हिंसा और शोषण किसे कहते है |  हिंसा तथा शोषण की परिभाषा क्या है Violence and exploitation in hindi

Violence and exploitation in hindi हिंसा और शोषण किसे कहते है |  हिंसा तथा शोषण की परिभाषा क्या है ?

हिंसा और शोषण
अत्याचार विरोधी समिति (1979) के मुताबिक बेल्ची, आगरा, पंतनगर, मराठवाड़ा और बाजितपुर समेत अनेक जगहों पर अनुसूचित जाति के लोगों की हत्या, लूट और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं वर्ग संघर्ष और वर्ग संगठनों की तुलना में वर्ण व्यवस्था की भूमिका को दशति हैं । समिति ने महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों के उत्पीड़न की प्रकृति और उसकी व्यापकता की जांच पड़ताल की थी। अनुसूचित जातियों के लोग ही गरीब किसान और खेतिहर मजदूर थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में निर्धन ग्रामीण महिलाओं विशेषकर दलित महिलाओं के यौन और आर्थिक दोनों प्रकार के शोषण और उत्पीड़न को उजागर किया था। समिति ने अपनी जांच के दौरान जो पाया और उससे जो निष्कर्ष निकाले वे बड़े ही महत्वपूर्ण और उपयोगी हैं क्योंकि इनसे यह पता चलता है कि जाति को उत्पादन संबंधों की ही व्यवस्था के रूप में समझा जाता है। उधर, बिहार में रणबीर सेना और एक चरमपंथी वाम गुट के बीच छिड़े संघर्ष के चलते निम्न जाति के निर्धनों और ऊंची जाति के भूमिहारों के बीच नरसंहार प्रति-नरसंहार हो रहे हैं। यहां निम्न महत्वपूर्ण बातें ध्यान में रखी जानी चाहिएः

प) वर्ण व्यवस्था आर्थिक शोषण की एक बेहद प्रभावशाली विधि के रूप में काम करती है। प्रभावी जाति राजनीतिक सत्ताधिकार और सामाजिक प्रतिष्ठा भी अर्जित कर लेती है जो जाति क्रम परंपरा और स्वामित्व को दर्शाती है। आर्थिक क्रम-परंपरा का सामाजिक क्रम-परंपरा से गहरा संबंध है।
पप) विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जाति उत्पादन के साधनों और जीवन निर्वाह से निश्चित संबंधों को तय करती है। जातिगत संघर्ष या दंगे वर्ग हितों को दर्शाते हैं।
पपप) जाति उत्पादन संबंधों को भी परिभाषित करती है क्योंकि यही जन समूहों और व्यक्तियों के उत्पादन के साधनों और संसाधनों तक पहुंच को संचालित करती है और राजनीतिक-आनुष्ठानिक क्रिया-कलापों के लिए सामाजिक आधार प्रदान करती है।
पअ) भीमराव आम्बेडकर ने सही कहा था कि वर्ण व्यवस्था सिर्फ श्रम का ही विभाजन नहीं है, बल्कि यह श्रमिकों का विभाजन भी है। जाति श्रमिकों को एक वर्ग के रूप उभरने से रोकती है। इसलिए जाति को “झूठी चेतना” की तरह एक विचारधारा के रूप में लिया जाना चाहिए। यह देखने में आया है कि जाति और वर्ग दोनों की दलित पहचान और आंदोलन के उदय में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
अ) जाति और धर्म को एक विशेष वर्गीय ढांचे को दृढ़ बनाने में प्रयोग किया जाता है ।
अप) जाति सामंती विचारधारा के रूप में कायम रहती है।

अभ्यास 2
ऊपर जो बिंदु (6)-(अप) दिए गए हैं उनकी रोशनी में मौजूदा वर्ण व्यवस्था पर अपने सहपाठियों के साथ चर्चा कीजिए और नोटबुक में उसके निष्कर्ष लिखिए ।

अत्याचार विरोधी समिति कहती है कि “जाति भारतीय समाज एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। यह उत्पादन संबंधों के स्तर पर एक विशेष प्रकार के उत्पीड़न को दर्शाता है।‘‘ ऐसा कहना कि मुद्दे सिर्फ वर्गीय हैं और जाति से जुड़े प्रश्न हैं ही नहीं, कोरी बकवास है। क्योंकि शुद्धतः “आर्थिक” वर्ग से परे जाति विभाजन आज भी कायम हैं। इसलिए जाति के प्रश्नों से जुड़े मुद्दों को सभी प्रगतिशील लोगों, वामपंथियों, दलितों और गैर-दलितों और संगठनों को उठाना चाहिए। आज के भारतीय समाज की वास्तविकता यही है कि इसमें वर्गीय हित जाति उत्पीड़न और वर्गीय शोषण के साथ-साथ उभर रहे हैं।

बोध प्रश्न 1
1) सत्ताधिकार और प्रभावी जाति पर पांच पंक्तियों में एक टिप्पणी लिखिए ।
2) अनुभवजन्य वास्तविकता के रूप में जाति के बारे में चर्चा कीजिए। अपना उत्तर पांच पंक्तियों में दीजिए।

जाति को मुख्यतः एक ग्रामीण परिघटना और वर्ग को नगरों और कस्बों की वास्तविकता मानना कोरा मिथक है। आइए अपनी इस बात की पुष्टि के लिए हम जयपुर शहर में होने वाले जाति चुनावों पर दृष्टि डालते हैं।

बोध प्रश्न 1 उत्तर

1) बेटीली का मानना है कि सत्ताधिकार एक प्रभावी जाति से दूसरी प्रभावी जाति को अंतरण होता है। सत्ताधिकार अब अपेक्षतया अधिक विभेदी संरचनाओं में निहित है। जैसे, पंचायत और राजनीतिक दल । के.एल. शर्मा के अनुसार परिवर्तन असमानता के एक ढांचे से दूसरे ढांचे में हुआ है।
2) अनुभवजन्य वास्तविकता के रूप में वर्ण व्यवस्था को समझने के लिए हमें जाति जैसे वर्ण समूहों को ग्रामीण/शहरी संदर्भ विशेष में रखना होगा। यह समाज में स्थान उत्पन्न करता है और पहचान प्रदान करता है। पहचान रोजमर्रा के पारस्परिक-व्यवहार का कार्य नहीं है। इसलिए हो सकता है कि दो जाति समूह परस्पर विवाह नहीं रचाएं मगर उनमें एक ही वंश से जुड़े होने का एहसास हो सकता है और वे संकट और चुनौतीपूर्ण स्थितियों में परस्पर सहयोग कर सकते हैं।

नियामक व्यवस्था के रूप में जाति
इसके बाद हम यह प्रश्न पूर सकते हैं कि जाति किस प्रकार एक नियामक व्यवस्था है? जाति कुछ निश्चित कार्यक्षेत्रों में अपने नियामक वर्जनाओं से क्यों चिपकी रहती है जबकि अन्य कार्य क्षेत्रों में जाति समूह और उनके सदस्य ऐसे क्रिया-कलाप अपना लेते हैं जो वर्ण व्यवस्था की पारंपरिक वर्जनाओं से बिल्कुल हटकर हैं? यह गौरतलब है कि एक जाति के सदस्य एक-दूसरे से स्पर्धा तो करते हैं मगर साथ ही वे परस्पर सहयोग भी करते हैं। जाति के भीतर वर्ग आधारित विभेद हमेशा प्रमुखता से मौजूद रहे हैं। उदाहरण के लिए किसी गांव में एक जाति के सदस्य कभी-कभी भारतीय वर्ग विभाजन का प्रतिनिधित्व करते पाए जाते हैं क्योंकि विवाह के संगत नियमों का पालन करते हुए वे असल में संगत सौदेबाजी को। वर्गीय-स्थिति की धुरी के अनुरूप परिभाषित करते हैं। जाति सिद्धांत और व्यवहार दोनों में असमानता की ओर संकेत करता है। अपनी कालजयी कृति होमो हायरार्किकस में ड्यूमोंट वर्ण व्यवस्था पर आधारित असमानता को एक विशेष प्रकार की असमानता का दर्जा देते हैं। उनके अनुसार शुद्धि और अशुद्धि की विचारधारा जाति को समझने की कुंजी है। यह भारत में क्रम-परंपरा का सबसे बुनियादी आधार है। उन्होंने नृजातिवृत्त और वैचारिक वर्णनों के आधार पर वर्ण-व्यवस्था के “आदर्श प्रारूप” का विश्लेषण किया।

टी.एन. मदान क्रम परंपरा के बारे में ड्यूमोंट के इस दृष्टिकोण को उचित ठहराते हैं कि वह एक भौमिक आवश्यकता है। उनका मत है कि भारतीय समाज काफी हद तक गतिहीन और स्थिर रहा है। समाज में परिवर्तन अवश्य हुए हैं मगर आमूल परिवर्तन कभी नहीं आ पाया है।
हिन्दू मन्दिरों में अब सभी जातियों के लोग पूजा कर सकते हैं
साभार: टी कपूर