मिशिंग या मिरी भाषा आंदोलन क्या है mising or mishing or miri language movement in hindi

mising or mishing or miri language movement in hindi मिसिंग मिशिंग या मिरी भाषा आंदोलन क्या है |

 मिशिंग लोगों का भाषा आंदोलन
अरुणाचल प्रदेश के सियाग और सुबंदश्री जनपदों के मूल वासी मिशिंग या मिरी लोग असम की दूसरी सबसे बड़ी अनुसूचित जनजाति हैं। इनकी संख्या लगभग तीन लाख है। मिशिंग लोगों ने अपनी पारंपरिक सीमाओं और मूल बोली की रक्षा प्रचंडता से की है। वर्ष 1968 में शिक्षित मिरी लोगों के एक समूह ने मिशिंग अगम केबंग का गठन किया। मिशिंग में इसका अर्थ मिशिंग भाषा संगठन है। इस संगठन ने अपनी भाषा के लिए रोमन लिपि को अपनाया। असम सरकार ने शुरू में मूल मिशिंग लोगों के इस आंदोलन का विरोध किया, लेकिन बढ़ते दबाव के कारण उसे अब झुकना पड़ा है। मिशिंग भाषा को प्राथमिक विद्यालयों में शुरू करने के प्रयास किए जा रहे हैं और असम सरकार सिद्धांततः मिशिंग बहुल विद्यालयों में मिशि पढ़ाने के लिए अध्यापकों की नियुक्ति के लिए सहमत हो गई है।

भाषा का मुद्दा
यह अब तक बेहद जटिल हो चला था। यह मुद्दा अब डीएमके की तमिल भाषा के प्रति चिंता और तमिल के हिंदी, संस्कृत या अंग्रेजी के प्रति विरोध के दायरे से बाहर निकल चुका था। इसमें अब छात्र राजनीति के तत्व शामिल हो चुके थे। क्षेत्रीय पहचान ने उपराष्ट्रवाद का स्वरूप धारण कर लिया था। डीएमके का कहना था कि हिंदी भाषा क्षेत्र देश का एक छोटा सा हिस्सा भर है। एक क्षेत्रीय भाषा का वर्चस्व और सरकारी सेवाओं में भर्ती के लिए इसकी जानकारी अनिवार्य होने के कारण दक्षिण के छात्रों में भारी असुरक्षा की भावना घर कर गई। 26 जनवरी 1965 को हुए एक विरोध प्रदर्शन के दौरान डीएमके समर्थक एक छात्र ने आत्मदाह कर लिया। उसने कहा कि ऐसा वह हिंदी के विरोध में तमिल की बेदी पर अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए कर रहा है। इसके बाद 12 फरवरी तक डीएमके के चार और समर्थकों ने भी आत्मदाह कर लिया। राज्य के छात्रों की नजर में ये आत्मदाह शहादत बन गई। डीएमके के नेता सी. अन्नादुरै ने हालांकि आत्मदाह की अन्य घटनाओं को राजनीति से प्रेरित बताते हुई इनकी भर्त्सना की लेकिन इन ‘हिन्दी विरोधी शहीदों‘ ने छात्र नेतृत्व को वैधता प्रदान कर आंदोलन में व्यापक और खुली राजनीतिक भागीदारी के द्वार खोल दिए। इससे उत्साहित होकर तमिलनाडु छात्र हिंदी विरोधी आंदोलन परिषद् ने स्वतंत्र नजरिया रखने का फैसला कर लिया भले उसे डीएमके का समर्थन मिले या न मिले। पहली बार द्रविड़ सांस्कृतिक आंदोलन को डीएमके के बाहर से भी समर्थन मिला। कांग्रेस के कामकाज और डीएमके के अन्नादुरै दोनों ने कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व से राज्य के छात्र समुदाय को फिर आश्वस्त करने का निवेदन किया कि पंडित नेहरू ने 1963 में अंग्रेजी का सहभाषा का दर्जा जारी रखने का जो आश्वासन दिया था उसे तोड़ा नहीं जाएगा। इस आंदोलन के दौरान मद्रास शहर में 900 और मदुरै में 200 गिरफ्तारियां की गईं। मद्रास में सरकार ने 15 फरवरी तक सभाओं पर प्रतिबंध तक लगा दिया।

आठ फरवरी को स्कूल और कॉलेज फिर से खोल दिए गए लेकिन छात्रों ने छात्र हिंदी विरोधी परिषद् के आहान पर कक्षाओं का बहिष्कार किया। उन्होंने अब अंग्रेजी भाषा को सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में जारी रखने के लिए संविधान में संशोधन की मांग उठाई। 9 फरवरी को वकील भी उनके समर्थन में आंदोलन में कूद पड़े और उन्होंने अदालतों का बहिष्कार किया। इसके बाद फिर हिंसा भड़क उठी। त्रिची में एक बस फूंक दी गई, दो डाकघरों में तोड़-फोड़ हुई। अन्नादुरै की अपीलों को भी कोई नहीं सुन रहा था। 10 फरवरी से लेकर 12 फरवरी तक सरकारी भवनों, पुलिस थानों, ट्रेनों, बसों डाकघरों, कारखानों को लूटा और फूंक दिया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस हिंसा में लगभग 70 लोग मारे गए जिनमें पुलिस की गोली से मरे तीन बच्चे भी शामिल थे। हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। एक करोड़ की संपत्ति नष्ट हुई।

असामाजिक और अराजक तत्व भी इस हिंसक आंदोलन में कूद पड़े। मदुरै में पुलिस के दो सिपाहियों को भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। इन सब घटनाओं में डीएमके की भूमिका किसी से छिपी नहीं थी हालांकि सार्वजनिक तौर इसके नेता हिंसा की निंदा करते नहीं थकते थे। इस हिंसा ने डीएमके की लोकप्रियता पर स्वीकृति की मुहर लगा दी, मगर वहीं इसने डीएमके के पतन का रास्ता भी खोल दिया। डीएमके को अब यह एहसास हो चला था कि वह एक चरमपंथी एजेंडे को. ज्यादा समय तक बरकरार नहीं रख सकता जो कि अलगाववादी प्रवृत्तियों को लेकर चल रहा था। इसलिए इसके नेताओं को राजनीतिक स्वायत्तता के मुद्दे पर अपने नजरिए में नरमी लाने के लिए बाध्य होना पड़ा। मगर वहीं उसने भाषा के मुद्दे को जीवंत बनाए रखने की जरूरत को अनदेखा नहीं किया, जिसका सबसे उपयोगी जरिया तमिल हितों की रक्षा था। इसके लिए उसने वकील जैसे समाज के कानून पसंद लोगों को अपने आंदोलन की गति को बनाए रखने के लिए शामिल किया। इन सभी घटनाओं के मद्देनजर तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पं. जवाहर लाल नेहरू के आश्वासन को दोहराते हुए 11 फरवरी 1965 को एक राष्ट्रीय प्रसारण में कहाः “एक अनिश्चित काल तक मैं अंग्रेजी को सहयोगी भाषा के रूप में ही रखूगा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि गैर हिंदी प्रदेशों के लोग यह समझें कि उनके लिए उन्नति के कुछ दरवाजे बंद कर दिए गए हैं जब तक लोगों को जरूरत पड़ेगी मैं इसे एक वैकल्पिक भाषा बनाए रखूगा और यह निर्णय मैं उन पर नहीं छोडूंगा जो हिंदी भाषी हैं बल्कि उन पर छोडूंगा जो हिंदी भाषी नहीं हैं।‘‘

भाषा के मुद्दे पर भारत सरकार की नीति
भाषा के मुद्दे पर प्रधानमंत्री शास्त्री ने निम्न नीतिगत निर्णय लिएः
प) प्रत्येक राज्य अपना कामकाज अपनी पसंदीदा भाषा या अंग्रेजी में चला सकता है।
पप) अंतरराज्यीय संवाद अंग्रेजी में हो या उसके साथ प्रामाणिक अनुवाद उपलब्ध कराया जाए।
पपप) गैर हिंदी राज्य केन्द्र सरकार से अंग्रेजी में पत्र-व्यवहार कर सकते हैं।
पअ) केन्द्रीय सेवाओं के लिए भर्ती परीक्षाएं हालांकि अंग्रेजी में ही होती थीं, लेकिन 1960 में हिंदी में भी परीक्षाओं की अनुमति दे दी गई। इस सिलसिले में शास्त्री ने गैर हिंदी भाषी छात्रों को आश्वस्त किया कि सरकार हर कीमत पर उनके हितों की रक्षा करेगी।

बोध प्रश्न 1
1) भाषायी जातीयता और राज्यों के पुनर्गठन पर पांच से दस पंक्तियों में एक नोट लिखिए।
2) भाषा के मुद्दे पर डीएमके आंदोलन का वर्णन पांच से दस पंक्तियों में कीजिए।

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 1
1) भाषाई सीमाओं के अनुरूप राष्ट्र-राज्यों की अवधारणा का जन्म 19वीं सदी में हुआ। मगर भारत में इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया गया। भारत की स्वतंत्रता से पहले राज्यों की सामाएं भाषाई सिद्धांत पर नहीं चलती थीं। स्वतंत्रता के बाद भाषा का मुद्दा और राज्यों के पुनर्गठन पर गंभीरता से विचार हुआ। मगर यहां यह बात ध्यान रखी जानी चाहिए कि राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन के मूल में जातिगत और सामुदायिक अकांक्षाएं भी निहित थीं ताकि वे अपनी स्थिति को बेहतर बना सकें। आज के भारत में अनेक राज्य ऐसे हैं जिनका गठन भाषा के आधार पर हुआ था और जो राज्य के भीतर काम-काज चलाने के लिए अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं।

2) भारत में उत्तर और दक्षिण के बीच भाषाई जातीयता विभाजन सदियों पुराना है। उर्सचिक के अनुसार इसकी जड़ें जातिगत राजनीति में विद्यमान हैं । द्रविड़ कड़गम के नेताओं में जब स्वतंत्रता दिवस को लेकर मतभेद उभरे तो कुछ नेताओं ने उससे अलग होकर डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) का गठन किया। कालांतर में डीएमके ने तमिल साहित्य को जोड़ा और तमिल चेतना को जागृत करने कि लिए तमिल भाषा में पुस्तकें, पार्टी-पत्र और पत्रिकाएं छापी। डीएमके की विचारधारा समूचे मद्रास में फैली। वर्ष 1965 के आते-आते भाषा के मुद्दे में छात्र राजनीति प्रवेश कर गई। क्षेत्रीय पहचान ने जोर पकड़ लिया और राजनीतिक बहकावे में आकर छात्रों ने इस मुद्दे पर आत्मदाह किए। डीएमके के नेताओं ने हिंसा की खुले में भर्त्सना की मगर भाषा के मुद्दे पर छात्र हिंसा को वह समर्थन देती रही। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप भाषा और केन्द्र तथा राज्य में उसके प्रयोग को लेकर एक सरकारी नीति बनी।