क्राउन उपनिवेश क्या है | crown colony meaning in hindi क्राउन उपनिवेश किसे कहते है परिभाषा लिखिए

crown colony meaning in hindi क्राउन उपनिवेश क्या है क्राउन उपनिवेश किसे कहते है परिभाषा लिखिए ?

बोध प्रश्न 2
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) साठ के दशक में झारखण्ड पार्टी के पतन हेतु क्या कारण थे?
2) ‘‘क्राउन उपनिवेश‘‘ क्या था?
3) शिलोंग समझौता क्या था?
4) भारत में जनजातीय आन्दोलनों के मुख्य उद्देश्य क्या रहे हैं?

बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) कारण निम्नलिखित थे
प) निवास प्रक्रिया में जनजातियों का आवेष्टन ।
पप) विकासार्थ शिक्षा, रोजगार और संसाधनों पर नियंत्रण को लेकर प्रतिस्पर्धा से उभरी उन्नत ईसाई जनजातियों और पिछड़े गैर-ईसाई जनजातियों के बीच प्रतिद्वन्द्विता।
पपप) गैर-ईसाई जनजातियों के समर्थन का झारखण्ड से कांग्रेस और जन-संघ को हस्तांतरण ।
2) यह ब्रिटिश सरकार द्वारा सुझाया गया एक प्रस्तावित ‘‘न्यास राज्य क्षेत्र‘‘ था जिसमें नागा हिल्स, तत्कालीन नेफा (छम्थ्।) क्षेत्र और “क्राउन कॉलोनी‘‘ नामक बर्मा का एक हिस्सा शामिल थे। यह लन्दन से नियंत्रित होना माना गया था। इसका नागाओं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा विरोध किया गया।
3) भूमिगत नागाओं और भारत सरकार के बीच यह एक समझौता था जिस पर 11 नवम्बर, 1975 को हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते की शर्तों के तहत नागाओं ने भारत का संविधान स्वीकार कर लिया, अपने हथियार जमा कर दिए। भारत सरकार ने नागा राजनीतिक कैदियों को दिया और उनके पुनर्वास का वचन दिया।
4) जनजातीय आन्दोलनों के मुख्य उद्देश्यों में शामिल थे: उपनिवेशपूर्व राज्य, सेवा कार्यकाल, भूमि, वृक्षारोपण अधिकार, बाहरियों का निष्कासन, समाज-सुधार, करारोपण की समाप्ति, आदि।

साराश
जनजातीय आन्दोलन अब उन पहचानाधारित आन्दोलनों के रूप में अभिलक्षित किए जा रहे हैं, स्वायत्तता, भूमि, वन, भाषा व लिपि से संबंधित विभिन्न अन्य विषय जिनका शाखा-विस्तार मात्र हैं। यह पहचान ही है जिस पर बल दिया जाता है। पहचान केन्द्र-मंच पर खड़ी होती है। यह बोध-परिवर्तन अब लोगों द्वारा स्थिति की निजी समझ, उनकी पहचान पर बढ़ते खतरे के अवबोधन, सक्रिय पर्यावरणीय तथा देशज लोगों के आन्दोलन, इत्यादि से संभव बना दिया गया है। जनजातीय आन्दोलन अब सत्ता संबंधों, सत्तार्थ छीना-झपटी, किसी क्षेत्र में विभिनन समुदायों के बीच समीकरण की खोज के संदर्भ में रखकर देखे जा रहे हैं। अन्य समुदायों की भाँति, ये जनजातियाँ भी राजनीतिक समुदायों के रूप में उभरी हैं।

जनजातीय आन्दोलन किसी एक निदर्श से सम्बन्धित अब नहीं माने जाते । जटिल सामाजिक स्थितियों से निकलकर उठ खड़े होते आन्दोलन अब निदर्शों व विशेषताओं के एक संयोजन के रूप में लिए जाते हैं। ऐसी ही हैं हेतुक और प्रक्रियाएँ, जिनको अब अन्तर्जातीय व बहिर्जातीय- संसाधनों, संस्कृति व पहचान से संबंधित विषयों के एक संयोजन के रूप में देखा जाता है।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
सिंह, के. एस. (सं०), ट्राइबल मूवमेण्टस इन इण्डिया, खण्ड 1 व 2, मनोहर, दिल्ली, 1982-83 ।
शाह, घनश्याम (सं.), सोशल मूवमेण्ट्स एण्ड दि स्टेट, सेज पब्लिकेशन इण्डिया, नई दिल्ली, 2001।

जनजातियाँ
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
जनजातीय समाज और अर्थव्यवस्था
भारत में सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलन
उपनिवेशपूर्व काल
उपनिवेशोपरांत काल
जनजातीय आन्दोलनों के लक्षण और परिणाम
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें व लेख
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई में आप पाएँगे भारत ने सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलनों में से एक, यथा, जनजातीय आन्दोलन । इस इकाई को पढ़ लेने के बाद आप इस योग्य होंगे कि समझ सकें:
ऽ भारत में जनजातियों का अर्थ व उनके अभिलक्षण,
ऽ उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितिया,
ऽ उपनिवेशपर्व और उपनिवेशोपरांत कालों में उनके आन्दोलन, और
ऽ भारत में जनजातीय आन्दोलनों के कारण एवं परिणाम ।

प्रस्तावना
जनजाति भारत में सभी समुदायों की कमोवेश पूर्ण व्याख्या करने को औपनिवेशिक अधिकारियों व नृजाति वर्णनकर्ताओं द्वारा 19वीं सदी में प्रचलित की गई एक औपनिवेशिक संकल्पना है। इसी शताब्दी के उत्तरार्ध में, जनजाति की संकल्पना जातियों से भिन्न के रूप में आदिम समूहों तक संकुचित हो गई। यह भारत सरकार अधिनियम, 1935 तथा भारतीय संविधान के तत्त्वावधान में ही था कि अनुसूचित जनजाति की नामावली पूर्णतः उद्गभित हुई। भारतीय संविधान जनजाति की कोई परिभाषा नहीं देता है। अनुसूचित जनजाति का द्योतन दो पहल रखता है। यह पिछड़ेपन व निर्जनता के मानदण्डों द्वारा अन्य बातों के साथ-साथ प्रशासकीय रूप से निर्धारित की जाती हैं। वनों में और पहाड़ों पर रहने वाले लोग। इन्हें आदिवासी – मूल निवासी, भी कहा जाता है। कई अन्य सामाजिक समूहों की ही भाँति इन जनजातीय लोगों ने अपनी शिकायतों के प्रतिकार हेतु सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलन शुरू किए हैं।

दक्षिणी आंतर-निवासों को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रों, उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र व द्वीपों, ने औपनिवेशिक एवं उपनिवेशोपरांत कालों में जनजातियों के अनेक आन्दोलन देखे हैं। उपनिवेशपूर्व काल में जनजातियों ने मराठाओं या राजपूतों की क्षेत्रीय शक्तियों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। उन्होंने जमींदारों व गैर-जनजातीय प्रशासकों के खिलाफ प्रतिरोध किया। उपनिवेश काल के दौरान उन्होंने अपनी स्वायत्तता के लिए ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष किया। केन्द्रीय भारत में बिरसा मुण्डा क्रांति इसका सर्वाधिक सुपरिचित उदाहरण है। धार्मिक विचारों के माध्यम से गैर-जनजातीय सांस्कृतिक प्राधिकार के खिलाफ प्रतिरोध करते क्षेत्रीय-राजनीतिक आन्दोलन भी हुए।

 जनजातीय समाज और अर्थव्यवस्था
बहरहाल, भारत में जनजाति आज उत्पादन की एकल प्रौद्योगिक-अर्थव्यवस्था पर जीवन-निर्वाह करती है। उनमें से अधिकांश भरण-पोषण के पाँच या उससे भी अधिक तरीकों के एक सम्मिलन पर जीवन-निर्वाह करते हैं। आदिम प्रौद्योगिकी, नामतः, आखेट, खाद्य-संग्रहण तथा झूम व समतल खेती उत्तर-पूर्व में उष्णकटिबन्धी वनों, पूर्वी व केन्द्रीय क्षेत्रों के भागों, नीलगिरी तथा अण्डमान द्वीपसमूह द्वारा घिरे भारी मानसून कटिबंध तक सीमित है। चारागाही अर्थव्यवस्था जो जनजातीय अर्थव्यवस्था के लगभग 10 प्रतिशत व निर्माण करती है, उप-हिमालयी क्षेत्रों के ऊँचाई वाले स्थानों, गुजरात व राजस्थान के शुष्क कटिबंधों में तथा नीलगिरी में एक छोटे-से आंतर-निवास में जीवनयापन करती है। जनजातीय कामगारों में से तीन-चैथाई से अधिक अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र से जुड़े हैं, जिनमें से बहुसंख्य कृषि-श्रमिकों के बाद आए किसान हैं। उनमें से बड़ी संख्या में पशु-पालन, वन विद्या, मत्स्य उद्योग, आखेट आदि में, और निर्माण क्षेत्र, खनन व खदान-कार्य में कर्मचारियों के रूप में संलग्न हैं।

यद्यपि गैर-जनजातियों के मुकाबले एक बड़े पैमाने पर जनजातीय समुदायों के बीच वस्तु-विनिमय पद्धति पायी जाती है, लगभग सम्पूर्ण जनजातीय अर्थव्यवस्था आज बाजारी शक्तियों के भँवर में है। जनजातीय समुदायों में पारम्परिक से नए व्यवसायों की ओर एक उल्लेखनीय विचलन रहा है। उदाहरणार्थ, आखेट व खाद्य-संग्रहण करने वाले अनेक समुदायों की संख्या घटी है क्योंकि जंगल गायब हो गए हैं और वन्य-जीवन घट गया है। पारिस्थितिक निम्नीकरण ने जनजातीय समुदायों के संबद्ध पारम्परिक व्यवसायों को तेजी से घटा दिया है। तथापि, बागवानी, समतल खेती, स्थिर खेती, पशु-पालन, रेशम कीट-पालन तथा मधुमक्खी-पालन में एक उछाल आया है। ये जनजातियाँ अपने पारम्परिक व्यवसायों से दूर होती जा रही हैं और किसानों के रूप में स्थापित होती जा रही हैं एवमेव उन्होंने अपनी आय वृद्धि व उत्पादकता बढ़ाने के लिए नए धन्धे हाथ में लिए हैं। जनजातीय अर्थव्यवस्था में हम विविधीकरण के प्रमाण भी पाते हैं। सरकारी व निजी नौकरियों, स्वरोजगार आदि में लगे जनजातीय लोगों की संख्या में तीव्र उछाल आया है। अनेक पारम्परिक शिल्पकर्म, ओझल हो चुके हैं और विशेषतः कताई पर दुष्प्रभाव पड़ा है। उससे सम्बन्धित कार्यों जैसे बुनाई, रंगाई व छपाई पर भी ऐसा ही दुष्प्रभाव पड़ा है। खाल व पशु-चर्म कार्य ने परिवर्तन झेला हैय प्रस्तर नक्काशी में कमी आयी है। लेकिन खनन व राजगिरी में लगी जनजातियों की संख्या तेजी से बढ़ी है जो एक नई गतिशीलता का संकेत देती हैं।

ये जनजातियाँ शिल्पकार भी हैं। नक्काशी व देह गुदाई में जनजातीय लोगों के बीच विद्यमान कलाओं व शिल्पों के ही रूप आते हैं। हाल के वर्षों में कला की अन्य मुख्य विधाओं के रूप में भित्ति चित्रकला व चित्रांकन उद्गमित हुए हैं। वास्तव में वार्लियों, राबड़ियों व राठवों व अन्य के बीच एक वाणिज्यिक स्तर पर कला की इन विधाओं का एक महत्त्वपूर्ण पुनरुत्थान हुआ है। बास्केत्री में सबसे अधिक संख्या में जनजातियाँ हैं, जिनमें वे आती हैं जो बुनाई, कढ़ाई व भण्डकर्म में संलग्न हैं।

विकास प्रक्रियाओं के प्रभाव, विशेषतः शिक्षा ने जनजातियों के बीच उद्यमियों, व्यापारियों, प्रशासकों, अभियन्ताओंध् डॉक्टरों तथा रक्षा-सेवा सदस्यों के एक नए सामाजिक स्तर को जन्म दिया है। विकास प्रक्रिया ने जनजातीय समाज में विभाजन भी पैदा किया है। विषमताएँ बढ़ी हैं । संसाधनों व जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण खोने के साथ ही जनसांख्यकीय वृद्धि पर राष्ट्रीय औसत की अपेक्षा जनजातियों के बीच अधिक उच्च रही है, जनजातियों के बीच गरीबी भी नानाविध बढ़ी है। उनमें से कछ जनजातियों अथवा कुछ वर्गों को छोड़कर, जनजातीय लोग देश की जनता के सर्वाधिक पिछडे व दरिद्रतम वर्गों में ही आते हैं।