when and तालीकोटा का युद्ध कब हुआ , किसके मध्य हुआ , battle of talikota fought between in hindi in which year ?
तालिकोटा (16°28‘ उत्तर, 76°18‘ पूर्व)
तालिकोटा, कर्नाटक के बीजापुर जिले में स्थित है। यह स्थान विजयनगर एवं बहमनी के सुल्तानों के मध्य 23 जनवरी, 1565 ईस्वी में हुए भीषण युद्ध के लिए प्रसिद्ध है। इस स्थान के राक्षस एवं तंगड़ी नामक दो गांवों में हुआ यह रक्तरंजित युद्ध दक्षिण भारत के इतिहास के निर्णायक युद्धों में से एक था। यह युद्ध विजयनगर के शासक रामराय तथा बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा एवं बीदर की संयक्त सेनाओं के मध्य लडा गया था. जिसमें विजयनगर के शासक की करारी हार हुई।
इस युद्ध ने विजयनगर साम्राज्य के वैभव को समाप्त कर दिया। इसके उपरांत इस क्षेत्र में पहले बीजापुर एवं फिर 17वीं शताब्दी में पेशवाओं का प्रभुत्व स्थापित हुआ। यद्यपि विजयनगर के साम्राज्य ने अरविंदु वंश के शासकों के अधीन 17वीं शताब्दी के प्रारंभ तक अपना अस्तित्व बनाए रखा।
ताम्रलिप्ती/तामलुक (22.3° उत्तर, 87.92° पूर्व)
ताम्रलिप्ती पश्चिम बंगाल में गंगा के मुहाने पर स्थित था। इसकी पहचान वर्तमान तामलुक से की जाती है। यह पूर्वी भारत का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह एवं व्यापारिक केंद्र था। ताम्रलिप्ती एक ओर, भूमि एवं जलमार्ग द्वारा तक्षशिला से एवं दूसरी ओर समुद्री मार्ग द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया से जुड़ा था। यहां से प्राप्त वस्तुएं ताम्र पाषाण युग से संबंधित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्थान संभवतः एन.बी.पी. डब्ल्यू चरण में महत्वपूर्ण बना। मौर्यों एवं शुंगों के समय भी यह एक प्रसिद्ध स्थल था।
यहां से कई ऐसी वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी ईस्वी में ताम्रलिप्ति के रोमन साम्राज्य के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष व्यापारिक संबंध थे। बड़ी संख्या में पकी मिट्टी की बनी वस्तुओं, सिक्कों एवं अर्द्ध-कीमती पत्थरों के मनकों की प्राप्ति इसकी नगरीय विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करती है।
प्लिनी एवं टालमी के विवरणों में भी ताम्रलिप्ति का उल्लेख प्राप्त होता है। चीनी यात्रियों ह्वेनसांग एवं इत्सिंग ने ताम्रलिप्ति की यात्रा की थी। फाह्यान एवं ह्वेनसांग दोनों ने अपने विवरणों में ताम्रलिप्ति का उल्लेख बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र के रूप में किया है। उत्तर गुप्त काल तक ताम्रलिप्ति प्रमुख व्यापारिक एवं वाणिज्यिक केंद्र बना रहा।
श्रीरंगपट्टनम (12.41° उत्तर, 76.70° पूर्व)
श्रीरंगपट्टनम कर्नाटक में मैसूर से थोड़ी दूर, मैसूर-बंगलुरू हाइवे पर कावेरी नदी के तट पर स्थित एक मनोहारी स्थल है।
एक प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक स्थल श्रीरंगपट्टनम का यह नाम 12वीं सदी में श्रीरंगनाथस्वामी (विष्णु) के प्रसिद्ध मंदिर के निर्माणोपरांत किया गया। 1133 ई. में प्रसिद्ध दार्शनिक रामानुज ने यहीं कार्य किया था।
1454 ई. में विजयनगर के एक शासक ने यहां एक दुर्ग का निर्माण करवाया। 1616 ई. में यह मैसूर के वाडियार वंश की राजधानी बना। श्रीरंगपट्टनम मुख्य रूप से हैदर अली से संबंधित है, जिसने मैसूर के वाडियार वंश को अपदस्थ कर सत्ता हस्तगत कर ली थी। हैदर अली के पश्चात उसका पुत्र टीपू सुल्तान मैसूर का शासक बना। टीपू का 17 वर्षीय शासनकाल 1799 ई. में चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के उपरांत समाप्त हुआ, जब वह इस युद्ध में मारा गया।
टीपू के श्रीरंगपट्टनम को इस युद्ध के उपरांत अंग्रेजों ने तहस-नहस कर दिया। अंग्रेज इसे ‘सेरिंगपटम’ कहते थे। यद्यपि इसके पश्चात भी यहां के दुर्ग का अधिकांश हिस्सा सुरक्षित रहा, जिसे आज भी देखा जा सकता है, जिनमें द्वार, परकोटे, कठोर तहखाने तथा गुम्बदाकार जामी मस्जिद मीनारों के साथ सम्मिलित हैं।
सुल्तानगंज (25.24° उत्तर, 86.73° पूर्व)
सुल्तानगंज बिहार के भागलपुर जिले में स्थित है। परम्परानुसार प्रारंभ में यह 16 महाजनपदों में से एक अंग महाजनपद का हिस्सा था। महाभारत के दिनों में, पांडवों के छठे भाई कर्ण का यहां शासन था। चम्पा (आधुनिक चम्पानगर) एवं जानूगिरी-उस समय इस नाम से सुल्तानगंज को जाना जाता था-में कर्ण के किले थे।
सुल्तानगंज पाल एवं सेन वंशों के शासन (730 ई. से 1199 ई.) के समय भी प्रसिद्ध था। उस समय यह नगर कला एवं स्थापत्य के सुंदर नमूनों के लिए जाना जाता था। यहां से पुरातात्विक महत्व की कई वस्तुएं, जैसे-स्तूप, मुहरें, सिक्के एवं मिट्टी की बनी मूर्तियां इत्यादि पाई गई हैं। सुल्तानगंज से प्राप्त विभिन्न वस्तुओं में सर्वाधिक उल्लेखनीय भगवान बुद्ध की साढ़े सात फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा है, जिसे सुंदर परिधानों से युक्त किया गया है। यह प्रतिमा धातु-शिल्प का एक सुंदर नमूना है। परिधानों एवं आभूषणों की बनावट अत्यंत प्रशंसनीय है। अब यह प्रतिमा बर्मिंघम संग्रहालय में रखी हुई है।
सूरत (21.18° उत्तर, 72.83° पूर्व)
गुजरात राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित सूरत नामक नगर ताप्ती नदी एवं खंभात की खाड़ी के मुहाने पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि इस शहर की स्थापना गोपी नामक व्यक्ति ने की थी। इसी ने यहां 1516 ई. में गोपी जलाशय बनवाया तथा इस क्षेत्र का नाम सूरजपुर या सूर्यपुर रखा। सूरत का यह नाम 1520 में रखा गया। यह एक प्रसिद्ध बंदरगाह के रूप में विकसित हुआ, जहां से वस्त्रों एवं सोने का व्यापार होता था। वस्त्र निर्माण एवं पोत निर्माण यहां के प्रमुख उद्योग हैं। मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने जयपुर के जयसिंह को सूरत का राज्यपाल नियुक्त किया था। शाहजहां के समय मुगलों की प्रमुख टकसालों में से एक सूरत में ही स्थित थी। जब सर टामस रो ने जहांगीर से कारखाने की स्थापना की अनुमति प्राप्त कर ली तो अंग्रेजों ने अपनी प्रथम व्यापारिक कोठी यहीं स्थापित की। भारत में रेल व्यवस्था के प्रारंभ होने से सूरत और समृद्ध बन गया। उच्च कोटि के मलमल निर्माण की प्राचीन कला पुनर्जीवित हुई तथा सूरत के सुती तथा रेशमी कपड़े, जरी तथा सोने-चांदी की वस्तुएं प्रसिद्ध हुईं।
सुरकोटदा (23.25° उत्तर, 69.67° पूर्व)
सुरकोटदा गुजरात के कच्छ क्षेत्र में स्थित है। लगभग 2300 ई. पू. के आसपास, हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने यहां एक सशक्त दुर्ग बनाया था। यहां मिट्टी, भूसे एवं ईंटों से आवासगृहों का भी निर्माण किया गया। यहां के घरों में स्नानागार एवं समुचित जल निकासी की व्यवस्था थी। यहां से हड़प्पाई लिपि युक्त चित्रित भाण्ड एवं तांबे से बनी वस्तुएं प्राप्त की गई है। यहां से एक विशिष्ट प्रकार की हड़प्पाई मुहर भी मिली हैं।
सुरकोटदा से लिंग के आकार की कुछ मिट्टी से निर्मित आकृतियां पाई गई हैं, जिससे सैंधववासियों द्वारा लिंग पूजा के अनुमानों की पुष्टि होती है। यहां से घोड़े की अस्थियों की प्राप्ति एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि सैंधववासी संभवतः घोड़े से परिचित थे। यहां से अन्य वस्तुएं भी प्राप्त हुई हैं-जैसे हड़प्पा की विशिष्ट मुहरें, तांबे की भारी छेनी तथा तांबे के मनकों का भंडार।
यहां के निवासी मृत शरीर को एक अंडाकार गड्ढे में दफनाते थे तथा उसके साथ जार एवं अन्य वस्तएं रखते थे। हड़प्पा सभ्यता में शवाधान की यह अनोखी परम्परा थी, जिसे कलश शवाधान के नाम से जाना जाता था। जोकि यह इंगित करता है कि संभवतः हड़प्पावासी अपनी अलग प्रणाली तथा सभ्यताओं के जमावड़े के साथ पर्वकालीन सभ्यता के साथ रहते थे।
इसके ऊपरी स्तर से श्वेत, कृष्ण एवं लाल रंग के चित्रित भाण्डों की प्राप्ति से ऐसा अनुमान लगाया गया है कि कालांतर में इस क्षेत्र में नए व्यक्ति समूहों का वास हो गया था।
तगार/तेर (18°10‘ उत्तर, 76°02‘ पूर्व)
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद में स्थित आधुनिक तेर की पहचान तगार के रूप में की गई है। शक-सातवाहन काल में यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र था तथा पूर्वी दक्कन से भड़ौच जाने वाले व्यापारिक मार्ग पर स्थित था। यह मार्ग पैठन एवं नासिक से होकर गुजरता था।
पुरातात्विक उत्खननों से इस बात की जानकारी प्राप्त हुई है कि यहां लोगों ने संभवतः चतुर्थ-तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व से ही रहना प्रारंभ कर दिया था। तथा चैथी शताब्दी ईस्वी तक रहते रहे। सिक्के के एक ढेर, शकों के सिक्कों, सातवाहनों के सिक्कों तथा घोंघे एवं कांच की चूड़ियों की प्राप्ति से इस स्थल की शहरी विशेषताओं की पुष्टि होती है। यहां से प्राप्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु हाथी दांत से बनी नारी की एक प्रतिमा है।
यहां उत्खनन से द्वितीय शताब्दी ई. का ईंटों से निर्मित एक बड़ा स्तूप एवं ईंटों से बनी एक अन्य इमारत के अवशेष भी पाए गए हैं। इस प्रकार तगार ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में वाणिज्यिक एवं धार्मिक महत्व का एक प्रमुख केंद्र था।
तराइन (29.78° उत्तर, 76.94° पूर्व)
तराइन हरियाणा में थानेश्वर से मात्र 14 किमी. की दूरी पर स्थित है। यह स्थान पृथ्वीराज तृतीय एवं मुहम्मद गौरी के मध्य 1191 एवं 1192 में हुए तराइन के क्रमशः प्रथम एवं द्वितीय युद्धों के बाद प्रसिद्ध हुआ। इन युद्धों ने भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
1191 ई. में तराइन के प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज चैहान ने मुहम्मद गौरी को पराजित कर दिया। किंतु मुहम्मद गौरी ने पुनः अपनी शक्ति को संगठित किया तथा अगले ही वर्ष 1192 ई. में तराइन के द्वितीय युद्ध में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चैहान को पराजित कर बंदी बना लिया तथा मारा डाला। मु. गौरी की यह विजय अत्यधिक मुहत्वपूर्ण उपलब्धि थी, क्योंकि निस्संदेह पृथ्वीराज चैहान तत्कालीन समय का सबसे शक्तिशाली भारतीय राजा था।
तराइन का एक अन्य युद्ध इल्तुतमिश एवं कुतुबुद्दीन ऐबक के एक सेनापति ताजुद्दीन यल्दौज के बीच हुआ। इस युद्ध में यल्दौज, इल्तुतमिश द्वारा पराजित हो गया। इससे 1216 ई. में दिल्ली सल्तनत ज्यादा संगठित होकर उभरा। कभी-कभी इस युद्ध को तराइन का तृतीय युद्ध भी कहा जाता है।
तक्षशिला/तक्शशिला/शाह-धेरी
(33°44‘ उत्तर, 72°47‘ पूर्व) तक्षशिला ग्रांड-ट्रंक रोड पर पाकिस्तान में रावलपिंडी से 30 किमी. दूर उत्तर-पश्चिम दिशा में अवस्थित है। यह एशिया के सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों में से एक है। ऐलेक्जेन्डर कनिंघम, भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रथम महानिदेशक, ने प्राचीन तक्षशिला सहित शाह-धेरी की पहचान 1863-64 में की थी। चीन को पश्चिमी विश्व से जोड़ने वाले प्रसिद्ध सिल्क मार्ग पर स्थित होने के कारण यह सामरिक दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण स्थल था एवं इसी वजह से इसका भरपूर आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास भी हुआ। प्रथम से पांचवीं शताब्दी के मध्य तक्षशिला अपनी प्रसिद्धि की पराकाष्ठा पर पहुंच गया। समस्त तक्षशिला घाटी में कई बौद्ध इमारतें एवं स्मारक स्थापित किए गए हैं।
प्राचीन काल में यह गांधार जनपद की राजधानी थी। यही कला की गंधार शैली का विकास हुआ। प्राचीन भारत में शिक्षा का यह एक महत्वपूर्ण केंद्र था। प्रसिद्ध चिकित्सक जीवक ने चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा यहीं प्राप्त की थी।
मौर्यों के अधीन तक्षशिला प्रांतीय मुख्यालय था। बिन्दुसार ने तक्षशिला के विद्रोह का दमन करने के लिए अशोक को भेजा था। मौर्यों ने तक्षशिला से पाटलीपुत्र तक एक राजकीय मार्ग भी निर्मित कराया था।
हमें यहां सिरकप जैसे स्थल भी प्राप्त होते हैं, जहां विभिन्न कालों में बने हुए बहुत से मंदिर एवं मठ पाए गए हैं।
ह्वेनसांग के विवरणानुसार कनिष्क ने यहां एक स्तूप बनवाया था। जांदियाल का मंदिर यहां के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है।