जापान की विदेश नीति foreign policy of japan in hindi रक्षा एवं सुरक्षा नीति जापान की रक्षा शक्ति

(foreign policy of japan in hindi) जापान की विदेश नीति क्या है ? समझाइये रक्षा एवं सुरक्षा नीति जापान की रक्षा शक्ति लिखिए |

जापान की विदेश नीति
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
आधुनिक जापान की विदेश नीति के आधार
जापान की विदेश नीति के मूल उद्देश्य
द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले जापान की विदेश नीति
विदेश नीति का निर्माण
संसद की भूमिका
विदेश मंत्रालय की भूमिका
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय की भूमिका
राजनैतिक दलों की भूमिका
दबाव समूहों की भूमिका
जनमत की भूमिका
बाहरी कारणों की भूमिका
जापान की रक्षा और सुरक्षा के सरोकार
रक्षा एवं सुरक्षा नीति
जापान की रक्षा शक्ति
संवैधानिक सीमाएँ
रक्षा बजट
राष्ट्रीय सुरक्षा के महत्व
क्षेत्रीय और विश्व सुरक्षा
जापान के विदेश संबंध
भारत और जापान
जापान, उत्तरी अमेरिका और यूरोपीय समुदाय
नये औद्योगिक देश
जापान, पूर्व सोवियत संघ और चीन
जापान और विकासशील देश
जापान और संयुक्त राष्ट्र संघ
अंतर्राष्ट्रीय विनिमय और सहयोग
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई में जापान की विदेश नीति के निर्माण और कार्यान्वयन के आर्थिक कारणों की चर्चा की गई है। इसमें जापान की विदेश नीति के कार्यान्वयन की वरीयताओं के बारे में भी बताया गया है । द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत की हिमायत के माध्यम से – अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में असमानता दूर करने के जापान के प्रयासों का भी संक्षेप में वर्णन किया गया है। इसे पढ़कर आप:
ऽ जापान की विदेश नीति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि समझ सकेंगे,
ऽ जापान की विदेश नीति निर्माण की प्रक्रिया और इसमें विभिन्न प्रतिष्ठानों की भूमिका समझ सकेंगे, और
ऽ जापान की विदेश नीति एवं रक्षा नीति के प्रमुख चरित्र का मूल्यांकन कर सकेंगे।

प्रस्तावना
आज जापान विश्व का एक महत्वपूर्ण देश है । और विकसित एवं विकासशील दोनों ही प्रकार के देश जापान के साथ संबंधों को वरीयताक्रम में ऊपर रखते हैं। वे जापान से पूंजी और तकनीक की अपेक्षा रखते हैं।

पिछले कुछ दशकों से जापान जिस गति से आर्थिक विकास की दिशा में बढ़ रहा है, अतुलनीय है । इसने भू-राजनैतिक प्रभावों की तुलना में परस्पर निर्भरता की तरफ बढ़ते विश्व अर्थ तंत्र में शक्ति के स्रोत के रूप में भू-आर्थिक प्रभावों को वरीयता दी। स्वतंत्र विदेश नीति की जापान की घोषणा के बावजद इस पर अमेरिकी प्रभाव स्पष्ट दिखता है। जापान की विदेश नीति का एक उल्लेखनीय पहलू इसकी जनतांत्रिक अंतर्वस्तु है। जापान अपने विदेशी स्रोतों और ऊर्जा को विस्तार तो देता है लेकिन वे जापानी सामानों, सेवाओं और तकनीक पर पूर्णतः निर्भर हो जाते है।

जापान की विदेश नीति के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए कुछ देशों के साथ इसके संबंधों के बारे में चर्चा की गई है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जापान की भूमिका के बारे में भी बताया गया है।

आधुनिक जापान की विदेश नीति के आधार
आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण के क्षेत्रों में जापान द्वारा पाश्चात्य मूल्यों और तकनीक को जापानी समाज और परंपरा की जरूरतों के अनुसार ढाल कर अपने को विश्व-शक्ति के रूप में स्थापित करने की गति अतुलनीय है। 20वीं शताब्दी के निम्नलिखित घटनाओं पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
क. 1900 में रूस को, जो कि उस समय तक एक पश्चिमी ताकत माना जाता था, हरा कर पूर्वी एशिया में यूरोपीय साम्राज्यवादी विस्तार को चुनौती दी।
ख. 1920 के दशक में यूरोपीय माल की नकल पर बने और सस्ते दामों पर उपलब्ध जापानी माल ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में यूरोपीय देशों के वर्चस्व को चुनौती दी।
ग. 1940 के दशक में पूर्वी एशिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद की संभावनाएं खत्म करने के नाम पर जापान स्वयं एक उपनिवेशवादी देश बन गया।
घ. 1960 के दशक में परिष्कृत जापानी तकनीकों ने यूरोप की तकनीकी श्रेष्ठता को चुनौती दी।
ड. 1980 के दशक में विश्व के सबसे बड़े कर्जदाता देश के रूप में जापान ने यूरोपीय वर्चस्व को समाप्त कर दिया।

उपरोक्त उपलब्धियों और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में इसकी प्रतिष्ठा की वजह से तमाम विकासशील देश विकास की चुनौतियों से निबटने एवं अंतर्राष्ट्रीय विवादों को निबटाने में जापान से सहायता की अपेक्षा रखते हैं। इसलिए जापान की विदेश नीति की समझ महत्वपूर्ण है।

इसकी भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक विकास और तत्कालीन तकनीकी विकास तथा संसाधन और जरूरतों के बीच, लोगों की राजनैतिक अपेक्षाओं और मांगों को ध्यान में रख कर तारतम्य, मिलकर विश्व में जापान की स्थिति को परिभाषित करते है। जापान की विदेश नीति के मूल्यांकन में भू-राजनैतिक और भू-आर्थिक कारणों एवं उनके आर्थिक परिणामों को ध्यान में रखना आवश्यक है।

10.2.1 जापान की विदेश नीति के मूल उद्देश्यं
जापान की विदेश नीति का घोषित मूल उद्देश्य, विश्व-शांति और स्थायित्व की स्थापना एवं संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की सद्भावनापूर्ण प्रगति के प्रयासों में योगदान करना है। इसके घोषित उद्देश्य है: पाश्चात्य जनतांत्रिक देशों के साथ सहयोग और मैत्री के संबंधों को जारी रखना, एशिया में अपने पड़ोसी देशों के साथ पारिवारिक मैत्रीपूर्ण संबंधों को बरकरार रखना और अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखना।

 द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले जापान की विदेश नीति
जापान के लिए 19वीं शताब्दी का समय आक्रमण को तत्पर, अशुभ माने जाने वाले देशों के विरुद्ध संघर्ष का समय, था। इसलिए मेजी संविधान में सेना के अधिकार पर जोर स्वाभाविक लगता है। विदेशी भाषा खासकर अंग्रेजी की समस्याओं, जापानी प्रथाओं आदि बाधाओं के बावजूद जापानी राजनयिकों ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में जापान की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए कठिन परिश्रम किया। जेनरों के अलावा, सेना और विदेश व्यापार के हितों के दबाव समूह भी विदेश नीति संबंधी निर्णयों को प्रभावित करते थे। इससे प्रायः कई देशों के साथ संपर्क कट जाता था। इस दौर में विदेश मंत्रालय में लगातार परिवर्तन होते रहे। 1890 के दशक तक विदेशी मामलों के लिए किसी पेशेवर सेवा का गठन नहीं हआ था। 1900 तक एक पेशेवर विदेशी सेवा उभरने लगी थी और अगले 40 वर्षों तक विदेश मंत्री इसी सेवा से होते रहे।

1920 के दशक में अन्य जगहों की तरह जापान में भी विदेश मंत्रालय की तुलना में रक्षा और व्यापार मंत्रालय ज्यादा महत्वपूर्ण मंत्रालय बन गए। सेना नागरिक सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में थी। सेना का प्रभाव बढ़ने के साथ समाज में राजनयिकों की प्रतिष्ठा में गिरावट आने लगी। एक बहुत लोकप्रिय सेनापति तोजो ने एक बार कहा था, “विदेश मंत्रालय को अपने आपको शिष्टाचार और विदेशी राजनयिकों को दावतें देने तक ही सीमित रखना चाहिए, निर्णय की जिम्मेदारी सेना पर छोड़ देना चाहिए जिसे चीजों की सही समझ है’’।

स्थिति यह हो गई कि पदोन्नति के लिए न तो वरिष्ठता का मानदंड था और न ही कुशलता का। सेना के प्रभुत्व के चलते मंत्रालय की कम होती प्रतिष्ठा प्रमुख सरोकार बन गई। 1940 के दशक में विदेश मंत्रालय का प्रमुख काम सेना के विस्तारवादी कृत्यों की जवाबदेही था । विदेश में जापान के शांति वक्तव्य अविश्वसनीय हो चुके थे। स्थिति से ऊबकर विदेश मंत्रालय से जुड़े, शिदेहारा तोकूगवा, इएमासा और शिगेरुयोशिदा जैसे कई बड़े नेताओं ने त्यागपत्र दे दिया।

जापानी विदेश नीति का कोई सैद्धांतिक आधार नहीं था। हर विदेश मंत्री अपनी विचारधारा के तहत चीन या एशिया के मसलों पर फैसले लेता था । जापानी नीति में जो एक वाह्य निरंतरता नजर आती है वह यह है कि कच्चे माल की प्राप्ति लाभप्रद विदेश व्यापार, आक्रमण के लिए और विदेशी आक्रमण को रोकने के लिए अपने बंदरगाह, दूसरे देशों से अच्छे संबंध और अंतर्राष्ट्रीय मंचों में उचित हिस्सेदारी इसके प्रमुख सरोकार थे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले तक जापान की चीन के प्रति शत्रुता और एशिया एवं प्रशांत क्षेत्र में विस्तारवाद की नीति में निरंतरता देखने को मिलती है।

यद्यपि विस्तारवाद जापान की विदेश नीति का महत्वपूर्ण पहलू रहा है लेकिन यह लगातार चलने वाली प्रक्रिया नहीं थी। 1870 से 1920 तक विदेश नीति निर्माताओं के लिए यूरोप से संबंध एशियाई सरोकारों से अधिक महत्वपूर्ण थे। 1930 तक समीकरण बदल चुके थे। बदली हुई परिस्थितियों में ‘‘पश्चिमी शत्रुओं के विरुद्ध सावधानी’’ और एशियाई देशों के साथ मित्रता की नीति अपनाई गई। 1942 तक जापानी विस्तारवाद सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर चुका था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विदेश मंत्रालय फिर से विदेश नीति निर्धारण में अहम भूमिका निभाने लगा।

जापान के आधुनिक इतिहास में यूरोप या अमेरिका को मॉडल नहीं बनाया गया बल्कि एक ऐसा नया मॉडल तैयार किया गया जो इनको पीछे छोड़ दे। ज्यादातर जापानियों के दिमाग में बैठा था कि आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण का ही दूसरा नाम है । लेकिन युद्ध के बाद जापानी विदेश नीति ने अमेरिकी मॉडल चुना । खासकर रक्षा और विदेश नीति के मामलों में जापान ने अमेरिकी नेतृत्व का अनुसरण किया है। तकनीक, राष्ट्रीय आय, जीवन स्तर आदि में पश्चिमी देशों को पीछे छोड़ चुके जापान के लिए पश्चिमी देश कोई आदर्श दे पाने में समर्थ नहीं दिखते। अब जापान को विश्व-शांति और अंतर्राष्ट्रीय विकास के लिए स्वयं ही अपना दृष्टिकोण बनाने की जरूरत है।

बोध प्रश्न 1
नीचे दी गई जगह का इस्तेमाल प्रश्नों का उत्तर लिखने के लिए करें। अपने उत्तर इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से मिला लें।
1. जापान की विदेश नीति को समझने के लिए किन तथ्यों की जानकारी आवश्यक है?
2. पिछले 30 वर्षों में जापान की दो प्रमुख उपलब्धियों के बारे में बताइए।
3. जापान की विदेश नीति के मूल उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
4. जापान की विदेश नीति की वाह्य निरंतरताएं क्या है?

बोध प्रश्न 1 के उत्तर
1. (क) भू-राजनीति
(ख) राष्ट्रीय सुरक्षा
(ग) संसाधन संपन्नता और कमजोरी

2. (क) जापान ने पाश्चात्य तकनीकी ज्ञान को सफलतापूर्वक चुनौती दी।
(ख) दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदाता बनकर जापान ने यूरोपीय/अमेरिका आर्थिक वर्चस्व समाप्त कर दिया।
3. विश्व शांति और स्थायित्व की स्थापना और संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की समन्वित प्रगति में योगदान करना।
4. (क) आर्थिक और व्यावसायिक
(ख) नए कच्चे माल की प्राप्ति
(ग) लाभप्रद व्यापार के रास्ते में रोड़ों को हटाना
(घ) बाह्य आक्रमण से जापान की रक्षा,
(ङ) अन्य देशों से अच्छे संबंध बनाए रखना
(च) जापान की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की सदस्यता हासिल करना।

 विदेश नीति का निर्माण
1945-52 के विदेशी आधिपत्य के दौरान अधिकारियों ने जापान के जनतांत्रिकरण के लिए कई राजनैतिक और संवैधानिक परिवर्तन किए। तभी से जापान की विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में संसद, राजनैतिक दल, दबाव समूह और नौकरशाही सभी की भागीदारी रहती है।

संसद की भूमिका
विदेश नीति संप्रभुता की अभिव्यक्ति होती है इसलिए इसके निर्माण का अधिकार अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता को है। संसद की संस्तुति के बिना कोई भी संधि या समझौता अमान्य है। स्थाई समिति के गठन से नीति निर्धारण में संसद (डिएट) की भूमिका का महत्व बढ़ गया है। इस समिति में संसद में संख्या के अनुपात में सभी राजनैतिक दलों का प्रतिनिधित्व होता है। विदेश नीति के निर्माण से संबंधित दो प्रमुख समितियां है। बजट समिति और विदेशी मामलों की समिति विदेश मंत्रालय के बजट निर्धारण को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। विदेशी मामलों की समिति की विविध सिफारिशों पर संसद में चर्चा और मतदान होता है। जाहिर है कि अपने बहुमत के चलते समितियों में शासक दल का प्रतिनिधित्व अधिक है। और वह विदेश नीति निर्धारण में निर्णायक भूमिका अदा करता है। विपक्षी दल प्रस्ताव का अध्ययन करने के बाद, परिस्थिति की आवश्यकता के अनुसार शासक दल की आलोचना करते हैं। प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान करते हैं या मतदान का बहिष्कार करते हैं । और शासक दल के बहुमत के चलते प्रस्ताव पारित हो जाता है। ऐसा भी होता है कि समान विचारों वाले सांसद किसी खास मुद्दे पर दबाव समूह के रूप में नीति निर्धारण को प्रभावित करते हैं।

 विदेश मंत्रालय की भूमिका
नीति निर्धारण के लिए आवश्यक अंतर्राष्ट्रीय माहौल और विदेशी स्थिति के बारे में सूचनाएं एकत्रित करने में विदेश मंत्रालय की अहम भूमिका होती है। व्यवहार में निर्णय के अधिकार का इस्तेमाल राजनैतिक नेतृत्व करता है, मंत्रालय के अधिकारी नहीं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और उद्योग मंत्रालय जैसे मंत्रालय भी विदेश नीतिको प्रभावित करने लगे हैं। बहुराष्ट्रीय गतिविधियां बढ़ने से निजी एवं अन्य गैर सरकारी क्षेत्रों में भी जापान की भागीदारी बढ़ती जा रही है।

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय की भूमिका
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से संबंधित मामलों पर निर्णय का समस्त अधिकार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय के पास होता है। अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक नीति के कार्यान्वयन में यह और विदेश मंत्रालय परस्पर सहयोग करते है। इस मंत्रालय के अधिकारों को संसद द्वारा कानूनी मान्यता प्राप्त है। इन अधिकारों का उपयोग आमतौर पर, सलाह देने और प्रेरित करने, अप्रत्यक्ष रूप से समझाने-बुझाने जैसे तरीकों के माध्यम से किया जाता है। कम कपट और मानव संसाधन के ‘‘बावजूद अपनी उपलब्धियों के लिए इसकी प्रशंसा और आलोचना दोनों करते हैं।

प्राकृतिक संसाधनों की कमी और विकसित औद्योगीकरण के चलते जापान का अस्तित्व अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर निर्भर करता है। ऐतिहासिक रूप से एक व्यापारिक देश होने के नाते जापान के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय का महत्वपूर्ण होना स्वाभाविक है। इस मंत्रालय के अधिकारी विदेश मंत्रालय, विदेशों में स्थित दूतावासों, वित्त मंत्रालय एवं अन्य मंत्रालयों में भी स्थानांतरित किए जा सकते हैं।

राजनैतिक दलों की भूमिका
बहुमत के सिद्धांत के आधार पर शासक दल द्वारा लिए गए निर्णय ही जापान में नीति बन जाती है। लेकिन कई बार शासक दल के ही किसी घटक और विपक्षी दलों के मेल से स्थिति मटल जाती है।

सभी राजनैतिक दलों में विदेशी मामलों के विभाग है जो नीति से संबंधित शोध और अध्ययन करते हैं एवं योजना तैयार करता है। सामान्यतः सरकार और पार्टियों में अलग-अलग गुट (लॉबी) होते है। जो सरकारी नीति एवं घटकों को अपने हितों के अनुकल मोड़ने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के तौर पर ज्यादातर राजनैतिक दलों में एक शक्तिशाली अमेरिकी लॉबी होती है। इसी तरह अलग-अलग समय पर चीनी लॉबी और कोरिया लॉबी सक्रिय थी।

राज्य की कार्यपालिकाका अध्यक्ष होने के नाते, विदेश नीति निर्माण की प्रक्रिया में प्रधानमंत्री का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है। हाल के सालों में मंत्रालय के सचिवालय की अहमियत बढ़ने से विदेश नीति से संबंधित मसलों पर बैठकों में शरीक होने वाले एलडीपी के सदस्यों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। विदेश नीति के मसलों पर एलडीपी की संबद्ध समितियों (जैसे राजनैतिक मामलों की परिषद और अंतर्राष्ट्रीय मामलों का विभाग) में भी चर्चा होती है।

दबाव समूहों की भूमिका
प्रमुख आर्थिक संगठन, राष्ट्रीय आर्थिक मुद्दों की नीतियों की ही तरह विदेश नीति के निर्माण की प्रक्रिया को भी प्रभावित करते हैं। व्यापारिक, औद्योगिक और वित्तीय हितों वाले समूह आमतौर पर विभिन्न मंत्रालयों से जुड़ी परामर्श देने वाली संस्थाओं के माध्यम से नीति निर्धारण को प्रभावित करने की दबाव समूहों की गतिविधियां तेज हो गई हैं। इन समूहों का प्रमुख सरोकार दबाव के जरिए सामूहिक हितों को आगे बढ़ाना है। द्वितीय विश्व युद्ध के पहले परिवार आधारित जाइबात्सूव्यापारिक घराना ही दबाव समूह के रूप में काम करता था। उसके बाद से राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली दबाव समूह है: आर्थिक संगठनों का संघ, नियोक्ता संगठनों का संघ, आर्थिक विकास समिति, जापान चैबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री, और औद्योगिक नीति परिषद । सरकार विभिन्न आर्थिक और राष्ट्रीय हितों के बीच समन्वय स्थापित करने का काम करता है। इनके अलावा व्यापार संगठन, क्षेत्रीय आर्थिक संगठन एवं द्विपक्षीय मैत्री संगठन भी विदेश नीति निर्माण की प्रक्रिया को प्रभावित करते है।

जनमत की भूमिका
संचार माध्यमों के विकास और 100ः साक्षरता के चलते जापानी नागरिक समकालीन अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों की जानकारी रखते हैं। इसके परिणामस्वरूप – एक सशक्त एवं सुस्पष्ट जनमत का उदय हुआ। विदेश नीति के मुद्दों जापान-अमेरिका संबंध, संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के लिए सैनिक भेजने का मसला, सेना व्यय में वृद्धि आदि मुद्दों पर जापानी जनमत व्यापक प्रदर्शन आयोजित कर सकती है। हस्ताक्षर अभियान जैसे अन्य जन अभियानों के माध्यम से विदेश नीति को प्रभावित कर सकती है। ऐसे नौकरशाहों की भी कमी नहीं है जिनके अनुसार, “विदेश नीति का निर्धारण राष्ट्रीय जनमत से नहीं किया जा सकता’’।

बाहरी कारणों की भूमिका
बाहरी ताकतों में, अमेरिका अधिकतम दबाव डालकर जापान की विदेश नीति की दिशा तय कर सकता है। जापान की विदेश नीति के ज्यादातर आर्थिक मसले सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह के बाहरी कारणों से प्रभावित होते हैं। वियतनाम युद्ध और कोरिया युद्ध सकारात्मक कारण थे जबकि ‘‘निक्सन शॉक’’ और ‘‘आयल शॉक’’ नकारात्मक कारण थे। जापान अभी भी अमेरिकी संरक्षणवाद से निकलने में सफल नहीं हो सका है।

1970 के दशक तक जनता के सरोकार से विदेश नीति के अलग होने से, राष्ट्रीय हितों को, न्यूनतम बाहरी प्रभाव के साथ विदेश नीति में परिलक्षित किया जा सकता था। लेकिन 1980 के दशक में जापान के अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने के साथ, विदेश नीति में आंतरिक एवं बाहरी कारणों की भूमिका बढ़ गई।

बोध प्रश्न 2
नीचे दी गई जगह में प्रश्नों के उत्तर लिखें और इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से उनका मिलान कर लें।
1. जापान की विदेश नीति के निर्माण को प्रभावित करने वाले विभागों, मंत्रालयों एवं एजेंसियों के नाम बताइए।
2. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय की प्रमुख भूमिका क्या है?
1. विदेश नीति निर्माण में प्रधानमंत्री का स्थान क्यों महत्वपूर्ण है?

बोध प्रश्न 2
1. संसद, विदेश मंत्रालय, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय, राजनैतिक फण्ड, दबाव समूह आदि ।

जापान के रक्षा और सुरक्षा के सरोकार
रक्षा और सुरक्षा नीति
जापान की रक्षा नीति, दो प्रमुख सरकारी निर्णयों-राष्ट्रीय रक्षा की मूल नीतियां, 1957 और राष्ट्रीय रक्षा योजना की रूपरेखा, पर आधारित है।

राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का उद्देश्य, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आक्रमण को रोकना और आक्रमण की स्थिति में दुश्मनों को वापस खदेड़ कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता की रक्षा करना है।

इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जापान ने निम्न चार सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है:
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ की नीतियों एवं गतिविधियों के समर्थन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के विकास में भागीदारी के जरिए विश्व-शांति की स्थापना करना,
(ख) जन कल्याण को स्थायित्व प्रदान करके और लोगों में जापानी राष्ट्र प्रेम की भावना भर कर जापान की सुरक्षा का मजबूत आधार तैयार करना,
(ग) राष्ट्र के संसाधन और देश की आंतरिक स्थिति को ध्यान में रख कर आत्मरक्षा के लिए आवश्यक रक्षा-क्षमता विकसित करना,
(घ) जब तक संयुक्त राष्ट्र संघ वाह्य आक्रमण को रोकने में सक्षम नहीं हो जाता, बाहरी आक्रमण का मुकाबला जापान-अमेरिका सुरक्षा समझौते के अनुसार करना।

राष्ट्रीय सुरक्षा की रूपरेखा में जापान के सुरक्षा बलों की किसी भी राष्ट्रीय उहा-पोह या वाह्य आक्रमण से निबटने की क्षमता सरोकार के केन्द्र में है।

जापान का संविधान, शांतिवाद एवं युद्ध का अधिकार त्यागने के सिद्धांत पर आधारित है। किन्तु इससे जापान का आत्मरक्षा का अधिकार नहीं समाप्त हो जाता । इसी तर्क पर जापानी शासन आवश्यक न्यूनतम सैन्य शक्ति को असंवैधानिक नहीं मानता। जापान का आत्म रक्षा बल (एस. डी. एफ.) उसकी न्यूनतम सैन्य शक्ति है।

जापान की नीति नाभिकीय शस्त्रों के रखने, निर्माण करने, या शुरू करने के विरुद्ध प्रतिबद्धता की है।

जापान की रक्षा शक्ति
जापान की थल, जल और वायु सेनाएं, आकार और क्षमता के संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। अधिकतम रक्षा बजट से तैयार जापान की सैन्य शक्ति की तकनीकी परिष्कार और दक्षता की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ सैन्य शक्ति वाले किसी भी देश से की जा सकती है। अमेरिकी प्रभाव और प्रेरणा से जापान में पुनः शस्त्रीकरण की क्रमिक प्रक्रिया जारी है। इसके अलावा जापान में 45,000 अमेरिकी सैनिक तैनात रहते हैं। और वहां 119 अमेरिकी सैनिक हवाई अरे है। तथा अमेरिका का सातवां बेड़ा भी जापानी तट पर ही डेरा डाले है।

पांच क्षेत्रीय कमानों के तहत जापान की आत्मरक्षा की थल सेना जी. एस. डी. एफ. में 1,55,000 सैनिक एवं अधिकारी हैं तथा 43,000 की रिजर्व सेना है।

आत्मरक्षा की जल सेना (एम. एस.डी. एफ.) में 44,000 नौसैनिक हैं । एवं 600 रिजर्व नौसैनिक हैं। और नौसैनिक अड्डे योको सुका, कूटे, सासबो, माइजरु और ओमिनाटो में हैं।
आत्म रक्षा की वायुसेना में 46,000 लोग है।

 संवैधानिक सीमाएँ
जैसा कि आप पिछली इकाइयों में पढ़ चुके हैं जापान के संविधान के अनुच्छेद-9 में राष्ट्र के संप्रभु अधिकार के रूप में युद्ध का परित्याग, अंतर्राष्ट्रीय विवाद के निबटारे के लिए युद्ध या युद्ध की धमकी का प्रयोग न करने और विश्व शांति की स्थापना के प्रति प्रतिबद्धता का उल्लेख है। राज्य का युद्ध का अधिकार संवैधानिक रूप से निषिद्ध है। लेकिन आत्म रक्षा के तर्क पर सैन्य शक्ति के गठन पर संवैधानिक रोक नहीं है।

प्राकृतिक विपदाओं में राहत कार्यों से जापान का आत्म रक्षा बल काफी प्रतिष्ठा अर्जित कर चुका है। कुछ राजनैतिक हलकों में अनुच्छेद-9 के संशोधन पर बहस चल रही है।

रक्षा बजट
आपानी गणना के अनुसार, रक्षा बजट हमेशा ही कुल राष्ट्रीय आय के 1प्रतिशत से थोड़ा सा कम होता है। वैसे यह आंकड़ा रक्षा बजट की सही तस्वीर नहीं पेश करता । आत्मरक्षा बल (एस. डी. एफ.) के पेंशन और सैन्य विषयक शोध मिला कर, रक्षा बजट कुल राष्ट्रीय व्यय के 63प्रतिशत तक पहुंच जाती है। एक अत्यधिक सम्पन्न देश, जो युद्ध निषेध की घोषणा करता हो, इसके लिए यह रक्षा बजट कम नहीं है।

राष्ट्रीय सुरक्षा का महत्व किसी खास समय पर अंतर्राष्ट्रीय माहौल के अनुसार, जापान की सुरक्षा के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आक्रमण के विविध रूपों की कल्पना की जा सकती है। दुनिया का महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र होने के नाते इसकी सुरक्षा और भी महत्वपूर्ण है। इसके लिए जापान की नीति संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति प्रयासों में सहयोग, दुनिया के आर्थिक और राजनैतिक विकास की दिशा में योगदान और निःशस्त्रीकरण की है। इसके साथ ही आक्रमण से निबटने में सक्षम जापान की अपनी सेना है तथा अमेरिका-जापान सुरक्षा संधि इसकी अतिरिक्त गारंटी है।

 क्षेत्रीय और विश्व सुरक्षा
आर्थिक और सैन्य शक्ति के रूप में अमेरिका की घटती प्रतिष्ठा और सोवियत संघ के बिखराव के चलते बहुत से एशियाई देश क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए जापान की तरफ देखने लगे है। दक्षिण-पूर्व और पूर्व एशिया के देश, जापान से गोत्रीय सुरक्षा में अग्रणी भूमिका की अपेक्षा तो करते है लेकिन वे इसके नाभिकीय शक्ति बनने के पक्षधर नहीं है।

इसकी सुरक्षा भूमिका निम्न दो शतों पर ही मान्य हो सकती है:
1. यह अमेरिका-जापान सुरक्षा संधि की सीमा में हो, और
2. संबद्ध सैन्य तैयारी क्षेत्र के मित्र राष्ट्रों के साथ नियमित विचार-विमर्श के बाद हो।

जापान अभी तक अपनी क्षेत्रीय सुरक्षा भूमिका के प्रति स्पष्ट नहीं है। विश्व स्तर पर यह आर्थिक सहयोग और संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों के समर्थन के जरिए विश्व शांति और स्थायित्व का समर्थक है।

बोध प्रश्न 3
नीचे दी गई जगह में प्रश्नों के उत्तर लिखें और उन्हें इकाई के अन्त में दिए गए उत्तरों से मिला लें।
1. जापान की रक्षा नीति के प्रमुख स्रोत क्या है?
2. जापान की राष्ट्रीय सुरक्षा के तत्कालीन उद्देश्य क्या है?
3. बाहरी आक्रमण से निपटने की जापानी नीति क्या है?
4. जापान की आत्म-रक्षा बल की कौन-कौन तीन शाखाएं है।

बोध प्रश्न 3
1. (क) संसद
(ख) विदेश मंत्रालय
(ग) बड़े व्यापारिक घराने
(घ) जनमत
2. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और उद्योग मंत्रालय यह अपने अधिकार संवैधानिक रूप से संसद से प्राप्त करता है और उनका प्रत्यक्ष उपयोग करता है।
3. सरकार की कार्यपालिका के प्रमुख और शासक दल के अध्यक्ष होने के नाते।

 जापान के विदेश संबंध
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आर्थिक विकास ने इसके विदेश संबंधों का ढांचा तैयार किया। इसके विदेश संबंध, विश्व बाजार के साथ राष्ट्रीय अर्थतंत्र के तालमेल की समस्याओं पर निर्भर करते हैं। युद्ध के बाद जापानी नेतृत्व को लगा कि आर्थिक आधार पर ही राजनैतिक ताकत बना जा सकता है। इसलिए जापान की आर्थिक विदेश नीति को अन्य देशों के साथ आर्थिक संबंधों और विदेश संबंध का पर्याय माना जाने लगा है।

विस्तारवादी महत्वाकांक्षा और सैन्य शक्ति के बिना ही जापान, विशिष्ट आर्थिक शक्ति के रूप में अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। 1950 से 1973 के तेल संकट के समय तक इसके विकास की गति अभूतपूर्व थी। 1973 के बाद भी विकास की रफ्तार अन्य विकसित औद्योगिक देशों की तुलना में बेहतर यी है। यह संसाधनों की कमी और औद्योगिकरण की तेज रफ्तार के साथ अस्तित्व की निरंतरता की अनिवार्य शर्त है।

भारत और जापान
भारत के साथ संबंध कमी भी जापान की वरीयता की सूची में नहीं था। जापान पश्चिमी खेमे के साथ है और भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सदस्य है। भारत सोवियत संघ का मित्र समझा जाता था और जापानी विदेश नीति अमेरिकी हितों और अमेरिका के साथ संबंधों की अवहेलना नहीं कर सकता था। भारत-जापान संबंध आर्थिक मामलों तक ही सीमित थे। बदली परिस्थितियों में भारत के साथ संबंधों में विकास की संभावनाएं बड़ी है।

भारत की उदारीकरण की नीति से यहां जापानी निवेश की संभावनाएं बढ़ी है। ‘एक भारत-जापान औद्योगिक कस्बा ’स्थापित करने की बात चर्चा में है। भारत-जापान औद्योगिक सहयोग के कुछ महत्वपूर्ण प्रष्ठिान निम्नलिखित है
मोटर वाहन: मारुति सुजुकी, हीरो होन्डा, डीसीएम-टोयाटो, आइचर-मित्सुबिशी, टीवीएस-सुजुकी एवं एस्कोर्ट-यामहा।
इलेक्ट्रानिक्स: वीडियोकॉन-मत्सुशिता, वेस्टन-हिताची, ओेनिया ने वीसी और कल्याणी-।

भारत का प्रयास है कि जापान अपने व्यापारिक लाभांश में से भारत के विकास में मदद करे और औद्योगिक सहयोग के अलावा यहां नये उद्योग भी लगाए। भारत जापान को लोहे का अयस्क, इंजीनियरिंग के कुछ सामान, कृषि सामग्री, कपड़ा, चमड़ा और चमड़े का सामान, जवाहारात और आभूषण निर्यात करता है। वहां से यह सिंथेटिक सामग्री, उपकरण एवं मशीनरी आयात करता है। तमाम विभिन्नताओं के बावजूद व्यापार, जहाजरानी, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में दोनों देशों के दृष्टिकोणों में समानता दिखती है।

जापान, उत्तरी अमेरिका और यूरोपीय समुदाय दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही जापान के अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ घनिष्ठ आर्थिक-राजनैतिक संबंध रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में जापान की आर्थिक शक्ति बढ़ने के साथ संबंधों के संतुलन में थोड़ा-सा तनाव आया दिखता है। अमेरिका जापान को आधारभूत जरूरत की चीजें निर्यात करता है। जबकि जापान अमेरिका की बाजार में निर्मित माल की आपूर्ति करता है। जापान-अमेरिका सुरक्षा समझौते के विरोधियों का मानना है कि जापान को अपनी आर्थिक क्षमताओं के अनरूप सैन्य शक्ति बन जाना चाहिए जिससे वह अमेरिकी प्रभाव से मुक्त विदेश नीति का निर्माण कर सके। लेकिन जापानी शासन इन संबंधों को तोड़ने की बजाय मजबूत बनाने की कोशिश करता है। 1983 में अमेरिका के साथ रक्षा तकनीक पर द्विपक्षीय समझौते के तहत जापान संयुक्त राष्ट्र संघ के (स्ट्रेटजिक आर्स इनिशिएटिव (एस. डी. आई.) का सदस्य है।

जापानी उत्पादन और कनाडा के प्राकृतिक संसाधनों में अच्छे संतुलित तालमेल के चलते कनाडा के साथ जापान के संबंध बहुत अच्छे हैं। ओधोगिक रूप से विकसित पश्चिमी यूरोप और जापान दोनों में ही संसाधनों का अभाव है। यूरोपीय समुदाय जापानी उत्पादकों के लिए एक बहुत बड़ा बाजार उपलब्ध कराता है। और जापान वहां से महत्वपूर्ण आधार सामग्री आयात करता है।

जापान और औद्योगिक देश
कोरिया और ताइवान दोनों जापान के उपनिवेश थे और इनके साथ जापान के संबंधों पर औपनिवेशिक छाप दिखाई पड़ती है। ये संबंध आर्थिक की बजाय सामरिक और भू-राजनैतिक स्थितियों से निर्धारित होते है। जापान कोरिया के एकीकरण का पक्षधर नहीं है और न ही उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच का तनाव का, जो जापान की सुरक्षा के लिए खतरे पैदा कर सकता है। हाल के वर्षों में दक्षिण कोरिया के साथ संबंधों में सुधार हुआ है। 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नकासो याशुहिए की कोरिया यात्रा के बाद जापान कोरिया को 4 अरब डालर की सहायता के लिए राजी हुआ है। जापान और ताइवान के बीच चीन की नीति के चलते राजनयिक संबंध तो नहीं है लेकिन उनके बीच आर्थिक सहयोग को महत्वपूर्ण माना जा रहा है।

 जापान, पूर्व सोवियत संघ और चीन
शीत युद्ध के दौरान पूर्व सोवियत संघ के साथ जापान के संबंध तनावपूर्ण थे और सोवियत संघ के आक्रमण की आशंका से आत्मरक्षा के सरोकार के चलते उसने क्षेत्रीय सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना शुरू किया । गोर्वाचोव के शासन काल में संबंधों को सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण राजनयिक शुरुआत हुई। लेकिन सोवियत संघ के शांति प्रयासों के प्रति जापान सशंकित ही रहा । विवादित क्षेत्रों की वापसी की मांग के चलते शांति स्थापित करने के सोवियत प्रयासों को विशेष सफलता नहीं मिल पायी। सोवियत संघ के विघटन से विवादित क्षेत्रों की जापान को वापस करने का मुद्दा और भी जटिल हो गया है।

जापान-चीन संबंधों में मौजूदा स्थिरता, आर्थिक कारणों और भू-राजनैतिक पहलू पर जापान के दूरगामी समझ का परिणाम है। जापान चीन के साथ सहयोग के मामले में सावधानीपूर्ण रवैया अपनाता है । जापान नहीं चाहता कि अमेरिकी नौसेना के विकास में मदद करे क्योंकि इसे वह अपनी सुरक्षा के लिए खतरनाक मानता है। चीन जापान की बढ़ती सैन्य शक्ति पर चिंता व्यक्त करता है। जापान चीन के आधुनिकीकरण में सहायता करके लाभ तो कमाना चाहता है लेकिन उसे विकसित औद्योगिक देश के रूप में नहीं देखना चाहता ।

जापान और विकासशील देश
जापान आशिअन (एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशन्स-उत्तर पूर्वी एशियाई देशों की परिषद) की संरचनात्मक विसंगतियों से परेशानी महसूस करता है। और आशिअन के सदस्य देश जापान द्वारा क्षेत्र के कच्चे माल के दोहन और जापानी कंपनियों के पूंजीनिवेश के चलते अपनी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं पर बढ़ते जापानी पूंजी के वर्चस्व को लेकर चिंतित हैं। हाल में जापान ने प्रदूषण फैलाने वाले अपने उद्योग क्षेत्र को अन्य देशों में स्थानांतरित करना शुरू किया है।

तेल के लिए जापान पूरी तरह खाड़ी देशों पर निर्भर है। तेल की आपूर्ति दो देखते हुए पहले तेल संकट के समय से ही जापान अरब-समर्थन की नीति अपनाए हुए है। ईरान और इराक दोनों के साथ जापान के संबंध मैत्रीपूर्ण हैं । इसलिए वह ईरान-इराक विवाद हल करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में है। जापान अपनी तेल की खपत का दो-तिहाई फारस की खाड़ी के रास्ते मध्यपूर्व एशिया से आयातित करता है।

जापान अफ्रीका के उन देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता देने के मामले में वरीयता देता है जिनके पास निर्यात योग्य संसाधन है। जापान ने संसाधन संपन्न दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद के मुद्दे पर कोई स्पष्ट रुख नहीं अपनाया।

लैटिन अमेरिकी राजनीति की अस्थिरता के बावजूद वहां के देशों के साथ जापानी संबंध सौहार्दपूर्ण एवं सहयोग के है।।

बोध प्रश्न 4
नीचे दी गई जगह में प्रश्नों के उत्तर लिखें और उन्हें इकाई के अन्त में दिए गए उत्तरों से मिला लें।
1. जापान-अमेरिका संबंधों की मौजूदा समस्या क्या है?
2. चीन में जापान की क्या रुचि है?
3. मध्यपूर्व में जापान का कौन-सा हित दांव पर है?

बोध प्रश्न 4
1. द्विपक्षीय व्यापार में जापान अमेरिका पर भारी पड़ने लगा है, समस्या की जड़ यही है।
2. जापान चीन के आधुनिकीकरण को समर्थन देकर उससे लाभ कमाना चाहता है।
3. यह अपनी खपत का दो-तिहाई तेल महत्वपूर्ण एशिया से आयातित करता है। तेल आपूर्ति इसकी अर्थव्यवस्था के लिए अनिवार्य है।

जापान और संयुक्त राष्ट्र संघ
संयुक्त राष्ट्र संघ में जापान को 1956 में प्रवेश मिला। तभी से जापान इसकी हर क्षेत्र की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करता है। जैसे-जैसे इन गतिविधियों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ने लगा और विशेषज्ञ संगठनों का विस्तार होने लगा, जापान के योगदान में भी वृद्धि हुई।

जापान की संयुक्त राष्ट्र संघ के नियमित बजट और शांति स्थापना के प्रयासों के व्यय में जापानी योगदान में पर्याप्त वृद्धि हुई।

जापान संयुक्त राष्ट्र के निम्न संगठनों में भी अपनी सक्रियता और आर्थिक योगदान बढ़ा है: विकास और व्यापार पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (अंकटाड), संयुक्त राष्ट्र विकास योजना (यू.एन.डी.पी.), संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन: (यूनिडो), संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनीसेफ), शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायोग (यू एन एच सी आर), विश्व स्वस्थ संगठन (डब्ल्यू एच ओ), खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ ए ओ), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा संगठन (आई एम एफ)। आर्थिक शक्ति होने के नाते निकट भविष्य में जापान को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनाने की संभावनाओं की भी चर्चा है।

अंतर्राष्ट्रीय विनिमय और सहयोग
आर्थिक विकास के साथ अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जापान के योगदान में भी वृद्धि हुई है। सरकारी विकास सहायता (ओ.डी.ए.) की मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही है। दुनिया के सभी देशों की कुल राष्ट्रीय आय में जापान का योगदान 10 प्रतिशत है जिससे जापान विश्व परिषद का प्रमुख हस्ती बन गया है । अमेरिका की आर्थिक शक्ति में अपेक्षाकृत कमी, कुल राष्ट्रीय आय को देखते हुए न्यूनतम रक्षा बजट 1985 के बाद से येन के मूल्य में अभूतपूर्व वृद्धि आदि कारणों से जापान विकासशील देशों के लिए पूंजी, तकनीक और विदेशी सहायता की आशा का केन्द्र बन गया है। जापानी राजनय अपनी जड़ें मजबूत करके अपनी गतिविधियों को विस्तार दे रहा है। निम्न अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों में जापान का योगदान उल्लेखनीय है: (क) शांति के लिए सहयोग
(ख) सरकारी विकास सहायता का विस्तार
(ग) सांस्कृतिक आदान-प्रदान का विकास

शांति के लिए सहयोग की अवधारणा के अंतर्गत जापान अंतर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने की दिशा में सक्रिय हस्तक्षेप करता है।

इस प्रयास में वह विवाद से संबंधित देशों के साथ और ऐसे देशों के साथ जो विवाद को हल करने में सार्थक भूमिका निभाने की स्थिति में हों, राजनयिक वार्ताओं का आयोजन करता है। अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी के जरिए सहयोग करता है। अंतर्राष्ट्रीय शांति स्थापना की गतिविधियों में अपने अधिकारी एवं प्रतिनिधि भेजता है, शरणार्थियों की मदद करता है, और पुनर्निर्माण में सहायता करता है।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना के पीछे जापान के निम्न उद्देश्य हैं:

(क) सहायता पाने वाले देश के निवासियों के जीवन स्तर में सुधार,
(ख) उन देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना,
(ग) विकासशील देशों की आर्थिक प्रगति में सहयोग के जरिए विश्व अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान, और
(घ) अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की शांति और स्थायित्व बनाए रखने में योगदान ।

1987 में जापान ने 7.5 अरब डालर विदेशी सहायता के रूप में दिया था। 1988 में यह राशि 9.13 अरब डालर और 1989 में 8.9 अरब डालर थी। 1992 से अगले पांच सालों में जापान का लक्ष्य 50 अरब डालर विदेशी सहायता का है। ओ.डी.ए. (सरकारी विकास सहायता) जापान की कुल बजट के संदर्भ में बहुत थोड़ी लगती है। यद्यपि जापान सबसे बड़े दाताओं में से है। फिर भी निर्णय के कार्यान्वयन की व्यवस्था पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसे विकसित नहीं है।

विवाद में मध्यस्थता की नीति से युद्धोपरांत की अंतर्राष्ट्रीय मामलों में तटस्थता और निष्क्रियता का क्रम टूटा । अब भी जापान की विदेश नीति विशेष सक्रिय नहीं है।

बाहर के लोग, जापान के आर्थिक विकास की रफ्तार के चलते, उसे समझने में कठिनाई महसूस करते हैं। लेकिन सांस्कृतिक विनिमय की नीति के तहत शायद जापान विदेशों में विकास के अपने मंत्र को स्पष्ट कर सके।

बोध प्रश्न 5
नीचे दी गई जगह में प्रश्नों के उत्तर लिखें और इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों में उन्हें मिला लें।
1. जापान संयुक्त राष्ट्र संघ में का भरती हुआ ?
2. ओ.डी.ए. सरकारी विकास सहायता क्या है ?
3. जापान का अंतर्राष्ट्रीय योगदान किन-किन रूपों में है?
4. 1992-96 के दौरान जापान की कितनी विदेशी सहायता प्रदान करने की योजना है?

बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 5
1. 1956 में
2. विदेश विकास सहायता
3. (क) ओ डी ए का विस्तार
(ख) शांति के लिए सहयोग
(ग) सांस्कृतिक आदान-प्रदान का उत्थान
4. 50 अरब डालर

सारांश
एक पराजित देश के लिए स्वतंत्र विदेश नीति बना पाना बहुत मुश्किल काम है। इसीलिए द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की जापान की विदेश नीति पर अमेरिकी प्रभाव की छाप स्पष्ट दिखती है। इन सीमाओं के बावजूद जापान की विदेश नीति उत्तर-दक्षिण के गरीब और अमीर देशों में बंटी दुनिया में एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त करने में सफल रही है। जापान विदेश नीति के निर्धारण में भू-आर्थिक कारणों को अत्यधिक महत्व देता है। जापान आज दुनिया का अत्यंत महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति बन चुका है। बाजार के अपने अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों को विस्तार देने के साथ जापान ने उन्हें जापानी माल, सेवाओं, तकनीक और पूंजी पर निर्भर बना दिया है।

भारत के साथ पूर्वी एशिया के अन्य देशों की भांति जापान के साथ भी सभ्यतागत ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। माधुनिक काल में एक आधुनिक राज्य के रूप में इसके उदय और 1904-1905 में रूस पर इसकी विजय ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेरणा का काम किया। जापान ने भारतीय क्रांतिकारियों को शरण, प्रोत्साहन और आर्थिक सहायता भी दी थी। हाल के सालों में दोनों देशों के संबंधों में उल्लेखनीय प्रगति हुई है।

 शब्दावली
भू-अर्थशाखा: भौगोलिक स्थिति पर निर्भर अर्थतंत्र।
एम. आई. टी. आई.: अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय।
एस. डी. एफ.: आत्म सुरक्षा बल।
10.10 कुछ उपयोगी पुस्तकें
1. ड्रिफ्टे, राइनहार्ड, जापांस फॉरेन पालिसी, लंदन, 1990
2. नेस्टर, विलियन आर, जापान एंड थर्ड वर्ल्ड, लंदन, 1992