जलवायु का स्थलाकृतियों पर प्रभाव जलवायु भू- आकृतिविज्ञान क्या है ? CLIMATE GEO MORPHOLOGY in hindi ?
जलवायु भू-आकृतिविज्ञान
(CLIMATE GEOMOROPHOLOGY)
जर्मनी व फ्रांस में 19वीं शताब्दी से ही जलवायु भू-आकृतिविज्ञान की संकल्पना का उदय हो चका था। परन्तु वर्तमान समय तक इसके विषय में कुछ मूलभूत समस्याओं का निराकरण अभी तक नहीं किया जा सका हैं। इस संकल्पना की पृष्ठभूमि चीन में वॉन रिक्तो फेन, अफ्रीका में पसर्गे, जेसेन, वाल्टर तथा थोरबेक और मध्य अमेरिका तथा मलेशिया में सेपर आदि भूआकृति विज्ञानवेत्ताओं के कार्यों पर तैयार हो पायी थी। आगे चलकर डेविस ने भी शीतोष्ण जलवायु प्रदेश तथा शीतोष्णेतर प्रदेश के स्थलरूपों में अन्तर की पहचान की। परिणामस्वरूप जर्मन विद्वानों ने यह प्रतिपादित किया कि जर्मनी में प्रत्येक जलवाय प्रदेश में विशेष प्रकार के स्थलरूपों का समूह विकसित होता है तथा एक जलवायु प्रदेश के स्थलरूप दसरे जलवायु प्रदेश के स्थलरूपों से भिन्न होते हैं। फ्रांस में भी स्थलरूपों के निर्माण तथा विकास में जलवाय को एक प्रमुख नियंत्रक कारक के रूप में मान्यता मिली।
विभिन्न प्रकार के जलवायु प्रदेशों में अपक्षय के प्रक्रम तथा उनके कार्य करने की दर, वनस्पतिप्रकार, वाही-जल अपरदन का स्वरूप तथा दर तथा स्थलरूप के विकास सम्बन्धी प्रक्रियायें भिन्न-भिन्न ती हैं परन्तु इस संकल्पना को अभी तक पूर्ण मान्यता नहीं मिल सकी है।
जलवायुजनित स्थलरूप
जलवायु भूआकृतिक विज्ञानवेत्ताओं ने ऐसे स्थलरूपों के चयन करने का प्रयास किया है जो खास प्रकार की जलवायु में ही निर्मित होते हैं। इनके आधार पर अन्य क्षेत्रों में जलवायु-स्थलरूप संबंध का अध्ययन किया जाता है। अतः ये स्थलरूप अपनी-अपनी जलवायु तथा जलवायु प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से विशिष्ट स्थलरूप संघटक ही जलवायु भूआकृतिविज्ञानवेत्ता का प्रधान सूत्र होता है, जिनके आधार पर वह जलवायु-स्थलरूप के सम्बन्धों की पहचान करने में समर्थ हो पाता है इस तरह के स्थलरूपों में लेटराइट सतह, इन्सेलबर्ग, पेडीमेण्ट, टार आदि को सम्मिलित किया जाता है।
इसी प्रकार इन्सेलबर्ग को उष्ण कटिबन्धी अर्द्ध शुष्क जलवायु का प्रतिनिधि माना जाता है परन्तु वर्तमान समय में इन्सेलबर्ग विभिन्न प्रकार के जलवायु प्रदेश में पाये जाते हैं, जैसे उपोष्ण-आर्द्र (जार्जिया), उष्णार्द्र (गायना तट, द. भारत तथा ब्राजील), रेगिस्तानी क्षेत्र (प.उ.अमेरिका द.प.अफ्रीका) आदि। इस कारण इन्सेलबर्ग के उष्ण अर्द्ध शुष्क जलवायु के प्रतिनिधि होने में संदेह होने लगता है परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि जहाँ पर वर्तमान समय में इन्सेलबर्ग मिलते हैं उनका वर्तमान जलवायु से सम्बन्ध हो ही। पेडीमेण्ट को मरुस्थली स्थलाकृति का प्रमुख लक्षण माना जाता है परन्तु इस विषय पर भी अब पर्याप्त वैषम्य हो गया है। पेडीमेण्ट के निर्माण में ढाल-निवर्तन तथा विवर्तनिक कारण को जलवायु की अपेक्षा अधिक महत्व दिया जाता है। एल.सी. किंग ने भी बताया है कि पेडीमेण्टेशन की प्रक्रिया सार्वत्रिक है। कुछ का तो कहना है कि वर्तमान जलवायु ने पेडीमेण्ट को निर्मित करने के बजाय उसे नष्ट करने में अधिक सहयोग दिया अतः निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि प्रतिनिधि स्थलरूप प्लीस्टोसीन युग में हए जलवायु परिवतना से पुराने हैं, अतः जहाँ पर आज वे मिलते हैं, वहाँ की जलवायु से उनका सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता है।
विभिन्न प्रकार की जलवाय में विभिन्न प्रक्रम कार्यरत होते है तथा जलवायु में विभिन्नता के साथ अपक्षय तथा अपरदन को प्रभावित करने वाले जलवायु के तत्वों में अब तक अब तक तापक्रम तथा वर्षा को भूआकृतिक प्रक्रमों के नियंत्रक कारक के रूप् में मान्यता मिलती रही है। उच्च वार्षिक तापक्रम तथा वर्षा के कारण उष्णार्द्र क्षेत्रों में अधिक गहराई तक रासायनिक अपक्षय अधिक सक्रिय होता है। लेकिन इन्हीं उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र भागों में तीव्र ढाल वाली अवनलिकाओं तथा कैनियन का पाया जाना उपर्युक्त प्रक्रिया का विरोधाभास ही है। ऊँचाई भागों में वनस्पति का नियंत्रण भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता है। उच्च तापमान तथा वर्षा के कारण अत्यन्त तीव्र ढ़ालों पर भी वनस्पतियों का धना आवरण हो जाता है, जिस कारण भौतिक अपक्षय, चादर, घुलन तथा मृदा क्षारण की क्रियायें अत्यन्त शिथिल पड़ जाती है। वनस्पतियाँ नदियों की घाटियों के निचले भाग तक पहुंच कर नदी द्वारा होने वाले पाशर््िवक अपरदन को कम कर देती है। जिस कारण घाटी का चैड़ा होना शिथिल पड़ जाता है, परन्तु जहां जिस कारण घाटी का चैड़ा होना शिथिल पड़ जाता है, परन्तु जहां कहीं भी वनस्पतियों का अनावरण हो गया है, अधिक होने लगता है। सेपर (1935), फ्रोस (1935) तथा वेण्टवर्थ (1928) ने भी उष्णार्द्र जलवायु में उच्च तापमान तथा वर्षा के कारण तीव्र रासायनिक अपक्षय तथा निम्न अपरदन को मान्यता दी है। चैम्बरलिन टी.सी. तथा चैम्बरलिन आर.टी.(1910)ने उष्णार्द्र स्थलरूप तथा मध्य अक्षांशीय शीतोष्ण स्थलरूपों के बीच पर्याप्त अन्तर स्थापित किया है।
जल और तापक्रम के संयोग चूना प्रस्तर के अपक्षय को विभिन्न जलवायु में अलग-अलग प्रभावित तथा नियंत्रित करते है। उष्णार्द्र जलवायु में जल की अधिकता के कारण चूना प्रस्तर अपक्षय तथा अपरदन की दृष्टि से अत्यन्त कमजोर होता है क्योंकि रासायनिक अपक्षय अधिक सक्रिय होता है परन्तु उष्मा-शुष्क जलवायु में जल की अल्पता के कारण वही चूना प्रस्तर रासायनिक अपक्षय के अभाव में कठोर हो जाता है।
जल तथा तापक्रम अपक्षय को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। उष्णार्द्र भाग में रासायनिक अपक्षय अधिकतम होता है जबकि शुष्क भागों में न्यूनतम। शीत भागों में भी रासायनिक अपक्षय न्यून होता है, यद्यपि भौतिक अपक्षय में भी जल का सहयोग रहता है परन्तु यह वहीं पर अधिक सक्रिय होता है जहाँ पर या तो तापक्रम के कारण प्रसार एवं संकुचन होता रहता है या तुषार के कारण हिमीकरण-हिमद्रवण होता रहता है।
इसी तरह तापक्रम एवं वर्षा के विभिन्न संयोग अपरदन के प्रक्रमों तथा उनकी कार्य- विधि को प्रभावित करते हैं। अपरदन के प्रकार तथा उनकी सक्रियता मुख्य रूप से मिट्टी तथा शैल संस्तर की भेद्यता एवं प्रवश्यता, शैल संस्तर की ऊँचाई वनस्पति के प्रकार तथा मात्रा. वाष्पीकरण तथा वाष्पोत्सर्जन का दर, का मात्रा तथा तीव्रता व वर्षा देयक तफान की आवत्ति द्वारा प्रभावित एवं नियंत्रित होते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि पेल्टियर तथा अधिकांश विद्वानों ने स्थलरूपों के नियंत्रक कारक के रूप में जलवायु के दो प्राचल औसत वार्षिक तापक्रम तथा औसत वार्षिक जलवर्षा का चयन किया है। डी.आर.स्टोडार्ट (1969) ने इस पुरानी पद्धति में परिमार्जन तथा संशोधन प्रस्तुत किया है।
जलवायु का स्थलाकृतियों पर प्रभाव
(Impact of Climate on Physical Landscapes)
विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में स्थलाकृतियों के निर्माण में जलवायु की विभिन्नताओं एवं विषमताओं के कारण पृथक-पृथक प्रभाव आंका गया है। यदि दो विभिन्न जलवाय क्षेत्र के भूभागों की स्थलाकृतियों में समानता लक्षित होती है तो यह आवश्यक नहीं कि उनकी भौगर्भिक रचना भी एक समान होनी चाहिए एवं उस भाग की स्थलाकृतियों के उत्थान में भी उसी भभौमिक वत्त का होना आवश्यक है जो एक थी स्थलाकृतियों के उत्थान में लागू हआ हो, परन्तु ऐसी घटनायें कम मिलती है, तथा जलवायु की विभिन्नता के फलस्वरूप् हर एक स्थल की स्थलाकृतियों में भी काफी असमानता मिलती है। पृथ्वी के धरातल पर वनस्पति का आवरण एवं मिट्टी के प्रकार भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप के स्थलाकृतियों को प्रभावित करती है। जलवायु के विभिन्न तत्व आपस में मिलकर एक तत्व की प्रधानता होने से ही स्थलाकतियों के एवं विनाश में सहायक होती हैं। जलवाय के तत्वों का प्रादेशिक अध्ययन करने पर ही जलवायु विज्ञानवेत्ताओं ने पृथ्वी को विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में विभाजित करके स्थलाकृतियों का अध्ययन प्रस्तुत किया है।
परन्तु स्थलाकृतियों का अध्ययन जलवायु का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने से उपरान्त ही ठीक-ठीक विधि से समझ में आ सकता है। क्योंकि जलवायु ही पृथ्वी के धरातल पर अधिकांश परिवर्तन एवं रूपान्तरण कर डालती है तथा इस प्रकार की सम्पूर्ण घटनायें जो भूभौमिक प्रक्रम एवं स्थलाकृतियों में परिवर्तन का डालती हैं वह जलवायु- भूस्वरूप विज्ञान की विषय सामग्री है जो प्राकृतिक भूस्वरूप विज्ञान से बिल्कल भिन्न है।
पेंक एवं डेविस से पूर्व ही हेटनर तथा पासर्गी ने स्थलाकृतियों का सम्बन्ध जलवायु से आंका था। वालथर फेंक ने स्थलाकृतियों में सबसे प्रभावशाली तत्वों में भौगर्भिक तथ्यों के साथ ही साथ भौगोलिक हलचल को महत्व देते हुए उन पर जलवायु का प्रभाव आंका है। पेंक के अनुसार पृथ्वी की सम्पूर्ण आकृतियों में भले ही भौगर्भिक घटनायें महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं, परन्तु जलवायु के द्वारा इसके अर्वाचीन स्वरूप का निर्धारण होता रहता है। तथा जलवायु के विविध तत्व स्थलाकृतियों के निर्माण में प्रक्रम का कार्य करते हैं। ‘जलवायु के तत्व स्थलाकृतियों पर प्रभाव डालते हैं।‘ सन् 1948 में जब वुडल ने म्यूनिच के भौगोलिक सदन में ‘जलवायु का प्रभाव स्थलाकृतियों परश् नामक लेख पढ़ा तब से जर्मनी में श्जलवायु-भूस्वरूप विज्ञान में, एक नयी शाखा पर प्रादुर्भाव हुआ तथा वुडल के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रयोग जलवायु भूस्वरूप विज्ञान के अन्वेषणों तथा शोध के रूप में किया जाने लगा।
सन् 1957 में वुडल ने यह स्पष्ट किया कि जलवायु की विभिन्नताओं एवं विषमताओं के फलस्वरूप ही पृथ्वी की अधिकांश स्थलाकृतियों की उत्पत्ति होती है जबकि आन्तरिक शक्तियाँ एवं भौगर्भिक रचना केवल उसकी आकृति का निर्धारण करती है। वुडल ने अपने डूसेल डोफ के भाषण में यदि जलवायु को स्थलाकृतियों का निर्णायक माना है, परन्तु पृथ्वी के धरातल पर जो वृहद् विषमतायें लक्षित होती है जैसे, पर्वत, पठार घाटियों ,गु एवं खड़ी ढाल की पहाड़ियाँ- इन सब में आन्तरिक शक्तियाँ ही प्रभाव डालती हैं तथा स्थलकृतियों का यथेष्ट अध्ययन करने में हमे आन्तरिक भौगर्भिक शक्तियों के साथ ही साथ बाह्य जलवायु की शक्तियों का भी अध्ययन पारस्परिक रूप में करना चाहिए।
सन् 1936 में क्रेनीन नामक विद्वान ने सेपर के द्वारा प्रतिपादित तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि जलवायु की विषमताओं के कारण ही आर्द्र शीतोष्ण भूभागों तथा आर्द्र उष्ण क्षेत्रों की स्थलाकृतियों में विभिन्नता मिलती है। क्रेनीन ने यह स्पष्ट किया कि आर्द्र उष्ण प्रदेशों में जलवायु के कारण रासायनिक क्रियाओं से चट्टानों की रचना में अन्तर पड़ जाता है जिससे इन क्षेत्रों में सामान्यता समतल भूभाग मिलते हैं तथा पर्वतीय क्षेत्रों में कहीं-कहीं पर 7 मीटर की गहराई तक लाल रंग की मिट्टी मिलती है। इतना ही नहीं बल्कि इन भागों में क्षरण के कारण सीधे खड़े ढाल की नालियों के फलस्वरूप इन क्षेत्र की धरातलीय रचना का सम्बन्ध स्वरचित मिट्टी से आंकना कठिन हो जाता है। अत्यधिक वर्षा वाले जंगलों में जलवायु के कारण जो वनस्पति उत्पन्न होती है उससे भी इस भाग की मिट्टी के उपस्थिति का अनुमान लगाना कठिन हो जाता है। इन भागों में वनस्पति का आवरण धरातल पर छाया रहता है तथा तापक्रम के कारण भौतिक अपक्षय के लिए भौगोलिक तत्व कम ही सहायक हुए हैं। वनस्पति का इतना घना आवरण रहता है कि नदिया म यदि पानी बढ़ जाये तो पार्श्व कटाव नहीं हो पाता है तथा घाटियों का विकास रुक जाता है। इस प्रकार अत्यधिक वर्षा वाले उष्ण प्रदेशों में स्थलाकृतियों का निर्माण शनैःशनैः होता है। परन्तु ज्यों-ही वनस्पति नष्ट कर दी जाये तो कटाव के कारण नालियों के रूप में धरातल कट जाता है और विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतिया के विकास के लिए भौगोलिक दशाएँ मिल जाती हैं। जिन भागों में आर्द्रता या वर्षा का नियमित समय होता है वहाॅ पर मिट्टी तथा मिट्टी के नीचे की पर्त इतनी नमी-युक्त रहती है कि मिट्टी के नाम आपस में चिपके रहते है, और क्षरण आसानी में नहीं हो पाता है।
सन 1935 में सेपर ने उष्ण-आर्द् क्षेत्रों में लम्बवत् अपक्षय को महत्वय दिया तथा इसका प्रभाव शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में भी आंका है। लम्बे के उपरान्त वनस्पति का जड़ा से एक प्रकार का रासायनिक अपरदन होने से स्थलाकृतियों के विकास में बाधा उत्पन्न होती है तथा मिट्टी कीचड के रूप में बढ़ जाती हहै। फ्रीसीस ने 1935 ई. में भूमि के नीचे के पर्त के प्रवाह को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। सन् 1928 ई. में वेन्टवर्थ ने वार्षिक तापक्रम के हिमांक बिन्दु में परिवर्तन होने से तापान्तर तथा वार्षिक वर्षा के कारण हवाई द्वीप समूहों में भौतिक अपक्षय की दर की न्यूवता के कारण रासायनिक अपक्षय को महत्वपूर्ण स्थान दिया।
जिन भूआकृतियों ने आर्द्र प्रदेशों एवं शुष्क क्षेत्रों की स्थलाकृतियों का अध्ययन किया है वे इसकी धरातलीय असमानताओं एवं विषमताओं के कारण काफी प्रभावित हुए हैं। आटै प्रदेशों में सामान्यतया एक समान ढ़ाल एवं स्थलाकृतियाँ मिलती हैं जबकि शुष्क क्षेत्रों में असमान ढाल तथा ढाल का झुकाव एवं धरातलीय विषमताएँ मुख्य है। इतना ही नहीं बल्कि शुष्क प्रदेशों में पदार्थ की गति छिद्राकार धरातल के नीचे की ओर सक्रिय रहती है। चूने के प्रदेशों में स्थलाकृतियों की उत्पति में धरातल में अत्यधिक नमी आवश्यक है तथा जहाँ पर नमी की कमी रहती है वहाँ पर रासायनिक अपक्षय सक्रिय नहीं रहता है। इसके अतिरिक्त स्थलाकृतियों में विभिन्नता उत्पन्न हो सके। इतना ही नहीं बल्कि एक क्षेत्र में भूभौमिक प्रक्रम को सक्रिय रखने के लिए स्थानीय जलवायु की दशाएं भी सहायक होती है।
भूभाग की विषम स्थलाकृतियों के लिए अत्यधिक उच्च तापक्रम तथा जल की आवश्यकता पडती है जो रासायनिक अपक्षय को जन्म देते हैं। शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों में शीत क्षेत्रों की अपेक्षा को बहत कमी पाई जाती है। जिस कारण रासायनिक क्रिया की दर कम हो जाती है। भौतिक क्रियाओं के लिये ताप की उपस्थिति अति आवश्यक है जिससे चट्टानों में परिवर्तन हो सके। रासायनिक क्रियाओं को देखते हुए दो प्रकार के जलवायु क्षेत्र स्थित हैं- पहले वे जलवायु क्षेत्र जहाँ पर तापक्रम अधिक होने से रासायनिक क्रियाएं सक्रिय रहती हैं, तथा दूसरे वे क्षेत्र आते हैं। जहाँ पर पाले के प्रभाव से पसीजने की क्रिया अवरुद्ध होती विषम जलवायु की अवस्थाओं तथा तापक्रम, वर्षा का पारस्परिक सम्बन्ध उस क्षेत्र की रासायनिक एवं भौतिक अपक्षय की क्रियाओं पर पड़ता है, अन्य भौमिक प्रक्रम चाहे कोई भी हों वे या तो किसी जलवायु की दशाओं में अत्यधिक सक्रिय हो सकते हैं तथा वे ही प्रक्रम दूसरे क्षेत्रों में सबसे कम प्रभाव डाल सकते हैं।
शुष्क एवं आर्द्रता-युक्त क्षेत्रों में विषम जलवायु से भूभौमिक प्रक्रम एवं स्थलाकृतियों में विभिन्नता
शुष्क एवं आर्द्रतायुक्त क्षेत्रों का अध्ययन कुछ वर्षों पहले ही स्थलाकृतियों की दृष्टि से किये गये तथा इन क्षेत्रों की स्थलाकृतियों की विषमताओं में जलवायु का ही मुख्य हाथ आंका गया, परन्तु जब अध्ययन के उपरान्त यह पता चला कि पृथ्वी के केवल 30 प्रतिशत भाग में रेगिस्तान फैला हैं तो इस क्षेत्र की ष्कृतिया को कम महत्व दिया जाने लगा। सन् 1936 में रसल नामक भूस्वरूपवेत्ता ने यह सिद्ध किया कि शुष्क क्षेत्रो में वनस्पति के न्यूनता के कारण आर्द्रतायुक्त क्षेत्रों की अपेक्षा जल के निष्कासन की तीव्रता का प्रतिशत अधिक रहता है, इसके साथ ही साथ हमें यह भी मालूम रहना चाहिए कि आर्द्र क्षेत्रों की अपेक्षा शुष्क क्षेत्रों में वर्षा कही-कहीं पर होती है तथा लगातार एक सम्पर्ण भाग में वर्षा कभी भी नहीं होती है। शुष्क क्षेत्रों में वनस्पति के अभाव के कारण भौमिक प्रक्रम की दर तीव्र रहती है। शुष्क क्षेत्रों में आद्र्र क्षेत्रों की अपेक्षा भौतिक प्रक्रम की क्रियाएँ सक्रिय रहती हैं जबकि यह कहा जाता है कि शुष्क क्षेत्रों में रासायनिक अपक्षय के ऊपर भौतिक अपक्षय का प्रभाव पड़ता है।
रेगिस्तानी क्षेत्रों जल-प्रणाली का विकास कम रहता है। इन क्षेत्रों के बाहर स्थायी जल-प्रणाली है, रेगिस्तानी भागों में नदियों का मार्ग शुष्क रहता है तथा कभी-कभी केवल वर्षा के समय पानी नजर आता है। डेविस ने इसको ‘रेगिस्तान की बाढ़‘ के नाम से पुकारा है, आर्द्र क्षेत्रों की अपेक्षा शुष्क क्षेत्रों में नदियों में एकदम जल की मात्रा बढ़ जाती है तथा एकदम घट भी जाती है। शुष्क क्षेत्रों तथा आई क्षेत्री ‘आवरण बाढ़‘ में मुख्य अन्तर यह है कि शुष्क क्षेत्रों में शुष्क जलवायु के कारण इसका असंगठित पदार्थ का आधक मात्रा मिल जाती है जबकि आर्द्रतायुक्त क्षेत्रों में वनस्पति के कारण पृथ्वी के ऊपरी आवरण का कटाव नहीं या कम मात्रा में हो पाता है, इस प्रकार के आकस्मिक बाढ़ की मुख्य विशेषता यह है कि इसका प्रवाह एवं समय बहुत कम रहता है।
भूभौमिक प्रक्रम में जलवायु का प्रभाव
(म्ििमबजे व िब्सपउंजम वद ळमवउवतचीपब च्तवबमेे)
स्थलाकृतियों के निर्माण में जलवायु के तत्वों में विशेषकर तापक्रम तथा वर्षा का प्रत्यक्ष प्रभाव भूभौमिक प्रक्रम पर पड़ता है। परन्तु सामान्यतया जलवायु की विषमता स्थलाकृतियों के स्वरूप एवं विभिन्नता को स्पष्ट करती हैं। भूगर्भशास्त्री, भूगोलवेत्ताओं की तरह जलवायु से सामान्य प्रभावों पर अधिक बल न देकर मुख्यतः उसके विभाग पर अधिक जोर देते हैं जबकि इसके विपरीत भूगोलवेत्ता विशेषकर भूभागों का मानवीय जीवन पर तथा मानवीय जीवन का स्थलाकृतियों पर पारस्परिक प्रभाव का वर्णन करते हए नजर आते हैं। जलवायु की विषमतायें भौम्याकृतिक प्रक्रम पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं। जलवाय का अप्रत्यक्ष प्रभाव वनस्पति की मात्रा, उसका वितरण एवं किस्म पर आंका जा सकता है। वनस्पति के द्वारा उस स्थलाकृति की वर्षा की मात्रा, उसकी विषमता, वाष्पीकरण तथा वर्षा का पारस्परिक सम्बन्ध दैनिक तापान्तर, पाला एवं ओस की मात्रा तथा वायु की दिशा एवं वेग पर प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार उच्च पर्वतीय स्थलाकृतियों के द्वारा या तो वर्षा की मात्रा प्रभावित होती है या वाष्प भरी हवायें इनके पृष्ठ प्रदेशों या हवाओं के मार्ग में होते हैं।
शीतोष्ण आर्द्र क्षेत्रों की जलवायु के कारण जो स्थलाकृतियाँ उत्पन्न हुई उन पर ही भूस्वरूप विज्ञानवेत्ताओं ने आधारभूत मतों का प्रतिपादन किया। इस प्रकार के जलवायु क्षेत्रों में सामान्य परिस्थितियां उपलब्ध रहने से इन क्षेत्रों का विशेष अध्ययन किया गया। शुष्क क्षेत्रों में कई भूभौमिक वृत्तों के द्वारा स्थलाकृतियों की उत्पत्ति आंकी गई है। परन्तु वहाँ पर हम सब वृत्तों को एक ही वृत के नाम से पुकारते हैं जो कि ‘शुष्क वृत्त‘ कहलाता है। इसके विपरीत ध्रुवीय क्षेत्रों मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों तथा उष्ण-अर्द्ध जलवायु क्षेत्रों में हम एक ही ‘भूभौमिक वृत्त‘ का प्रतिपादन तब तक नहीं कर सकते है जब तक कि हम जलवायु के सम्पूर्ण तत्वों के अन्तर्गत उच्च भूभाग में रूपान्तरण आंका जा सकता है क्योंकि ज्यों-ज्यों ऊँचाई बढ़ती जाती है त्यों-त्यों तापक्रम गिरता जाता है, तथा निम्न अक्षांशीय क्षेत्रों में भी पाला का मुख्य हाथ स्थलाकृतियों के निर्माण में रहता है।