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महिला सुधार आंदोलन क्या है , निबन्ध लिखिए | महिला आंदोलन की चुनौतियां किसे कहते है women’s suffrage reform movement in hindi

women’s suffrage reform movement in hindi महिला सुधार आंदोलन क्या है , निबन्ध लिखिए | महिला आंदोलन की चुनौतियां किसे कहते है ?

19वीं और 20वीं सदी-पूर्वार्ध में महिलाओं हेतु सुधार
उन्नीसवीं सदी को महिला यग पकारना ठीक ही होगा। उनके अधिकार और उनके प्रति किए जाने वाले अन्याय, साथ ही उनकी क्षमताएँ और अन्तःशक्तियाँ, यूरोप में और उपनिवेशों में भी गर्मागर्म बहस के मुद्दे हुआ करते थे। इस शताब्दी के अंत तक, नारी अधिकारीवादी विचार इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, और रूप में थी, ष्उग्र उन्मूलनवादियों के दिमाग में थे। भारत में, महिलाओं के प्रति अन्याय पर समाज-सुधारकों द्वारा खेद प्रकट किया जाने लगा। महिलाओं ‘‘हतु‘‘, पुरुषों ‘द्वारा‘ को इस प्रकार का आंदोलन बंगाल और महाराष्ट्र में उद्भूत हुआ।

 वैश्याओं का पुनर्वास
अन्य उल्लेखनीय, जो नारी-विरोधी सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं में सुधारों के लिए लड़े, थे – ज्योतिबा फुले, सरस्वती कर्वे तथा पंडिता रमाबाई, सिस्टर निवेदिता और टैगोर की बहन स्वर्णकुमारी देवी जैसी महिलाएँ। बंगाल मधुसूधन दत्त और हेनरी डिरोजिओ जैसे दुर्जेय मनीषियों का प्रत्यक्ष गवाह था। ये दोनों सशक्त कवि भी थे। उन्होंने पुरुष नैतिकता पर भी प्रहार कर सुधारकों के क्रोध को बुलावा दिया। मधुसूदन ने वैश्याओं को संगठित किया और उन्हें इस की बजाय अभिनय के पेशे को चुनने के लिए प्रेरित किया।

सन् 1869 के ‘‘अमृत बाजार पत्रिका‘‘ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, कलकत्ता की नब्बे प्रतिशत वैश्याएँ विधवाएँ ही थीं, जिनमें से अधिकांश कुलीन ब्राह्मण परिवारों से आई थीं। यह “कुलीन, था ब्राह्मणों का सर्वाधिक घृणित वर्ग जिसका सामाजिक रूप से स्वीकृत जीवकोपार्जन था विवाह करते रहना और दहेज जोड़ते रहना। उनका दैनिक जीवन भी सर्वथा स्वतंत्र था जैसा कि वे अपनी पत्नियों के पैतृक घरों को जाते ही रहते थे क्योंकि इन ‘ब्याहता‘ स्त्रियों को अपने पिताओं के घर पर ही रहना पड़ता था। ऐसी पत्नियों‘ की संख्या बड़े आराम से 100 तक हो सकती थी। इस प्रकार, मृत्यु (एक पति की) के एक धक्के से ही कम-से-कम 100 विधवाएँ वैश्याओं के रूप में बाजार में उपलब्ध हो जाती थीं।

हमें इस तथ्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि विद्यासागर, विधवा-पुनर्विवाह के सूत्रधार और महान नायक, वैश्याओं के पुनर्वास की इस योजना के प्रति एक नैतिक जुगुप्सा-भाव रखते थे और बहुविवाह की इस बीभत्स प्रथा को रोके जाने का कोई विचार नहीं रखते थे। कौतुक की बात है, वह यह नहीं समझ सके कि यदि बहुविवाह को सख्ती से रोका जाए तो विधवाओं की संख्या प्रबल रूप से घटेगी और इस प्रकार इस समस्या की भयावहता काफी कम हो जाएगी।

 आर्य समाज
स्वामी दयानन्द अपने समय के सच्चे क्रांतिकारी थे। उन्होंने जाति-प्रथा का परित्याग किया और शास्त्रों से उद्धृत कर महिलाओं से समाज बरताव निर्धारित किया। उनके आर्य समाज ने महिलाओं पर ऐसे कोई कर्त्तव्य या दायित्व नहीं थोंपे जो हिन्दू विधिप्रदायों के अनुसार पुरुषों के लिए प्रयोज्य नहीं थे। अपनी प्रतिनिधि पुस्तक ‘‘सत्यार्थ प्रकाश‘‘ में, दयानन्द ने इस बात पर जोर दिया कि आर्य-भारत में बहुविवाह, बाल-विवाह और नारी-विविक्ति अस्तित्व में नहीं थे। उन्होंने आह्वान किया कि लड़के और लड़कियाँ दोनों के माध्यम से परम्परा और आधुनिकता पर समान जोर दिया जाए। उन्होंने लड़कियों और लड़कों के लिए विवाह-योग्य आयु बढ़ाकर क्रमशः 16 और 25 वर्ष कर दी।

परन्तु लाला लाजपतराय और लालचन्द जैसे आर्यसमाजी महिलाओं की उच्च शिक्षा के खिलाफ थे द्य उनका मानना था कि आखिरकार, ‘लडकियों की शिक्षा का स्वरूप भिन्न होना चाहिए, क्योंकि उनको दी जाने वाली शिक्षा ऐसी हो जो उन्हें नारी भूमिका से अनजान न बना दे (unset them), मौलिक साक्षरता के अलावा, अंकगणित और कुछ काव्य आर्य-समाज धार्मिक साहित्य, सिलाई, कढ़ाई, खाना-पकाना, स्वच्छता, चित्रकला तथा संगीत पढ़ाए जाने वाले विषय पढ़ाए जाते थे। ब्रह्म समाज जो मूर्ति-पूजा और ब्राह्मणवादी हिन्दूवाद के पतनोन्मुखी आदर्शों और प्रथाओं के विरोधी के रूप में आरंभ हुआ, लड़कियों और स्त्रियों के विषय में इस रूढिबद्ध धारणा के द्योतन से युक्त नहीं था। यह द्योतन हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के परवर्ती चरणों तक जारी रहा। एकमात्र असहमत स्वर सुभाषचन्द्र बोस का था। युगों को महिलाओं के ‘‘हेतु‘‘ और ‘‘द्वारा‘‘ में बाँटे जाने के पीछे जो औचित्य था वो नहीं छुपा था। महिलाएँ, उस समय, पुरुषों को स्वीकृत अथवा प्रदत्त हर चीज की माँग करने के लिए न तो जागरूक थीं न ही संवेदनशील ।

 महिलाओं हेतु शिक्षा और पहचान के साथ उभरती महिलाएँ ।
 साहित्य में महिलाएँ और महिलाओं द्वारा साहित्य
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक, समाज-सुधार आंदोलन प्रभाव दिखाने लगे थेय आत्मविश्वास और दृढनिश्चय कुछ महिलाओं के जीवन और कार्य में दिखाई देना शुरू हो गया। निरूपमा देवी और अनुरूपा देवी जैसे उपन्यासकारों का संदर्भ बांग्ला साहित्य समाजों में दिया जाने लगा था और उन्हें उन साहित्य क्लबों की सदस्यता भी दी गई जहाँ पुरुषों का वर्चस्व था। टैगोर के उपन्यास और लघु-कथाएँ उन स्त्री-पात्रों से भरे हैं जो अपने पतियों व अन्य पुरुष-प्रेमियों कुछेक उदाहरण हैं टैगोरकृत गोरा और ‘घरे-बायरे‘, बंकिमचन्द्र कृत ‘आनंदमठ‘ और ‘देवी चैधरानी‘ तथा शरत्चन्द्र कृत ‘पाथेर देवी‘। टैगोरकृत ‘चार अध्याय‘ में, अपनी पहचान तलाशती एक राष्ट्रवादी महिला, उस पुरुष-नेतृत्व द्वारा आलोचना का शिकार बनती है और दबा दी जाती है, जोकि आज भी उस राजनीति का प्रतीक है जो विस्तीर्ण रूप से एक पुरुष अधिकार-क्षेत्र रही है। प्रायः सभी महिला सक्रियतावादी साहित्य-लेखक भी थींय साहित्यिक पुट लिए मुद्रित-सामग्री व लेख सामान्यतः अधिकांश पुरुष स्वतंत्रता सैनानियों द्वारा सह-हथियार के रूप में भी प्रयोग किए जाते थे। महिलाओं के बीच कुछ उल्लेखनीय नाम थे – नागेन्द्रकला मुस्तफी, मनकुमारी बसु और कामिनी रॉय । काशीबाई कानित्कर महाराष्ट्र से प्रथम महिला-उपन्सायकार थीं। अन्य थीं – मैरी भोरे, गोदावरीबाई समस्कर, पार्वतीबाई और रुक्मिणीबाई । दक्षिण में, कमला साथीनन्दन, ‘इण्डियन लेडीज मैगजीन‘ की सम्पादक, एक लेखक भी थीं। सरला देवी, कुमुदिनी मित्रा और मैडम कामा ने क्रांति के सिद्धांत को बढ़ावा देने हेतु पत्रकारिता में अपनी पहचान छोड़ी।

अधिकारों हेतु महिलाएँ
मैडम कामा को स्टुटआर्ट में 1907 में कांग्रेस ऑव दि सोशिअलिस्ट इण्टरनैशनल में एक ‘‘वन्दे मातरम्‘‘ ध्वज फहराने का सम्मान प्राप्त था, और 1913 में, कुमुदिनी मित्रा, एक ‘‘आतंकवादी‘‘ के रूप में अधिक विख्यात, को बुडापेस्ट, इंगरी में इण्टरनैशनल विमनश्स सफरिज कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित किया गया। सरोजिनी नायडू ने भारतीय महिलाओं की स्थिति में सुधारों की एक श्रृंखला की माँग करने हेतु मोण्टेग्यू और लॉर्ड चैम्सफोर्ड की अध्यक्षता वाली समिति से भेंट की। सरला देवी ने भारत स्त्री महामण्डल की ओर से अनेक बार इस समिति के समक्ष प्रतिनिधित्व किया। 1892 में छठी नैशनल सोशल कॉन्फैन्स में, हरदेवी रोशनलाल, ‘भारत-भगिनी‘ की सम्पादक, ने इस बात पर जोर दिया कि यह मंच कांग्रेस की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह मानता है कि:
महिला का हेतुक पुरुष का है
वे साथ-साथ उदित हों, अथवा निमग्न,
वामनकृत अथवा देव-तुल्य, अथवा मुक्त।
आनन्दीबाई जोशी प्रथम महिला-डॉक्टर थीं। उन पर और कान्तिबाई पर पत्थर फेंके गए जब उन्होंने जूते पहनने और गलियों में छतरियाँ लेकर चलने का साहस किया। ये पुरुष और जाति-प्रभुत्व के प्रतीक थे। महिलाओं की स्थिति निम्न जातियों अथवा अछूतों की स्थिति से क्या बेहतर थी? 1882 में, ताराबाई शिन्दे की पुस्तक, स्त्री-पुरुष तुलना ने हर ओर गर्मागर्म बहस को जन्म दिया। उन्होंने जोर देकर कहा कि वे दोष जो सामान्यतः स्त्रियों के मत्थे मढ़ दिए जाते हैं, जैसे कि अंधविश्वास, संदेह, विश्वासघात और औद्धत्य, पुरुषों में भी समान रूप से पाए जा सकते हैं। उन्होंने स्त्रियों को सुझाव दिया कि, अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति से, वे हमेशा सद्व्यवहार करें, अग्नि की भाँति शुद्ध रहें और आन्तरिक और बाह्य रूप से निष्कलंक रहें। ताराबाई ने यह भी जताया कि पुरुषों को अपना सिर शर्म से झुकाना पड़ेगा।

माई भगवती, आर्यसमाज की एक ‘उपदेशिका‘, हरियाणा में एक विशाल जन-सभा में बोलने को आत्मविश्वास रखती थीं। 1881 में, घर पर ही अपने पति द्वारा शिक्षित, मनोरमा मजूमदार बारीसाल ब्रह्म समाज द्वारा धर्म-प्रचारिका नियुक्त्त की गईं। जैसा कि शंका थी, बड़ी गर्मागर्म बहस छिड़ी, जिसमें महिला समानता के विषय को लेकर चलती ‘बुद्धिमानी‘ को कुछ ज्यादा ही आगे ले जानेपर सवाल किए गए। राष्ट्रवादी अभियानों और संगठनों और संगठनों ने एक ऐसा जोश पैदा किया कि ब्रह्म समाज की कुछ महिलाओं ने पर्दा-प्रथा की बुराइयों के विरुद्ध गीत और भाषण प्रस्तुत करते हुए कलकत्ता की गलियों में मार्च किया। ये महिलाओं “द्वारा‘‘ पहल अथवा आंदोलन किए जाने के निर्विवाद दृष्टांत हैं। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व अन्य राजनीतिक दल महिलाओं के बीच इस आंतरिक शक्ति को स्वीकार करने को अभी तक तैयार नहीं थे। यद्यपि महिला प्रतिनिधियों को उन परिधियों में बैठने की स्वीकृति होती थी, उन्हें प्रस्तावों पर बोलने अथवा मत व्यकर करने की अनुमति नहीं थी।

 महिलाओं हेतु महिलाएँ
रवीन्द्रनाथ टैगोर की बहन स्वर्णकुमारी देवी ने विधवाओं को सीखने, पढ़ाने और इस प्रकार महिलाओं के बीच शिक्षा के सर्वाधिक सशक्त प्रसार-अभिकर्ता बनने हेतु प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से ‘सखी समिति‘ शुरू की। इस समिति ने आत्म-विश्वास (आत्म-शक्ति) और राष्ट्रवाद का विकास करने के एक साधन के रूप में महिला-केन्द्रिक कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए शिल्प-मेलों का आयोजन किया। कांग्रेस को इस प्रकार के मेलों की बड़ी उपयोगिता नजर आई, लेकिन पुरुष नेतागण एक पृथक् महिला-वर्ग को संगठित करने के सिवा कुछ नहीं सोच सके।

स्वर्णकुमारी देवी की पुत्री, सरला देवी, आश्चर्यजनक रूप से दुर्जेय थी। वह घर के ‘पिंजरे‘ या ‘कैद‘ से निकलना चाहती थी और पुरुष की भाँति एक स्वंतत्र आजीविका का अपना अधिकार प्रमाणित करना चाहती थी। उसने 1902 में एक व्यायामशाला शुरू की, जहाँ स्त्रियों को तलवार और लाठी चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। उसको युद्धप्रिय राष्ट्रवाद या फिर क्रांतिकारी आतंकवाद का शिल्पकार कहा जा सकता है।

राष्ट्रवादी संघर्ष में महिलाएँ
बंगाल में 1905-8 का स्वदेशी आंदोलन एक वृहद् स्तर पर राष्ट्रवादी गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी की शुरुआत को दर्शाता है। इस आंदोलन हेतु अनेक पत्नियों, बहनों और पुत्रियों ने समर्थन गुट बनाने शुरू कर दिए। मध्यम-वर्ग राष्ट्रवाद ने औरतों और लड़कियों को ऐसी प्रेरणा दी कि उन्होंने धन के साथ-साथ आभूषण भी अर्पित कर दिए। गाँवों में से योगदान के रूप में मुट्ठी भर-भर अनाज आया।

युद्धप्रियता महिलाओं की सक्रिय अन्तर्भावितता वाली समितियों का एक ऐसा लक्षण बन गया कि जनवरी 1909 में पश्चिम बंगाल में ऐसी पाँच समितियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, नामतः स्वदेशी, बांधव, ब्राती, ढाका अनुशीलन सुहृद और साधना।

पुराणी अज्ञावती, हिसार आर्य समाज की एक महिला-सदस्या, ने इस बात का निवेदन करते हुए लगभग पूरे पंजाब का भ्रमण किया कि माँएँ अपने लड़कों की परवरिश विनिर्माताओं व व्यापारियों के रूप में करें। उन्होंने लोगों को इस बात पर राजी करने को प्रयास भी किया कि जातिगत आदर्शों का सख्त और अन्ध अनुपालन माँओं को महान् सपूत देश को अर्पित करने से रोकता है। दिल्ली में, अज्ञावती ने विधवाओं को संगठित करने हेतु एक “विधवा आश्रम‘‘ खोलाय न सिर्फ दमन के सिरुद्ध व उनके शिक्षा के अधिकार हेतु, बल्कि उनको युद्धप्रिय राष्ट्रवाद में प्रशिक्षित करने हेतु भी। सरकार जो उनकी गतिविधियों से काफी भयभीत थी, ने उनका “एक बहुत बहादुर महिला‘‘ के रूप में वर्णन किया।

 समानता हेतु महिलाएँ
1906 में कलकत्ता में भारतीय समाज सम्मेलन को संबोधित करते हुए सरोजिनी नायडू ने कहा, ‘‘शिक्षण का अर्थ ज्ञान का संचय हो सकता है, किन्तु शिक्षा एक अपरिमेय, सुंदर और अपरिहार्य वातावरण है जिसमें हम रहते हैं और आगे बढ़ते हैं तथा अपना अस्तित्व रखते हैं तब कैसे कोई आदमी एक मानवीय आत्मा को उसकी स्वतंत्रता और जीवन के स्मरणातीत उत्तराधिकार से वंचित करने की हिम्मत कर सकता है? तुम्हारे पुरखों ने तुम्हारी माताओं को उस जन्माधिकार से वंचित करते-करते तुम्हें, अपनी संतानों को, तुम्हारी विधिसंगत विरासत से वंचित कर दिया। इसीलिए, मैं तुम्हें अपनी स्त्रियों को फिर से पुनर्प्रतिष्ठित करने का कार्य सौंपती हूँ उनके अधिकार तुम, इसी वजह से, वास्तविक राष्ट्र-निर्माता नहीं हो अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो और राष्ट्र इनका ध्यान स्वयं रखेगा ।

1920 में, महिलाओं के बीच जो महान् उपलब्धि का और उनके लिए खुल रहे नए दरीचों का भाव था वह तमिल राष्ट्रवादी कवि सुब्रह्मण्यम भारती द्वारा उनकी कविता ‘‘मुक्ति का नृत्य‘‘ (दि डांस ऑव लिबरेशन) में बड़ी सुंदरता से व्यक्त हुआ –

नाचो! खुशियाँ मनाओ!
वे जो कहते थे
महिलाओं के लिए पुस्तकें छूना पाप है,
मर चुके हैं।
वे पागलव्यक्ति जो कहते थे
महिलाओं को उनके घरों में कैद कर देंगे,
अब अपना मुँह नहीं दिखा सकते हैं।

उन्नीसवीं सदी के 10वें व 20वें दशक के उत्तरार्ध में, महिलाओं के बीच समानता पर एक संलाप विकसित होना शुरू हो गया। उन्होंने समान अधिकारों के लिए अपनी माँगों के पक्ष में राष्ट्रवादियों की दलीलों का प्रयोग किया। उर्मिला देवी, एक युद्धप्रिय महिला, ने ‘स्वराज‘ को स्व-शासन के रूप में और ‘स्वाधीनता‘ को अपने पर शासन करने की “शक्ति और सत्ता‘‘ के रूप में परिभाषित किया। अमिया देवी ने ठीक ही महसूस किया कि ‘स्वाधीनता‘ दी नहीं जा सकती, यह बलात् लेनी पड़ती है अगर वह “शुभेच्छु‘‘। पुरुषों के पास छोड़ दी जाती है, तो महिलाओं की अधीनता (निर्भरता) साथ ही बलवान हो जाएगी। राष्ट्रवादी नेतागण, जो महिलाओं को विश्वास रखते थे न कि समरूपता में, जो कि क्रांतिकारी महिलाओं की माँग थी। सुधारक और ‘प्रदायक‘ मानते थे कि माँओं के रूप में महिलाओं की सामाजिक रूप से उपयोगी भूमिका के कारण ही महिला-अधिकारों को मान्यता मिलनी चाहिए। महिलाओं ने समान अधिकारों की माँग इसलिए की कि मानव के रूप में उनकी भी वही आवश्यकताएँ, वही इच्छाएँ और वही क्षमताएँ हैं, जो पुरुषों की हैं।

प्रभावती संयुक्त राज्य अमेरिका में “फ्रीडम फॉर एण्ड आयरलैण्ड‘‘ नायक एक गुट के लिए काम करती थीं और रेणुका राय इंग्लैंड में “लीग अगेन्स्ट ब्रिटिश इम्पिरिअलिज्म‘‘ के साथ जुड़ी थीं। प्रभावती ने एम.एन. रॉय, भारत में कम्यूनिस्ट आंदोलन के अग्रणी, से विवाह किया और क्रांतिकारियों व कम्यूनिस्टों के साथ समान रूप से शामिल हो गईं। उन्होंने ‘कामगार व किसान पार्टी‘ के एक सदस्य के रूप में सफाईकर्मियों को संगठित करने के लिए मुजफ्फर अहमद, कवि नजरुल इस्लाम और हेमन्त कुमार सरकार के साथ-साथ मिलाया।

महिलाओं की स्वतंत्र राजनीतिक पहचान
 राजनीति में महिलाओं के प्रति भेदभाव
गाँधीजी द्वारा उनकी 71 दांडी-मार्चकर्ताओं की सूची में एक भी महिला को नहीं चुना गया था। सुविख्यात महिलाओं, जैसे खुर्शीद नौरोजी और मार्गरेट, कजिन्स, ने प्रबल विरोध किया। लेकिन यह नेता यह तर्क देते हुए अपने निर्णय पर अडिग रहे कि उन्होंने “महिलाओं को मात्र नमक-कानूनों को तोड़ने से कहीं अधिक बड़ी भूमिका‘‘ सौंपी है। लेकिन सरोजिनी नायडू खुले आम विरोध किया और मार्च के अंतिम चरण में दांडी में शामिल हो गई तथा उस आंदोलन में गिरफ्तार होने वली प्रथम महिला हुईं। एक बार की अवज्ञा ने ही रास्ता साफ कर दिया, और हजारों महिलाएँ नमक सत्याग्रह में शामिल हो गई। इसको सामान्यतः इस रूप में याद किया जाता है कि स्वतंत्रता हेतु संघर्ष में पहली बार “भारतीय महिलाओं का हुजूम‘‘ शामिल हो गया। खाबिंद अपनी बीवियों के जेल में होने पर फक्र महसूस करने लगेय लेकिन वे बुरा मान जाते थे यदि उनकी पत्नियों ने पहले उनकी अनुमति न ली हो। इन पत्नियों में कुछ गौरतलब थीं – कस्तूरबा गाँधी, कमलादेवी चटोपाध्याय, नेल्ली सेनगुप्त, बसन्ती देवी (रॉय), दुर्गाबाई देशमुख और अरुणा आसफ अली ।

 राजनीति में महिलाओं की पहल
1890 के दशक में लीलावती मित्र ने विधवा-पुनर्विवाह सम्पन्न कराने के लिए इच्छुक वरों को आश्रय देकर विद्यासागर की मदद की। इलबर्ट बिल के समर्थन में सभाएँ करने और बिल्ले लगाने हेतु बेथ्यून स्कूल में लड़कियों को संगठित करते हुए, कामिनी रॉय इलबर्ट बिल आंदोलन में सक्रिय थीं। उन्होंने बंग महिला समिति के साथ उनके समाज-सुधार परियोजनाओं में काम किया। अघोरकामिनी नारी समिति ने चाय-बागान मालिकों द्वारा महिलाकर्मियों से दुर्व्यवहार के विरुद्ध जनमत तैयार किया। प्रभावती मिर्जा ने अरविन्द के आतंकवाद से प्रेरणा प्राप्त की। मात्र दस वर्ष की आयु में उन्होंने खुदीराम की फाँसी के विरोध में उपवास किया और बाद में 1930 के दशक की एक प्रतिबद्ध श्रमिक-संघवादी के रूप में उभरकर आयीं।

 महिला ‘‘आतंकवादी‘‘
कुमुदिनी मित्र ने उन शिक्षित ब्राह्मण महिलाओं के एक समूह को संगठित किया था जो छुपे हुए क्रांतिकारियों के बीच संपर्क करके उन्हें एक साथ मिलाती थीं। ‘‘आतंकवादियों‘‘ के रूप में जाने, भय खाने और आदर दिए जाने वाले क्रांतिकारी गुटों के साथ महिलाएँ उत्तरोत्तर रूप से शामिल हुईं। दिसम्बर 1931 में, शांति घोष और सुनीति चैधरी ने एक जिला दण्डाधिकारी, मि. स्टीवन्स को गोली मार दी, जिसने महिलाओं को इतना परेशान कर रखा था कि जितना शायद कानून इजाजत नहीं देता था। मीना दास ने 1922 में बंगाल के गवर्नर, स्टेनली जैक्सन को गोली मारने का प्रयास किया था। उन्होंने सब अपने आप ही किया था और प्रथम दो को उम्रभर के लिए देश-निकाला मिला। प्रीतिलता वाडेकर के नेतृत्व में एक ऐसे क्लब पर धावा बोला गया जहाँ यूरोपियन बहुधा आया-जाया करते थे। इस बम से एक मरा और चार घायल हुए। पुरुष-परिधान पहले प्रीतिलता ने गिरफ्तारी से बचने के लिए सायनाइड खा लिया। इस आशय का एक कागज उसके पास से बरामद हुआ कि यह धावा एक “संग्राम-प्रदर्शन‘‘ था। उसी दिन ब्रिटिश शासकों व यूरोपियनों के विरुद्ध अभियान में शामिल होने के लिए अध्यापकों, छात्रों व जनता को प्रेरित करते पर्चे बाँटे गए। सरला देवी एवं सिस्टर निवेदिता भी बंगाल आतंकवादियों से काफी नजदीक से जुड़ी थीं और उनसे प्रेरित भी थीं।

 महिला एकता अथवा संयुक्त संचलन के सामने मुख्य मुद्दे ।
 सम्प्रदाय और जातिवाद
अखिल-भारतीय महिला सम्मेलन (ऑल-इण्डिया विमिन्स कॉन्फ्रेन्स – ए. आई. डब्ल्यू. सी.) द्वारा तीसरे दशक में उठाया गया। 1932 में उनकी जिला शाखाओं एवं वार्षिक सम्मेलन दोनों ने साम्प्रदायिक मापदण्ड अपनाने वाले विधान-मंडलों में महिलाओं के लिए अलग सीटों के आरक्षण के खिलाफ विरोध आयोजित किए । बम्बई शाखा, उदाहरण के लिए, धावा राहत में शामिल हो गई और आंध्र प्रदेश शाखा ने स्कूलों में धार्मिक प्रार्थनाओं के विरुद्ध एक अभियान छेड़ा। इस संगठन ने, शायद, पहली बार एक समान व्यवहार संहिता हेतु माँग उठायी ताकि महिलाओं को धार्मिक फैसलों व जाति बंधनों द्वारा दमित व उत्पीड़ित न किया जा सके। उन्होंने भारत की सभी महिलाओं के लिए पूरी तरह से समान कानून की माँग की – उनकी जाति अथवा धर्म चाहे जो भी हो।

 दमन से दैनिक मुठभेड़
प) मद्य के विरुद्ध
दुर्भाग्यवश, चालीस के दशक तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच उत्तरोत्तर बढ़ते शत्रुतापूर्ण संबंधों के फलस्वरूप साम्प्रदायिक खुद इनके सदस्यों में ही दिखलाई पड़ते थे। 1944 तक अधिकांश मुस्लिम महिलाएँ ए.आई.डब्ल्यू.सी. छोड़ चुकी थीं। विभाजन और पाकिस्तान प्रवसन के बाद उन्होंने इस संगठन का उद्देश्य ही झुठला दिया और ‘ऑल-पाकिस्तान विमिन्स कॉन्फ्रेन्स‘ बना ली। भारत में ए.आई.डब्ल्यू.सी. ने सम्प्रदायवाद, जातिवाद और पितृतंत्रीय दमन के विरुद्ध कार्य जारी रखा और सभी धार्मिक गुटों से सदस्य बनाना आरंभ कर दिया, यद्यपि हिन्दू और दलितों की संख्या कहीं अधिक है।

जब से साम्प्रदायिक आधार पर देश को बाँटा गया है, साम्प्रदायिक और जातिवाद ने भयावह रूप से हिंसात्मक और भद्दा रूप ले लिया हैय निम्न जातियों की और धार्मिक व प्रजातीय अल्संख्यकों की असहिष्णुता कुलाँचें भरती बढ़ चुकी हैय विरोध और आत्म-रक्षा में महिलाओं के बीच संघटन भी और अधिक सशक्त और व्यापक हो गया है। पितृतंत्र से संबंधित व उससे जन्मे दमन के अन्य तरीकों तथा कुछ ही हाथों में धन व सत्ता के संकेन्द्रण ने भी संख्या इतनी बड़ी है व उनकी गतिविधियों का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इस अध्याय की अत्यधिक सीमित परिधि में उनमें से प्रत्येक पर टिप्पणी करना नितान्त असंभव है। छात्रों को अपने सामान्य ज्ञान व दैनिक समाचारपत्र पठन पर भरोसा करना होगा।

1972 में मद्य-पात्रों को तोड़कर भील महिलाओं ने सबसे पहले मद्य संतर्जना के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई। उसके बाद ऐसे अनेक आन्दोलनों का पता लगा जिनमें सबसे अधिक कायम और कामयाब रहा आंध्र प्रदेश के नेलौर में ताड़ी-विरोध आंदोलन । महिला-हितों के लिए संघर्षरत स्त्रियों व पुरुषों द्वारा पत्नी से मारपीट व पारिवारिक हिंसा के पीछे एक महती कारण के रूप में मदात्यय को ही समझा गया। किसी परिवार की अनन्त वा निरंतर दरिद्रता का कारण मुख्यतः है भी यही क्योंकि आदमी की आय इसी संतर्जन पर ही अपव्यय होती है। यही कारण है कि सभी महिला-विकल्प दहेज व यौन उत्पीड़न के अलावा, शराब को भी एक मुख्य मुद्दे के रूप में लेते हैं, वास्तव में सभी मद्य-विरोधी आंदोलन धीरे-धीरे महिलाओं के सामने खड़ी अन्य सभी समस्याओं के साथ घनिष्टता से सम्बद्ध हो गए। यहाँ तक कि पर्यावरण-रक्षा हेतु आंदोलन, यानी चिपको आंदोलनय समान भू-सम्पत्ति अधिकारों हेतु आंदोलन, यानी बोध गयाय और उत्तरांचल की भाँति एक अलग राजनीतिक सत्ता हेतु आंदोलन भी अपने को युग-युग से चल रही रोजाना को उन समस्याओं से अलग नहीं कर सके जिन्होंने महिलाओं, खासकर सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को स्वतंत्रता की किरण भी न देखने दी।

पप) दहेज के विरुद्ध
1975 में दहेज के विरुद्ध प्रथमतः सशक्त आंदोलन आयोजित करने वाला था प्रगतिवादी महिला-संगठन. हैदराबाद । यह अपने प्रदर्शनों में 2000 से भी अधिक स्त्री-पुरुषों को आकृष्ट कर लिया करता था तथा यह शेष महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात और यहाँ तक कि पंजाब व बंगाल तक भी फैल गया। लेकिन इस आंदोलन ने गहरी जड़ें दिल्ली व उसके आसपास ही जमाईं क्योंकि उक्त समस्या इस सांस्कृतिक क्षेत्र में ही अधिक प्रचण्ड व वीभत्स थी, और है। इस विषय में दिल्ली में महिला दक्षता समिति अग्रणी थी। अब इसका कार्यक्षेत्र, इस प्रकार के अन्य सभी संगठनों के उदाहरण की ही भाँति, महिला-उत्पीड़न व दमन से संबंधित अन्य सभी क्षेत्रों में व्याप्त हो चुका है।

पपप) यौन दुष्प्रयोग के विरुद्ध
महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में सर्वाधिक सामान्य व प्रापिक, तथा अभी सबसे ज्यादा लुके-छिपे, हैंबलात्कार व यौन उत्पीड़न के अन्य प्रकार। यही है पुरुष सत्ता के हाथों में सर्वाधिक सुलभ और अहं-तुष्टिपूरक हथियार, न सिर्फ स्त्रियों के अभिभूत करने के लिए भी। परिवार के भीतर अथवा स्वयंकृत कायेच्छा या विद्वेषवश बलात्कारों के अतिरिक्त, साम्प्रदायिक और जातीय तनावों में और पुलिस हिरासत में बलात्कार नितान्त सामान्य घटना है। बलात्कार के विरुद्ध आंदोलन, प्रथम बार, पुलिस बलात्कार के विरुद्ध आरंभ हुआ। पुलिस हिरासत में रलमेजा बी का बलात्कार प्रतीक बन गया। क्षेत्र, समर्थन और शेष में यह आंदोलन हमेशा बढ़ता रहा है, अभी वारदातों की संख्या में ऊर्ध्वगामी प्रवृत्ति पर लगाम नहीं लग पा रही है। शक्ति शालिनी, सासबाला महिला संघ व जनवादी महिला समिति इस क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय नाम है। तीसरा नाम अपने राजनीतिक संघर्षों में भी महिलाओं को संगठित करता रहा है। सभी वर्ग की महिलाओं के लिए नवीनतम अभिभावी विषय, वास्तव में रहा है – देश के उच्चतम निर्णय-लेने वाले निकायों में सीटों का आरक्षण ।

पुरुष प्रभुत्व के सभी रूप, वास्तव में, महिलाओं की आर्थिक निर्भरता पर आधारित थे। इस प्रकार नारी उत्पीड़न के दो प्राथमिक आधारभूत ढाँचे थे — श्रम का लैंगिक विभाजन तथा संस्कृति व राजनीति जिसने इसको युक्ति-संगत बनाया। दूसरी ओर, महिला समता सैनिक दल, अन्य अधिकांश महिला-निकायों की भाँति, यह मानता था कि पुरुषों की लैंगिक सुख की निकृष्ट इच्छा ने ही उन्हें नारी को दासी बनाने की ओर प्रवृत्त किया है। हिंसा के विभिन्न प्रतिरूपों के विरुद्ध आंदोलनों के विषय में जो ध्यानाकर्षक है और महिला-आंदोलन मूल रूप से, प्रतिरोध हेतु आग्रह और विरोध के रूप में उभरे हैं, यह है कि इन्होंने महिलाओं के प्रति अनेक विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों को एक साथ कैसे सन्निविष्ट कर दिया रू नारी अधिकारवादी से पितृतंत्र-विरोधी से पूँजीवादी-विरोधी से कल्पनालोकी पितृतंत्रवाद। इनमें अंतिम को कथित स्थिति में वे पुरुष रखते हैं जो यह महसूस करते हैं कि अपनी स्त्रियों हेतु विरोध करना और उन्हें संरक्षण देना उनकी ही जिम्मेदारी है।

उन मित्रताओं के नारी-अधिकारवादी आंदोलन में व्यक्तिगत संबंधों का एक सम्पूर्ण नया समुच्चय विकसित हुआ, जो वर्ग, जाति सांस्कृतिक व्यवधानों की सीमा से बाहर हैं, यद्यपि, कुछ हद तक, ये मित्रताएँ असमान भी बनी रहीं। मध्यवर्गी महिलाएँ, जो आमतौर पर नेत्रियाँ अथवा आयोजक थीं, एक कर्तव्य भाव से कहीं अधिक सक्रिय थीं, और असहायपन व कृतज्ञता की स्थिति वाली अभागियाँ थीं। इससे भी अधिक, वैयक्तिकता के एक नए भाव का विकास स्पष्टतया दृश्य था।