जनजाति किसे कहते हैं इसकी व्याख्या करें | जनजाति की परिभाषा क्या है tribe definition in hindi

what is tribe definition in hindi जनजाति किसे कहते हैं इसकी व्याख्या करें | जनजाति की परिभाषा क्या है ?

प्रस्तावना
‘जनजाति‘ शब्द का प्रयोग आम तौर पर नृविज्ञान, समाजशास्त्र और संबंद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में किया जाता है। यही नहीं इसका प्रचलन पत्रकारिता और रोजमर्रा की बातचीत में भी आम है। मगरं इसके अर्थों, अनुप्रयोगों और प्रयोगों को लेकर भारी विवाद रहा है। बहरहाल, यह शब्द सारी दुनिया में अलग-अलग परिस्थितियों में अनेक विविधरूपी समूहों के लिए प्रयोग किया जा रहा है। इस विविधता के साथ-साथ जिन जिन समूहों के लिए यह शब्द प्रयोग किया जा रहा है, वे तरह-तरह के परिवर्तनों से गुजर रहे हैं। मगर इस शब्द में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है जिसके चलते इसे परिभाषित करना कठिन हो जाता है।

जनजातियां और जातीयता
मैकमिलन के नृ-विज्ञान कोश (डिक्शनरी ऑफ एंथ्रोपोलॉजी) के अनुसार ‘जनजाति‘ शब्द किसी भी आदिम जन-समूह के पर्याय के रूप में आम प्रयोग में आ गया है। इसी से जुड़ा है नृ-वैज्ञानिक नव-विकासवादी प्रयोग, जिसमें जनजातिश् शब्द इस आरोही क्रम के हिस्से के रूप में दिखाई देता हैरू (1) दल-मुख्यतःशिकार करने और भोजन एकत्र करने वाला समाज, जिसके सदस्यों में सरल सहकार/सहयोग होता था, (2) जनजाति-सिर्फ जीवन-निर्वाह करने वाले जन-समुदाय जिनमें सीमित स्तर पर परस्पर आदान-प्रदान होता है। (3) प्रधानी-इसका संबंध अधिक उन्नत श्रम का सामाजिक विभाजन और वैधानिक प्रभुसत्ता और (4) राज्य की शुरुआत होती है जिसमें शोषण, बल का केन्द्रित एकाधिकारवाद और बेशी उत्पादन के संचयन पर आधारित वर्ग मौजूद होते हैं।

अफ्रीका के परिप्रेक्ष्य में ई.ई. इवांस प्रिचार्ड ने जनजाति शब्द का प्रयोग वृहत्तर न्यूएर भाषाई और सांस्कृतिक समूह की राजनीतिक दृष्टि से संगठित एक विशिष्ट इकाई को बताने के लिए किया था। इस प्रकार यहां इस शब्द का प्रयोग जनजातीय को राज्य और वृहत्तर सांस्कृतिक समूह से उपजे एक राजनीतिक संगठन से अलग करने के लिए किया गया, जिसका एक हिस्सा वह संगठित इकाई होती है। इधर भारत में औपनिवेशकालीन ब्रिटिश नृजातिकारों ने जनजाति शब्द का प्रयोग सिर्फ विशिष्ट श्आदिमश् सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों को बताने के लिए ही नहीं किया बल्कि इसका प्रयोग उन्होंने जातियों के लिए भी किया। उन्होंने जनजातियों और जातियों में भेद करने का कोई प्रयास नहीं किया। ऐसा करने वाले सबसे आरंभिक नृजातिकारों में हमें रिसले, लेसी, एल्विन, गिग्रॉन, टेलेंट्स सेजाविद, मार्टिन को गिन सकते हैं।

ए.वी. ठक्कर ने जनजातियों के स्वस्थानिक चरित्र को विशेष महत्व देने का प्रयास किया था (हालांकि यह जरूरी नहीं कि जनजातियां स्वस्थानिक हों क्योंकि उनमें भी अपने निवास स्थान से पलयान करने की परंपरा पाई जाती है)। इसलिए उन्होंने इन्हें आदिवासी की संज्ञा दी जिसका यह अर्थ था कि उनके आसपास रहने वाले हिंदू और अन्य लोग उस स्थान में उनके बाद बसे थे। दूसरी ओर जी.एस. घुर्ये ने उन्हें पिछड़े हिन्दू का नाम दिया जिसके पीछे उनका मंतव्य जनजातियों और उनके पास-पड़ोस में रहने वाले हिन्दू देहातियों में धार्मिक और सांस्कृतिक व्यापन को दर्शाया था। बहरहाल, 1947 में भारत के स्वतंत्र हो जाने के बाद ही जनजाति की एक सुस्पष्ट और व्यवस्थित व्याख्या देने और जनजातियों को देहातियों से अलग करने की जरूरत राजनीतिक हलकों और विद्वानों में अधिक महसूस हुई।

दुबे ने भारतीय परिप्रेक्ष्य में जनजाति को परिभाषित करने के प्रयासों में अस्पष्टता और अपूर्णता की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा है कि इस शब्द का प्रयोग “स्वस्थानिक आदिवासी और अधूरे समूहों तक सीमित होता प्रतीत होता है। हमारे पास किसी भी चरण पर जनजातीयता का निर्धारण करने के लिए सुस्पष्ट संकेतक उपलब्ध नहीं रहे हैं।‘‘ वह आगे कहते हैं कि प्रचलित परिभाषाएं जनजातियों में निम्न वशेषताओं में सभी नहीं तो कछ विशेषताएं अवश्य पाती हैंः वे मल या सबसे पराने वासी होते है, आपेक्षिक पार्थक्य में पहाड़ियों या जंगल में रहते है, उनमें हलका इतिहास बोध होता है, उन्हें अपनी पांच-छह पीढीयों की ही याद रहती है, उनमें प्रौद्योगिक और आर्थिक विकास निम्न स्तर का होता है, सांस्कृतिक लोकाचार में वे समाज के अन्य वर्गों से अलग दिखाई देते हैं, उनमें क्रम परंपरा नहीं पाई जाती और अगर वे समतावादी नहीं हों तो उनमें विभेदन भी नहीं पाया जाता है। इन सभी प्रतिमानों में किसी को भी हालांकि संतोषजनक नहीं कहा जा सकता, इसके बावजूद दुबे इनके आधार पर जातियों में भेद कर लेते हैं। देश की 6.9 प्रतिशत जनसंख्या को जनजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। चूंकि यह वर्गीकरण राजनीतिक स्वार्थों से प्रभावित है और इसमें ऐसे समूह शामिल किए गए हैं जो गैर जनजातीय हैं, इसलिए इससे विद्वानों के अलावा वे लोग भी संतुष्ट नहीं हैं जिन्हें इस सूची से बाहर रखा गया है। दुबे के अनुसार जनजाति की परिभाषा पर यह बहस निरर्थक है। उनका माना है कि जनजाति को एक जातीय श्रेणी मान लेना ही सबसे उत्तम रहेगा जिसकी पहचान किसी वास्तविक या कल्पित वंश से होती है और जिसकी अपनी एक सामूहिक पहचान और अनेक किस्म के साझी सांस्कृतिक विशिष्टताएं होती हैं। नस्लीय, धार्मिक और भाषायी समूह भी जातीय चरित्र अर्जित कर सकते हैं इसलिए हमें इन समूहों की जातीयता के साथ-साथ जनजातिय जातीयता को भी लेकर चलना होगा।

जनजातियों की विभेदी विशिष्टताएं
जनजातियों के विभेदी लक्षणों को जाति की विशेषताओं की तुलना में देखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जनजातियां और जातियां दो भिन्न किस्म के सामाजिक संगठनों को दर्शाते हैं। श्रम का आनुवशिक विभाजन, क्रम परंपरा, शुद्धि और अशुद्धि का सिद्धांत, नागरिक और धार्मिक वर्जनाएं जातियों का नियमन करती हैं। लेकिन जनजाति इन से मुक्त रहती है। इस प्रकार सामाजिक संगठन के संचालन में नातेदारी, वंशावली, गोत्र इत्यादि को जनजातियों में सबसे ज्यादा महत्व मिलता है।

जाति समाजों की विशेषता असमानता, पराधीनता और परनिर्भरता है। इसी प्रकार जनजातियां जाति समूहों की तरह धर्म के उपयोग और अनुप्रयोग संबंधी प्रकार्य के बीच ज्यादा गहरा भेद नहीं करतीं । विषम जाति समाज के विपरीत जनजाति समाज को कमोबेश एक अधिक समांगी समाज के रूप में देखा जाता है। जनजातीय समाज का स्वरूप खंडात्मक माना जाता है जिसकी अपनी विशिष्ट प्रथाएं, अनुष्ठान, वर्जनाएं होती हैं और वे अपनी उत्पत्ति एक ही प्रदेश और पूर्वज से मानते हैं। मगर यह आदर्श विशिष्टता या भेद हमें भारत में नहीं दिखाई देती है क्योंकि यहां कुछ जनजातियां हमें सांतत्यक (अविच्छिन्नता) के किसी एक छोर पर खड़ी मिलती हैं तो वहीं अधिकांश जनजातीय समूह उसके मध्य में खड़े दिखाई देते हैं जो अनेक विविधरूपी घटक अपने में समेटे रहते हैं। बेटीला ने दोनों में समान रूप से जो विशिष्टता का उल्लेख किया है वह यह है कि सभी कमोबेश हिन्दु सभ्यता के दायरे से बाहर खड़े हैं।

बेली ने इस विशिष्टता को किसी समुदाय के जमीन से जो संबंध होता है, उसकी रोशनी में समझाने का प्रयास किया है। वह कहते हैं कि जिस किसी समाज की जितनी बड़ी जनसंख्या की प्रत्यक्ष पहुंच जमीन तक होगी वह समाज सांतत्यक के जनजातीय छोर के उतना ही समीप होगा और जिस समाज में जितने ज्यादा लोगों को जमीन का हक निर्भरता के संबंध के जरिए हासिल होता है वह समाज जाति भूमिका के उतने ही नजदीक आ जाता है।

बेली की इस प्रस्थापना की आलोचना में सुरजीत सिन्हा ने जनजाति की एक और विशिष्टता बताई है। उनके अनुसार जनजाति पारिस्थितिकी, अर्थव्यवस्था, राजनीति में अन्य जातीय समूहों से पृथक होती है। यह पार्थक्य उसमें एक प्रबल अंतःसमूह की भावना उत्पन्न करता है और यही भावना इस पार्थक्य को और मजबूत बनाती है। वह अपनी संस्कृति को अन्य समूहों की संस्कृति से स्वतंत्र मानती है। इसके फलस्वरूप वह वस्तुनिष्ठ वास्तविकता और व्यक्तिनिष्ठ जागरुकता के मामले में भारतीय सभ्यता की महान परंपराओं से अलग हो जाती है। जैसे, समानता की एक मूल्य व्यवस्था, मानवीय, प्राकृतिक और अलौकिक विश्व की निकटता, विचारों की व्यवस्थापना का अभाव, संस्कृति का एक जटिल स्तर, नैतिक धर्म और कठोर तपस्या, इन सबसे उसका संबंध नहीं रहता। इसके विपरीत जाति को उससे अभिन्न रूप से जुड़ा विषमांगी स्तरित समूह के रूप में देखा जाता है जिसकी विशेषता स्थानीय समुदाय के बीच बहुजातीय रहन-सहन और अर्थव्यवस्था में अंतः जातीय सहभागिता है।

जनजातियों का रूपांतरण
जनजातियों के समाज पर एक बड़ी बहस जनजातियों के जाति में रूपांतरण और जाति संरचना में उनका उत्तरोत्तर अंतर्लयन को लेकर रही है। यह अमूमन इन प्रक्रियाओं के जरिए होता हैः
प) प्रौद्योगिकी का अपनाया जाना
पप) संस्कृतिकरण
पपप) राज्य का बनना
पअ) हिन्दूकरण
अ) भाषा
अप) धर्म

इसके पश्चात जनजातियों का देहाती और सामाजिक रूप से विभेदित समाजों में रूपांतरण होता है। मगर यह दृष्टिकोण जनजाति को उनके प्राकृतिक स्वरूप और समुदायों के रूप में जानने और उनके अध्ययन को अनदेखा करता है। इस समस्या का समाधान करने के लिए आजकल जनजातियों का अध्ययन जातीयता के नजरिए से करने के प्रयास किए जा रहे हैं, जिससे उनके अंतःसमूह संबंधों पर गहरी दृष्टि मिल सके और यह जाना जाए कि जनजातियां क्यों अपने आपको अन्य से विपरीत और भिन्न समझती हैं। इस सिद्धांत की मुख्य विशेषता जन समूहों और श्रेणियों का निर्धारण और चिन्हांकन तथा व्यतिरेक का प्रयोग है। इसमें स्व-पहचान, वर्ग रूढिकरण, संसाधन स्पर्धा, राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व और परिवर्तन, सांस्कृतिक स्थायित्व और सीमाओं का निर्माण जो लोगों को तरह-तरह से अलग रखने और बांधने दोनों का काम करते हैं, इन सबका अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है।