भारत में गतिशीलता एवं वर्ग what is motility in hindi in india and category गतिशीलता किसे कहते है ?

गतिशीलता किसे कहते है ? भारत में गतिशीलता एवं वर्ग  what is motility in hindi in india and category ?

भारत में गतिशीलता एवं वर्ग
प्रायः लोग अपने विचार व्यक्त करते समय उल्लेख करते हैं कि भारत में वर्ग निर्माण अंग्रेजी शासन काल के दौरान सामाजिक गतिशीलता के कारण संभव हुआ है। यह कथन असत्य है क्योंकि वर्ग या श्रेणियाँ अंग्रेजों के शासन से पूर्व भी भारत में मौजूद थीं। फिर भी, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पारंपरिक संरचना में स्तरीकरण की व्यवस्था में जाति प्रथा प्रमुख थी। अतः वर्ग गतिशीलता जाति-प्रथा की बुराइयों से दबी पड़ी थी। वर्तमान संरचना तथा जाति एक-साथ गतिशील व्यवस्था के रूप में नजर आती है। तथा मिश्रित और बहु-आयामी अनुभव-सिद्ध वास्तविकता के साथ परस्पर मिलकर सक्रिय हैं। हम केवल विश्लेषण के उद्देश्य से निम्नलिखित श्रेणियों के स्तरों की पहचान करके आपके समक्ष रख रहे हैं।

कृषक वर्गों में सामाजिक गतिशीलता
पुरानी पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था में भूमि खरीदी और बेची नहीं जाती थी। इसलिए भूमि रखना एक प्रतिष्ठा का स्रोत होता था। परंतु अंग्रेजों के शासनकाल में भूमि को एक वस्तु के रूप में देखा गया और अब इसे बेचा तथा खरीदा जाने लगा था। इस नियम से कृषिक संबधों और सामाजिक गतिशीलता की प्रकृति पर दूरगामी प्रभाव पड़ा था।

सन् 1950 में भूमि सुधार कानून पारित हुआ। इस अधिनियम का उद्देश्य भूमि में बिचैलियों को समाप्त करना तथा भूमि काश्तकारों को देना था। इस तरह से सोपानात्मक गतिशीलता – उच्च स्तर एवं निम्न स्तर दोनों तरह की गतिशीलता पैदा हुई। इस नियम के तहत कुछ काश्तकारों ने फालतू भूमि खरीद ली जिसके परिणामस्वरूप वे उच्च गतिशीलता की ओर बढ़े। वहीं पर कुछ किसानों ने अपने कृषक होने का दावा करने पर उन्हें भूमि से बेदखल कर दिया गया जिससे उनकी गतिशीलता निम्न स्तर की ओर चली गई। इन सबके परिणामस्वरूप भूमिहीन श्रमिकों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई जिससे वे और गरीब हो गए। दूसरे रूप में देखा जाए तो भूमि सुधार अधिनियम जमींदारों के लिए निम्न सामाजिक गतिशीलता का साधन बन गया था। वे काश्तकारों से भूमि कर तथा फसल का हिस्सा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित हो गए थे जो उनके धनी होने का सबसे बड़ा स्रोत होता था। उनके पास केवल सीमित भूमि रह गई जिससे राजसी जीवन शैली बिताने में असमर्थ हो गए। इसके साथ ही, अन्य अधिनियम के पारित होने से भी जमींदारी व्यवस्था को कड़ा । झटका लगा था। इनमें सबसे प्रमुख थे-व्यापक वयस्क मताधिकार और पंचायती राजव्यवस्था जिससे जमींदारों एवं साहूकारों के बचे-खुचे प्रभाव और अधिकारों को गहरी चोट पहुँची।

इसके बाद सरकार ने 1960 के दशक में हरित क्रांति कार्यक्रम आरंभ किया जिससे गाँवों में असमानता के ढाँचे में परिवर्तन आया। इस कार्यक्रम का मुख्य जोर ऊँची पैदावार बढ़ाने वाले बीजों का प्रयोग और उत्पादन को और अधिक गति देने के लिए उर्वरक के प्रयोग से था। परंतु उच्च किस्म की खादों और बीजों का प्रयोग करने के लिए अन्य बुनियादी ढाँचागत सुविधाओं की आवश्यकता महसूस हुई जैसे निरंतर पानी की आपूर्ति के लिए ट्यूबवेल आदि। इन सब सुविधाओं की व्यवस्था करने में छोटे किसान असमर्थ थे। इस तरह से हरित क्रांति कार्यक्रम से गाँवों में एक नया वर्ग उभर कर सामने आया जिसे प्रगतिशील किसान का नाम दिया गया। ये प्रगतिशील किसान अधिक भूमि रख, सकते थे। साथ ही, उसमें काम आने वाले साधन जैसे कि ट्रैक्टर, पम्प सेट, पॉवर थ्रेशर्स आदि की व्यवस्था भी कर सकते थे। ये लोग बड़े उद्यमी बन गए जो अपनी भूमि में अधिक से अधिक धन लगा कर अत्यधिक लाभ कमाने में समर्थ थे। अब इनका एक अलग वर्ग बन गया था जिन छोटे किसानों और कृषि श्रमिकों से अलग हुए थे जिन्हें वे अब अपनी भूमि पर कृषि मजदूरों के रूप में काम पर रख सकते थे। इस तरह, हम देखते हैं कि हरित क्रांति ने सामाजिक असमानता को और दृढ़ कर दिया।

कृषि कामगारों की गरीबी के मूल्य पर अमीर और भूमिपतियों और अधिक धनी तथा सम्पत्तिवान बन गए हैं जिसके कारण कृषिक संरचना में भूमि विवादों और संघर्षों को जन्म दिया। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ही कृषक वर्गों में राजनीतिक गतिशीलता संपूर्ण भारत में पनप गई जो आज भी निरंतर चल रही है, पहले अंग्रेजों के विरुद्ध थी किंतु अब अपनों के विरुद्ध गतिशील है। यद्यपि गतिशीलता की सघनता समयानुसार क्षेत्रों-वर्गों में परिवर्तित होती रहती है।

अब यह तो स्पष्ट हो गया है कि कृषक वर्गों की प्रकृति तथा उनकी गतिशीलता पर अनेक प्रक्रियाओं का प्रभाव पड़ा है। वे अब नई जातियों की उत्पत्ति के साथ-साथ मौजूदा व्यवस्था में उच्च स्तर एवं निम्न स्तर दोनों तरह की गतिशीलता के साधन एवं व्यवस्था के रूप में प्रयुक्त हुए।

शहरी वर्गों में सामाजिक गतिशीलता
भारतीय समाज के लिए शहरीकरण कोई नई परिघटना नहीं है। यहाँ पर अंग्रेजों के आने से पहले भी अनेक बड़े शहर और नगर थे, जिनका रैंक विभिन्न स्तर और प्रशासनिक ढाँचे के अनुसार था। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप शहरों की और लोगों का आना अत्यधिक एवं तीव्र हो गया है। इस कारण से समग्र सामाजिक वर्गों की प्रकृति को व्यापक रूप से प्रभावित किया। हमने शहरीकरण की संरचना में प्रमुख चार वर्गों की पहचान की है। यह चार वर्ग निम्नलिखित हैं-

1) पूँजीपति/बुर्जुआ वर्ग
भारत में अंग्रेजों ने आधुनिक औद्योगीकरण की स्थापना की। उद्योग, मुक्त व्यापार तथा नए बाजारों की स्थापना ने व्यापार और व्यवसाय को नई प्रेरणा दी। व्यापारी धनी बन गए और उद्योगों की स्थापना की। ध्यान देने वाली बात यह है कि आज भी बड़ी संख्या में उद्योगपति को व्यापारिक जातियों और समुदायों से हैं जैसे कि राजस्थान के मारवाड़ी, गुजराती बनिया और पश्चिम में जैन तथा दक्षिण में चेत्तियार लोग प्रसिद्ध हैं। सबसे पहले व्यापारी वर्ग पूँजीपति बना। इनके साथ ही कुछ कारीगर तथा शिल्पकार जिन्होंने नए आर्थिक अवसरों का लाभ उठाया है और उन्होंने भी लघु उद्योग स्थापित किए। लिंच ने अपने अध्ययन में उद्धृत किया है कि आगरा के जाटव जूते बनाने वाले उद्योगपति बन गए हैं तथा भूमिपति जातियाँ जैसे गुजरात के पटिदारों, आंध्र प्रदेश के नायडुओं और रेड्डियों ने भी उद्योग स्थापित किए हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात उद्योगों में असीमित विस्तार और विकास हुआ है। इसने सभी क्षेत्रों में विस्तार किया है जैसे कि लोहा और स्टील, टेक्सटाइल, ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर हवाई जहाज बनाने के कारखानों तक पहुंचा है। इस तरह से हम देखते हैं कि उद्योगपतियों का एक वर्ग आर्थिक रूप से तथा संख्या में सशक्त हो गए।

2) उद्यमी-व्यापारी एवं दुकानदार
शहरी समाज हमेशा से ही उद्यमियों से बनता है जिसमें व्यापारी एवं दुकानदार शामिल हैं। ये वर्ग शहरों एवं नगरों के विकास के साथ फले-फूले हैं। इन शहरों में नई वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग पूरी करके धन कमाते हैं। इस वर्ग में रेस्टोरेंट चलाने वाले, मैरीज ब्यूरो, वीडियो लाइब्रेरी, प्रॉपर्टी डीलर, पंसारी, लॉण्ड्री, ड्राईक्लीनर्स, सब्जी बेचने वाले व्यवसायी शामिल हैं जो इन वस्तुओं की आपूर्ति एवं सेवाएँ उपलब्ध कराने और उपभोक्ता के बीच कड़ी का काम करते हैं। अनेक व्यक्ति नगरों तथा शहरों में इस व्यावसायिक संरचना को अपना कर समृद्ध हो गए हैं। जबकि कुछ लोग ऐसे हैं जो इसके विपरीत अपने पुश्तैनी धंधों और कलाओं में विस्तार किया जैसे कि धोबियों ने ड्राईक्लीनर्स की दुकानें खोल ली हैं, नाइयों ने ब्यूटी पार्लर की दुकानें खोली हैं। इनके अलावा, कुछ लोगों ने बिल्कुल नए व्यवसायों को चुना है जिसमें नए उद्यम जैसे उपभोक्ता स्थायी वस्तुएँ बेचना, ट्रेवल्स कंपनियाँ खोलना इत्यादि कार्यों आदि शामिल है।

3) व्यावसायिक वर्ग
इस वर्ग ने अपनी प्रकृति और स्वरूप को व्यापकता से बदला है जिसे इन्हें ब्रिटिश शासनकाल में मिला था। इसके बाद स्वतंत्रता के बाद भी इस वर्ग में काफी परिवर्तन आए । हैं। ब्रिटिश सरकार को भारत में विभिन्न काम करने के लिए बड़ी संख्या में व्यावसायियों की अत्यंत आवश्यकता थी। उन्होंने सोचा कि व्यावसायियों अन्य देशों से लाने की बजाए यदि भारत के लोगों को समुचित शिक्षा और प्रशिक्षण देकर इन्हें व्यावसायिक रूप से तैयार कर दिया जाए तो ये लोग सस्ते पड़ेंगे और लाभकारी रहेंगे। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने बड़ी संख्या में शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना की ताकि व्यावसायियों को प्रशिक्षित किया जा सके। इस वर्ग में डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रबंधक, प्रशासक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकीविद आदि शामिल थे। प्रादेशिक क्षेत्रों के विकास के साथ-साथ इस वर्ग की संख्या और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। यद्यपि इस वर्ग की रचना पंचमेल लोगों से हुई है, जैसे कि एक क्लर्क से सी.ए, बाबू से प्रशासक इस वर्ग के सदस्य हैं। इन सबके बावजूद एक बात सब में समान है कि इन लोगों ने ये जो पद प्राप्त किए हैं, वे सब अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के कारण ही संभव हुआ है जिससे इन लोगों ने अपनी स्थिति में सुधार किया है।

इस वर्ग के सभी सदस्यों ने अपनी शिक्षा और प्रशिक्षण के बल पर इस स्थिति को प्राप्त किया है। इस वर्ग की एक और सामान्य विशेषता यह है कि ये लोग अधिकतर सरकारी संगठनों तथा निजी क्षेत्र में काम करते हैं और वेतनभोगी हैं। ये लोग उद्योगपतियों अथवा किसानों की तरह से सीधे अर्थ उत्पादक नहीं हैं और न ही ये लोग शासक हैं।

4) श्रमिक वर्ग
अध्ययनों से पता चलता है कि पहले श्रमिक वर्ग में वे लोग शामिल माने जाते थे जो गरीब कृषि मजदूर थे जिनके पास भूमि नहीं होती थी अर्थात् भूमिहीन किसान अथवा दरिद्र किसान थे जिन्होंने अपनी भूमि को कंगाली के कारण गिरवी रख दिया था। कुछ किसान थोड़े समय के लिए ‘लक्ष्य श्रमिक‘ (टार्गेट वर्कर्स) के रूप में श्रमिक बल में शामिल हो गए ताकि कुछ धन कमा कर अपनी गिरवी रखी गई भूमि को फिर से प्राप्त कर लिया जाए। कुछ लोग खेती-बाड़ी में काम की कमी या मंदी होने से कार्य की तलाश में अस्थायी श्रमिक बन गए। इस तरह के श्रमिक फैक्ट्रियों, टेक्सटाइल मिलों, बागवानी तथा अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने लगते हैं। इन सबकी स्थिति समान होती है तथा शहरों की गंदी बस्तियों में रहते हैं। इनका जीवन दमनीय और दयनीय होता है।

हाल के दशकों में उद्योगों का विकास होने से श्रमिक वर्गों में बहुत ही वृद्धि एवं विकास हुआ है। इसके कार्यों में भी भिन्नता पाई गई है जो देश के हर हिस्से में देखी जा सकती है। ये लोग अब संगठित हो गए हैं और इन्होंने यूनियनें बना ली हैं ताकि अपने नियोक्ताओं से अच्छे वेतन की शर्तों को मनवा सकें। ये ट्रेड यूनियनें राजनीतिक संगठनों या दलों से सम्बद्ध हो गई हैं ताकि वे अपने शक्तिशाली नेताओं के माध्यम से अपनी माँगों के लिए नियोक्ताओं और सरकार पर बराबर अपना दबाव बनाए रखें। इनकी यूनियनें श्रमिकों और प्रबंधकों के बीच बिचैलिया का काम करती है जो इनकी शक्ति और प्रतिष्ठा को बनाए रखती है। श्रमिकों के लिए अंतःगतिशीलता और अंतःपरिवर्तित दोनों ही तरह के प्रावधान मौजूद होते हैं। वे अपनी औद्योगिक इकाई, वे वेतन संरचना और कार्यों की शर्ते और स्थिति के आधार पर बदल सकते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोग श्रमिक यूनियनों, क्लबों, एसोसिएशनों आदि के माध्यम से सोपानात्मक तथा क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता भी प्राप्त कर सकते हैं।

बोध प्रश्न 2
सही उत्तर पर टिक () का निशान लगाएँ-
1) अंतःपारंपरिक गतिशीलता का अर्थ है:
क) व्यक्ति के जीवन कार्यकाल के दौरान गतिशीलता
ख) प्रव्रजन के कारण गतिशीलता
ग) बदलाव गतिशीलता का बदलाव (ऊँचे स्तर या निम्न स्तर) पिता से पुत्रों में या पुत्रों से पिता में।
2) भारत के कृषक क्षेत्र में गतिशीलता के लिए उत्तरदायी घटक हैं-
क) भूमि सुधार
ख) हरित क्रांति कार्यक्रम
ग) सफेदपोश के काम
घ) उपर्युक्त क तथा ख
3) भारतीय शहरों में निम्नलिखित प्रमुख चार वर्ग पाए जाते हैं-
क) बूर्जुआ, उद्यमी, किसान तथा
ख) बुर्जुआ, उद्यमी, व्यावसायिक तथा जमींदार
ग) बूर्जुआ, उद्यमी, व्यावसायिक तथा श्रमिक वर्ग

बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 2
1) क
2) ख
3) ग

सारांश
उपर्युक्त सामाजिक गतिशीलता पर हुई चर्चा के संबंध में यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि स्तरीकरण के तथाकथित ‘बंद‘ व्यवस्था में उपलब्ध साधनों के माध्यम से सदस्य अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार करने के लिए लगातार प्रयास करते रहते हैं। भारत में जैसा कि हमने देखा है कि सामाजिक गतिशीलता में कुछ विशेष प्रकार का रचना-तंत्र और प्रक्रियाएँ शामिल थी जैसे कि विशिष्ट संस्कृति, जैसे संस्कृतिकरण, शिक्षा, शहरीकरण और औद्योगीकरण के द्वारा उपलब्ध गतिशीलता के लिए नए लाभदायक अवसरों पर शीघ्र ही सुविधाभोगी या सम्पन्न लोगों ने कब्जा कर लिया। औद्योगीकरण तथा शहरीकरण ने । समाज में जाति एवं वर्ग दोनों में गतिशीलता पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह शिक्षा के माध्यम से प्राप्त उपलब्धियाँ और कौशल प्राप्त करने के कारण हुआ। इन दोनों प्रक्रियाओं ने क्षैतिज तथा सोपानात्मक गतिशीलता के लिए व्यापक अवसर प्रदान किए।

भारत में जातिगत गतिशीलता और वर्ग पदानुक्रम एक-दूसरे में सम्मिलित और जुड़े हुए हैं। इसलिए इनके परिणामस्वरूप स्तरीकरण का मिश्रित और बहु-आयामी ढाँचा उभर कर हमारे समक्ष आया है जिसमें स्तरीकरण तथा गतिशीलता कहीं पर मिली-जुली हो सकती हैं या फिर अलग-अलग भी हो सकती हैं।

शब्दावली
संस्कृतिकरण: यह जाति में सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया है जिससे निम्न जाति के लोग ऊँची जातियों मुख्यतः ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों की तरह से अपने रीति-रिवाजों, जीवन-शैली, धार्मिक संस्कारों तथा सिद्धांतों में परिवर्तनकरते हैं। इसमें बराबरी की भावना प्रमुख रूप से शामिल है।
पश्चिमीकरण: यह शब्द परिवर्तन को परिभाषित या वर्णित करने के लिए प्रयुक्त किया गया है जोकि भारत में ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप हुए हैं। ये परिवर्तन.जो प्रौद्योगिकी, संस्थानों, सिद्धांतों इत्यादि के स्तर पर हुए हैं। पश्चिमीकरण ने व्यक्तिगत तथा जातिगत स्तर पर के लिए नए मार्ग खोले हैं।