श्रम विभाजन किसे कहते है | श्रम विभाजन की परिभाषा क्या है कारण परिणाम division of labour meaning in hindi

division of labour meaning in hindi श्रम विभाजन किसे कहते है | श्रम विभाजन की परिभाषा क्या है कारण परिणाम ?

सामाजिक श्रम विभाजन तथा औद्योगिक श्रम विभाजन
सबसे पहले यह समझना होगा कि मार्क्स के अनुसार श्रम विभाजन का अर्थ क्या है। मार्क्स ने अपनी पुस्तक कैपीटल के पहले भाग में इस विषय का विवेचन करते हुए श्रम विभाजन के दो प्रकारों का उल्लेख किया है। ये दो प्रकार हैंरू सामाजिक श्रम विभाजन और औद्योगिक श्रम विभाजन।

प) सामाजिक श्रम विभाजनः यह सभी समाजों विद्यमान है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसका होना अनिवार्य है ताकि किसी समाज के सदस्य सामाजिक एवं आर्थिक जीवन को व्यवस्थित बनाए रखने के लिए आवश्यक कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकें। यह समाज में श्रम के सभी उपयोगी रूपों को विभाजित करने की जटिल प्रणाली है। उदाहरण के लिए कुछ लोग किसान हैं जो खाद्य पदार्थ का उत्पादन करते हैं और कुछ हस्तशिल्प की वस्तुएं तो कुछ हथियार एवं अन्य सामान तैयार करते हैं।

सामाजिक श्रम विभाजन से विभिन्न समूहों के बीच वस्तुओं के आदान-प्रदान को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिए, कुम्हार द्वारा बनाए गए मिट्टी के बर्तनों के बदले किसान के चावल या बुनकर से कपड़ा प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार के लेन-देन से विशेषज्ञता पनपती है।
चित्र 20.1ः सामाजिक श्रम विभाजन
ब औद्योगिक श्रम विभाजनः यह प्रक्रिया औद्योगिक समाजों में विद्यमान है, जहां पूँजीवाद तथा उत्पादन की फैक्टरी व्यवस्था प्रचलित है। इस प्रक्रिया में किसी वस्तु के निर्माण को अनेक प्रक्रियाओं में बांट दिया जाता है। प्रत्येक श्रमिक का काम एक छोटी प्रक्रिया (जैसे कि एसेम्बली लाइन का काम) तक सीमित रहता है। यह काम सामान्यतः नीरस तथ उकता देने वाला होता है। श्रम के इस विभाजन का उद्देश्य एकदम सरल है। यह है उत्पादकता बढ़ाना। जितनी अधिक उत्पादकता होगी, उतना ही ज्यादा उससे उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य (ेनतचसने अंसनम) होगा। यह अतिरिक्त मूल्य ही पूँजीपतियों को अपनी उत्पादन प्रक्रिया को इस प्रकार नियोजित करने की प्रेरणा देता है, जिससे कम से कम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन किया जाए। आधुनिक औद्योगिक समाजों में श्रम विभाजन के बल पर ही माल का व्यापक स्तर पर उत्पादन हो रहा है। सामाजिक श्रम विभाजन में स्वतंत्र उत्पादक अपनी वस्तुएं तैयार कर दूसरे स्वतंत्र निर्माताओं के साथ उनका आदान-प्रदान करते हैं, किन्तु औद्योगिक श्रम विभाजन भिन्न है इसमें कामगार का अपने उत्पाद से कोई सरोकार नहीं रहता। आइए अब हम इस मुद्दे पर अधिक विस्तार से अध्ययन करें जिससे औद्योगिक श्रम विभाजन के परिणाम को समझा जा सकता है। औद्योगिक श्रम विभाजन को पूरी तरह से समझने हेतु सोचिए और करिए 2 को पूरा करें।

सोचिए और करिए 2
किसी कारखाने अथवा हस्त-शिल्प उद्योग में श्रम विभाजन और उसके संभावित परिणामों का अध्ययन कीजिए। इसके आधार पर लगभग दो पृष्ठ की टिप्पणी लिखिए। यदि संभव हो तो अध्ययन केन्द्र के अन्य विद्यार्थियों की टिप्पणियों से अपनी टिप्पणी का मिलान कीजिए।

औद्योगिक श्रम विभाजन के परिणाम
प) लाभ पूँजीपतियों के हिस्से मेंः जैसा कि पहले बताया गया है, औद्योगिक श्रमे विभाजन से अतिरिक्त मूल्य के अधिक से अधिक उत्पादन में सहायता मिलती है, जिससे पूँजी की मात्रा बढ़ती जाती है। मार्क्स ने अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न किया है कि लाभ किसके हिस्से में जाता है? उसके अनुसार लाभ कामगारों के नहीं बल्कि पूँजीपतियों के हिस्से में जाता है। लाभ पर उनका हक नहीं है, जो वास्तव में उत्पादन करते हैं, बल्कि उनका कहना है जिनका उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण है। मार्क्स के अनुसार श्रम विभाजन तथा निजी सम्पति की प्रथा, ये दोनों तत्व मिलकर पूँजीपति की ताकत को और मजबूत करते है। चूंकि उत्पादन के साधनों का मालिक पूँजीपति है, इसलिए उत्पादन की प्रक्रिया इस ढंग से निर्धारित की जाती है कि उसका अधिकतम लाभ पूँजीपति को ही मिले।

पप) कामगारों का अपने उत्पादन पर नियंत्रण नहीं रहताः मार्क्स के अनुसार, निर्माण में श्रम विभाजन के फलस्वरूप श्रमिक का उत्पादन के वास्तविक निर्माता का दर्जा समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत, वे पूँजीपतियों द्वारा तैयार की गई उत्पादन श्रृंखला की एक कड़ी मात्र बन जाते हैं दिखिये चित्र 20.2ः उत्पादन में श्रम विभाजन)। श्रमिकों को उनके अपने श्रम से बनाई गई वस्तु से अलग कर दिया जाता है। सच तो यह है कि वे अपने श्रम के अंतिम परिणाम को देख तक नहीं पाते। उसके क्रय-विक्रय पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता। उदाहरण के लिए भारत में वाशिंग मशीन के कारखाने की असेम्बली लाइन में काम करने वाला मजदूर क्या अंतिम रूप से तैयार वाशिंग मशीन को देख पाता है। हाँ हो सकता है किसी विज्ञापन अथवा दुकान में रखी वाशिंग मशीन को वह देख लेता है। वह उस मशीन के निर्माण की प्रक्रिया का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है और न उसे बेचने में उसकी कोई दखल है और न ही वह उसे खरीद पाने में सक्षम है। उस पर वास्तविक नियंत्रण पूँजीपतियों का है। स्वतंत्र निर्माता या उत्पादक के रूप में श्रमिक का अस्तित्व मिट चुका है। उत्पादन प्रक्रिया ने श्रमिक को गुलाम बना दिया है।
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चित्र 20.2ः उत्पादन में श्रम-विभाजन
पपप) श्रमिक वर्ग का अमानवीकरणः श्रम विभाजन से युक्त पूँजीवादी प्रणाली में वस्तुओं के स्वतंत्र उत्पादक के रूप में श्रमिकों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। वे उत्पादन के लिए आवश्यक श्रम शक्ति के पूर्तिकर्ता मात्र रह जाते हैं। श्रमिका का अलग व्यक्तित्व उसकी जरूरतें तथा इच्छाएँ पूँजीपति के लिए कोई महत्व नहीं रखतीं। पूँजीपति की चिंता यही रही है कि मजदूरी या वेतन के बदले पूँजीपति श्रमिक की श्रम-शक्ति मिलती रहे। मार्क्स के अनुसार श्रमिक वर्ग का मानव-रूप इस प्रकार विलुप्त हो जाता है और श्रम-शक्ति एक वस्तु बन कर रह जाती है जिसे पूँजीपति द्वारा खरीदा जाता है।
पअ) अलगावः (alienation) मार्क्स ने औद्योगिक जगत की यथार्थ स्थितियों को समझने की जो अवधारणाएँ विकसित की हैं, उनमें से एक महत्वपूर्ण अवधारणा है अलगाववाद जिसके बारे में खंड 2 में जानकारी दी जा चुकी है।

उत्पादन तथा श्रम विभाजन की प्रक्रिया श्रमिक को उकता देने वाले काम बार-बार करने को विवश करती है। श्रमिक का अपने ही काम पर कोई नियंत्रण नहीं होता। जिस वस्तु का निर्माण होता है, उसकी उत्पादन प्रक्रिया के श्रमिक भाग हैं परंतु उससे तथा अपने सहयोगी श्रमिकों और अंततः पूरे समाज से श्रमिक एक तरह से कट जाते हैं दिखें कोलकोवस्की 1978ः 281-287)। नियंत्रण रहने, अमानवीय और अलगाव आदि की समस्याओं का क्या कोई समाधान है? मार्क्स का कहना है कि निजी सम्पत्ति की व्यवस्था समाप्त करना और वर्ग-विहीन समाज की रचना से ही इन समस्याओं का समाधान होगा।

मार्क्स द्वारा समस्या का हलः क्रांति और बदलाव
क्या श्रमिक को उत्पादन प्रक्रिया का गुलाम बनने को विवश किया जाये? क्या श्रमिकों की रचनात्मक शक्ति तथा उनके अपने काम पर नियंत्रण को समाप्त करके उनपर श्रम विभाजन हमेशा के लिए थोपा जा सकता है? मार्क्स का कहना है कि सामाजिक श्रम विभाजन का जारी रहना आवश्यक है ताकि मानव जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। परन्तु औद्योगिक श्रम विभाजन को नया रूप देना होगा। सर्वहारा वर्ग की क्रांति के माध्यम से निजी सम्पत्ति को समाप्त करके श्रमिक वर्ग अपने ऊपर थोपे गए श्रम विभाजन से मुक्ति पा सकता है।

मार्क्स की मान्यता है कि साम्यवादी समाज की स्थापना से उत्पादन के साधनों पर श्रमिकों का स्वामित्व एवं नियंत्रण हो सकेगा। पुनर्गठित उत्पादन प्रक्रिया के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता को पहचानेगा और अपनी रचनात्मक शक्ति का उपयोग करेगा। मार्क्स और ऐंगल्स (जर्मन आइडियोलॉजी, भाग 1, अनुभाग प्ण्।ण्प्) ने अपने दृष्टिकोण को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है।

साम्यवादी समाज में, जिसमें किसी व्यक्ति का कोई विशिष्ट कार्यक्षेत्र नहीं होता, किन्तु, प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी कार्य में दक्षता प्राप्त कर सकता है, समाज ही सामान्य उत्पादन को नियंत्रित करता है और इस प्रकार मेरे लिए यह संभव हो जाता है कि मैं आज एक काम करूं तथा कल कोई और कार्य कर संकू। संभव है कि मैं सबेरे शिकार पर निकल जाऊँ, दोपहर बाद मछली पकड़े, शाम को पशु-पालन करूं और रात्रिभोज के पश्चात् आलोचना करूं। ये सभी काम शिकारी, मछुआरा, चरवाहा या आलोचक कहलाएं बिना अपनी इच्छा के अनुसार करना मेरे लिए संभव है।

इस चर्चा में हमने देखा कि कार्ल मार्क्स ने सामाजिक श्रम विभाजन और औद्योगिक श्रम विभाजन में किस प्रकार भेद किया। सभी समाजों में भौतिक जीवन के आधार के लिए सामाजिक श्रम विभाजन आवश्यक है। किन्तु औद्योगिक श्रम-विभाजन औद्योगीकरण ता पूँजीवाद के विकास के कारण ही अस्तित्व में आता है।

उत्पादन में श्रम विभाजन के अस्तित्व के निम्नलिखित पक्ष हैं।
प) लाभ पूँजीपति के हिस्से में जाता है।
पप) श्रमिकों का अपने उत्पादों पर नियंत्रण नहीं रहता।
पपप) श्रमिक वर्ग का अमानवीकरण होता है।
पअ) सभी स्तरों पर अलगाव पैदा होता है।

इन समस्याओं से निपटने के लिए मार्क्स ने “सर्वहारा की क्रांति‘‘ का उद्घोष किया, जिसमें निजी सम्पत्ति समाप्त हो जाएगी और उत्पादन के साधनों का स्वामित्व मजदूरों के हाथों में चला जाएगा। इसके फलस्वरूप उत्पादन प्रक्रिया स्वयं श्रमिकों द्वारा विकसित और संचालित हो सकेगी तथा श्रमिकों को अपनी रचनात्मक शक्ति को इस्तेमाल करने और विभिन्न कार्यो में श्रेष्ठता प्राप्त करने के अवसर मिल सकेंगे। उकता देने वाली तथा शोषक कार्य पद्धति उनपर नहीं थोपी जाएगी।

आइए, अब बोध प्रश्न 3 को पूरा करें।

बोध प्रश्न 3
प) निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर तीन पंक्तियों में दीजिए।
क) “सामाजिक श्रम विभाजन‘‘ से मार्क्स का क्या अभिप्राय था?
ख) औद्योगिक श्रम विभाजन के फलस्वरूप श्रमिक अपने उत्पादों पर नियंत्रण खो देते हैं।‘‘ इस कथन की व्याख्या कीजिए।
पप) सही विकल्प पर निशान लगाइए।
क) मार्क्स के अनुसार, श्रमिक वर्ग का अमानवीकरण हो जाता है क्योंकि
प) कारखानों में मशीनों से काम होने लगता है।
पप) श्रमिकों को श्रम-शक्ति का पूर्तिकर्ता मात्र समझा जाता है।
पपप) श्रमिक अपने द्वारा निर्मित वस्तुएं नहीं खरीद सकते।
ख) उत्पादन के प्रति श्रमिक अलगाव महसूस करते हैं क्योंकि
प) उन्हें एक जैसे काम बार-बार करने पड़ते हैं।
पप) लाभ में उनका कोई हिस्सा नहीं होता और अपने उत्पादों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता।
पपप) वे वेतन के बदले अपनी श्रम शक्ति बेचते हैं।
ग) साम्यवादी क्रांति के फलस्वरूप
प) श्रम विभाजन पूर्णतया समाप्त हो जाएगा।
पप) औद्योगिक श्रम विभाजन में कोई परिवर्तन नहीं होगा।
पपप) उत्पादन प्रक्रिया स्वयं श्रमिकों द्वारा विकसित और संचालित होगी।

 दर्खाइम तथा मार्क्स के विचारों की तुलना
हमने श्रम विभाजन के बारे में दर्खाइम तथा मार्क्स के विचारों का अलग-अलग अध्ययन किया है। आइए, अब हम उनके विचारों का तुलनात्मक अध्ययन करें। आसानी के लिए निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत श्रम विभाजन पर दोनों चिंतकों के विचारों की तुलना की जा रही है।

प) श्रम विभाजन के कारण
पप) श्रम विभाजन के परिणाम
पपप) श्रम विभाजन से संबंधित समस्याओं के समाधान
पअ) समाज के बारे में दर्खाइम का प्रकार्यात्मक मॉडल और मार्क्स का संघर्ष मॉडल

 श्रम विभाजन के कारण
दर्खाइम और मार्क्स, दोनों ने सरल पारम्परिक समाज और जटिल औद्योगिक समाज में विद्यमान श्रम विभाजन में स्पष्ट भेद किया है। श्रम विभाजन किसी भी समाज के सामाजिक-आर्थिक जीवन का अनिवार्य अंग है। किन्तु उन्होंने औद्योगिक समाजों में होने वाले श्रम विभाजन पर ही अधिक ध्यान दिया है।

दर्खाइम के अनुसार, औद्योगिक समाजों में श्रम विभाजन भौतिक तथा नैतिक सघनताओं में वृद्धि का परिणाम है। जैसा कि हमने पहले पढ़ा वह विशेषज्ञता अथवा श्रम विभाजन को एक साधन मानता है जिसके जरिए स्पर्धा या अस्तित्व के संघर्ष को कम किया जा सकता है। विशेषज्ञता ऐसा गुण है जिससे बड़ी संख्या में लोगों के लिए बिना लड़ाई-झगड़े के मिल-जुलकर रहना संभव होता है क्योंकि समाज में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी विशिष्ट भूमिका रहती है। इससे सामूहिकता और सह-अस्तित्व का विकास होता है।

मार्क्स भी उत्पादन में श्रम विभाजन को औद्योगिक समाज की एक विशेषता मानता है, परन्तु उसकी मान्यता दर्खाइम की मान्यता से भिन्न है। वह इसे सहयोग एवं सह-अस्तित्व का साधन नहीं मानता है। इसके विपरीत, उसकी धारणा यह है कि श्रम विभाजन श्रमिकों पर थोपी गई एक प्रक्रिया है ताकि लाभ पूँजीपति के हिस्से में जाए। वह इस प्रक्रिया को निजी सम्पत्ति के अस्तित्व के साथ जोड़ता है। इससे उत्पादन के साधनों पर पूँजीपति का नियंत्रण रहता है। इसीलिए पूँजीपति ऐसी प्रक्रिया तैयार करते हैं जिसमें उनको अधिक से अधिक लाभ मिले। इस प्रकार श्रम विभाजन को श्रमिकों पर थोपा जाता है। मजदूर वेतन के बदले अपनी श्रम-शक्ति बेचते हैं। उनमें एक जैसे उकता देने वाले तथा एक ही तरह के काम कराए जाते हैं। ताकि उत्पादकता बढ़ने के साथ-साथ पूँजीपति के लाभ में भी वृद्धि हो।

संक्षेप में, दर्खाइम की मान्यता है कि श्रम विभाजन के कारण इस तथ्य में निहित हैं कि औद्योगिक समाज को बनाए रखने के लिए व्यक्ति को सहयोग करने तथा विभिन्न प्रकार के काम करने की आवश्यकता है। मार्क्स के अनुसार श्रम विभाजन श्रमिकों पर थोपी गई प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य पूँजीपति का लाभ बढ़ाना है। दर्खाइम सहयोग पर बल देता है, जबकि मार्क्स ने शोषण एवं संघर्ष पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।

 श्रम विभाजन के परिणाम
आधुनिक औद्योगिक समाजों में श्रम विभाजन के कारणों के संबंध में दृष्टिकोण भिन्न होने के कारण श्रम विभाजन के परिणामों के मामले में भी दर्खाइम और मार्क्स के दृष्टिकोण में अंतर होना स्वाभाविक है।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, दर्खाइम श्रम विभाजन को ऐसी प्रक्रिया मानता है, जो लोगों में सहयोग एवं सह-अस्तित्व विकसित करने में सहायक है। हमने पहले ही पढ़ा है कि किस प्रकार वह श्रम विभाजन को सामाजिक एकीकरण की शक्ति मानता है, जिससे एकात्मता को बढ़ावा मिलता है। “सामान्य‘‘ स्थिति में श्रम विभाजन से प्रत्येक व्यक्ति का अपनी विशेष भूमिका निभाते हुए सामाजिक एकात्मता में योगदान होता है। प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने विशिष्ट क्षेत्र में रचनात्मक और नवोन्मुखता की अपनी शक्ति का विकास हो सकता है। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति की समाज पर अधिकाधिक निर्भरता होगी और परस्पर पूरक कार्य किये जायेंगे। इस प्रकार, सामाजिक बंधन अधिक पक्के तथा स्थायी होते जाते हैं।

दर्खाइम के अनुसार, श्रम का अपर्याप्त संगठन एवं असमानता पर आधारित मानकशून्य विभाजन श्रम विभाजन का व्याधिकीय अथवा असामान्य रूप है। इस प्रकार के रूप वास्तविक श्रम विभाजन के परिणाम नहीं हैं। ये समाज की अस्थिरता के परिणाम हैं। नए आर्थिक संबंधों के नियम और सिद्धांत अभी व्यवहार में नहीं आए हैं। आर्थिक क्षेत्र में बड़ी तीव्रता से परिवर्तन हो रहा है, किन्तु इसे सही दिशा देने वाले नए नियम-कानून अभी व्यवस्थित रूप में विकसित नहीं हुए हैं।

दूसरी ओर, मार्क्स की दृष्टि में श्रम विभाजन पूँजीपतियों द्वारा श्रमिकों पर थोपी गई एक प्रक्रिया । है। जैसा कि हमने पहले भी पढ़ा है, इसके फलस्वरूप श्रमिक वर्ग का अमानवीकरण हो जाता है। अलगाववाद उभर जाता है। श्रमिक व्यक्ति की बजाय वस्तु के रूप में देखे जाते हैं। उनकी सृजनात्मकता छीन ली जाती है और अपनी ही उत्पादों के नियंत्रण से वे वंचित हो जाते हैं। उनका श्रम सामग्री का रूप ले लेता है, जिसे बाजार में खरीदा और बेचा जा सकता है। इस प्रकार वे स्वयं उत्पादक न रहकर उत्पादन प्रक्रिया का अंग मात्र बन जाते हैं। उनके नियोजकों यानी मालिकों के लिए उनके व्यक्तित्व और उनकी समस्याओं का कोई महत्व नहीं रहता। उन्हें काम करने की मशीन से अधिक कुछ नहीं समझा जाता। इस प्रकार उनका पूर्णतया अमानवीकरण हो जाता है। वे एक ऐसी व्यवस्था के अंग होते हैं जिसके नियंत्रण से वे वंचित हैं, जिसके परिणामस्वरूप सभी स्तरों पर अलगाव महसूस करते हैंय अपने काम से लेकर साथियों और सामाजिक व्यवस्था तक से वे कट जाते हैं।

संक्षेप में, दर्खाइम की नजर में श्रम विभाजन ऐसी प्रक्रिया है, जो सामाजिक सामंजस्य का आधार बन सकती है। मार्क्स के अनुसार, यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे श्रमिक का अमानवीकरण होता है और अलगाव बढ़ जाता है तथा उत्पादक का अपनी रचना से संबंध टूट जाता है। श्रमिकों को जिस व्यवस्था का स्वामी होना चाहिए, उसके ही वे गुलाम बन कर रह जाते हैं ।

 श्रम विभाजन से संबंधित समस्याओं के समाधान
जैसे कि हमने पढ़ा है दर्खाइम श्रम विभाजन को ऐसी प्रक्रिया मानता है जो सामान्य परिस्थितियों में सामाजिक सामंजस्य का कारण बनती है। समाज में श्रम विभाजन के जो असामान्य रूप प्रचलित हो जाते हैं, उनको इस प्रकार सुधारा जाना चाहिए जिससे श्रम विभाजन सामाजिक एकीकरण की अपनी भूमिका निभा सके।

दर्खाइम का कहना है कि समाज में श्रमिकों को उनकी भूमिका के प्रति जागरूक बनाकर प्रतिमानहीनता की स्थिति को दूर किया जा सकता है। उनमें यह एहसास कराने से कि वे सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग है, निरर्थक कार्य करने की उनकी कुंठा को दूर किया जा सकता है। तब यह निरर्थकता उनकी उत्पादक भूमिका के महत्व के प्रति चेतना का रूप ले लेगी।

मार्क्स के अनुसार, पूँजीवाद ही वास्तव में मूल समस्या है। श्रम विभाजन से अमानवीकरण, अलगाव और नियंत्रण के अभाव जैसी स्थितियां जन्म लेती है। इसका समाधान है क्रांति, जिसके माध्यम से उत्पादन के साधनों पर श्रमिकों का फिर से नियंत्रण हो सकेगा। वे तब उत्पादन प्रक्रिया का विकास और संचालन इस ढंग से करेंगे कि अमानवीकरण और अलगाव जैसी समस्याएँ अतीत का विषय बन जाएँगी।

 समाज के बारे में दर्खाइम का “प्रकार्यात्मक‘‘ मॉडल और मार्क्स का ‘‘संघर्ष‘‘ मॉडल
श्रम विभाजन के अध्ययन के आधार पर दर्खाइम ने समाज का प्रकार्यात्मक मॉडल विकसित किया। वह इसमें देखता है कि किस प्रकार सामाजिक संस्थाएं तथा प्रक्रियाएं समाज को बनाएं रखने में सहायक होती हैं। इसके बारे में आपने इसी खंड की इकाई 18 में पढ़ा है। दर्खाइम सामाजिक संतुलन के प्रश्न का स्पष्टीकरण देने का प्रयास करता हैं। हमें याद रखना चाहिए कि दर्खाइम के जीवन काल में समाज की व्यवस्था पर खतरे मंडरा रहे थे। इसलिए संभवतः उसका काम यह दिखाना था कि जो परिवर्तन हो रहे हैं उनसे समाज-व्यवस्था छिन्न-भिन्न नहीं होगी, बल्कि नए समाज में सामंजस्य लाने में सहायता मिलेगी। दर्खाइम श्रम विभाजन के आर्थिक पहलू मात्र को नहीं बल्कि उसके सामाजिक पहलू अर्थात् सामाजिक एकीकरण में उसके योगदान को भी महत्व देता है।

दूसरी ओर औद्योगीकरण की चुनौतियों के प्रति मार्क्स की प्रतिक्रिया एकदम भिन्न है। वह दर्खाइम की इस मान्यता से सहमत नहीं है कि समाज मूलतः संतलित स्थिति में है और सामाजिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का अस्तित्व केवल इसलिए है कि वे समाज को एक बनाए रखने में सहायक है। मार्क्स मानव इतिहास को वर्ग संधर्ष अथवा शोषक एवं शोषितों के बीच संधर्षों की श्रृंखला का इतिहास मानता है। पूँजीवाद मानव इतिहास का एक चरण है, जिसमें बुर्जुआ वर्ग तथा सर्वहारा वर्ग के बीच संधर्ष चल रहा है। पूँजीवाद के अंतर्गत जो उत्पादन प्रणाली विद्यमान है, वह श्रमिकों का शोषण करने के लिए तैयार की गई है। श्रमिकों और पूँजीपतियों के हित आपस में टकराते हैं। मार्क्स को विश्वास है कि सर्वहारा की क्रांति से पुरानी व्यवस्था का पतन होगा और नई प्रणाली का सूत्रपात होगा। समाज के प्रति मार्क्स के दृष्टिकोण में विरोध, संघर्ष और परिवर्तन का प्रमुख स्थान है। इस अर्थ में मार्क्स ने समाज का संघर्ष मॉडल प्रस्तुत किया।

संक्षेप में, दर्खाइम की दृष्टि में समाज एक ऐसी व्यवस्था है, जो अपनी विभिन्न संस्थाओं के योगदान से एकजुट बनी रहती है। मार्क्स इतिहास को “सम्पन्न‘‘ और ‘‘सर्वहारा‘‘ वर्गो के बीच संघर्षों की श्रृंखला मानता है, जिसमें टकराव और परिवर्तन होता है। दोनों विद्वानों के दृष्टिकोण में मुख्य यही अंतर है।

आइए, इस बिंदु पर इकाई की मुख्य चर्चाएं समाप्त होने के समय बोध प्रश्न 4 को पूरा कर लें।