जानेंगे छत्रपति शिवाजी का जन्म कब और कहां हुआ था , chhatrapati shivaji birth place date in hindi ?
शिवनेर (19.2° उत्तर, 73.88° पूर्व)
शिवनेर जुन्नार से लगभग 3 किमी. की दूरी पर महाराष्ट्र में स्थित है। मराठा शासक छत्रपति शिवाजी का जन्म 1627 ई. में शिवनेर में ही हुआ था। शिवनेर का विशाल किला एक पहाड़ी पर स्थित है। अपनी दुर्गम स्थिति एवं अद्भुतता के कारण शिवनेर का किला शिवाजी के प्रिय स्थानों में से एक था।
इस किले के मध्य में ‘देवी शिवाई‘ का एक प्राचीन एवं सुंदर मंदिर स्थित है। इस देवी का नामकरण शिवाजी द्वारा ही किया गया था।
शिवनेर के अन्य प्रमुख स्थलों में, कमन तापे, कादेलोत तोक एवं कोली चैतारा सम्मिलित हैं।
शगुंजय (21°28‘ उत्तर, 71°48‘ पूर्व)
शत्रुजय शत्रुजय बांध के समीप पालिताना में गुजरात राज्य में स्थित है। यहां एक विशाल जैन मंदिर है, जिसमें जैनों के तेइसवें तीर्थंकर शत्रुजय पाश्र्वनाथ की एक उन्नत, भव्य एवं काले रंग की विशाल प्रतिमा है।
शत्रुजय पहाड़ी में, 900 वर्षों की अवधि में कुल 863 मंदिर बनवाए गए। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण मंदिर, जैनों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव) का मंदिर है।
प्रारंभ में यह भय था कि शत्रुजय बांध के निर्माण से ये सभी इमारतें जलमग्न हो जाएंगी। इस वजह से यहां एक पृथक शत्रुजय तीर्थ बनाया गया तथा सभी जैन मंदिरों की मूर्तियों को यहां धार्मिक रूप से स्थानांतरित किया गया।
शत्रुजय तीर्थ को जैनों के सभी तीर्थों में सबसे पवित्र माना जाता है।
श्रवणबेलगोला (12.85° उत्तर, 76.48° पूर्व)
कर्नाटक में हासन से 51 किमी. की दूरी पर दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थित श्रवणबेलगोला जैनियों का एक अत्यंत प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। जैन परम्पराओं के अनुसार, मौर्य शासक चन्द्रगुप्त गुप्त मौर्य ने अपने जैन गुरु भद्रबाहु के साथ अपने जीवन के अंतिम वर्ष यहीं बिताए थे तथा उपवास द्वारा शरीर-त्याग किया था।
श्रवणबेलगोला गोमतेश्वर या भगवान बाहुबली (पहले तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र) की 18 मीटर ऊंची विशाल प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है, जिसका निर्माण 983 ईस्वी में चामुंडराय ने करवाया था। यह प्रतिमा इन्द्रगिरी नामक पर्वत को काटकर बनवाई गई है तथा इसे विश्व की सबसे ऊंची एकाश्म प्रतिमा माना जाता है। यहां प्रत्येक 12 वर्ष में होने वाले महामस्तकाभिषेक महोत्सव में हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं। इस महोत्सव में भगवान बाहुबलि की 1000 वर्ष प्राचीन इस विशाल प्रतिमा को हेलिकाप्टरों द्वारा श्दूध एवं दही, घी, केसर से नहलाया जाता है तथा उस पर पुष्प, स्वर्ण सिक्कों एवं अन्य सुगंधित द्रव्यों की वर्षा की जाती है।
चामुंडराय, जो गंगनरेश राजमल चतुर्थ का मंत्री एवं सेनापति था, ने चन्द्रगिरी पहाड़ी पर एक बसाडी (जैन मंदिर) भी बनवाया था। पिरामिडनुमा संरचना एवं प्लास्टरयुक्त दीवारों वाले इस मंदिर में दक्षिणी स्थापत्य कला शैली का प्रभाव है।
स्यालकोट/शाकल (32°29‘ उत्तर, 74°32‘ पूर्व)
स्यालकोट वर्तमान समय में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में गुजरांवाला संभाग में स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि स्यालकोट की स्थापना पांडवों के चाचा महाभारत के राजा साल ने की थी तथा विक्रमादित्य के समय राजा सालिवाहन ने इसे पुनः बसाया। यह प्राचीन काल का शाकल नामक स्थान है। जब सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया तो उसने चिनाब नदी को पार कर कथालोइयों के संघ को हराया तथा उनकी राजधानी शाकल पर अधिकार कर लिया। पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के समय हिन्द-यवनों ने शाकल पर अधिकार कर लिया तथा मेनान्डर ने इसे अपनी राजधानी बनाया। इस काल की एक प्रसिद्ध रचना मिलिंद पंन्हो में इस नगर के संबंध में पर्याप्त जानकारी दी गई है। इस ग्रंथ के अनुसार, मिनांडर की इस राजधानी नगरी की पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था थी, यहां चैड़ी सड़कें एवं सुंदर उद्यान थे, सुंदर बाजार एवं घनी जनसंख्या थी। इन सभी विशेषताओं के कारण शाकल एक प्रसिद्ध नगरी बन गई थी। बाद में हूण नरेश मिहिरकुल (540 ई.) ने शाकल पर अधिकार कर इसे अपनी राजधानी बना लिया।
स्यालकोट प्रसिद्ध कवि एवं दार्शनिक डा. मुहम्मद इकबाल, फैज अहमद फैज एवं असगर सौदाई का जन्म स्थान भी है। यहां कई प्रसिद्ध धार्मिक स्थल भी हैं, जिनमें सबसे प्रमुख सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक का मंदिर है।
कभी यह नगर धातु पर की गई पच्चीकारी की वस्तुओं एवं कागज के लिए प्रसिद्ध था। आगे चलकर शाकल दिल्ली सल्तनत के तथा फिर बाद में मुगलों के अधीन हो गया। यह भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा का एक महत्वपूर्ण सामरिक स्थल था। कालांतर में स्यालकोट रणजीत सिंह के अधिकार में आ गया तथा फिर इस पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
वर्तमान में यह पाकिस्तान का एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र है।
सिद्धपुर (14.34° उत्तर, 74.89° पूर्व)
सिद्धपुर-कर्नाटक में करवाड़ से 155 किमी. की दूरी पर स्थित है। एक शासक बिलागी ने इस स्थल को प्रमखता प्रदान की। उसने यहां एक सिद्धिविनायक मंदिर बनवाया तथा इस स्थान का नाम सिद्धपुर रखा। मौर्य काल में यह एक प्रसिद्ध नगर था, तथा जैसा कि अशोक के जटिंग रामेश्वर के लघु शिलालेख में कहा गया है; यह नगर मौर्य साम्राज्य की धुर दक्षिणी सीमा का निर्धारण करता था।
सारावती नदी पर स्थित प्रसिद्ध जोग जलप्रपात सिद्धपुर से मात्र 22 किमी. की दूरी पर स्थित है। बिल्लागी भी यहां से 22 किमी. दूर है। प्राचीन काल में, सिद्धपर को संस्कृत में श्श्वेतपुरश् भी कहा जाता था। इस जिले में चार प्रसिद्ध जैन बसादिस थे, किंतु वर्तमान समय में यहां केवल एक बसादिस के भग्नावशेष ही दिखाई देते हैं। ये बसादिस यहां के स्थानीय सोंधे शासकों के समय निर्मित किए गए थे। ये जैन बसादि स्थापत्य के सुंदर नमूने थे तथा इन पर होयसल शैली का प्रभाव परिलक्षित होता था।
सिगिरिया (7°57‘ उत्तर, 80°45‘ पूर्व)
सिगिरिया श्रीलंका में स्थित है तथा इसका इतिहास लगभग 7000 वर्ष प्राचीन है। यहां तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में गुहाओं युक्त एक शैल प्रश्रय गृह का निर्माण किया गया तथा उसे संघ के अनुयायियों को दानस्वरूप दिया गया था। मोगाल्लन की सेना से बचने के लिए श्रीलंका के शासक कश्यप (477-495 ई.) ने यहां बागों का नगर, महल तथा एक किले का निर्माण कराया। ऐसा कहा जाता है कि कश्यप ने इस किले का निर्माण सिगरिया की समिति के कहने पर बनवाया था।
सिगिरिया के मठ अपने भित्ति-चित्रों, जो अजन्ता के भित्ति-चित्रों से समानता रखते हैं, के कारण प्रसिद्ध हैं। ये भित्ति-चित्र इंगित करते हैं कि ये अजन्ता के भित्ति-चित्रों से प्रभावित हैं।
वर्तमान समय में सिगिरिया आर्थर सी. क्लार्क द्वारा स्थापित फाउंडेशन ‘पेराडाइन‘ के कारण प्रसिद्ध है।
सिकन्दरा (26.44° उत्तर, 79.59° पूर्व)
सिकन्दरा उत्तर प्रदेश में आगरा से 4 किमी. की दूरी पर स्थित है। इस स्थान का नामकरण अफगान शासक सिकन्दर लोदी के नाम पर किया गया है। किंतु सिकन्दरा अकबर के मकबरे के कारण प्रसिद्ध है, जिसका निर्माण कार्य तो अकबर ने स्वयं कराया था किंतु उसे पूरा करवाने का श्रेय उसके पुत्र जहांगीर को है। यह इमारत हिन्दू, ईसाई, इस्लामी, बौद्ध एवं जैन प्रभावों का सम्मिलित स्वरूप है, जो अकबर के धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का उदाहरण प्रस्तुत करता है। जहांगीर ने मूल इमारत में कई परिवर्तन करवाए। यह इमारत तत्कालीन मुगल स्थापत्य कला का एक सुंदर नमूना है।
इस मकबरे के चार कोनों में से प्रत्येक पर तीन मंजिला मीनारें हैं। ये मीनारें लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित हैं, जिनमें संगमरमर की सुंदर जड़ाई की गई है। इस मकबरे में पहुंचने के लिए एक वृहद मार्ग बना हुआ है। यह मकबरा पांच मंजिला है तथा आकार में विकृत पिरामिडनुमा बना हुआ है। मुख्य मकबरे की डिजाइन अनुपम चतुर्भुजाकार है।
सरहिन्द (30°22‘ उत्तर, 76°14‘ पूर्व)
सरहिन्द भारत के पंजाब प्रांत में है। जब 11वीं शताब्दी में इस पर महमूद गजनवी ने अधिकार कर लिया तो यह भारत में अरब आधिपत्य का सीमावर्ती नगर बन गया। इसके नाम का तात्पर्य था-सर-ए-हिन्द या भारत की सरहद।
दिल्ली सल्तनत का शासक बनने से पूर्व बहलोल खान लोदी सरहिन्द का ही राज्यपाल था तथा सरहिन्द में उसकी स्थिति ने उसको महमूद शाह खिलजी को पराजित कर उसे सिंहासन प्राप्त करने में सहायता दी। लोदियों के समय यह दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बन गया तथा एक महत्वपूर्ण सामरिक स्थल बना रहा। बाद में यह मुगलों के प्रभावाधीन हो गया। 1708 ई. में सिखों ने अपने नेता बंदा बहादुर के नेतृत्व में बहादुर शाह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा सरहिन्द पर अधिकार कर लिया। 1757 में, अहमदशाह अब्दाली ने अपने चतुर्थ भारतीय आक्रमण में मुगल साम्राज्य से औपचारिक तौर पर सरहिन्द का आधिपत्य प्राप्त किया।
सरहिन्द फतेहगढ़ साहब गुरुद्वारे के लिए प्रसिद्ध है। यह गुरुद्वारा औरंगजेब के शासनकाल में शहीद हुए गुरु गोविंद सिंह के दो युवा पुत्रों को समर्पित है।
हजरत मुजाहिद सरहिन्दी या अलफ सासोनी की प्रसिद्ध दरगाह भी यहीं स्थित है। सरहिन्द में बाबर ने खास बाग एवं सराय बनवाई। अहमदशाह अब्दाली के पुत्र मीर मीरान का मकबरा भी यहां स्थित है। यह एक अष्टभुजाकार इमारत है, जिसके शीर्ष पर गुम्बद बना हुआ है।
सीरी (28.55° उत्तर, 77.22° पूर्व)
सीरी मध्यकालीन भारत में दिल्ली का एक नगर था। एक मंगोल आक्रमण के समय अलाउद्दीन खिलजी ने अपने दिल्ली स्थित जनता को बचाने के लिए अपना सैन्य मुख्यालय यहां स्थानांतरित कर लिया था। उसने सीरी में अपना महल बनाया तथा यहां रहकर इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया। दस्तावेजों के अनुसार, अलाउद्दीन के शव को यहीं उसके मकबरे में दफनाया गया था। यद्यपि प्राप्त प्रमाणों से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती है।
सिरपुर/शिरपुर/श्रीपुरा (21.35° उत्तर, 82.18° पूर्व)
महानदी के तट के निकट महासमन्द जिले में ऐतिहासिक नगर सिरपुर स्थित है। इस स्थान का उल्लेख पांचवीं से आठवीं शताब्दी ई. के प्राचीन पुरालेखों में हुआ है। यह नगर दक्षिण कौशल के सरभापुरिय तथा सोमवंशी नरेशों की राजधानी रहा था। ऐसा माना जाता है कि 12वीं शताब्दी में आए एक भयंकर भूकंप ने इस नगर को तहस नहस करके कीचड़ तथा मलबे में दफन कर दिया। श्रीपुर को श्धन-धान्य का नगरश् भी कहा गया है क्योंकि श्श्रीश् का अर्थ है धन की देवी लक्ष्मी। इस स्थल के स्थापत्य महत्व की पहचान 1872 ई. में डा. बेगलर द्वारा की गई; जब यहां एक सुरंग व लक्ष्मण मंदिर उत्खनन में मिला।
एक अन्य किवदंती के अनुसार, सिरपुर का मूल नाम सबरीपुर था। यह नामकरण सबरी नामक भिक्षुणी के आधार पर किया गया था, जिसका उल्लेख रामायण में हुआ है। रामायण की कहानी के अनुसार, सबरी ऋषिमुख पर्वत के पश्चिम में पंपा नदी के तट पर निवास करती थी। यदि स्थानीय कथाओं को माना जाए तो महानदी की पहचान पंपा नदी तथा उसके पूर्व में स्थित पहाड़ियों को ऋषिमुख के रूप में माना जा सकता है। हालांकि, कनिंघम महानदी को पंपा नदी के रूप में नहीं मानता बल्कि उसने महसूस किया कि पंपा को सुक्तिमति के साथ जोड़ना अधिक उपयुक्त था।
सिरपुर छठी से दसवीं शताब्दी के मध्य बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था तथा सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने यहां की यात्रा की थी। मार्च 2013 में दलाई लामा ने भी यहां की यात्रा की थी।
विष्णु भगवान को समर्पित लक्ष्मण मंदिर सातवीं शताब्दी से संबंधित था तथा इसे भारत में ईंटों द्वारा निर्मित सबसे सुंदर मंदिरों में से एक माना जाता है। इसका द्वार पत्थर का बना है। नक्काशी के लिए प्रसिद्ध इस मंदिर को सर्वप्रथम कनिंघम ने ढूंढा। यहां किए गए हाल ही के उत्खननों में 12 बौद्ध विहार, 1 जैन विहार, 22 शिव मंदिर, 5 विष्णु मंदिर, छठी शताब्दी का आयुर्वेदिक स्नान कुंड, एक भूमिगत अन्न भंडार, बुद्ध व महावीर की एकाश्म मूर्तियां मिली हैं। सिरपुर के अन्य प्रसिद्ध स्मारकों में गंधेश्वर मंदिर, चतुमुखी शिवलिंग, तथा महिसासुरमर्दिनी देवी की मूर्ति है।