दल शामिल थे।

परिणामी संयुक्त मोर्चा पहले हरदनहल्ली देवगौड़ा और फिर इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व में कांग्रेस व वाम दलों (संसदीय इतिहास में पहली बार भा.क.पा. सरकार में शामिल हुई) के बाहर से समर्थन के साथ एक गठबंधन सरकार बनाने में सक्षम था। 1998 में, कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस ले लिए जाने के बाद संयुक्त मोर्चा गठबन्धन सरकार गिर गई।

1996 के अपने अनुभव से सबक लेते हुए भा.ज.पा. ने तमिलनाडु में अन्ना-द्र.मु.क., बिहार में समता पार्टी, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, पंजाब में अकाली दल आदि क्षेत्रीय पार्टियों के साथ चुनावी गठबंधन कर लिया। तदोपरांत इन पार्टियों ने (संख्या में अठारह) एक गठबंधन सरकार बनाई जो मुश्किल से एक वर्ष चली क्योंकि 1999 में अन्ना-द्र.मु.क ने अपना समर्थन वापस ले लिया। 1999 के संसदीय चुनाव से यह प्रकट होता है कि दो दलों, कांग्रेस व भा.ज.पा. का क्षेत्रीय दलों के साथ इस प्रकार चुनावी गठबंधन हुआ कि गठबंधन सरकार का उभरना अपरिहार्य हो गया।

1996 के चुनाव-परिणाम तथा 1998 या 1999 के चुनाव परिणामों का तुलनात्मक अध्ययन दोनों के बीच एक बड़ा भेद उजागर करता है। ‘त्रिशंकु‘ संसद जो 1996 के चुनावों के बाद सामने आयी, मसला किसी एक दल को बहुमत न मिलने का नहीं था बल्कि स्पष्ट गठजोड़ न होने का था। 1998 व 1999 के चुनावों में, तथापि, भा.ज.पा. व कांग्रेस ने दिखा दिया था कि अपने बूते पर किसी भी पार्टी को बहुमत न मिलने के बावजूद, क्षेत्रीकृत बहु-दलीय प्रणाली के भीतर दो ‘ध्रुव‘ सुस्पष्ट हो गए हैं – कांग्रेस तथा भा.ज.पा.। तब यह स्वाभाविक ही है कि दोनों दल गठबंधन राजनीति तथा गठजोड़ किए जाने के आदेशों को धीरे-धीरे मानते जा रहे हैं।

बोध प्रश्न 4
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें ।
1) क्षेत्रीय दलों के उद्गमन में किन कारकों का योगदान रहा?
2) 1993-1995 के विधानसभा चुनावों के उपरांत गठबंधन राजनीति में क्या नए रुझान दिखाई दिए?

 बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 4
1) भारतीय राजनीति के ग्राम्यकरण और क्षेत्रीयकरण ने क्षेत्रीय राजनीति के उदय को बढ़ावा दिया। क्षेत्रीय दलों ने उस ग्रामीण धनी वर्ग का व्यापक रूप से समर्थन किया है जो विशाल जनसंख्या शक्ति रखते हैं।
2) ये हैं – एक-दल-प्रभुत्व बहु-दलीय प्रणाली का अंतय देश के अधिकांश भागों में द्वि-ध्रुवीय समेकन की प्रचण्डताय और, भिन्न क्षेत्रीय दलों का उदय।

 भारत में गठबंधन सरकारों का कामकाज
परम्परागत रूप से यह मान लिया गया है कि सामूहिक उत्तरदायित्व, समांगता तथा गोपनीयता के सिद्धांत सरकार के प्रभावशाली कार्य-संचालन हेतु अत्यावश्यक हैं। भारत में, खासकर केन्द्र में, बनी गठबन्धन सरकारों में इन बातों का अभाव पाया गया है। गठबन्धन सरकारों का कामकाज अन्तर्दलीय मतैक्य सुनिश्चित करने की आवश्यकता द्वारा प्रभावित हुआ है। अपने सामाजिक आधार तथा विचारधाराओं के लिहाज से गठबन्धन साझीदारों की अनेकरूपता राजनीतिक तथा विभागीय मसलों पर कैबिनेट मंत्रियों के बीच अक्सर असहमतियों में प्रकट होती रही है। इससे कैबिनेट की मंत्रणात्मक तथा निर्णयन् प्रक्रिया पर दुष्प्रभाव पड़ता रहा है। संयुक्त मोर्चा अथवा राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के छत्रछाया में गठजोड़ करती पार्टियों को सरकार के ऐक्य-रक्षा की स्थिति के साथ-साथ गठबंधन में एक साझीदार के रूप में अपनी प्रथक-कृत पहचान का भी सामना करना पड़ा है। केन्द्र में गठबंधन सरकारें सैद्धान्तिक अथवा योजनाबध्य समांगता के सकारी आधार पर नहीं, बल्कि सत्ता हथियाने (जैसे 1998 में भा.ज.पा. के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार) अथवा कांग्रेस व भा.ज.पा. को सत्ता से बाहर रखने (जैसे 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार) के नकारी आधार पर बनायी गई हैं। इस कारक ने इन सरकारों में गुणकारिता के साथ-साथ उनकी स्थिरता के अभाव में भी योगदान किया है। गठबंधन में क्षेत्रीय दलों के होने से इस धारणा को बल मिला है कि राष्ट्रीय दृष्टिकोण प्रायः किसी-न-किसी क्षेत्रीय दृष्टिकोण द्वारा अति छायाकृत किए जाने का आश्रय लेता है और इसको भी कि व्यक्तिगत या दलगत लाभों को प्रायः सामूहिक लाभों से ऊपर रखा जाता है। कैबिनेट की बजाय गठबंधन साझीदारों की परिचालन समिति अक्सर वास्तविक मंत्रणात्मक निकाय के रूप में काम करती है और इस प्रकार शासन-प्रक्रिया निर्धारित करती है। हाल के वर्षों में बनी गठबंधन सरकारों में प्रधानमंत्री की ढुलमुल स्थिति के कारण शासन को भी हानि उठानी पड़ी है। प्रधानमंत्री ऐसी स्थिति में नहीं रहा है कि मंत्रिपरिषद् में उन मंत्रियों को चुन सके जो उसकी अपनी पार्टी से संबद्ध नहीं हैं क्योंकि वे अपने-अपने पार्टी नेताओं द्वारा चुने जाते हैं। इसने प्रधानमंत्रीय कार्यवाही के प्राधिकार की जड़ों को इस कदर खोखला कर दिया है कि वह संबद्ध दल के रोष को आमंत्रण दिए बगैर उन्हें बरखास्त करने में भी बाधित महसूस करता है।

हाल में, गठबंधन सरकारें एक ‘सर्वमान्य अल्पतम कार्यक्रम‘ (सी.एम.पी.) को लागू करने के लिए गठबंधन साझीदारों द्वारा एक आम समझौते के आधार पर बनायी गई हैं। बहरहाल, गठबंधन साझीदारों के बीच झगड़ा अक्सर इसकी क्रियान्वयन प्रक्रिया में बाधक रहा है। इसके अतिरिक्त यह नितान्त तथ्य कि 1996 व 1998 में हुए चुनावों ने असंचालनीय, अस्थिर तथा अल्पायु गठबंधन सरकारें दीं, सी.एम.पी. के परिपालनहीनता हेतु काफी हद तक जिम्मेदार था।

 सारांश
गठबंधन राजनीति दो तरीकों से व्यवहृत होती है – एकसरकार के बाहर राजनीतिक दलों के गठबंधन द्वाराय दूसरे, दो अथवा अधिक राजनीतिक दलों द्वारा सरकार के गठन द्वारा । परवर्ती को एक गठबन्धन सरकार के रूप में जाना जाता है। किसी गठबन्धन सरकार का मूल उद्देश्य होता है – विधानसभा/संसद के बहुमत नियंत्रण के साथ-साथ सर्वमान्य अल्पतम कार्यक्रम के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना। गठबंधन सरकारें बाहर से भी समर्थन प्राप्त कर सकती हैं। भारत में दलीय प्रणाली तथा राजनीतिक व्यवस्था पर आजादी के कोई पहले पच्चीस वर्षों तक चुनावी तथा संगठनात्मक प्रसंग, दोनों में कांग्रेस का प्रभुत्व रहा। अपनी ऐतिहासिक विरासत का पालन करती कांग्रेस ने एक व्यापक आधार वाले सामाजिक गठबंधन का प्रतिनिधित्व किया। ‘कांग्रेस प्रणाली‘ राजनीति के लिहाज से भी गठबंधन पर आधारित थी क्योंकि शासन-प्रणाली में विपक्षी दलों के साथ अपने व्यवहार में वह गठजोड़ युक्ति अपनाती थी। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध काल में राजनीतिक . मतैक्य को कायम रखने और पुनर्गठित करने में कांग्रेस की केन्द्रीय भूमिका का क्षय होता देखा गया। इस प्रकार, राजनीतिक लामबन्दी तथा राजनीतिक भरती प्रक्रिया ने दलीय प्रतिस्पर्धा के एक . अधिक पृथक्त ढाँचे के अनुकरण का उद्घोष किया। नए क्षेत्रीय व सामाजिक समूहों के द्रुत , सैन्य-संघटन तथा राजनीतिकरण के परिणामस्वरूप दलों व गुटों की एक नई पीढ़ी का विकास हुआ, इनमें से अनेक उन नेताओं विशेष पर फोकस करते थे जो विशिष्ट जातियों व समुदायों के साथ: तादात्म्य स्थापित करने में सक्षम थे। विशेषतः नब्बे के दशक में बीते वर्षों की प्रबल बहु-दलीय प्रणाली का एक निर्णायक अन्त देखा गया। इसने केन्द्रीय व राज्य, दोनों स्तरों पर एक . प्रतिस्पर्धात्मक बहु-दलीय प्रणाली की दिशा में कार्रवाई का संकेत दिया। 1989 में हुए आम चुनावों तथा 1993-95 के राज्य विधानसभा चुनावों ने इस रुझान को पुष्ट किया। नए सामाजिक समूहों व पहचानों की एक लहर के साथ ही राष्ट्रीय दलों (कांग्रेस व भा.ज.पा. को छोड़कर नहीं) का बढ़ता क्षेत्रीयकरण भी बड़ी संख्या में पार्टियाँ गठित किए जाने की व्याख्या करता है। नतीजतन, राष्ट्रीय व प्रान्तीय दल-प्रणाली, तथा दलीय प्रणाली में ‘संघीकरण‘ की प्रक्रिया के बीच सीमारेखाओं की एक अस्पष्टता रही है। राष्ट्रीय व प्रान्तीय दल-प्रणालियों के बीच इस जटिल व परस्पर जुड़ते सम्बन्ध में, परवर्ती में परिवर्तन पूर्ववर्ती को उत्तरोत्तर रूप से प्रभावित करते रहे हैं। गठबन्धन राजनीति तथा गठबन्धन सरकारें एक एकल-प्रभुत्व से लेकर एक क्षेत्राधारित बहु-दलीय प्रणाली तक चल रही कायांतरण प्रक्रिया से संबंध रखती हैं। इस प्रकार, एक वर्धमान रूप से क्षेत्रीकृत बहु-दलीय . प्रणाली में क्षेत्रीय दलों के समर्थन से केन्द्र में एक द्वि-ध्रुवीयता का उद्गमन हुआ है – कांग्रेस व भा. ज.पा. ही ये दो ‘ध्रुव‘ हैं।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
करुणाकरण, के.पी., कोअलिशन गवर्नमैण्ट इन इण्डिया, भारतीय उन्नत अध्ययन संस्थान, शिमला, 1975।
कोठारी, रजनी, पॉलिटिक्स इन् इण्डिया, ओरिएण्ट लॉन्गमैन, बम्बई, 1970 ।
चटर्जी, पार्थ, स्टेट एण्ड पॉलिटिक्स इन इण्डिया, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1998।
बॉग्डानॉर वरॉन, दि ब्लैकवैल एन्साइक्लॅपीडिआ ऑव पॅलिटिकल इंस्टीट्यूशन्स, ब्लैकवैल रैफरैन्स, ऑक्सफोर्ड, 1987।

गठबन्धन की राजनीति
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
गठबंधन राजनीति के प्रकार
गठबंधन व्यवहार
गठबंधन सरकार: एक तुलनात्मक अध्ययन
भारत में गठबंधन राजनीति (1947-1967)
भारत में गठबंधन सरकारों का उद्गमन (1967-1977)
केन्द्र में गठबंधन सरकार का उद्गमन (1977-1979)
गठबंधन राजनीति का पतन (1980-1989)
गठबंधन सरकारें और गठबंधन राजनीति (1989 से)
भारत में गठबंधन सरकारों का कामकाज
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप इस योग्य होंगे कि:
ऽ गठबंधन का अर्थ समझ सकें,
ऽ विभिन्न प्रकार की गठबंधन राजनीति पर चर्चा कर सकें और
ऽ 1967 के विधानसभा चुनावों के बाद राज्य स्तर पर गठबंधन सरकारों की प्रकृति व उद्गमन की चर्चा कर सकें।