जातीयता को परिभाषित करें | जातीयता की परिभाषा क्या है , किसे कहते है अर्थ मतलब casteism in hindi meaning

casteism in hindi meaning जातीयता को परिभाषित करें | जातीयता की परिभाषा क्या है , किसे कहते है अर्थ मतलब ?

जातीयता और स्तरीकरण
अधिकतर आधुनिक समाजों में अनेक प्रकार के जातीय समूह हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटेन में आइरिश, एशियाई (इनमें से भी कई हैं), वेस्ट इंडियन, इतालवी और ग्रीक मूल के अप्रवासी रहते है। मगर यहां पर यह प्रश्न उठता है कि जब भी हम किसी समाज की बात करते हैं तो क्या हम अनिवार्यतः राज्य की ही बात कर रहे होते हैं । हां, अक्सर हम राज्य की ही बात कर रहे होते हैं। इसीलिए हम भारतीय समाज, पाकिस्तानी समाज, अमेरिकी समाज कहते हैं। ऐसे में अनिवार्यतः यहां ऐसी बहुविधा सत्ता की बात कर रहे होते हैं जिसमें अनेक समाज और एक राज्य होता है। कई समाजशास्त्रियों का तर्क है कि विभिन्न सांस्कृतिक समूह ‘राष्ट्र‘ हैं तो दूसरे विद्वान इन्हें ‘जातीय‘ समूह की संज्ञा देते हैं। क्या दोनों एक ही हैं?

यहां कुछ सिद्धांतों की समीक्षा करना रोचक होगा। गिडंस के मुताबिकः विश्व में आज, चाहे वह औद्योगिक रूप से उन्नत विश्व हो या पिछड़ा, अधिकांश समाज बहुविध समाज हैं। बहुविध समाज में कई विशाल जातीय समूह होते हैं जो एक ही सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा तो होते हैं मगर वहीं एक-दूसरे से मोटे तौर पर भिन्न होते हैं।

एंथनी स्मिथ के मत के अनुसार राष्ट्रवाद का उदय धर्म, भाषा, रीति-रिवाज, साझे इतिहास और उत्पत्ति के सामूहिक मिथकों के बंधनों से हुआ था। कालांतर में वह अपनी एक अन्य कृति में राष्ट्रवाद का रूप धारण कर रहे आधुनिक पुनरुत्थानों की बात करते हैं और ‘जातीय‘ या जातीय समुदाय की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यह एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसके सदस्यों में साझी उत्पत्ति का बोध होता है, जो एक साझे और विशिष्ट इतिहास और नियति का दावा करते हैं, जिनमें एक या अधिक विशिष्ट लक्षण होते हैं और सामूहिक विशिष्टता और एकात्मता का बोध होता है।

क्या इसका यह अर्थ है कि राष्ट्र और जातीय और इसलिए जातीयता और राष्ट्रीयता में कोई अंतर नहीं है? नहीं, स्मिथ के अनुसार इनमें कोई अंतर नहीं है। जातीय एक निष्क्रिय धारणा है और राष्ट्रीयता सक्रिय जातीयता है क्योंकि जातीय पुनरुत्थान निष्क्रिय, अक्सर पृथ्कृत और राजनीतिक दृष्टि से बहिस्कृत समुदायों का संभावित और वास्तविक राष्ट्रों में रुपांतरण है जो अपने ऐतिहासिक पहचान में सक्रिय भागीदार और आत्म-चेतन होते हैं। ऊमेन के अनुसार इस परस्पर-व्यापन के बावजूद इनमें एक अति महत्वपूर्ण भेद है, जिसे हम प्रादेशिक आयाम में देख सकते है। ऊमेन का मत बूजली से भिन्न है जिनके अनुसारः

राष्ट्रवाद और जातीयता
राष्ट्रवाद भी एक प्रकार की जातीयता है। मगर यह उसका विशेष रूप है। यह असल में एक खास जातीय पहचान को राज्य से जोडकर उसका संस्थापन है। जातीय समह जरूरी नहीं है कि हमेशा मिल-जलकर कार्रवाई करें बल्कि वे ऐसा तभी कर सकते हैं उन्हें किसी विशेष हित को साधना हो। पर यही हित जब एक राज्य (या राज्य का एक हिस्सा) बन जाते हैं तो यह समूह राष्ट्रीयता बन जाता है।

इसमें स्तरीकरण का स्थान कहां है?

ऊमेन की व्याख्या से इस प्रश्न का उत्तर कुछ हद तक मिल जाता है। इसके लिए उन्होंने असमानता से उपजी वंचनाओं, भौतिक वंचना और सांस्कृतिक पहचान से वंचित होना, इन विशिष्ट लक्षणों का उल्लेख किया है। उनका कहना है कि अगर किसी संजातीयता का अपनी कोई सामूहिक भाषा और अपना प्रदेश नहीं है तो वह स्वयं को एक राष्ट्र में नहीं बदल सकता। मगर यहां यह पहलू हमारे तात्कालिक सरोकार का विषय नहीं है। यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि जन-समूह सिर्फ वर्ग या जाति के कारण ही वंचित नहीं हैं। बल्कि संजातीयता के कारण भी वे वंचित रह जाते हैं।

इसलिए भारत में सामाजिक स्तरीकरण के अध्ययन को सिर्फ जाति और वर्ग के मुद्दों को ही नहीं बल्कि जनजातियों और धार्मिक/भाषायी/क्षेत्रीय समुदायों से जुड़े मुद्दों को भी संबोधित करना होता है। पिछले एक-दो दशकों से जातीय/राष्ट्रवादी पुनरुत्थान में बड़ी तेजी आई है। हम ऐसी कई स्थितियों को चिन्हित कर सकते हैं जिनमें ‘जातीयता‘ या बाहरी होने की पहचान राष्ट्रीयता या आंतरिक पहचान के मुकाबले एक मुख्य विशेषता बन जाती है। ये स्थितियां इस प्रकार हैंः

प) धर्म के नाम पर एक अलग राष्ट्र की मांग (जैसा कि सिखों के एक विशेष वर्ग की ओर से एक प्रभुतासंपन्न राष्ट्र खालिस्तान की मांग) या भाषा के नाम पर एक अगल राष्ट्र की मांग (इसका उदाहरण तमिलों द्वारा एक स्वतंत्र राज्य की मांग है)।
पप) भारतीय राज्य संघ के भीतर एक पृथक-राजनीतिक प्रशासनिक इकाई की मांग (जैसे नेपालियों के लिए गोरखालैंड, मध्य भारत की जनजातियों के लिए एक अलग झारखंड राज्य की मांग)।
पपप) पर अन्य राज्यों या पड़ोसी देशों से आने वाले प्रवासियों के किसी प्रदेश पर पूरी तरह से हावी होने पर ‘बाहरी‘ लोगों को निकाल बाहर करने की मांग (इस तरह की स्थिति हमें पूर्वोत्तर के असम और त्रिपुरा जैसे राज्यों में देखने को मिल रही है)।
अ) ऐसे ‘विदेशियों‘ को निकाल बाहर करने की मांग जिसका संबंध मूलतः राज्य के भीतर ही अन्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से है (इस तरह की मांग छोटा नागपुर के आदिवासी लोग मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले ‘दीकू‘ बिहारियों को बाहर करने के लिए कर रहे हैं)। या इस तरह की मांग बाहरी राज्यों से आ बसे लोगों (जैसे बंगालियों और मारवाड़ियों) के खिलाफ की जाती है।
पअ) इन लोगों को राज्य से निकाल बाहर करने की मांग जो एक ही सांस्कृतिक प्रदेश के तो नहीं होते मगर वे भी उसी राज्य के वासी होते हैं (जैसे तेलंगाना प्रदेश से आंध्र मूल के लोगों को निकाल बाहर करने की मांग)।
अ) अन्य भाषायी राज्यों से काम के लिए महानगरों में आ बसे प्रवासियों को निकाल बाहर करने की मांग (इस तरह की मांग मुंबई और बंगलौर में तमिलों के खिलाफ उठाई गई थी)।

 जातीय समूहों की प्रकृति
भारतीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भो से हमने जो उदाहरण दिए हैं उनसे एक बात स्पष्ट हो जाती है। जातीय समूहों को चाहे हम जिस परिभाषा में बांधे वे किसी न किसी रूप में राज्य और उसके प्रभावी समूह दोनों से अलाभकर-स्थिति में होते हैं । जैसा कि कुछ विद्वानों का मत है, जातीयता बहुअर्थी हो गई है। पश्चिम एशिया में जातीयता पर हुआ शोध यह प्रमाणित करता है कि जातीयता ने अब तक प्रयुक्त अल्पसंख्यक की धारणा को विस्थापित कर दिया है। यह कहा गया है कि पश्चिम एशिया में अरब एक मूल पहचान है, जिसकी विशेषताएं अरबी भाषा और संस्कृति जैसे जातीय आयाम और इस्लाम का धार्मिक आयाम लिए हैं। अन्य लोग वहां इस अर्थ में अल्पसंख्यक हैं कि वे मूल अरब से अलाभकर-स्थिति में हैं। ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी (1961) की परिभाषा के अनुसार ‘जातीय‘ (विशेषण) का “संबंध उन कौमों से है जो ईसाई या यहूदी नहीं हैं, मूर्तिपूजक या अधर्मी हैं।

हम जातीयता को परिभाषित कैसे करें इसको लेकर विद्वानों में जो भी मतभेद हों, मुख्य मुद्दा यह है कि साधारणतया जातीय समूह समाज के वे जन-समूह हैं जो राज्य या समाज के प्रभावी समूह या अक्सर दोनों से अलाभकारी स्थिति में पाए जाते हैं। हमारे जैसे बहुविध समाज में जातीयता को हमें सामाजिक स्तरीकरण के एक सिद्धांत के रूप में लेना होगा। हो सकता है कि कुछ लोग आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग से संबंध रखते हों, तो भी प्रभावी समूह से न जुड़े होने के कारण वे सांस्कृतिक रूप से अलाभकर-स्थिति में देखे जा सकते हैं। क्योंकि प्रभावी समूह को ही प्रतिमान समझा जाता है। उदाहरण के लिए तीन पीढ़ियों के बाद भी एक अमरीकी जापानी से यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या वह अमरीकी है। मगर वहीं प्रवास के एक वर्ष के बाद ही एक अंग्रेज अमरीकी को अमरीकी के रूप में स्वीकार कर लिए जाएगा क्योंकि वह गोरा है, ईसाई है और अंग्रेजी बोलता है। इसी प्रकार एक मणिपुरी के छात्र का टेलीविजन पर कहना था कि मणिपुर में उससे कोई नहीं पूछता था कि वह भारतीय है या नहीं। मगर दिल्ली में लोग उससे यही सवाल करते थे।

बॉक्स 4.02
जातीय समूह भले ही वे संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित समाज में हों या भारत में, उनके अध्ययन से बहुसंख्यक संस्कृति से संबंध, स्वांगीकरण बनाम निभाव, गरीबी, असमानता, पार्थक्य और भेदभाव के बुनियादी सवालों से जुड़े मुद्दे उठते हैं। इन मुद्दों पर चर्चा की प्रासंगिकता का समकालीन भारतीय समाज के लिए जो महत्व है उसे बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं है। इसमें भी किसी हठी या दुर्दम्य जातीय समूह के लिए जो घिसे-पीटे जुमले अक्सर प्रयोग किए जाते हैं, जैसे कि ‘‘उन्हें मुख्याधारा में शामिल किया जाना है या किया जाना चाहिए”, उन पर अब सवाल उठाए जा रहे हैं। इसी प्रकार अमरीका का अनुभव भी हमसे कोई भिन्न नहीं कहा जा सकता क्योंकि वहां भी ऐसा ही लोकाचार प्रचलित है कि जातीय समूहों के लोगों को मुख्य धारा से जोड़ा जाए, उसमें उनका स्वांगीकरण हो । विविध जातीय समूहों के सदस्य जो मुख्यधारा में सक्रिय हों उनसे तो यह आशा के जाती है कि वे द्विसांस्कृतिक बन जाएं। यानी वे अपनी संस्कृति के साथ-साथ मुख्यधारा की संस्कृति को भी आत्मसात करें। मगर श्वेत अमरीकियों को ऐसा करने की जरूरत महसूस नहीं होती।

 जातीयता और परिवार
जातीयता को हम अपने परिवार से अलग करके नहीं देख सकते । इसकी सीधी सी वजह यह है कि जातीयता की दृष्टि से बहुविध परिवारों में बच्चों के समाजीकरण की बहुविध प्रक्रिया के बड़े दूरगामी परिणाम होते हैं। यह आंशिक रूप से “संजाति-वर्ग‘‘ की धारणा को स्पष्ट करता है। यह अवधारणा सामाजिक वर्ग सदस्यता की भूमिका की व्याख्या करती है जो वह जातीयता से प्रभावित होने वाले जीवन की बुनियादी स्थिति को परिभाषित वर्ग के स्तर पर वर्गों में मौजूद भेदों को भी लेकर चलती है।

स्तरीकरण के अध्ययन में विशेषकर भौतिक और अभौतिक संसाधनों तक असमान पहुंच के अध्ययन में जातीयता को भी लेकर चलना जरूरी हो जाता है। जैसा कि शर्मा कहते हैंः “एक जातीय समूह को सामाजिक स्तरीकरण की एक प्रदत्त व्यवस्था में एक स्तर के रूप में देखा जा सकता है। यह इसलिए संभव है कि जातीयता वर्ग और सत्ताधिकार के संग चलती है।‘‘

सामाजिक लिंग (जेंडर) और संजातीय भेद
महिलाएं और संजातीय समूह दोनों अति दृश्यमान हैं । वे भिन्न दिखाई देते हैं। एक अल्पसंख्यक संजातीय समूह अमेरिका में अपने रंग, केश और नैन नक्श से अलग दिखाई दे सकते हैं तो महिला को अलग दिखाई देना चाहिए। उसे न केवल अपने ‘पुरुष‘ लोगों से कद में छोटा, कमजोर, वजन में उनसे हल्का होना चाहिए बल्कि उसका पहनावा, चाल-ढाल, बोल-चाल और हाव-भाव भी अलग होने चाहिए। संजातीय अल्पसंख्यक और महिलाओं में अन्य विशेषताएं भी बताई जाती हैं जो उनमें स्वयंसिद्ध रूप से बिलकुल स्पष्ट नहीं होती। आप सभी को अपनी-अपनी भाषा-बोली में प्रचलित लोकोक्तियों की जानकारी तो अवश्य होगी जिनमें स्त्रियों को अविश्वासपात्र, बदजुबान, उच्छंखल, धूर्त कपटी, अबला और न जाने क्या क्या संज्ञाएं दी जाती हैं। यहां पर गौर करने लायक बात यह है कि प्राकृतिक भेदों और अर्जित भेदों के बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा दिखाई नहीं देती है। इन भेदों को बस एक बार प्राकृतिक मान लिया जाता है तो इसका यह अर्थ लगा लिया जाता है कि इन्हें बदला नहीं जा सकता।

नारीवादी विद्वानों ने यौन-लिंग (सेक्स) को सामाजिक लिंग सोच (जेंडर) से अलग करके देखने पर विशेष बल दिया है। गिडंस का कहना हैः

साधारण बोल-चाल में सेक्स (यौन-लिंग) शब्द का एक व्यक्ति की श्रेणी और लोग जिन क्रिया-कलापों में लगे रहते हैं दोनों के लिए प्रयोग किया जाना अपने आप में अनेकार्थी और अस्पष्ट है। जैसे कि इस शब्द का प्रयोग ‘‘संभोग करना‘‘ जैसे वाक्यांशों में होता है । स्पष्टता के लिए हमें इन दोनों अभिप्रायों को एक दूसरे से अलग करना होगा । हम स्त्री-पुरुष के बीच विद्यमान जैवीय या शारीरिक भेदों को यौन क्रिया-कलापों से अलग कर सकते हैं। हमें सेक्स (यौन-लिंग) और जेंडर (सामाजिक-लिंग) के बीच भी एक महत्वपर्ण भेद करना होगा। यौन-लिंग का अभिप्राय स्त्री-परुष के बीच शरीरिक भेदों से है तो सामाजिक-लिंग (जेंडर) का संबंध स्त्री-पुरुष के बीच मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भदों से है। यौन-लिंग और सामाजिक-लिंग के बीच अंतर बुनियादी है, क्योंकि स्त्री-पुरूष के बीच कई भेद अपने मूल में जैविक नहीं हैं।

पाश्चात्य समाजशास्त्र नस्ल या संजातीयता के प्रश्न पर यूं तो बड़ा ही संवेदनशील है, मगर उसमें भी सांस्कृतिक और प्राकृतिक भेदों का घालमेल करने का प्रचलन असामान्य नहीं है। गिडंस लिखती हैंः संजातीयता सांस्कृतिक प्रचलनों और दृष्टिकोणों को कहते हैं, जो लोगों के समुदाय विशेष को एक-दूसरों से भिन्न बनाती हैं। जातीय समूह स्वयं को समाज में अन्य समूहों से सांस्कृतिक रूप से भिन्न और विशिष्ट समझते हैं और अन्य समूह भी उन्हें ऐसा ही मानते हैं। संजातीय समूहों को कई विशेषताएं.एक दूसरे से अलग करती हैं। मगर इनमें सबसे सामान्य विशेषताएं इस प्रकार हैंः

भाषा-बोली, इतिहास या वंश (वास्तविक या काल्पनिक) धर्म, वेशभूषा या श्रृंगार । जातीय भेद पूर्णतः ज्ञेय होते हैं । यह बात हमें तभी तक स्वयं सिद्ध दिखाई देती है जब हमें यह याद हो आता है कि किस तरह से इन समूहों को यह माना गया है कि “इनका जन्म शासन करने” के लिए हुआ है या फिर इसके विपरित उन्हें स्वभाव से आलसी बुद्धिहीन आदि माना गया है।

यहां गौरतलब है कि समाज के प्रभावी समूहों में जातीय अल्पसंख्यक और महिलाओं दोनों को ऐसे गुणों से जोड़ कर देखने की प्रवृत्ति हावी रहती है जिन्हें वे नैसर्गिक और जैविक रूप से प्रदत्त मानते हैं। जातीय समूहों और महिलाओं के बारे में एक और महत्वपूर्ण बात कहना जरूरी है कि ये उस आत्मपरिभाषा को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं जो उन्हें समाज से मिली है। यही कारण है कि अमेरिका में, जहां सौंदर्य की धारणाएं जनमानस में गहरे अंकित हैं, अश्वत बालिका श्वेत गुड़िया को पसंद करती है। या हम एक भारतीय स्त्री का ही उदाहरण लें, जो बेटा होने पर सशक्त, अधिकारसंपन्न बन जाती है और उन महिलाओं को हेय दृष्टि से देखने लगती है जो उसकी तरह भाग्यशाली नहीं हैं।

जेंडर (सामाजिक-लिंग) और यौन-लिंग (सेक्स) में महत्वपूर्ण भेद होने के अलावा नारीवादी तर्क देते हैं कि सामाजिक-लिंग व्यक्ति (स्त्री या पुरुष द्वारा किए जाने वाले) कार्यों का समुच्चय है। जन्म लेने के बाद से ही शिशु सीखने लगता है कि उसने सामाजिक-लिंग सम्मत कार्यों को किस तरह सही सही अंजाम देना है। नारीवादियों का यह भी तर्क रहा है कि सामाजिक-लिंग सम्मत भेद मनमाने हैं और जिसे अक्सर ‘पुरुषेचित‘ और ‘स्त्रियोचित‘ आचरण कहते हैं वह सभी संस्कृतियों और अश्वतों में अलग-अलग रहा है। बुनियादी बात यह है कि सामाजिक लिंग एक सामाजिक रचना है न कि प्रकृति प्रदत्त । यही बात जातीय समूहों के लिए भी लागू होती है। काला गोरे से भिन्न है। यह एक स्वाभाविक और स्वयं सिद्ध वास्तविकता है। मगर काले और श्गोरेश् को हमने जो अर्थ दिया है वह सामाजिक है। और जो भी सामाजिक होता है वह अक्सर सत्ताधिकार से भरा होता है। चूंकि विश्व में प्रभावी समूह यह समझते हैं कि श्वेत आकर्षक और सुंदर है इसीलिए अश्वेत लोग भी ऐसे ही सोचते हैं। इसी प्रकार महिलाओं को श्अबलाश् की संज्ञा दी जाती है तो वह भी ऐसा ही मानने लगती है।