कर्म किसे कहते हैं | हिन्दू धर्म में कर्म की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब बताइए karma in hindi meaning

karma in hindi meaning and definition कर्म किसे कहते हैं | हिन्दू धर्म में कर्म की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब बताइए ?

कर्म (Karma)
धर्म और कर्म की धारणाएं एक दूसरे से गूढ़ रूप से जुड़ी हैं और कई बार तो उनकी अलगअलग पहचान संभव नहीं होती, न ही उन्हें एक दूसरे से अलग किया जा सकता है ‘‘धर्म यदि सदाचारी जीवन के प्रति सामाजिक चेतना है तो, कर्म इसके अनुसार जीवन जीने का व्यक्ति विशेष का प्रयास है‘‘ कर्म का शालिक अर्श है- करना। भगवद्गीता के गंदेश के अनुसार कर्म की दिशा मूल्य निरपेक्ष है और व्यक्ति को कर्म करते समय फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिएरू किसी कर्म का फल उस व्यक्ति की इच्छा के अनुकूल भी हो सकता है और उसके प्रतिकूल भी। इसमें कर्म करने को भी सबसे अधिक महत्व दिया गया है।

लोक प्रचलन में कर्म की धारणा का संबंध जन्म, पुनर्जन्म और मोक्ष की अवधारणाओं से भी है। लोगों का ऐसा विश्वास है कि व्यक्ति किसी ऊँची या नीची जाति में होता है और वह अपने पिछले जन्म में किये कर्मों के अनुसार इस जन्म में दुख या आनंद उठाता है। इसी तरह उसके अगले जन्म में उसका जीवन, पुनर्जन्म या मोक्ष, इस जन्म में किये कर्मों से निर्धारित होगा। समस्त भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में मनुष्य को उसके कर्मों का फल अवश्य मिलता है। व्यक्ति को मिलने वाले दुख या सुख इस बात पर निर्भर करते हैं कि उसने अच्छे कर्म किये हैं या बुरे। इस जीवन या जन्म में व्यक्ति जो दुख या सुख नहीं पा सकता है, उन्हें उसे अगले जन्म में भोगना ही पड़ता है और हो सकता है कि वह अगले जन्म में मनुष्य नहीं बने, मनुष्य की योनी में जन्म मिलना सौभाग्य की बात होती है, क्योंकि जीव को इसी योनि के माध्यम से संसार में आवागमन के चक्र से मुक्ति मिलना संभव है। (मदन1989ः123)। यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दू धर्म में व्यवहुत कर्म की अवधारणा के तीन यथार्थवादी पक्ष मिलते हैं।

प) रूढ़िवादी हिन्दू कर्म को अपने इष्ट देवी-देवता की पूजा-अर्चना के अनुष्ठानों का पालन बताएगा। यद्यपि पूजा करना तो वैदिक काल से ही शुरू हो गया था, लेकिन बलि चढ़ाने के संस्कार कर्म की अवधारणा के साथ हिन्दू धर्म के विकास के अंतिम चरणों में आकर ही जुड़े। लोगों का ऐसा विश्वास है कि वर्तमान (इस) या भावी (अगले) जीवन की दिशा को भी इन कर्मों के माध्यम से सुनिश्चित किया जा सकता है।

पप) कर्म की पहचान हिन्दुओं के जीवन चक्रीय संस्कारों से भी जुड़ गई है। यह महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक हिन्दू को जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसर पर अलग-अलग जीवन चक्रीय संस्कारों का पालन करना होता है। इन संस्कारों का पालन व्यक्ति को नैतिक रूप से उत्कृष्ट बनाने और उन्हें पूर्ण और दोषरहित बनाने और अंत में उन्हें मृत्यु के बाद ‘‘एक पूर्वज का रूप देने‘‘ के लिए किया जाता है। इस तरह, संस्कार नवजात शिशु को सामाजिक पहचान देते हैं। विवाह के संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति के जीवन का सागर प्रेम से भर जाता है। ‘‘पारगमन के तथाकथित संस्कार वास्तव में जीव की एक महान श्रृंखला में रूपांतरण और निरंतरता के संस्कार हैं।‘‘

पपप) घर में और मंदिर में पूजा करने और जीवन चक्रीय संस्कारों का पालन करने के अतिरिक्त तीर्थों में पूजा अर्चना भी हिन्दू जीवन शैली और कर्म का महत्वपूर्ण पक्ष है। तीर्थ स्थलों की, विशेष रूप से शुभ अवसरों पर, यात्रा करने की भी शास्त्रों में सिफारिश की गई है (आपको इस पाठ्यक्रम की इकाई 29 में इन पक्षों के बारे में और जानकारी मिलेगी।

हम यहाँ बता सकते हैं कि भारत में मौजूद विविध मतों और संप्रदायों को विभिन्न प्रकारों में विभाजित करते हुए और संसार और मोक्ष से इन्हें जोड़ते हुए, इन्होंने कर्म की सुदृढ़ परिभाषा दी है।

यहाँ यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा कि सामान्य हिन्दू व्यक्ति जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति चाहता है। उसे अर्जित पुण्य वाले कर्म फंदा प्रतीत हो सकते हैं और वह सभी सांसारिक कर्मों का त्याग कर सकता है। लेकिन भगवद गीता इस दुविधा से निकालकर एक उचित दिशा का संकेत देती है। गीता कर्म के परित्याग पर नहीं, बल्कि कर्म के पालन पर बल देती है। गीता परोपकार की नीति सिखाती है। यदि व्यक्ति त्याग की भावना से, अपने अहम और स्वार्थ की भावना का त्याग करके अपने कर्म का पालन करता है तो उसे मृत्यु से पहले ही मुक्ति मिल जाती है। भगवद् गीता का एक सबसे महत्वपूर्ण कथन इसी बात को स्पष्ट करता है। ‘‘तुम्हारा अधिकार केवल कार्य पर है, उसके फल पर नहीं, इसलिए उसके फल की आशा तुम्हारे कर्म का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। तुम्हें इसलिए निष्क्रिय भी नहीं होना चाहिए।‘‘ (मदन, 1989ः127)