सोमपुर महाविहार का निर्माण किसने कराया था , who built somapura mahavihara in hindi

who built somapura mahavihara in hindi सोमपुर महाविहार का निर्माण किसने कराया था ?

सोमापुर महाविहार (25°1‘ उत्तर, 88°58‘ पूर्व)
पहाड़पुर गांव में अवस्थित सोमापुर या सोमापुरा, अब बांग्लादेश (नौगांव जिला) में, किसी समय अपने बौद्ध विहारों के लिए प्रसिद्ध था। 27 एकड़ से भी अधिक क्षेत्रफल में फैला ये स्थान 8वीं शताब्दी ई. से 17वीं शताब्दी ई. के बीच शिक्षा व ज्ञान का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। यह महाविहार सर्वप्रथम वरेन्द्री-मगध के नरेश धर्मपाल विक्रमशिला (770-810 ई.) ने बनवाया था। महाविहार परिसर में इस राजा के नाम की मिट्टी की मुहर प्राप्त हुई है। इस केंद्र पर बारी-बारी से बौद्ध, जैन तथा हिन्दुओं का कब्जा रहा है। यहां से प्राप्त कलाकृतियों से तत्कालीन निवासियों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
यह महाविहार उन गिने-चुने शैक्षिक केंद्रों में से एक है जो दक्षिण एशिया तथा भारत में मुस्लिम आक्रमण से बचे रहे। इस विशाल चतुर्भुज आकार के ढांचे के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व को 19वीं शताब्दी के आरम्भ में ब्रिटिश विद्वान बकमैन हैमिल्टन ने पहचाना। सोमापुर महाविहार को 1919 में एक संरक्षित पुरातात्विक स्थल घोषित किया गया तथा 1985 में यूनेस्को द्वारा इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में पदनामित किया गया। सोमपुरा महाविहार के कारण पहाड़पुर में जो वृहद् स्तर पर स्थापत्य कला का इस क्षेत्र में प्रादुर्भाव हुआ, उसने म्यामांर के पागन मंदिरों, मध्य जावा के लोरो जोगरंग तथा चांदी सेवर मंदिरों की निर्माण कला को गहरे रूप से प्रभावित किया। यहां तक की इसने सुदूर कम्बोडिया के बौद्ध स्थापत्य को भी प्रभावित किया।

सिरसा (29.53° उत्तर, 75.0° पूर्व)
सिरसा हरियाणा में स्थित है। इसे उत्तर भारत के सबसे प्राचीन स्थलों में से एक माना जाता है। इसका प्राचीन नाम सरिस्का था, जिसका उल्लेख महाभारत, पाणिनी की अष्टाध्यायी एवं दिव्यावदान ग्रंथों में प्राप्त होता है। महाभारत में सरिस्का के संबंध में यह वर्णित है कि नकुल ने जब पश्चिमी भाग पर विजय प्राप्त की तो उसने इस स्थान पर भी अधिकार कर लिया था। पाणिनी के विवरण में जैसा उल्लिखित है, उसके अनुसार यह नगर निःस्संदेह पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व में एक अत्यंत समृद्ध नगर था।
स्थानीय परम्पराओं के अनुसार, इस शहर की स्थापना सारस नामक एक अज्ञात राजा ने सातवीं शताब्दी में की थी तथा यहां एक दुर्ग का निर्माण करवाया था। एक अन्य परंपरा के अनुसार, इस नगर का यह नाम सरस्वती नदी के नाम पर पड़ा, जो कभी इसके समीप ही प्रवाहित होती थी।
कई मध्यकालीन इतिहासकारों ने इसका उल्लेख सरसुती के नाम से किया है। सिरसा के समीप ही तराइन नामक प्रसिद्ध युद्ध क्षेत्र स्थित है, जहां पृथ्वीराज चैहान ने 1191 ई. में तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गौरी को पराजित किया था। किंतु 1192 ई. में वह तराईन के द्वितीय युद्ध में गौरी से पराजित हो गया तथा बंदी बना लिया गया तथा बाद में उसकी हत्या कर दी गई। आगे चलकर सिरसा पहले दिल्ली सल्तनत का तथा फिर मुगल साम्राज्य का अंग बन गया।
1398 ई. में जब तैमूर ने दिल्ली की ओर अभियान किया था तो उसने सिरसा एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों को तहस-नहस कर दिया था।

सित्तनवासल (10.45° उत्तर, 78.72° पूर्व)
सित्तनवासल तमिलनाडु के पुदुकोट्टाई नगर से 16 किमी. दूर इसके उत्तर-पश्चिमी दिशा में अवस्थित है। यह जैन मंदिरों की चित्रकारी एवं शैल गुफाओं के लिए प्रसिद्ध है। एक प्रमुख जैन स्थल के साथ ही यहां कई शैल गुफाएं भी हैं, जहां द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में जैन भिक्षु निवास करते थे। यहां सातवीं शताब्दी के कई शैल मंदिर भी हैं। एक मंदिर में एक बरामदे सहित अजंता की शैली पर कई सुंदर चित्र भी बने हुए हैं। यहां की गुफाओं में ब्राह्मी लिपि का एक प्रारंभिक अभिलेख तथा सातवीं शताब्दी ईस्वी के कई अन्य अभिलेख भी पाए गए हैं।
पाषाण को काटकर बनाए गए मंदिर में नवीं शताब्दी ईस्वी की सुंदर चित्रकारी एवं स्थापत्य के दर्शन होते हैं। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार, ये चित्र पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम के शासनकाल से संबंधित हैं। अन्य विद्वानों के मतानुसार ये चित्र 9वीं शताब्दी ई. काल के हैं, जब पांड्य शासकों ने मंदिरों का जीर्णाेद्धार कराया था। इन चित्रों को मंदिर के मंडप के स्तंभों, दीवारों एवं छत पर देखा जा सकता है।

सोमनाथ (20°53‘ उत्तर, 70°24/ पूर्व)
सोमनाथ गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में जूनागढ़ से लगभग 79 किमी. दूर बंदरगाह नगर वारासल के ठीक बाहर स्थित है। इसका पुराना नाम प्रभास पाटन था। सोमनाथ का शिव मंदिर, भारत के 12 सबसे प्रमुख शिव मंदिरों में से एक है। गाथाओं के अनुसार, सोमनाथ के मूल शिव मंदिर का निर्माण चंद्रदेवता भगवान सोमराज ने सोने से करवाया था, जिसे रावण ने पुनः चांदी से बनवाया, फिर कृष्ण ने काष्ठ से एवं सबसे अंत में 10वीं शताब्दी में भीमदेव सोलंकी ने बनवाया।
इस मंदिर में 300 से अधिक संगीतकार तथा 500 नर्तकियां रहती थीं। यहां पर 300 नाई रहा करते थे जो यहां आने वाले श्रद्धालुओं के केश एवं दाढ़ी-मूंछ काटते थे। महमूद गजनवी ने जब अलबरूनी से इस मंदिर के संबंध में सुना तो उसने इसे लूटने की योजना बनाई। 1024 ई. में महमूद गजनवी ने इस मंदिर पर आक्रमण किया तथा इसे जी भरकर लूटा। वह यहां से कई ऊंटों में भरकर सोने-चांदी एवं हीरे-जवाहरात ले गया।
12वीं शताब्दी में गुजरात के शासक कुमारपाल ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। यद्यपि 1299 ई. में अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने एक बार फिर इस मंदिर को लूटा एवं उसे नष्ट कर दिया।
सोमनाथ का मंदिर छः बार नष्ट किया गया तथा प्रत्येक बार उसे पुनर्निर्मित किया गया। 1706 ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा इसके विध्वंस के उपरांत सरदार वल्लभ भाई पटेल के सहयोग से 1950 में इसे सातवीं बार बनाया गया।

सोपारा (19°47‘ उत्तर, 72.8° पूर्व)
सोपारा मुंबई से 55 किमी. दूर उत्तर में ठाणे जिले में स्थित है। सोपारा एक प्राचीन बंदरगाह तथा एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक केंद्र था। पेरिप्लस आफ इरीथ्रियन सी‘ एवं टालमी ने इसे ‘सूर्पारक‘ कहा है, जबकि अरब इसे सुबारा कहते हैं। बुद्ध के समय, सोपारा एक प्रमुख बंदरगाह था तथा यहां से विभिन्न देशों के साथ व्यापार होता था। संभवतः इसी कारण अशोक ने अपना एक स्तंभ लेख यहां स्थापित करवाया। ओल्ड टेस्टामेंट में ओफिर नाम से सोपारा का उल्लेख उस स्थान के रूप में किया गया है, जहां से राजा सोलोमन स्वर्ण लेकर आया था।
मौर्यों के समय, उत्तरी भारत एवं मध्य भारत के मध्य संवाद सोपारा के माध्यम से ही होता था। एक व्यापारिक मार्ग सोपारा को उज्जैन से जोड़ता था। यह मार्ग नासिक, पीतलखोड़ा, अजन्ता एवं महेश्वर से होकर गुजरता था। इस मार्ग के साथ स्थित पाषाण गुफाओं की उपस्थिति से इस व्यापारिक मार्ग की पुष्टि होती है।
प्रारंभिक मध्यकाल तक सोपारा एक महत्वपूर्ण स्थल बना रहा। शिलाहार वंश के 11वीं शताब्दी के एक ताम्रलेख में सोपारा का एक प्रसिद्ध बंदरगाह के रूप में उल्लेख किया गया है। अरब यात्रियों के विवरणानुसार सोपारा की चमड़े की वस्तुएं जिन्हें विभिन्न रंगों से रंगा जाता था, अंतरराष्ट्रीय ख्याति की थीं। 13वीं शताब्दी में भारत आने वाले वेनिस के यात्री मार्काेपोलो ने सोपारा का उल्लेख एक प्रमुख बंदरगाह के रूप में किया है तथा इस बंदरगाह से जाने वाली विभिन्न वस्तुओं की सूची भी दी है।

श्रावस्ती (27°31‘ उत्तर, 82°3‘ पर्व)
श्रावस्ती उत्तर प्रदेश में गोरखपुर से लगभग 195 किमी. की दूरी पर स्थित है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यह उत्तरी कोसल महाजनपद की राजधानी थी। बुद्ध के समय यह गंगा के मैदान का सबसे बड़ा नगर था। वर्षाकाल में प्रतिवर्ष जब संघ के समस्त अनुयायी एक ही स्थान पर वास करते थे, बुद्ध भी अपना वार्षिक वर्षाकाल श्रावस्ती में ही बिताते थे। उन्होंने अपने जीवन के 25 वर्षाकाल ‘वस्सवास‘ यहीं बिताए। श्रावस्ती का एक नाम सहेत-महेत भी प्राप्त होता है। प्रसिद्ध व्यापारी सुदत्त या अनाथपिण्डक, जो बौद्ध का अनन्य भक्त था, श्रावस्ती का ही था। प्रसिद्ध जेतवन विहार श्रावस्ती में ही था, जो समस्त विश्व के बौद्ध धर्म के अनुयायियों को आकर्षित करता था। आनन्दकुटी तथा गंधकुटी के अवशेष से पवित्रता का प्रभामंडल प्रवाहित होता है क्योंकि ये वही स्थान हैं जहां प्रभु जेतवन विहार यात्रा के दौरान रुके थे।
श्रावस्ती में ही बुद्ध ने न केवल त्रिपिटकों की व्याख्या की अपितु उन्होंने छह विरोधियों द्वारा चुनौती देने पर अपने जीवनकाल का एक ही चमत्कार यहीं पर किया। अपने छः विरोधियों को भी यहां बौद्ध धर्म की दीक्षा दी।
श्रावस्ती में जेतवन विहार के समीप ही कई श्रीलंकाई, चीनी, बर्मी एवं थाई मठ एवं मंदिर भी स्थित हैं।
श्रावस्ती में एक जैन मंदिर के ध्वंसावशेष भी पाए गए हैं। जैनियों के अनुसार, उनके तीसरे तीर्थंकर स्वयंभूनाथ का जन्म श्रावस्ती में ही हुआ था।

श्रीनगर (34°5‘ उत्तर, 74°47‘ पूर्व)
श्रीनगर वर्तमान में जम्मू-कश्मीर राज्य की राजधानी है। इस नगर की स्थापना 72 ईस्वी में प्रवरसेन नामक शासक द्वारा की गई थी। यह ब्राह्मणवाद एवं बौद्ध साहित्यिक परम्पराओं का केंद्र था।
जम्मू-कश्मीर के हिन्दू शासकों ने श्रीनगर में स्थित अपनी राजधानी में मुस्लिम आक्रांताओं का 14वीं शताब्दी तक दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध किया। यद्यपि इसके बाद यह मुस्लिम शासक शाह मिर्जा के नियंत्रण में आ गया। श्रीनगर के सुल्तान अपनी धार्मिक सहिष्णुता के लिए प्रसिद्ध थे। श्कश्मीर का अकबरश् कहा जाने वाला जैन-उल-अबादीन इनमें से एक था।
पूरे मध्यकाल में श्रीनगर संस्कृत के अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र बना रहा। राजतरंगिणी के लेखक कल्हण 1150 ई. के आसपास श्रीनगर में ही निवास करते थे।
अकबर ने 1585 में श्रीनगर के शासक यूसुफ खान को पराजित कर नगर पर अधिकार कर लिया। मुगलों ने यहां कई प्रसिद्ध बाग बनवाए। अकबर ने यहां चिनार के वृक्षों का रोपण करवाकर निसिम बाग बनवाया। चश्मा शाही, शालीमार बाग एवं निशात बागों की स्थापना जहांगीर ने करवाई।
श्रीनगर कई दरगाहों के लिए भी प्रसिद्ध है, इनमें हजरतबल दरगाह, अखंद मुल्लाशाह की दरगाह एवं रोजाबेल का ईसाई तीर्थ प्रमुख हैं।

शृंगेरी (13.42° उत्तर, 75.25° पूर्व)
शृंगेरी कर्नाटक में है। इसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। शंकराचार्य ने अद्वैत दर्शन के प्राचारार्थ देश के चार विभिन्न कोनों में चार पीठों की स्थापना की थी, जिनमें से पहली शृंगेरी में थी। उन्होंने यहां शारदा देवी की प्रतिमा भी स्थापित करवाई। श्रृंगेरी शारदा पीठ नाम से प्रसिद्ध है तथा दर्शन एवं अध्यात्म के शिक्षार्थ हेतु एक प्रमुख केंद्र है।
ऐसा कहा जाता है कि शंकर ने इसे उन स्थानों में से एक घोषित किया जहां प्राकृतिक वैरभाव का अस्तित्व नहीं है, क्योंकि उन्होंने एक सांप को अपने फन द्वारा एक मेढक जो कि प्रसवकाल में था, की सूर्य की तेज किरणों से रक्षा करते देखा था।

श्रीरंगम (10.87° उत्तर, 78.68° पूर्व)
भगवान विष्णु के अवतार, भगवान श्री रंगनाथ का वास स्थल, श्रीरंगम तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले में कावेरी नदी के एक मनोहारी द्वीप पर स्थित है।
श्रीरंगम तमिलहम शासकों द्वारा संरक्षित एवं संवर्धित वर्षों पुरानी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रमुख रूप का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी जड़ें रामायण में खोजी जा सकती हैं। श्रीरंगम के मंदिर का निर्माण विभिन्न कालों में विभिन्न शासक वंशों-चोल, पांड्य, होयसल, विजयनगर एवं नायकों के समय हुआ। इस मंदिर के सात विशाल भाग एवं 21 प्रभावशाली गोपुरम हैं।
यह मंदिर अपनी सुंदर वास्तुकला एवं आभूषणों के विशाल संग्रहण के कारण प्रसिद्ध है। चैथी दीवार के पीछे ही हजार स्तंभों वाला कक्ष है, जो मंदिर के पांचवें हिस्से से संबंधित है। यहां एक अनोखा तीर्थ तुलुक्का नचियार है, जो कि ईश्वर के मुस्लिम भक्त से संबद्ध है।