isostasy in hindi definition meaning परिभाषा क्या है , अर्थ सिद्धांत मतलब भू संतुलन किसे कहते हैं ?
भू-सन्तुलन
(ISOSTASY)
पृथ्वी की सतह पर विभिन्न आकार एवं प्रकार के भूरूप दिखाई पड़ते हैं। एक तरफ एशिया, अफ्रीका जैेसे विशाल भूखण्ड हैं तो दूसरी तरफ प्रशान्त व हिन्द महासागर फैले हैं। इनमें भी अनेक प्रकार की विभिन्नतायें पायी जाती है। हिमालय जैसे ऊँचे पर्वत हैं प्रेयरी जैसे मैदान हैं, लरेन्शिया व दक्खन जैसे पठारी भू-भाग हैं। महासागरों में कहीं गर्त है, तो कहीं द्रोढ़िया व चबूतरे हैं। बीच-बीच में द्वीपों का विस्तार है। इसके साथ ही पृथ्वी तल पर आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियाँ निरन्तर क्रियाशील रहती हैं जो निरन्तर धरातल पर परिवर्तन लाती रहती हैं। परन्तु अपनी समस्त विभिन्नताओं के बावजूद सभी प्रकार के भूरूप एक साथ धरातल पर स्थित है। इसका कारण कोई व्यवस्था है, जो पृथ्वी में पायी जाती है जिससे सभी वर्तमान भूआकृतियाँ पृथ्वी की सतह पर स्थिर अवस्था में दिखाई पड़ती हैं। इसी व्यवस्था या अवस्था को वैज्ञानिक भूसन्तुलन (Isostacy) की संज्ञा देते हैं। अर्थात् अपनी धुरी पर परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी पर, ऊँचे उठे पर्वत एवं मैदानों के साथ महासागर व गर्त की गहराइयों में भौतिक व यान्त्रिक स्थिरता की दशा ही भू-सन्तुलन है।।
संतुलन (Isostacy) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1889 में अमेरिका के भूगर्भशास्त्री ‘डटन‘ (Durion) ने किया था। यह शब्द ग्रीक शब्द Isostasias से बना है जिसका अर्थ समस्थिति (In equipose) होता है। पृथ्वी तल के विभिन्न भूरूप न सिर्फ आकार में भिन्नता रखते हैं वरन उनकी संरचना व घनत्व में भी बहुत अन्तर पाया जाता है। भूगर्भ शास्त्रियों ने यह जानने का प्रयास किया कि किस प्रकार ये सभी स्थिर हैं व विभिन्न स्थितियों में स्थिरता बनाये रखते हैं।
अतः सन्तुलन के सिद्धान्त से ये स्पष्ट होता है कि ऊँचे विशाल स्थल हल्के पदाथों से बने हैं व गहरे, निचले भूभाग भारी पदार्थों से तथा एक तल पर दोनों का भार समान होगा। इस तल को समदाब तल (level of uniform pressure)या भू-समस्थितिक तल (Isostatic level) कहा जाता है। इस प्रकार पृथ्वी के पर्वत, पठार, मैदान, सागर आदि पृथ्वी के भीतरी भागों में समान भार डालते हैं।
स्टायर (Steers) के अनुसार:- ‘‘पृथ्वी के धरातल पर जहाँ कहीं भी सन्तुलन स्थापित है वहाँ समान धरातलीय क्षेत्रों के नीचे पदार्थ की मात्रा समान होती है।
भूकम्प तरंगों से भी यह स्पष्ट हो चका है कि पृथ्वी की विभिन्न चट्टाने व परतें भिन्न-भिन घनत्व रखती है। डोबरीन व मिल्टन के अनुसार “समुद्र तल के ऊपर अधिक मात्रा में पाया जाने वाला (Mass) जैसे पर्वत में, की क्षतिपूर्ति समुद्र तल के नीचे कम (Mass) से हो जाती हैव एक तल पर प्रात यानटाना (सम्पूर्ण पृथ्वी में) भार समान पाया जाता है।‘‘
उन्नीसवीं शताब्दी (1855) में सर जार्ज एवरेस्ट की अध्यक्षता में भारत का सर्वेक्षण त्रिभुजीकरण विधि द्वारा किया जा रहा था। देश में कुछ आधार बिन्द स्थापित किये जिनको सर्वेक्षण में आधार मानकर अन्य बिन्दुओं की दूरियाँ व अक्षांश देशान्तर निश्चित किये गये। कुछ स्थानों को अक्षांश देशान्तर दूरियाँ खगोलीय निरीक्षण द्वारा तय किये गये। उन्हीं स्थानों का त्रिभुजीकरण विधि द्वारा अक्षांशीय मापन लिया गया तो खगोलीय (Astronomical) व त्रिभुजीय (Triangulational) मापों में अन्तर पाया गया। कलियाना व कल्याणपुर स्थानों के मध्य अन्तर 5.236‘‘ का था। कलियाना हिमालय पर्वत के निकट स्थित था एवं कल्याणपुर सिंध मैदान में स्थित था। साहुल को हिमालय पर्वत की ओर आकर्षित होना था। हिमालय की विशालता को देखते हुए की जितना आकर्षित होना था उतना नहीं हुआ। अतः प्राट के मतानुसार हिमालय को बनाने वाली चट्टाने हैं उनका घनत्व पृथ्वी के औसत घनत्व से भी कम है। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि विशाल ऊँचे पृथ्वी तल पर हल्के पदार्थों के बने होते हैं तथा नीचे धंसे भूभाग जैसे महासागरीय तली भारी पदार्थों से होती है। विभिन्न घनत्व व भार वाले भूभाग पृथ्वी पर स्थिर कैसे रहते हैं व साथ-साथ कैसे सन्तुलन कैसे रखते है इसे विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग ढंग से समझाया है।
भूसन्तलन की भौगोलिक विवेचना करने के उपरान्त इस पर आधारित निम्नलिखित संभावना होती हैं-
(1) पृथ्वी की आन्तरिक संरचना से सम्बन्धित अध्याय में बताया गया है कि महाद्वीप सियात से तथा महासागर भारी द्रव सदृश्य सीमा (Sima) से निर्मित है। इस आधार कहा जा सकता है कि यदि महाद्वीप भारी द्रव में तैर रहे हैं, तो समय के साथ एक सीमा पर ये पर ये परस्पर समीप कर सकते हैं तथा दूर भी जा सकते हैं।
(2) पृथ्वी पर समय-समय पर होने वाली भू-गर्भिक घटनाओं के कारण महाद्वीपीय भाग टूटकर हुए एक-दूसरे से दूर जाने की संकल्पना सत्य प्रतीत होती है, जिसे महाद्वीपीय विस्थापन की संकलन कहा गया है।
(3) पृथ्वी के भूगर्भ में रेडियो सक्रिय पदार्थो की उपस्थिति है। इनसे नियमित रूप में ऊष्मा उत्पन्न होती रहती है। जो सीमा के नीचे संग्रहित होती रहती है, क्योंकि ऊपरी परत की ठोस प्रकृति के कारण यह ऊष्मा बाहर नहीं निकल पाती है तथा सीमा के नीचे गतिशील हो जाती है। जिसके परिणामस्वरूप महाद्वीपीय भागों का अवतलन होकर सागरीय क्षेत्रों का विस्तार होने लगता है।
(4) हिमकाल के दौरान हिमावरण के कारण हिममण्डित क्षेत्रों में भार बढ़ गया था, जिससे सियाल सीम में अवतलित हुआ था। हिमकाल के पूर्ण होने पर हिम पिघला तथा पुनः अवतलित भाग में उत्थान हुआ।
(5) इस सन्दर्भ में एक गणना से स्पष्ट हुआ है कि बोथनिया की खाड़ी की उत्तरी भाग प्रति 30 वर्ष की अवधि में एक फीट उत्थित हो रहा है।
(6) पर्वतीय क्षेत्रों से अनाच्छादन द्वारा उत्पन्न तलछट कट कर सागरीय क्षेत्रों में जमा हो जाती है, जिसके कारण पर्वतीय भागों का भार कम तथा सागरीय तली का भार अधिक हो जाता है।
(7) सागरीय तली में अति भार होने के कारण अवतलन हो जाता है तथा पर्वतीय भाग हल्के होने से उत्थित हो जाते हैं। इस क्रिया के सन्तुलित रूप में पूर्ण होने के लिए सीमा पदार्थों का पर्वतीय आधा की ओर प्रवाहित होना आवश्यक है, ताकि पर्वतों में उत्थान हो।