महिला मताधिकार आंदोलन क्या है | women’s movement for voting rights in hindi उसकी उपलब्धि क्या थी

women’s movement for voting rights in hindi महिला मताधिकार आंदोलन क्या है उसकी उपलब्धि क्या थी ?

महिला मताधिकार आन्दोलन
मताधिकार की माँग उन महत्वपूर्ण विषयों में से एक थी जो आन्दोलन की राजनीति में महिलाओं के संगठन और भागीदारी का कारण बनी। मताधिकार के विस्तार के बाद भी महिलाओं को मताधिकार से निरन्तर वंचित रखने के कारण महिलाओं के इसी मुद्दे के आधार पर संगठन बने। महिला मताधिकार के लिए तीव्रतम संघर्ष अमेरिका व इंग्लैण्ड जैसे देशों में हुए। इंग्लैण्ड में 1792 में मेरी वौल्स्टोनक्राफ्ट की पुस्तक ‘ए विन्डीकेशन ऑफ राइट्स ऑफ विमैन के छपने के साथ ही संघर्ष का आधार तैयार हो गया था। 1840 में चार्टिस्ट आन्दोलन ने महिलाओं के लिए मताधिकार की माँग की। इंग्लैण्ड के उदारवादी विचारकों जैसे जॉन स्टुअर्ट मिल ने भी महिला अधिकारों की पुरजोर माँग की। उन्नीसवीं शताब्दी में इस मुद्दे पर महिलाएँ सक्रिय हो उठी। महिलाओं के मताधिकार का अत्यधिक विरोध था इसलिए 1869 तक ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत मताधिकार का प्रत्येक प्रस्ताव अस्वीकार होता रहा। इंग्लैण्ड के लगभग प्रत्येक प्रमुख शहर में महिला मताधिकार संघ स्थापित हुए। 1869 में निगम चुनावों में करदात्री महिलाओं को मत देने का अधिकार प्रदान किया गया। 1897 में महिला संगठनों ने स्वयं को श्महिला मताधिकार संघों के राष्ट्रीय संघश् में एकीकृत कर लिया। 1918 में तीस वर्ष से ऊपर की महिलाओं को पूर्णरूपेण मताधिकार प्राप्त हुआ। 1928 में इस आयु को 21 वर्ष किया गया और महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष मताधिकार प्राप्त हुआ।

अमेरिका में दास प्रथा के विरुद्ध संघर्ष के दौरान महिलाओं और अश्वेत गुलामों के लिए मताधिकार की माँग की गई। 1869 में राष्ट्रीय महिला मताधिकार संघ और अमेरिकी महिला मताधिकार संघ बने। इन संघों का मुख्य उद्देश्य संविधान संसोधन द्वारा महिलाओं को मताधिकार उपलब्ध कराना था। यह दोनों संगठन 1890 में विलय हो गए तथा राष्ट्रीय अमेरिकी महिला मताधिकार संघ बना। इस संगठन के अनथक प्रयासों से 1920 में अमेरिकी महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष मताधिकार प्राप्त हुआ।

अनेक अन्य देशों में भी महिला मताधिकार की प्राप्ति के लिए संघर्ष हुए। बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक न्यूजीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, नार्वे, फिनलैण्ड आदि देशों में महिलाओं को मतदान का अधिकार प्राप्त हो गया था। 1930 के दशक तक सोवियत रूस, कैनेडा, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, पोलैण्ड, चैकोस्लोवाकिया, हंगरी आदि देशों में महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अनेक देशों में महिलाओं को समानता के आधार पर मतदान का अधिकार प्राप्त हुआ। यद्यपि विश्व के अधिकांश देशों में महिलाएँ मताधिकार प्राप्त कर चुकी हैं तथापि कुछ देशों में महिलाओं को अभी भी इससे वंचित रखा गया है।

 समकालीन महिला आन्दोलन
1960 के दशक में तत्कालीन महिला आन्दोलन प्रकट होने लगे थे। इस दशक के मध्य में अमेरिका में महिला आन्दोलनों का प्रभाव स्पष्ट होने लगा था जब विभिन्न महिला संगठनों ने उन कानूनों और मूल्यों पर प्रहार किया जो महिलाओं से भेदभाव करते थे और जिनके कारण समाज में महिलाओं को निम्न दर्जा प्राप्त था। 1970 के दशक तक एशिया और लेटिन अमेरिका में भी स्त्रियों की सक्रियता स्पष्ट होने लगी थी। फिर भी, 1975 को अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष तथा 1975-85 को महिला दशक घोषित किए जाने के उपरान्त विश्व के विभिन्न भागों में वास्तव में महिला आन्दोलनों का प्रादुर्भाव हुआ। इसी अवधि में विभिन्न देशों में महिलाओं की स्थिति पर राष्ट्रीय आयोगों की स्थापना हुई और संयुक्त राष्ट्र ने गैर सरकारी संगठनों से लिंग भेद के उन्मूलन की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने का आह्वान किया। विभिन्न महाद्वीपों में महिला आन्दोलनों के घटना चक्र की इस कदर पैठ थी कि 1990 के दशक के आरंभ में उसने सार्वभौमिक रूप ग्रहण कर लिया और महिला राजनीति का प्रभाव न केवल अनेकों अफ्रीकी देशों में वरन् पूर्वी व मध्य यूरोप के अनेक उत्तर साम्यवादी देशों में भी दृष्टव्य होने लगा।

महिला आन्दोलनों के इस विश्व व्यापी संदर्भ में 1975 में मैक्सिको में पहला अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में अन्य बातों के अतिरिक्त महिलाओं के लिए शिक्षा, रोजगार और नीति निर्माण के पदों पर महिलाओं की नियुक्ति के विस्तार, भेदभाव के उन्मूलन तथा समान अवसरों और सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों की समानता के आधार पर उपलब्धि के लक्ष्य रखे गए थे। द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन 1980 में कोपनहेगन में तथा तृतीय सम्मेलन 1985 में नैराबी में हुआ। इस तृतीय महिला सम्मेलन की विशिष्टता यह थी कि इसमें गैर-सरकारी संगठनों, महिला समूहों तथा जन आन्दोलन संगठनों ने भी भाग लिया था। 1995 में बेंजिंग में चतुर्थ अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन के आयोजित होने तक महिला आन्दोलन विश्व व्यापी वास्तविकता बन चुके थे।

पाश्चात्य संदर्भ
1970 के दशक में स्त्रीवाद का द्वितीय चरण पश्चिम में उभरा। अमेरिका में स्त्रीवादी संगठन विशेषकर राष्ट्रीय महिला संगठन बहुत सक्रिय हो गए। इसी दौरान पश्चिमी यूरोपीय देशों में स्थान स्थान पर महिला संगठनों की स्थापना होने लगी। इनमें से अनेक देशों में महिला संगठनों का मध्यमवर्गीय आधार विस्तृत होने लगा जिससे महिला आन्दोलन तीव्र हो गए। इनमें से कई आन्दोलनों में मध्यमवर्गीय महिलाओं के साथ साथ कामकाजी महिलाएं भी शामिल हो गई।

उत्तरी अमेरिका व यूरोप के अधिकांश आन्दोलनों में महिला संगठनों ने विशेष रूप से दो माँगों पर बल दिया। पहला, महिलाओं का अपने शरीर पर स्वामित्व व दूसरा उनकी आर्थिक स्वतन्त्रता। वास्तव में पहली माँग को अमेरिका, फ्रांस, पश्चिम जर्मनी व ब्रिटेन में भरपूर समर्थन मिला। अमेरिका के राष्ट्रीय महिला संगठन ने महिलाओं के प्रजनन अधिकारों पर बल दिया। यह सुरक्षित व विधिवत गर्भपात की माँग थी। इसी प्रकार फ्रांस में भी गर्भपात व गर्भ निरोध के मुद्दों पर संवेदनशील आन्दोलन हुए। फ्रांसीसी महिलाओं ने उन प्रचलित कानूनों के विरुद्ध प्रचार किया जो गर्भपात व गर्भ निरोध पर प्रतिबंध लगाते थे। उन्होंने कई तरीकों जैसे जन प्रदर्शन व विधायी दबाव डालकर इस कानून के समाधान की माँग की। इसी प्रकार पश्चिम जर्मनी की महिलाएँ भी परिवार नियोजन व गर्भपात के मुद्दों पर संगठित हुई। राष्ट्रव्यापी आन्दोलनों में उन्होंने प्रचलित गर्भपात कानूनों के उन्मूलन की माँग की। ब्रिटेन में भी महिलाओं के आन्दोलन उनके शरीर व प्रतिनिधित्व के मुद्दों पर चले।

और पाश्चात्य संदर्भ
यूरोप व अमेरिका के अतिरिक्त अन्य कई देशों में महिलाओं के उत्थान के लिए आन्दोलन चलते रहे हैं। इन आन्दोलनों की ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह आवश्यक नहीं कि इन्होंने पश्चिमी आन्दोलनों की नकल की हो। इसके विपरीत, इन देशों के आन्दोलन इनके विशिष्ट सामाजिक व आर्थिक परिवेश की देन हैं। इस कारण अपने परिप्रेक्ष्य और माँगों में यह आन्दोलन पश्चिमी स्त्रीवाद से भिन्न हैं। इस परिप्रेक्ष्य में अंतर का कारण वह भिन्न परिस्थितियाँ हैं जिसमें विश्व के अन्य देशों, विशेष रूप से विकासशील देशों की स्त्रियाँ स्वयं की पहचान करती हैं। जहाँ उत्तरी अमेरिका व यूरोप में महिला संगठनों के सम्मुख प्रमुख मुद्दे प्रजनन अधिकारों, विशेष रूप से गर्भपात व गर्भ निरोध से जुड़े हैं, वहीं दक्षिण के विकासशील देशों की स्त्रियाँ इन मुद्दों को लेकर बहुत सक्रिय नहीं हैं। इसके दो कारण हैं। उनकी निर्धनता और अल्प विकास के संदर्भ में अन्य कई महत्वपूर्ण मुद्दे उनके सम्मुख हैं। दूसरे, इन देशों में स्त्रियों के प्रजनन अधिकारों का मुद्दा परिवार नियोजन के साथ जुड़ गया है। कुछ दक्षिणी देशों में आम तौर पर, राज्य द्वारा नियंत्रित परिवार नियोजन कार्यक्रम इस प्रकार संचालित किये गए हैं जिससे स्वयं महिलाओं के हितों की हानि हुई हैं। अतः महिला संगठनों ने गर्भ नियंत्रण कार्यक्रमों को सहजता से नहीं लिया है। अतः दक्षिण की महिलाओं के लिए प्रजनन नियंत्रण का अधिकार प्रजनन स्वास्थ्य के साथ जुड़ कर महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा हैं। इन देशों के महिला संगठन हानिकारक गर्भ निरोध के साधनों, हानिकारक दवाओं और महिलाओं के स्वास्थ्य पर विश्वीकरण के कुप्रभाव के विरुद्ध प्रचार करते रहे हैं और उनके सामान्य स्वास्थ्य, शिक्षा, आर्थिक विकास और जन जागरण का स्तर बढ़ाने की आवश्यकता पर बल देते रहे हैं। साथ ही परम्परागत ज्ञान विशेष कर परम्परागत औषधियों और देशीय स्वास्थ्य प्रथाओं के संवर्धन पर भी बल दिया है।

गैर-पश्चिमी देशों में महिला संगठनों द्वारा उठाए गए मुद्दे उनके विशिष्ट आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक परिवेश से भी प्रभावित हुए हैं। निम्नलिखित उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि गैर-पश्चिमी देशों में यह विशिष्टता किस प्रकार महत्वपूर्ण हैं।

जापानी महिलाओं के संदर्भ में सांस्कृतिक विशिष्टता का उदाहरण निम्नांकित है। यद्यपि जापान में महिला आन्दोलन ने अमेरिकी आन्दोलन से प्रेरित होकर मताधिकार, मुक्त प्रेम, स्त्री समलैंगिक अधिकार, गर्भ निरोध आदि मुद्दे उठाए हैं परन्तु फिर भी स्थानीय सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश

महत्वपूर्ण हैं। जापानी महिला आन्दोलन के द्वारा उठाए जाने वाले सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दों में महिलाओं पर काम का दोहरा बोझ और उनके प्रति सामाजिक भेदभाव है। यहाँ कामकाजी महिलाओं को कम वेतन और काम की बुरी दशाओं का सामना तो करना ही पड़ता है और साथ ही बिना पुरुषों की सहायता के घर भी संभालना होता है।

आरंभ में भारत में भी महिला आन्दोलनों ने महिलाओं के लैंगिक शोषण और घरेलू हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाई थी पर शनैःशनैः इनकी कार्यसूची में विशेष रूप से स्त्री लिंग के मुद्दे उठाए जाने लगे। 1980 और 1990 के दशक के आरंभ में स्त्रीवादी मुद्दे जिनका सम्बन्ध स्त्रियों की लैंगिकता. अपने शरीर व प्रजनन पर नियंत्रण व चयन का अधिकार, जन संचार माध्यमों में स्त्री को भोग्य पदार्थ या लैंगिक भूमिकाओं में निबद्ध करने तथा प्रजनन स्वास्थ्य आदि से था उठाए जाने लगे। परन्तु फिर भी परिवार नियोजन कार्यक्रमों और चिकित्सा प्रौद्योगिकी व इस प्रौद्योगिकी में निहित व्यापारिक व भूमंडलीय हितों के महिलाओं के स्वास्थ्य पर प्रभाव से महिलाओं प्रजनन पर नियंत्रण के अधिकार से जुड़े मुद्दे तूल पकड़ने लगे। भ्रूण परीक्षण, कन्या भ्रूण हत्या तथा प्रजनन स्वास्थ्य जैसे मुद्दे महिला आन्दोलन की राजनीति में तेजी से उभरने लगे। जैसे जैसे भारत में महिला आन्दोलन परिपक्व होने लगा वैसे वैसे यह एक ओर लिंग तथा दूसरी ओर जाति, वर्ग व समदाय की जटिलताओं से घिरने लगा। अतः महिला राजनीति अब श्दलितश्, श्जनजातीयश्, श्कृषकश्, श्श्रमिकश् संदर्भ में समझी जाने लगी। अतः दलित महिला, जनजातीय महिला या कृषक महिला के संदर्भ में विशिष्ट मुद्दे उठने लगे।

पाकिस्तान में महिला आन्दोलन लोकतांत्रिक राजनीति के वृहद आन्दोलन में अवस्थित है। पाकिस्तानी राजनीतिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक संरचनाओं के संस्थागत न हो पाने के कारण स्त्रियाँ ही सर्वाधिक पीड़ित होती है। जिआ अल हक के जैसे सर्वाधिकारवादी शासन में महिलाओं को कठोर बन्धनों का सामना करना पड़ा है। इस कारण पाकिस्तान में स्त्री आन्दोलन, महिलाओं के सार्वजनिक जीवन में प्रतिबन्ध व उनके व्यावसायिक चयन पर सीमितताओं के विरुद्ध संगठित किए गए हैं।

लेटिन अमेरिकी स्त्री आन्दोलन इन देशों की विविधता व जटिलता को दर्शाता है। पेरू में महिला आन्दोलन स्त्रियों की विविध वास्तविकताओं को परिलक्षित कर विविध मुद्दों व आवाजों को बुलन्द करता है। जहाँ एक ओर स्त्रीवादी संगठन उन समस्याओं को उठाते हैं जो स्त्रियाँ स्त्री होने के नाते, अपनी लैंगिकता व विषय पदार्थ समझे जाने के कारण झेलती हैं, वहीं, महिला, संगठनों ने महिला श्रमिकों खदान श्रमिकों व शिक्षिकाओं के आन्दोलन से भी सम्बन्ध रखे हैं। निर्धनता व अभाव के कारण महिलाओं के सम्मुख प्रस्तुत समस्याएँ भी महिलाओं को संगठित करने का कारण बनी है। श्रम संगठनों व राजनीतिक दलों के माध्यम से भी महिलाओं ने अपनी समस्याएँ प्रस्तुत की हैं।

बोध प्रश्न 2
नोटः क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) तत्कालीन पश्चिमी महिलाओं के आन्दोलन के प्रमुख मुद्दे कौन से हैं?
2) भारतीय महिलाओं के आन्दोलन के कुछ मुख्य मुद्दे कौन से हैं?
3) दक्षिणी देशों की महिलाओं द्वारा उठाए गए मुद्दे यूरोप व उत्तरी अमेरिका की महिलाओं द्वारा
उठाए गए मुद्दों से किस प्रकार भिन्न हैं?

महिला आन्दोलन
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
महिला आन्दोलनों के विश्वव्यापी और स्थानीय संदर्भ
पृष्ठभूमि और इतिहास
ऐतिहासिक तत्वों की विविधता
प्रारंभिक स्त्रीवाद
महिलाओं की गतिशीलता और आन्दोलनों में भागीदारी
महिला मताधिकार भान्दोलन
समकालीन महिला आन्दोलन
पाश्चात्य संदर्भ
गैर-पाश्चात्य संदर्भ
चरण और उपागम
महिला आन्दोलनों का संगठन – स्वायत्ता तथा लिंगीय विशिष्टता
लिंगीय विशिष्टता – दलीय राजनीति के लिए आशय
महिला आन्दोलन और आन्दोलनों में महिलाएँ
महिलायों के व्यावहारिक हित बनाम सामरिक हितों में अन्तर से जुड़े मुद्दे
महिला आन्दोलनों की राजनीति – विविधता और अंतर
विशिष्ट व समक्षणिक (साथ-साथ) शोषण
अश्वेत महिलाओं के आंदोलन – एक दुविधा
महिला आन्दोलनों की रणनीति
अर्थव्यवस्था, विकास, लोकतंत्र और महिला आन्दोलन
अर्थव्यवस्था और विकास
लोकतंत्र, नागरिक समाज एवं महिला आन्दोलन
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

 उद्देश्य
इस इकाई का उद्देश्य महिला आन्दोलनों की, प्रकृति को उनसे जुड़े मुद्दों, उसकी राजनीति के संगठनात्मक आधार, महिलाओं की समस्याओं व विरोध की प्रकृति की विविधताओं के संदर्भ में जानना है।

इस इकाई का अध्ययन करने के पश्चात्, आपः
ऽ महिला आन्दोलनों की प्रकृति की विवेचना कर सकेंगे,
ऽ विश्व के विभिन्न भागों में संगठित महिला आन्दोलनों के विभिन्न मुद्दों की चर्चा कर सकेंगे,
ऽ महिला आन्दोलनों की राजनीति की विविधताओं और विभिन्नताओं की ओर संकेत कर सकेंगे, और
ऽ इन आंदोलनों से जुड़े और उससे उत्पन्न सैद्धान्तिक विवादों के आधार को स्पष्ट कर सकेंगे।