भाषा आंदोलन के मूल कारण क्या है | language movement reason in hindi causes भारत में आन्दोलन

language movement reason in hindi causes भाषा आंदोलन के मूल कारण क्या है भारत में आन्दोलन ?

भाषा आंदोलन के मूल कारण
प्रत्येक जातीय-भाषाई समुदाय अपने इर्दगिर्द एक सुरक्षा कवच बनाने का प्रयास करता है। अपनी विरासत को लुप्त होने से बचाने का बीड़ा वह खुद उठाता है। उसे अगर कोई खतरा महसूस होता है तो वह संगठित होकर विरोध आंदोलन छेड़ देता है। जातीयता की अभिव्यक्ति के रूप में क्षेत्रीय भाषाई आंदोलन तभी खड़े होते हैं जब उन्हें निम्न कारणों से अपनी अस्मिता को खतरा हो जाएः

प) राजकीय भाषा के रूप में हिंदी को मान्यता मिलना। छोटे भाषाई समुदायों में यह आशंका घर कर गई कि सरकार के इस कदम से उनके समुदाय के सदस्यों को सरकारी नौकरियां मिलने की संभावनाएं कम हो जाएंगी। इसके फलस्वरूप सरकारी मामलों में उनकी आवाज नहीं सुनी जाएगी।

पप) सत्ता पर काबिज मध्यम वर्ग के अभिजात लोगों ने सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखने की पैरवी की। इस द्विभाषावाद के चलते सरकारी नौकरी के अवसर उन लोगों के लिए और संकुचित हो गए जो सिर्फ हिंदी या अंग्रेजी भाषा जानते थे।

पपप) इसके फलस्वरूप उत्तर-दक्षिण के बीच विभाजन की खाई पैदा हो गई क्योंकि आजादी के बाद के नेतृत्व ने अपने आपको अमूमन उत्तरी भारत के साथ ही जोड़कर रखा। इसका मुख्य कारण यह था कि एक अकेले राज्य के विशाल आकार के कारण हिंदी के साथ इसके जुड़ाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलन हिंदी के प्रभुत्व को आर्यों और ब्राह्माणवादी वर्चस्व के प्रतीक के रूप में देखता है।

पअ) बड़े-बड़े दावों और संविधान के अनुच्छेद संख्या 350, 29.1, 344(प्), 345,346 और 347 के अंतर्गत भाषाई अल्पसंख्यकों और भाषाओं को सुरक्षा का प्रावधान होने के बावजूद अल्पसंख्यकों की भाषा संबंधी मांगों की उपेक्षा की जाती है । संविधान के अनुच्छेद 350(ं) के अनुसार प्रत्येक राज्य सरकार को चाहिए की प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था मातृभाषा में करे । मगर जिला प्रशासन और शैक्षिक सशक्तीकरण के स्तर पर यह धारणा अभी तक कायम है कि इस तरह के प्रयास भारतीय राष्ट्र को तोड़ेंगे। इनसे निजी जातीय-भाषाई अपेक्षाओं को प्रोत्साहन मिलेगा और व्यक्ति मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ जाएगा। इसके अलावा यह आशंका भी रहती है कि स्थानीय बोली-भाषा में शिक्षा मिलने से लोग ऊंची और अच्छी शिक्षा प्राप्त करने से वंचित हो जाएंगे। खुद संविधान में भाषा को लेकर अस्पष्टता है। इसका अनुच्छेद 350 अलग-अलग भाषाओं को सम्मान देने की बात करता है, वहीं अलग अनच्छे 351 कहता है कि सरकारी कामकाज में हिंदी को तरजीह मिलनी चाहिए। इस तरह के अस्पष्ट और भेदभावपूर्ण प्रावधानों ने भारत में भाषाई संघर्षों को बढ़ावा दिया है।

भाषा और संस्कृति
अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए नेतृत्व भाषा और संस्कृति के मुद्दों को साथ लेकर चलता है। इसके फलस्वरूप अक्सर सामूहिक पहचान बन जाती है। यही सामूहिक पहचान और एकात्मकता प्रतिष्ठित होकर एक पृथक क्षेत्रीय इकाई की मांग में परिवर्तित हो जाती है। गोरखाली, कुमराली और संथाली भाषाओं का एक कार्याधार के रूप में विलय और झारखंड आंदोलन इस स्थापना का एक अच्छा उदाहरण है। इसी प्रकार खसकुरा, जिसे जीएनएलएफ ने गोरखाली भाषा की मान्यता दे दी है, नेपाली मूल की विभिन्न बोलियों का एक मिश्रण है। इसी तरह कुरमाली और कुरुली शुरू में मौखिक बोलियां थीं जिन्हें झारखंड आंदोलन के दौरान ही अपनी लिपि मिली और दोनों को एक किया गया। यहां एक बात महत्वपूर्ण है कि क्षेत्रीय आंदोलनों को अक्सर नकारात्मक और विभाजनकारी माना जाता है। मगर इस वास्तविकता को समझने का प्रयास नहीं किया जाता इन क्षेत्रीय भाषाई आंदोलनों ने ही अभी तक सिर्फ मौखिक परंपराओं में ही उपलब्ध समृद्ध विरासत को एक ठोस स्वरूप दिया है।

सारांश
पिछले तीन दशकों से भारतीय राज्य को किसी भी गंभीर भाषाई संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत के भाषाई द्वंद्वों को सफलतापूर्वक शांत कर दिया गया है। वे अब भारत की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा नहीं हैं। स्वतंत्रता के पश्चात विशेषकर 1947-1967 के दौर में अनेक भाषायी संघर्ष हुए। देश की काफी राजनीतिक ऊर्जा इन्हीं विवादों को सुलझाने में चुक गई। आज भी इस मुद्दे पर हिंसा की छिटपुट घटनाएं होती रहती हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने जब उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया तो प्रतिक्रिया में 28 सितंबर 1989 को बदायूं में सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा। भाषा और जातीयता में घनिष्ठ संबंध है। भाषा को जातीय एकता का प्रतीक माना जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिकीकरण की शक्तियों और स्पर्धी समाज की कठोर अपेक्षाओं और आवश्यकताओं ने निजी मातृभाषा की प्रकार्यात्मक महत्ता को कमजोर कर दिया है, मगर सामुदायिक विशिष्टताओं के रूप में उनका महत्व अब भी उतना ही ज्यादा है। भाषा के मुद्दों को लेकर राज्य का हस्तक्षेप बहुत कम रह गया है। असल में सामंजस्य की नीति इस मामले में बड़ी कारगर साबित हुई है। लेकिन अंत में यहां एक सावधानी बरतने की जरूरत है जैसा कि रॉबर्ट डीकिंग ने स्पष्ट कहा है, ‘‘भाषाई समस्याएं वैसी नहीं होती जिस रूप में वे हमें दिखाई देती हैं बल्कि वे अक्सर उन इरादों या एजेंडों को छिपाने के लिए छद्मावरण का काम करती है जिनका भाषा और भाषा विज्ञान से बड़ा कच्चा संबंध होता है”।

यह तो सिद्ध हो ही चुका है कि दक्षिण भारत में भाषाई आंदोलन जाति वर्चस्व और शोषण की प्रतिक्रिया में हुए थे। इसी प्रकार पंजाबी सूबा आंदोलन की जड़ें सिख पहचान में थीं। इसी तरह जनजातीय भाषाई आंदोलन के मूल में जातीयता, पहचान और अस्मिता के सवाल जुड़े थे। भाषायी जातीयता से हालांकि भारत को कोई खतरा नहीं है मगर जातीय रचना में इसकी सक्रिय स्थिति को कभी अनदेखा भी नहीं किया जाना चाहिए।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
बार्नेट, रॉस मारगरेट, 1976ः द पॉलिटिक्स ऑफ कल्चरल नेशनलिज्म इन साउथ इंडियाय न्यू जर्सी, प्रिंस्टन यूनि. प्रेस
गुप्ता, आर.एस., ऐविटा अब्बी, कैलाश, एस. अग्रवाल (संपा.) 1995, लैंग्वेज ऐंड द स्टेटः पपिक्टिव ऑन द ऐड्थ शेड्यूल, नई दिल्ली, क्रिएटिव बुक्स
किंग, रॉबर्ट डी. 1997 नेहरू ऐंड लैंग्वेज पॉलिटिक्स इन इंडिया, दिल्ली, ऑक्सफर्ड यूनि. प्रेस
कृष्णा सूरी, 1991, इंडियाज लिविंग लैंग्वेज, नई दिल्ली, एलाएड पब्लिशर्स
उसंचिक यूजीन, 1969, पॉलिटिक्स ऐंड सोशल कनफ्लिक्ट इन साउथ इंडियाः द नॉन ब्रालिनिकल मूवमेंट ऐंड तमिल सेपरेशन बर्कले, यूनि ऑफ कैलीफोर्निया प्रेस।

शब्दावली
जातीयता: लोगों की एक विशिष्ट श्रेणी है जिन्हें हम उनकी संस्कृति, धर्म, नस्ल या भाषा के आधार पर अलग पहचान सकते हैं।
भाषाई: इसका संबंध लोगों के एक वर्ग विशेष की भाषा से है जिसके क्षेत्र विशेष की संस्कृति के लिए निहितार्थ होते हैं।
आधुनिकीकरण: यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके जरिए कोई संस्कृति या समाज सामाजिक और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से अधिक उन्नत होता है जिसमें समाज के कई तबकों के लिए बेहतर आजीविका सुनिश्चित रहती है।