धर्मनिरपेक्षीकरण क्या है की परिभाषा धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण अर्थ Secularization in hindi meaning

Secularization in hindi meaning definition in sociolgy धर्मनिरपेक्षीकरण क्या है की परिभाषा धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण अर्थ किसे कहते है ?

धर्मनिरपेक्षीकरण (Secularisation)
समाज में किसी एक धर्म के राजनीतिक और सामाजिक महत्व में आने वाली कमी को धर्म निरपेक्षीकरण माना जाता है। धर्म निरपेक्षीकरण को सामान्यतया आधुनिक और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत समाजों से जोड़ा जाता है। इस शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन शब्द ‘सेक्युलम‘ से हुई जिसका अर्थ है ‘वर्तमान युग‘ अपने सामान्य प्रचलन में धर्म निरपेक्षीकरण का अर्थ एक ऐसी प्रभुत्वशाली सामाजिक प्रक्रिया से लिया जाने लगा जिसमें संसार को एक ऐसी दृष्टि से देखा जाने लगा जो धार्मिक दृष्टि से हट कर थी। संसार का धार्मिक दृष्टिकोण तो विश्वास पर आधारित होता है जिसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता, जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण ज्ञान पर आधारित होता है, जिसे प्रत्यक्ष तौर पर प्रमाणित किया जा सकता है (मैकिओनिज, 1987,पृ. 438)। अब यह स्थिति अधिकाधिक बनती जा रही है कि धर्म का हमारे ऊपर प्रभाव कम से कम होता जा रहा है कि क्या धर्म का प्रभाव घटता जा रहा है) फिर भी धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया ने धर्म को नागरिक जीवन से दूर एक अलग और विशिष्ट स्थान दिया है। धर्मनिरपेक्षीकरण के राजनीतिक आयाम का बुनियादी अर्थ है राजनीतिक सत्ता का धार्मिक सत्ता से पृथक्करण । इस संदर्भ में धर्मनिपेक्ष राज्य होता है जो किसी एक धर्म का समर्थन नहीं करता है और न ही उसका पक्ष लेता है, इसके विपरीत, वह राज्य सभी नागरिकों को समान दर्जा देने का प्रयास करता है, चाहे उनका धर्म कोई भी क्यों न हो, धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों के पृथक्करण को समझने के लिए आइए हम धर्मनिरपेक्षीकरण पर अपने अगले अनुभाग की ओर बढ़े।

धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया (The Process of Secularisation)
जब कभी भी (और यदि अक्सर ऐसा हो) तो आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ उसमें शामिल कई अन्य विकासात्मक कार्य भी रहते हैं, लेकिन विभेदन (भेद या अंतर करना) एक ऐसी प्रक्रिया थी जिस का अर्थ था कि सामाजिक संस्थाओं के अपने विशेष कार्य और अलग-अलग कार्यों के प्रभावी ढंग से निपटारे के लिए उनकी अपनी-अलग संस्थाएँ। अक्सर ‘परंपरावादी‘ और ‘आधुनिक‘ समाजों में इसी दृष्टि से भेद किया जाता है। परंपरावादी समाज में जहाँ अलग-अलग कार्य वही संस्था (एँ) करती हैं। वहीं आधुनिक समाज में अलग-अलग कार्य उन कार्यों के लिए विशेष रूप से स्थापित संस्थाएँ करती हैं। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप, सामाजिक जीवन के ‘पवित्र‘ (या धार्मिक) और ‘धर्मनिरपेक्ष‘ क्षेत्रों में अंतर किया गया। धार्मिक पक्ष व्यापक रूप से ‘पवित्र‘ वर्ग में शामिल हैं। धार्मिक चिंतन की विशेषता बताते हुए दुर्खाइम स्पष्ट करता है कि “विश्वास, मिथक, सिद्धांत और अनुश्रुतियाँ या पौराणिक कथाएं पवित्र वस्तुओं की प्रकृति को व्यक्त करने वाले प्रतीक या प्रतीक पद्धतियाँ हैं: “ (दुर्खाइम, 1969: 42)। पवित्र और धर्मनिरपेक्ष के भेद पर वापस आते हुए यहां हम यह कहेंगे कि समाज में धर्म से हट कर होने वाली गतिविधियों को धर्मनिरपेक्ष में शामिल किया गया। राजनीति और राजनीतिक प्रक्रिया को आधुनिक समाज की धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया में शामिल किया गया। इस पृथक्करण में, शासक या राजा और संगठित चर्च (विशेषकर इंगलैंड में) के बीच वर्चस्व की लड़ाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जैसा कि हम पहले पढ़ चुके हैं, समूचे समाज को अपनी गिरफ्त में लेने वाली आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की परिणति भी तथाकथित ‘विभेदन‘ में हुई। इस मैदान (या विभेदन) की परिणति राजनीतिक प्रक्रिया के और अधिक ‘धर्म निरपेक्षीकरण‘ के रूप में हुई। आदर्श के न्यूनतम स्तर पर यह स्वीकार किया गया कि राजनीति और धर्म को एक दूसरे को प्रभावित करने से बाज आना चाहिए। आधुनिक समाजों में तो राजनीति का यह आदर्श रहा है, लेकिन आज की राजनीति की प्रक्रिया ने इस प्रकार के पृथक्करण को लगभग असंभव कर दिया है।

कार्यकलाप 1
विभिन्न पत्र/पत्रिकाओं में धर्म और राजनीति पर छपे लेखों की कतरनें काट कर रखिए और इन लेखों को पढ़ने के बाद दो पृष्ठ का एक निबंध लिखिए । इस निबंध पर आप अपने अध्ययन केंद्र के छात्रों और मित्रों के साथ चर्चा भी कर सकते हैं।

धर्मनिरपेक्षीकरण
‘धर्मनिरपेक्षीकरण‘ शब्द के व्यापक अर्थ हैं। इसमें पीछे की गई धार्मिक चर्चा के मामले अंतर्निहित हैं। इसके साथ ही, इसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, कानून और नैतिकता के विभिन्न पक्षों में परस्पर मतभेद बढ़ने से एक-दूसरे के संबंध पृथक होने का भाव भी अंतर्निहित है। पुराने धार्मिक ढाँचे में स्तर, पद, व्यवसाय अथवा पेशा और सामान्य जीवनशैली को निर्धारित करने के लिए शुद्धता एवं अशुद्धता के सिद्धांतों को आधार निश्चित बनाया जाता था। तर्कसंगत विचारों और शिक्षा के प्रभाव के कारण आज शुद्धता और अशुद्धता जैसे विचारों को लोगों ने नकार दिया है। इस विचार को त्यागने से लोग एक-दूसरे के नजदीक आए हैं तथा विभिन्न जातियों के लोग एक-साथ कारखानों, दफ्तरों में काम करते हैं और कंधे से कंधा मिलाकर बसों-रेलों में यात्रा करते हैं, वहीं पर होटलों, रेस्तराओं में एक-साथ खाना भी खाते हैं। आधुनिक समाज के आधुनिक वस्त्र धारण करने से भी जाति प्रथा को नष्ट करने में सहायता मिली है। सार्वभौमिकता के आधार पर नए कानूनों से, सभी नागरिकों को संविधान के अनुसार समान घोषित करने, और भारत के एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित होने से जाति-आधारित विषमताओं को नष्ट करने में विशेष योगदान मिला।

 शिक्षा
पुरानी सामाजिक व्यवस्था में शिक्षा पर ब्राह्मणों और श्द्विजोंश् का एकाधिकार था। परंतु ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजों ने शैक्षिक संस्थाओं को सबके लिए खोल दिया गया था और उन्होंने धर्मनिरपेक्षता और युक्तिसंगत के आधार पर शिक्षा देना आरंभ किया गया। सबके लिए शिक्षा के अवसर मिलने के कारण व्यक्तिगत और समूहों को गतिशीलता के मार्ग खुल गए। इससे सबको लाभ मिला था। जिन लोगों ने आधुनिक शिक्षा में प्रशिक्षण प्राप्त किया था, वे सेना और नौकरशाही में नियुक्ति प्राप्त कर सकते थे। इससे उच्च स्तर पर गतिशीलता में तेजी आई। इसके अतिरिक्त, इस शिक्षा के कारण लोगों के विचारों में बदलाव आया और न्याय, स्वतंत्रता तथा समानता सिद्धांत लागू हुए। उच्च कुलीन शिक्षित लोगों ने जाति के आधार पर अत्याचार और शोषण को समाप्त करने के लिए अपनी आवाज उठाई।

शिक्षा ने गतिशीलता की गति और उसके ढाँचे पर गहरा प्रभाव छोड़ा था जिस कारण एक नए मध्यम वर्ग का निर्माण हुआ है। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के माध्यम से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए प्रयास किए गए और इन वर्गों की शिक्षा संस्थाओं में सीटें आरक्षित की गई। इससे इन्हें निश्चित रूप से लाभ हुआ है। इससे इन छोटे वर्गों में भी कुछ और छोटे वर्ग बनकर सामने आए। यह बिखराव अथवा अलग बनने का कारण गतिशीलता के ढाँचे के कुछ पक्ष रहे हैं जैसे कि जिन लोगों ने शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों का लाभ उठाया वे अलग समूह और जिन्होंने शिक्षा प्राप्त नहीं की वे अलग समूह में बँट गए। इस तरह से शिक्षा से भी एक तरह की गतिशीलता में तेजी आई है।

शिक्षा ने गतिशीलता की प्रगति और रूप पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि एक नए वर्ग का उदय हुआ। स्वतंत्रता के बाद, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, तथा अन्य पिछड़ा वर्गों के उत्थान के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में इनके लिए स्थान आरक्षित किए गए। ये लाभ एक मोटे वर्ग द्वारा ही उठाए गए। इससे इन वर्गों में भी नया विभाजन हो गया। ये विभाजन शिक्षा का लाभ उठाने वाले और लाभ न उठा पाने वालों के आधार पर गतिशीलता रूपों का एक पक्ष बन गए।

 अनुसूचित जातियाँ एवं अन्य पिछड़े वर्ग
इस भाग में हम गतिशीलता के दो मुख्य तरीकों का विश्लेषण करेंगे अर्थात विभाजन के माध्यम से गतिशीलता और संरक्षित अत्याचारों के माध्यम से गतिशीलता के बारे में चर्चा करेंगे।

अनेक वर्षों तक पिछड़े वर्ग के लोग उच्च जातियों के अत्याचारों को सहन करते रहे हैं और विनम्र भाव से जुल्मों के शिकार बनते रहे हैं। परंतु ब्रिटिश शासन काल के दौरान इन्होंने अपने स्तर में सुधार किया और संस्कृतिकरण के माध्यम से इसे वैधानिक सिद्ध करने का प्रयास किया। परंतु इसी दौरान, ऊँची जाति के लोगों ने भी नए अवसरों का अनाधिकार लाभ उठाने के लिए आगे बढ़ने का प्रयास किया। उच्च जातियों और निम्न जातियों के बीच का अंतर और अधिक हो गया। अतः निम्न श्रेणी के लोग इस असमानता को पाटने के लिए आर्थिक तथा राजनीतिक संसाधनों के लिए दावे करने लगे। उन्हें प्राप्त करने के लिए माँग उठाई गई। पीछे 1870 के दशक में महाराष्ट्र में इन सभी असुविधाभोगी जातियों उच्च जातियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए जाति सभाओं के रूप में संगठित होकर, ब्राह्मण विरोधी आंदोलन चलाए जिनका नेतृत्व कामाओं, रेड्डी, नैयर जैसी उच्च जातियों ने किया। सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नेतृत्व में महारों ने आरंभ किया। अन्य आंदोलनों में सभी दलित जातियों ने मिलकर श्दलित पँथरश् के नेतृत्व में एकत्रित होकर आंदोलन किया।

अभ्यास 2
लोगों के विभिन्न स्तरों पर चर्चा करें तथा पता करें कि संरक्षक भेदभाव अधिनियम ने अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों की कहाँ तक मदद की। अध्ययन केंद्र में अन्य छात्रों से चर्चा करें।

ये आंदोलन क्षैतिज गतिशीलता के उदाहरण हैं और इन आंदोलनों के माध्यम से सोपानात्मक (उच्च-स्तरीय) गतिशीलता का प्रयास किया गया। प्रदीप बोस ने दो प्रमुख गतिशीलताओं की पहचान की है। उदाहरण के लिए, संगठन के लिए आंदोलन तथा अधिकारों की माँग के लिए आंदोलन। इससे पहले, जाति-एसोसिएशनों ने जनगणना के माध्यम से अपने जातिगत स्तरों को ऊँचा उठाने का प्रयास किया और शासकों से माँग की। अपनी जातियों को ऊँचा स्तर दिलाने के लिए तथा उसे वैध बनाने के लिए संस्कृतिकरण का भी प्रयोग किया एवं समान जातियों से दूर रहने की नीतियों का भी पालन किया गया। इसका उदाहरण है बिहार के कायस्थ और भूमिहार।

दूसरी गतिशीलताओं में आर्थिक संकटग्रस्त और वंचित जातियों को शामिल किया गया। उदाहरणार्थ-यादव, कुर्मी तथा कोरी जातियों ने मौजूदा राजनीतिक, भूमि, आर्थिक संबधों को सुधारने और इन्हें प्राप्त करने के लिए उन्होंने संगठित होकर एसोसिएशनें बनाई।

पिछड़े वर्गों के ‘संरक्षणात्मक भेदभाव‘ के तहत उच्च-स्तरीय गतिशीलता का अवसर मिला है जिसमें शैक्षिक संस्थाओं में सीटों के आरक्षण, निःशुल्क शिक्षा, छात्रवृत्तियों को प्रदान करना आदि है। इसके अलावा, इन वर्गों को सरकारी नौकरियों और वैधानिक संस्थाओं में भी आरक्षण दिया गया है। परंतु फिर भी, यह कहा जा सकता है कि ये जो कल्याणकारी उपाय किए गए हैं इन्हें केवल कुछ खास वर्ग के लोग ही उठा पाते हैं जो अपनी । सहजातियों से कहीं सशक्त और धनी हैं। इसके परिणामस्वरूप, एक ही जाति के अंदर एक और विभाजन आरंभ हो जाता है।

औद्योगीकरण एवं शहरीकरण
औद्योगीकरण विभिन्न तरीकों से सामाजिक गतिशीलता की दर में तेजी लाता है। इससे लोगों को रोजगार मिलता है जिससे बिना किसी जातिगत भेदभाव की उपलब्धि तथा शिक्षा पर जोर दिया जाता है। उद्योगों में नौकरियाँ कर्मचारी की शिक्षा एवं अनुभवों पर आधारित होता है, न कि किसी जातिगत उच्चता पर। इस तरह की व्यवस्था में रोजगार के अवसर सबके लिए खुले होते हैं, साथ ही भूमिहीन मजदूरों को उच्च-स्तरीय गतिशीलता के लिए अवसर उपलब्ध होते हैं।

औद्योगीकरण में एक नए.प्रकार का कार्य ढाँचा होता है जो श्रमिकों के तकनीकी विभाजन और समान या एकरूपता के स्तर पर आधारित होता है। उद्योगों में विभिन्न जातियों के श्रमिक एक ही मशीन पर बिना किसी जातिगत भेदभाव के एक-साथ काम करते हैं जिसमें किसी प्रकार की पवित्रता या शुद्धिकरण का विचार नहीं किया जाता।

बॉक्स 30.02
अधिकतर उद्योगों की स्थापना का आधार शहर होते हैं, कार्यबल शहरों में आ जाता है जिससे शहरीकरण का विकास होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि औद्योगीकरण के कारण शहरीकरण का निमार्ण होता है तथा सामाजिक गतिशीलता में हर प्रकार से विस्तार होता है। नगरों में जीवन शैली तथा आवासीय ढाँचा किसी जातीय संरचना के आधार पर नहीं होते हैं बल्कि जातियों की दूरी कम होती है तथा मद्धम पड़ जाती है। साथ ही, सार्वजनिकता के कारण अंतर-जातीय विवाह भी संभव हुए हैं। इससे दो जातियों के लोग एक-दूसरे के नजदीक आए हैं, आपस में समझ पैदा कर रहे हैं।

शहरों में गतिशीलता का सबसे बड़ा कारण शिक्षा के द्वारा उपलब्धियाँ प्राप्त करना और नए-नए व्यावसायिक अवसर हैं। इससे जाति के स्थान पर स्तरीकरण की पद्धति वर्ग के रूप में उभकर आती है। परंतु साथ ही, जातियों की एसोसिएशन एवं परिसंघों आदि के रूप में जाति-विभाजन का स्वरूप भी विद्यमान है। इसलिए कहा जा सकता है कि शहरीकरण सोपानात्मक एवं क्षैतिज गतिशीलता का सृजन करता है। शहरों में क्षैतिज गतिशीलता जाति एवं वर्ग, दोनों ही तरह की विशेषताएँ रखती है। जाति के आधार पर एसोसिएशनों का निर्माण पूर्व की स्थिति का वहीं पर रोजगारों में परिवर्तन बाद की स्थिति का उदाहरण है।

 वर्ग एवं सामाजिक गतिशीलता
अब हम वर्ग और सामाजिक गतिशीलता के महत्व के संबंध में निम्नलिखित चर्चा करेंगे।

वर्ग-गतिशीलता का महत्व
वर्ग स्तरीकरण का बहुत महत्वपूर्ण और व्यापक आयाम है तथा वर्ग की तर्ज के आधार पर गतिशीलता का विश्लेषण है। इसका विशिष्ट महत्व केवल इसलिए नहीं है कि इसकी अंतिम अवस्था है बल्कि इसका महत्व इसलिए भी है कि अन्य सामाजिक प्रक्रियाओं को भी दर्शाता है। गतिशीलता की व्यापकता का प्रयोग औद्योगिक समाज की ‘खुलेपन‘ के लिए भी किया जाता है। साथ ही, जहाँ पर गतिशीलता की ऊँची दर धर्म की अपेक्षा सामाजिक उपलब्धता का संकेत करती है। इस व्यवस्था में व्यक्तिगत प्रतिभा और योग्यता के आधार पर व्यक्ति पुरस्कृत होता है या उसे लाभ मिलता है न कि इसमें कि एक व्यक्ति को उत्तराधिकार में बहुत सारी सम्पत्ति और सामाजिक स्तर प्राप्त हुआ है। वर्ग गतिशीलता वर्ग निर्माण को समझने के लिए एक विशिष्ट घटक है। इसके अतिरिक्त, समाज के सदस्यों के जीवन में अवसरों की उपलब्धता के संकेतों का वर्ग गतिशीलता के अध्ययनों से भी पता लगाया जा सकता है अर्थात् जीवन अवसरों पर किसी वर्ग की उत्पत्ति का प्रभाव देखा जाता है। इसके अलावा, सामाजिक स्थिरता तथा विस्तार के विश्लेषण के लिए उन लोगों की जो गतिशीलता के दौर से गुजर रहे हैं, की क्रिया एवं प्रतिक्रिया को जानना बहुत महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही, सामाजिक गतिशीलता की सीमा को औद्योगिक समाज के श्खुलेपनश् के उपायों के रूप में प्रयोग किया गया है तथा उच्च गतिशीलता दर विरासत में मिली उपलब्धियों की तुलना में स्वयं के बल प्राप्त की गई योग्यता वाले समाज का संकेत देती है।

वर्ग-गतिशीलता एवं वर्ग-निर्माण
वर्ग गतिशीलता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है-वर्ग निर्माण की प्रक्रिया। अनेक विद्वानों ने इस क्षेत्र के अध्ययन में अपनी विशेष रुचि दिखाते हुए खोज की है। कार्ल मार्क्स ने एक ओर वर्ग निर्माण और उसके कार्य तथा दूसरी ओर गतिशीलता का विस्तार और वर्ग स्थिति के बीच के संबंधों के बारे में इसका विश्लेषण किया है। उनका विचार था कि सर्वहारा वर्ग वर्ग निर्माण की प्रक्रिया के विरुद्ध था। इसके साथ ही, उन्नत पूँजीवादी समाजों के संबंध में यही धारणा थी जबकि सवर्हारा वर्ग से मध्य वर्ग का निर्माण और विस्तार हुआ था। मार्क्स ने इस बात को भी स्वीकार किया है कि कुछ स्थिरता वर्ग जागरूकता की पूर्व-शर्तों के रूप में भी दिखाई देती है। इसी प्रकार, वेबर ने वर्ग निर्माण के लिए सामाजिक गतिशीलता के महत्व को उजागर करते हुए उसपर विशेष जोर दिया है। वेबर सामाजिक तथा सांस्कृतिक पहचान के लिए स्थिरता को प्रमुख घटक स्वीकार करते हैं।

वेस्टर्डगार्ड तथा रेसलर ने कहा है कि पूँजी रखने वाले और पूँजी न रखने वाले लोगों के बीच विभाजन ने संपूर्ण वर्ग संरचना को मूर्त रूप देने में पुनः विशेष भूमिका निभाई है। उन्होंने गतिशीलता के महत्व को मान्यता प्रदान की है और वर्ग-स्थिति, वर्ग-जागरूकता और वर्ग-संगठन के संदर्भ में लोगों की प्रतिक्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव के रूप गतिशीलता की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति के महत्व को दर्शाया है। वेस्टर्डगार्ड और रेसलर की तरह से ही गिड्डेनस ने भी गतिशीलता को वर्ग निर्माण की महत्वपूर्ण केंद्रीय प्रक्रिया को दिखाया है। परंतु गिड्डेनस के सिद्धांत के अनुसार, इसका महत्व न केवल वर्ग जागरूकता के विकास विकास एवं उनके लिए वर्ग संगठन में है अपितु अतीत में स्वीकार्य सामाजिक घटक अर्थात् स्वयं वर्गों में भी देखा गया है। गिड्डेनस का मत है कि गतिशीलता पर जितनी अधिक पाबंदियाँ होगी उतनी ही स्थिरता के जीवन अवसरों के पुनरुत्पादन के संदर्भ में विशिष्ट अभिगेय वर्ग निर्माण के तथा वर्ग निर्भरता एवं सम्बद्धता के अधिक अवसर होंगे। इसी तरह से समाज में प्रवाह तथा अत्यधिक गतिशीलता दर, विभिन्न वर्गों पहचान भी अस्पष्ट दिखाई देती हैं। गतिशीलता वर्ग ‘संरचना‘ का बुनियादी स्रोत होता है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि यह गतिशीलता की दर और उसका कजो रूप है जिससे व्यक्ति, परिवार की एक जैसी आवासीय स्थिति के कारण सामूहिकता के रूप में वर्गों की पहचान की सीमा का निर्धारण होता है। दूसरा गतिशीलता की सीमा को वर्ग कार्य के प्रचलित स्वरूप के महत्वपूर्ण सूचक के रूप में लिया जा सकता है। पार्किन का मानना है कि वर्ग संघर्ष में सुविधाभोगी समूहों द्वारा अलग रहने की रणनीति निर्माण में महत्वपूर्ण घटक है। गतिशीलता की दर और उसके रूप पर निर्भरता के लिए अलग रहने एवं महत्वपूर्ण सफलता का वर्णन करने के रूप में प्रयोग किया जाता है।

 औद्योगीकरण एवं गतिशीलता
गतिशीलता की प्रक्रिया और उसके संरचना रूपों के विश्लेषण में वर्ग की परिभाषा को मार्क्स या वेबर के अनुरूप प्रयोग नहीं किया गया है। बल्कि वर्ग से उनका अर्थ व्यावसायिक समूहों से है क्योंकि व्यवसाय किसी व्यक्ति की पात्रता, योग्यता, शिक्षा का एक पक्ष है और इससे किसी के स्तर का, सम्मान का तथा वेतन का निर्धारण होता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति के उपभोग, रहने का ढंग तथा जीवन अवसर प्रभावित होते हैं।

औद्योगीकरण ने केवल आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं अपितु समाज के सभी क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन किए हैं। औद्योगिक समाजों को ‘खुले‘ समाजों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जहाँ पर गतिशीलता के लिए अत्यधिक अवसर उपलब्ध होते हैं। औद्योगिक समाजों में गतिशीलता की बहुत ऊँची दर होती है। यह दर तीव्र आर्थिक परिवर्तनों को जन्म देती है जिसके लिए व्यावसायिक, भौगोलिक एवं सामाजिक गतिशीलता अत्यंत आवश्यक होती है ताकि उपलब्ध प्रतिभाओं का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सके। इसी कारण लिपसेट तथा जेटरबर्ग का मानना है कि उद्योगवाद एकसमान गतिशीलता की संरचना उत्पन्न करता है। इन विद्वानों के समान ही, डंकन तथा बलाउ औद्योगीकरण के द्वारा सृजित अनेक घटकों पर जोर देते हैं जिनका गतिशीलता पर प्रभाव पड़ता है। इनके विचार हैं कि औद्योगीकरण बुद्धिवाद के विकास से जुड़ा होता है जो चयन, तथा श्रमिकों के व्यावसायिक विभाजन के लिए सार्वभौमिक मानदंडों का सृजन करता है। इसके साथ ही, यह परिवारवाद तथा पड़ोसवाद को कमजोर भी करता है।

औद्योगीकरण में चयन के लिए शर्तों के रूप में उपलब्धियों पर विशेष बल देने से गतिशीलता उच्च स्तर एवं निम्न स्तर, दोनों ही तरह से होती है। जबकि यह तो स्पष्ट ही है कि उच्च स्तर की गतिशीलता किसी व्यक्ति की योग्यता-क्षमता को मानती है। जबकि निम्न स्तर की गतिशीलता कुलीन वर्गों के उत्तराधिकारी स्तरों में गिरावट आने से संबंध रखती है।

औद्योगीकरण व्यावसायिक रूपों पर अपना प्रभाव डालता है। प्रत्येक औद्योगीकृत या उद्योगशील समाज में आनुपातिक रूप से निपुण कार्यालयीन, प्रबंधकीय और सफेदपोश स्थितियों में वृद्धि होती है तथा अकुशल श्रमिक कार्यों में अपेक्षाकृत कमी जिससे उच्च स्तर की गतिशीलता में उफान आता है। क्योंकि किसी भी उद्योग के संचालन के लिए, प्रशासन के लिए एवं उत्पादित वस्तुओं के वितरण और सेवाएँ प्रदान करने के लिए अधिक से अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती है।

 शिक्षा और गतिशीलता
किसी व्यक्ति की पात्रता निर्धारण करने वाले घटक उपलब्धि तथा योग्यता को बढ़ावा मिलने से इनको प्राप्त करने के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण पर जोर दिया जाता है। शिक्षा गतिशीलता को विशेषतः औद्योगिक समाजों में, गतिशीलता को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाती है। विशेषज्ञता तथा श्रमिक विभाजन की वृद्धि योग्यता प्राप्त कर्मचारियों की विद्यमानता की पूर्व-शर्त होती है जो विशिष्ट कार्यों का संचालन में सक्षम हो। ये विशेषज्ञ किसी भी क्षेत्र के हो सकते हैं, जैसे कि उद्योग, कानून या आयुर्विज्ञान में प्रशिक्षित होते हैं तथा ज्ञान के विशेष क्षेत्रों में शिक्षित होते हैं। इस तरह की शैक्षिक तथा प्रशिक्षण की सुविधाएँ औद्योगिक समाजों में सबके लिए खुली होती हैं। पारंपरिक समाजों में इस प्रकार की सुविधाएँ विशेष क्षेत्रों में कुछ ही लोगों को मिलती थी जिससे सामाजिक गतिशीलता बाधित होती थी। शिक्षा उच्च स्तर की गतिशीलता प्राप्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण मार्ग रही है। शिक्षा प्राप्त करना रोजगार गतिशीलता के लिए एक प्रमुख निर्धारक माना जाता है एवं अंतःपारंपरिक और अंतःपरिवर्तित गतिशीलता पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ता है जिसपर हम नीचे चर्चा कर रहे हैं।

 अंतःपारंपरिक अंतःपरिवर्तित गतिशीलता
यह किसी व्यक्ति के पैतृक वर्ग की गतिशीलता अथवा संचरण तथा संचरण अथवा गतिशीलता (ऊपर की ओर या नीचे की ओर) को बताता है। यदि किसी पर्यवेक्षक का पुत्र या पुत्री अकुशल श्रमिक बन जाता है तो इसे निम्न स्तर की गतिशीलता कहेंगे और यदि उसी व्यक्ति का पुत्र या पुत्री प्रबंधक बन जाते हैं तो ऐसी स्थिति में हम उसे उच्च स्तर की गतिशीलता कहेंगे।

आरंभिक प्रमुख अध्ययनों में से अंतःपारंपरिक गतिशीलता पर एक प्रमुख अध्ययन 1949 में इंगलैंड तथा वालेस में डेविड ग्लास ने किया। उन्होंने इस अध्ययन में देखा कि अंतःपारंपरिक गतिशीलता बहुत ही अधिक थी। उन्होंने बहुत सारे लोगों का साक्षात्कार लिया जो भिन्न-भिन्न व्यावसायिक श्रेणियों के थे जिसमें उन्होंने पाया कि लगभग दो-तिहाई लोग अपने पिता की तुलना में इस गतिशीलता की श्रेणी में थे। अधिकतर गतिशीलता बहुत ही छोटे दायरे में थी अर्थात् ऐसे लोग अधिकतः पाए गए जिनकी श्रेणी लगभग अपने पिता की श्रेणी के आसपास ही थी। निम्न स्तर की गतिशीलता की तुलना में उच्च स्तर की गतिशीलता अधिक सामान्य रूप से पाई गई और अधिकतर लोग वर्ग संरचना के मध्यम स्तर से थे।

इसके बाद, दूसरा महत्वपूर्ण अध्ययन पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में किया गया। अध्ययन में पाया कि सभी पश्चिमी औद्योगिक समाजों में लगभग 30 प्रतिशत गतिशीलता वर्ग से बाहर हुई थी और लघु दायरे में थी। उन्होंने देखा कि अंतःगतिशीलता का संबंध परिवार की पृष्ठभूमि का व्यक्ति के व्यावसायिक एवं सामाजिक स्थिति पर पड़ने वाले प्रभाव से संबंध है। शैक्षिक योग्यता गतिशीलता की संरचना में प्रमुख भूमिका निभाती है। जो लोग उच्च शिक्षा प्राप्त थे, वे लोग गैर-शारीरिक श्रम के कार्यों में लगे हुए थे। इसके साथ ही, वैसी ही योग्यता वाले कुछ शारीरिक श्रमिक हाथ के दूसरे कार्यों में लग गए जबकि कुछ लोग पहले गैर-शारीरिक श्रम में लगे हए थे बाद में उन्हें शारीरिक श्रम में प्रवेश करना पडा। केवल कॉलेज स्तर की शिक्षा ही शारीरिक श्रम से गैर-शारीरिक कामों में प्रवेश दिलाने में सहायक हुई। लिपसेट तथा बेनडिक्स का मानना है कि गरीबी, शिक्षा की कमी तथा खुलेपन की कमी भी गतिशीलता को प्रभावित करते हैं।

इसके बाद हॉजर तथा हॉट ने अपने अध्ययनों के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि लघु स्तर की गतिशीलता दीर्घ स्तर की गतिशीलता से अधिक है जो शिखर पर बैठे लोगों की बजाय सामाजिक-आर्थिक पदानुक्रम के मध्यम वर्ग में होती है।

अंतःपरिवर्तित गतिशीलता उसे कहते हैं जिसमें कोई व्यक्ति अपने सेवा काल में अपनी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन कर लेता है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति लिपिक संवर्ग में काम करता था और उसने अपने सेवा काल में ही प्रबंधक का पद प्राप्त कर लिया। अध्ययन से यह पता चलता है कि सेवाकालीन गतिशीलता सामान्यतः अंतःपारंपरिक गतिशील कम है। सेवाकालीन गतिशीलता उसके प्रथम कार्य की प्रकृति पर निर्भर करता है। सेवाकालीन गतिशीलता आयु के साथ घटती रहती है और यह देखा गया है कि व्यक्ति की 35 वर्ष की आयु के बाद इसमें कमी आ जाती है। यद्यपि ऐसा कोई नियम नहीं है, फिर भी सेवाकालीन गतिशीलता सामान्यतया ऊपर की ओर अधिक जाती है। अध्ययनों से पता लगता है कि अंतःपरिवर्तित गतिशीलता का शैक्षिक योग्यता भी संबंध रखती है। जितनी अधिक विशिष्ट शैक्षणिक योग्यता एवं प्रशिक्षण होगा, उतनी ही गतिशीलता कम होगी। लिपसेट और बेनडिक्स के अनुसार स्व-रोजगार के माध्यम से शारीरिक कामगारों में से उच्च स्थिति तथा उच्च गतिशीलता प्राप्त करने के लिए बहुत अवसर और साधन होते हैं।