टेल्कोट पार्सन्स सामाजिक क्रिया सिद्धांत सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था सिद्धांतों talcott parsons in hindi

talcott parsons in hindi social action theory टेल्कोट पार्सन्स सामाजिक क्रिया सिद्धांत सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था सिद्धांतों क्या है ?

टालकट पार्सन्स और सामाजिक प्रणाली की अवधारणा के संबंध में आरंभिक दृष्टिकोण
आइए, हम यह समझने की कोशिश करें कि सामाजिक प्रणाली का क्या मतलब है। मिचल (1979ः 203) के अनुसार सामाजिक प्रणाली उस प्रणाली को कहते हैं “जिसमें व्यक्तियों की बहुलता हो और वे एक-दूसरे के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अंतःक्रिया के द्वारा एक सीमित परिस्थिति में जुड़े हों। यह संभव है कि उनके बीच क्षेत्रीय सीमाएं हों, लेकिन मुख्य बात यह है कि वे समाजशास्त्रीय दृष्टि से किसी परस्पर संबंद्ध सामान्य लक्ष्य की ओर उन्मुख हों। इस परिभाषा के अनुसार विभिन्न परिवार, राजनैतिक दल नातेदारी समूह और यहां तक कि पूरे समाज जैसे बहुविध संबंधों को सामाजिक प्रणाली कहा जा सकता है। सामाजिक प्रणाली के संबंध में पार्सन्स के विचार और उसका क्रिया-सिद्धांत या क्रियात्मक दृष्टिकोण उसके पूर्ववर्ती विचारकों के दृष्टिकोण पर आधारित है। ‘‘द स्ट्रक्चर ऑफ सोशल एक्शन‘‘ (1937) नामक महत्वपूर्ण पुस्तक में पार्सन्स ने बहुत से सामाजिक विज्ञानियों के योगदान की समीक्षा की है लेकिन उसने परेटो, दखाईम और मैक्स वेबर के योगदान को विशेष महत्व दिया। इस पुस्तक में पार्सन्स ने इन अधिकांश विचारकों के योगदान के आधारभूत एकता को विशेष महत्व दिया है। इन एकताओं को अलग-अलग करके देखने से पार्सन्स ने यह अनुभव किया कि इससे सामाजिक प्रणाली के सामान्य सिद्धांत की खोज को बढ़ावा मिलेगा। उसकी यह धारणा थी कि जिन पुस्तकों की उसने समीक्षा की है, उनके पीछे क्रियात्मक सिद्धांत का विचार सीधे या छिपे हुए रूप में विद्यमान है। जहां तक मैक्स वेबर का संबंध है, पार्सन्स ने यह पाया कि उसके अध्ययन में क्रियात्मक सिद्धांत का प्रतिपादन स्पष्ट रूप से हुआ है। आइए, अब हम सामाजिक प्रणाली के अध्ययन से संबंधित आरंभिक दृष्टिकोणों का परीक्षण करें।

उपयोगितावादी (नजपसपजंतपंद), प्रत्यक्षवादी (चवेपजपअपेज), और
आदर्शवादी (idealist) दृष्टिकोण
पार्सन्स ने सामाजिक प्रणाली के क्षेत्र में इससे पूर्ववर्ती योगदानों को तीन मुख्य विचारधाराओं में बांटा है, ये हैं – उपयोगितावादी, प्रत्यक्षवादी और आदर्शवादी। उपयोगितावादी दृष्टिकोण के समर्थकों ने सामाजिक क्रिया (social action) को अत्यधिक व्यक्तिपरक दृष्टि से देखा। उन्होंने उपयोगितावादी तर्कसंगत परिकलन को केवल व्यक्ति के स्तर पर महत्व दिया। इस कारण से वे यह समझने में असमर्थ रहे कि सामाजिक जीवन सामूहिक रूप से समन्वित है, न कि बेतरतीब (देखिए कोष्ठक 27.1 जिसमें उपयोगितावाद के विषय में स्पष्ट किया गया है)।

कोष्ठक 27.1ः उपयोगितावाद
उपयोगितावाद (utilitarianism) ऐसी विचारधारा है जो इस विचार में विश्वास करती है कि दुख की अपेक्षा सुख बेहतर है। एक यह दार्शनिक दृष्टिकोण है, जिसे सामान्यतः जेरेमी बेन्थम (1748-1832) के नाम के साथ जोड़ा जाता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार ज्यादातर लोगों के लिए उपयोगिता सबसे अधिक सुखदायक चीज है। मानव जाति के सभी लोगों का उचित लक्ष्य उपयोगिता को अधिक बढ़ाना होना चाहिए। बेन्थम का विश्वास था कि अच्छी अभिप्रेरणाएं तभी ठीक हैं, यदि वे एक-दूसरे के हितों के साथ सामंजस्य स्थापित करें।

इस प्रकार, उपयोगितावाद एक नैतिक सिद्धांत है जिसका कुछ सामाजिक निहितार्थ है। इसके अनुसार किसी भी चीज की अभिलाषा मात्र अभिलाषा के लिए नहीं होनी चाहिए। इसकी इच्छा सुख पाने के लिए की जाती है जो इससे मिलता है। चूंकि इस दर्शन का मूल मंत्र सुख है अतरू इसके लिए वही नैतिक नियम उचित हैं जो ऐसे व्यवहार को प्रोत्साहित करें जो सुखों को बढ़ाएं और दुखों को कम करें ।

बेन्थम ने अपने इस दर्शन को अर्थशास्त्र, प्रशासन और कानून के अध्ययन के क्षेत्र में लागू किया। एडम स्मिथ, रिकार्डो और कुछ अन्य प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने बेन्थम के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया। प्रारंभिक ब्रिटिश समाजशास्त्र भी इस दर्शन से प्रभावित हुआ था। इनमें से एक समाजशास्त्री जो इस दर्शन से सबसे अधिक प्रभावित हुआ, उसका नाम हर्बर्ट स्पेंसर था।

दूसरी ओर, प्रत्यक्षवादियों का विश्वास है कि सामाजिक पात्रों को अपनी सामाजिक स्थिति का पूर्ण ज्ञान है। इससे पात्रों में किसी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं रह जाती (देखिए कोष्ठक 27.2 जिसमें प्रत्यक्षवाद पर संक्षिप्त टिप्पणी दी गई है)।

कोष्ठक 27.2ः प्रत्यक्षवाद
सबसे पहले “प्रत्यक्षवाद‘‘ (positivism) शब्द का प्रयोग ऑगस्ट कॉम्ट (1790-1857) ने किया था। आपने इस श्प्रत्यक्ष दर्शनश् के बारे में इस पाठ्यक्रम के पहले खंड में पड़ा था।

‘‘तार्किक प्रत्यक्षवादियों‘‘ या ‘‘तार्किक अनुभववादियों‘‘ के नाम से जो दार्शनिक जाने जाते हैं उन दार्शनिकों की विचारधाराओं के अलग सिद्धांतों के लिए भी प्रत्यक्षवाद शब्द का प्रयोग हुआ है। उनका इस मुख्य विचार में विश्वास था कि किसी विवरण या कथन का अभिप्राय उसकी जांच की पद्धति में निहित है। इसलिए जिस कथन की जांच करना संभव न हो, वह निरर्थक हो जाता है

पार्सन्स के मत में वही सामाजिक सिद्धांत प्रत्यक्षवादी होता है जिसके अनुसार व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण पर ध्यान दिए बिना मानव क्रिया के बारे में समुचित रूप से बताया जा सके। उसके विचार में प्रत्यक्षवादी सिद्धांत का एक बहुत अच्छा उदाहरण उपयोगितावाद है।

आदर्शवादियों (idealists) का यह विचार है कि सामाजिक क्रिया राष्ट्र या देश जैसी समाजवादी प्रवृत्ति और विचारों द्वारा कार्यान्वित होती है परिणामस्वरूप वे रोजमर्रा की वास्तविक बाधाओं की ओर बहुत कम ध्यान देते हैं क्योंकि ये विचारों के स्वतंत्र रूप से कार्यान्वयन के मार्ग में रुकावट है। आइए आदर्शवाद की अवधारणा को समझ लें।

आदर्शवादी विचारधारा को मानने वालों का यह विश्वास है कि विश्व के निर्माण में मन की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि यह विभिन्न प्रकार के अनुभवों का भंडार है। दर्शन के इतिहास में आदर्शवाद के विभिन्न प्रकार से अनुप्रयोगों को देखा जा सकता है। इसके मूलभूत रूप को सामान्यतः अस्वीकार कर दिया गया है क्योंकि यह अहंवाद (solipsism) के समान है। अहंवाद का मतलब यह है कि जो वस्तु जगत में है, वह व्यक्तियों में अपने मन के क्रियाकलापों के सिवाय कुछ नहीं है यानी वास्तव में हमारे “अंह‘‘ के अलावा और किसी चीज का अस्तित्व नहीं है।

लेकिन सामान्यतः आदर्शवादी बाह्य जगत् यानी प्राकृतिक जगत् के अस्तित्व को पूरी तरह से स्वीकार करते हैं। उनका यह दावा नहीं है कि इस जगत् को मात्र विचार प्रक्रिया में रूपांतरित किया जा सकता है। उनके विचार में मन क्रियाशील है और वह कानून, धर्म, कला और गणित आदि को उत्पन्न करने और धारण करने में समर्थ है जिनका अस्तित्व अन्यथा संभव नहीं था।

अठारहवीं शताब्दी के आयरिश दार्शनिक जॉर्ज बर्कले को इस दार्शनिक विचारधारा से बहुत निकट से संबंद्ध माना जाता है। उसकी यह मान्यता थी कि प्रत्येक वस्तु के जिन पक्षों से हम परिचित हैं उनको वस्तुतरू मन में विद्यमान विचारों में रूपांतरित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, हमारे मन में कुर्सी या गाय का विचार पहले से ही विद्यमान होता है इसीलिए जब कुर्सी या गाय को देखा जाता हैं तो उन्हें पहचान लिया जाता है। इस प्रकार प्रेक्षक (कुर्सी या गाय जैसी) बाहरी वस्तुओं को अस्तित्व में नहीं लाता। बर्कले का यह विचार था कि वास्तव में, मनुष्य के मन में बाहरी वस्तुओं के सही विचार सीधे ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं।

कोष्ठक 27.3ः आदर्शवाद और उसकी पृष्ठभूमि
अठारहवीं शताब्दी के जर्मन दार्शनिक इमानुएल कंत (Kant) ने आदर्शवादी विचारधारा को और अधिक सूक्ष्मता से देखा। उससे ज्ञान की संभावित सीमाओं के संबंध में आलोचनात्मक अन्वेषण के द्वारा ऐसा किया। कंत का विश्वास था कि इन बाह्य जगत् की वस्तुओं को स्वयं मानने का कोई तरीका नहीं है, वस्तुतरू उन्हें उसी रूप में जाना जा सकता है, जैसी वे हमें प्रतीत होती हैं। उसका यह विचार था कि विज्ञान के सभी आधारभमूत सिद्धांत बाह्य जगत् से उद्भूत होने के बजाय अनिवार्य रूप से मानसिक विन्यास में निहित है।

अंततः, उन्नीसवीं शताब्दी के दार्शनिक चिंतन से जिस जर्मन दार्शनिक का नाम अत्यधिक निकट से जुड़ा है, वह है जी. डब्ल्यू. एफ. हीगल । हीगल का विश्वास था कि मानव आत्मा (संस्कृति, विज्ञान, धर्म और राज्य) की सबसे महान उपलब्धियों को संवादात्मक क्रियाकलापों के द्वारा समझा और पोषित किया जा सकता है। संवादात्मक क्रियाकलाप से अभिप्राय है किसी विषय पर उन्मुक्त मननशील बुद्धि द्वारा वाद-प्रतिवाद और संवाद द्वारा विचार-विमर्श करना। यह मन में हुई स्वाभाविक रूप से निर्धारित प्रक्रियाओं का परिणाम नहीं है (फंक एंड वैगनल, न्यू एनसाइक्लोपीडिया 1971-83ः 370-371)। वास्तव में हीगल के दर्शन ने, विशेष रूप से उसकी संवादात्मक विचारधारा ने कार्ल मार्क्स को अपनी संवादात्मक ऐतिहासिक भौतिकवादी विचारधारा विकसित करने में सहायता की।

अपनी पुस्तक स्ट्रक्चर ऑफ सोशल एक्शन मे पार्सन्स ने इस वर्गीकरण का उपयोग दखाईम, परेटो और वेबर जैसे प्रमुख विचारकों के योगदान की समीक्षा करने के लिए किया। उनकी कृतियों में विभिन्न विचारधाराओं के चर्चित विभिन्न तत्वों की ओर उसने बहुत विस्तार से संकेत किया। ऐसा करते समय पार्सन्स ने इन लेखकों की उन महत्वपूर्ण बातों को निकाला जिससे उसे सामाजिक क्रिया और क्रिया के ढांचे के विकास को समझने में मदद मिली।

पार्सन्स का दृष्टिकोण
पार्सन्स ने यह बात जोर देकर कही कि सामाजिक प्रणाली और सामाजिक वास्तविकता के प्रति उपयोगितावादी और आदर्शवादी दोनों दृष्टिकोण इकतरफा हैं । उपयोगितावादी दृष्टिकोण सामाजिक प्रणालियों को मनुष्यों (व्यक्तियों) की तर्कसंगत अंतःप्रेरणाओं का परिणाम मानता है और इसके द्वारा अपनी आवश्यकताओं और लालसाओं को क्रमबद्ध व्यवस्थाओं में संघटित करता है। ये व्यवस्थाएं संविदात्मक परस्परता (contractual mutuality) के द्वारा संगत हितों पर आधारित हैं। संविदात्मक परस्परता का एक अच्छा उदाहरण राज्य शासन व्यवस्था है, जो संगठित अधिकार-तंत्र का प्रतिनिधित्व करती है। इस क्रमबद्ध व्यवस्था का एक और उदाहरण बाजार व्यवस्था है, जो आर्थिक हितों के संविदात्मक (contractual) संबंधों पर आधारित है।

पार्सन्स के अनुसार उपयोगितावादी समाज विज्ञानिकों ने विश्लेषित क्रमबद्ध व्यवस्थाओं में नैतिक मूल्यों की भूमिका पर ध्यान नहीं दिया है। इसी तरह, सामाजिक प्रणाली की आदर्शवादी पद्धति में लोकतंत्र को ही राष्ट्रीय भावना की पूर्ति मान लिया जाता है। आदर्शवादी पद्धति में मूल्यों और विचारों को अधिक महत्व दिया जाता है और सामाजिक आचरण को बहुत कम। वेबर भी इसी परंपरा से संबद्ध है। उसके अनुसार, पूंजीवाद को आरंभिक अवस्था में प्रोटेस्टेंट नैतिकता से मदद मिली। वेबर और कट्टर आदर्शवादियों में इतना ही अंतर है कि वेबर ने कभी यह नहीं कहा कि पूंजीवाद का कारण प्रोटेस्टेंट नैतिकता मात्र है। लेकिन इतना तो मानना ही होगा कि वेबर ने “तर्कसंगत आत्मसंयम‘‘ (rational asceticism) या “लौकिक आत्मसंयम‘‘ (this worldly asceticism) से संबंधित कुछ मूल्यों का विस्तार से वर्णन किया, परंतु उसने उपयोगी वस्तुओं की खोज या आवश्यकताओं की भूमिका की उपेक्षा की।

टालकट पार्सन्स के अनुसार, सामाजिक प्रणाली की आदर्शवादी और उपयोगितावादी दोनों विचारधाराओं में पूर्वमान्यता के अनुसार मानव अंतःप्रेरणा में कुछ विशिष्टताओं की कल्पना विद्यमान है। पूर्वमान्यता से हमारा अभिप्राय है, जो पहले से ही विद्यमान है। सामाजिक प्रणाली के प्रति उपयोगितावादी दृष्टिकोण की विशेषता आवश्यकताओं के नियमन में तर्कसंगत का होना है और आदर्शवादी दृष्टिकोण की विशेषता आधाभूत मूल्यों और विचारों के प्रति वचनबद्धता है।

इस प्रणाली के अंतर्गत उपयोगितावादी दृष्टिकोण में व्यक्ति की धारणा तो है, लेकिन वह केवल कुछ विशिष्ट योग्यताओं का अमूर्त रूप है (जो उसके पूर्व अनुभवों पर आधारित विशेषता है)।

आदर्शवादी दृष्टिकोण की स्थिति भी लगभग वैसी ही है, बस केवल अंतर इतना है कि उसमें पूर्व अनुभवाश्रित दृष्टि से मानी गई विशेषताओं में भिन्नता है। आदर्शवादी यह मानते हैं कि मनुष्य विश्वव्यापी मानसिक परिकल्पना के अनुरूप कार्य करते हैं।

प्रत्यक्षवादियों का विचार इससे एकदम अलग है। उनकी यह धारणा है कि वास्तविक मानव-क्रिया स्थिति के पूर्ण ज्ञान के परिणामस्वरूप होती है। इस प्रकार उनके विचारों में सुनिश्चितता है और लचीलेपन का अभाव होता है। उनके यहां कार्य करने का एक ही तरीका है और वही सही तरीका है। परिणामस्वरूप उनकी सामाजिक क्रिया में मूल्यों की जगह नहीं होती और गलतियों या विभिन्नता की कोई गुंजाइश नहीं होती।

इस प्रकार, उपयोगितावादी, आदर्शवादी और प्रत्यक्षवादी विचारधाराओं के समर्थकों में सभी ने कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं, लेकिन हर महत्वपूर्ण बात के अनोखेपन से ही पार्सन्स को ऐतराज है। उपयोगितावादियों का ध्यान केवल व्यक्ति की तर्कसंगत रुचि पर है, लेकिन वे सामूहिक रुचि की बात भूल जाते हैं। आदर्शवादी (पकमंसपेजे) मूल्यों की बात करते है, लेकिन वे मूल्यों पर अनुभवाश्रित वास्तविकताओं से पड़ने वाले दबाव को भूल जाते हैं। अंत में, प्रत्यक्षवादी स्थिति के पूर्ण ज्ञान को महत्व देते हैं, लेकिन वे मूल्यों, गलतियों और परिवर्तनों की भूमिका को नजर अंदाज कर देते हैं।

इन ऊपर दी गई बातों को ध्यान में रखते हुए पार्सन्स ने सामाजिक प्रणालियों के अध्ययन के लिए एक अन्य दृष्टिकोण सामने रखा जिसे उसने “क्रियात्मक दृष्टिकोण‘‘ कहा।

 पार्सन्स का क्रियात्मक दृष्टिकोण
सामाजिक प्रणाली के प्रति पार्सन्स का दृष्टिकोण समन्वयात्मक है। उसने उक्त प्रणाली के निर्माण के लिए न केवल उपयोगितावादी परिप्रेक्ष्य में विद्यमान अभिप्रेरणात्मक तथ्यों के महत्व को प्रदर्शित किया बल्कि मूल्यों के महत्व को भी स्पष्ट किया। उसने अपने इस दृष्टिकोण का निर्माण सामाजिक क्रिया (social action) के सिद्धांत के रूप में किया, जो सामाजिक प्रणाली का मूल तत्व है।

पार्सन्स (1937) के अनुसार क्रिया एकांत में नहीं होती। क्रिया अलग होने के बजाए सामूहिक योग (constellations) में होती है, जो प्रणालियों का निर्माण करते हैं। इन प्रणालियों पर हमने आगे विचार किया है। आइए, पहले आप “क्रिया‘‘ की अवधारणा को समझ लें। पार्सन्स के अनुसार, “क्रिया‘‘ की अवधारणा का जन्म मनुष्यों के व्यवहार से हुआ है। एक जीवधारी प्राणी के रूप में मनुष्य बाहय जगत के साथ और अपने भीतरी मन के साथ अंतःक्रिया करते हैं। ये व्यवहार आगे दी हुई चार स्थितियों में क्रिया का रूप धारण कर लेते हैंः

प) इसका प्रयोजन किसी लक्ष्य या किसी प्रत्याशित परिणाम को प्राप्त करना होता है।
पप) यह किसी विशिष्ट स्थिति में घटित होती है,
पपप) यह समाज के मानदंडों और मूल्यों से नियंत्रित होती है, और
पअ) इसके लिए “ऊर्जा‘‘ अथवा अभिप्रेरणा अथवा प्रयत्न की अपेक्षा होती है।

जब ये सभी तत्व विद्यमान हों तो व्यवहार क्रिया में बदल जाता है। आप उस महिला का उदाहरण लीजिए जो स्वयं कार चलाकर मंदिर जा रही है। वह संभवतरू वहां पूजा करने जा रही है। ऐसी स्थिति में उसका लक्ष्य मंदिर में पूजा करना है, जिसकी तरफ वह उन्मुख है। उसकी क्रिया की स्थिति वह सड़क है जिस पर वह अपनी कार चला रही है और वह कार जिसमें वह बैठी है। इसके अलावा, उसका व्यवहार सामाजिक प्रतिमानों या मूल्यों द्वारा नियंत्रित है और मंदिर जाकर पूजा करने की क्रिया को समाज से मान्यता भी प्राप्त है। इसके अतिरिक्त, कार चलाने के लिए वह अपनी बुद्धिमता और कार चलाने के कौशल का इस्तेमाल कर रही है, इसे उसने समाज से सीखा है। कार चलाने की इस क्रिया का मतलब है, ऊर्जा का प्रयोग, कार के स्टियरिंग ह्वील को पकड़ना, ऐक्सिलरेटर का ठीक से प्रयोग करना और भीड़ भरी सड़क पर ठीक से गाड़ी चलाना आदि । जब व्यवहार को इस प्रकार विश्लेषण करके देखा जाता है तो इसे क्रिया (ंबजपवद) कहा जा सकता है।

क्रियान्मुखता की इस स्थिति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक तो अभिप्रेरणात्मक उन्मुखता (motivational orientation) और दूसरी मूल्यपरक उन्मुखता (value orientation)। अभिप्रेरणात्मकउन्मुखता उस स्थिति की ओर संकेत करती है जिसमें आवश्यकताओं, बाह्य उपस्थिति और योजनाओं के परिप्रेक्ष्य में क्रिया होती है। उन्मुखता का दूसरा रूप मूल्यपरक उन्मुखता है, जो मूल्यों, सौन्दर्यबोध, नैतिकता और चिंतन के मानकों पर आधारित है। भाग -29.4.1 और 27.4.2 में क्रिया के इन दो घटकों के बारे में विस्तार से चर्चा की जाएगी। आइए अभी सोचिए और करिए 1 को पूरा कर लें।

सोचिए और करिए 1
अपने दैनिक जीवन में संपन्न किए जाने वाले ऐसे चार प्रकार के सामाजिक व्यवहारों को सूचीबद्ध कीजिए, जो पार्सन्स के अनुसार क्रिया की श्रेणी में आते हैं। इन सामाजिक व्यवहारों की निम्नलिखित चार स्थितियां होनी चाहिए।

प) इनका उद्देश्य किसी लक्ष्य या किसी अन्य प्रत्याशित परिणाम को प्राप्त करना हो,
पप) ये किसी विशिष्ट स्थिति में घटित हों,
पपप) ये समाज के प्रतिमानों और मूल्यों से नियमित होते हों, और
पअ) इनके लिए ‘‘ऊर्जा‘‘, अभिप्रेरणा या प्रयत्न की अपेक्षा होती है।

एक-दो पृष्ठ की टिप्पणी लिखिए, जिसमें कुछ ऐसे व्यवहारों का उल्लेख हो और यह भी बताइए कि पार्सन्स की परिभाषाओं के अनुसार आपने उन्हें किस प्रकार क्रिया की श्रेणी में शामिल किया है। यदि संभव हो तो अपनी टिप्पणी की तुलना अपने केंद्र के अन्य छात्रों की टिप्पणी से कीजिए।

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, पार्सन्स के अनुसार कोई क्रिया के इस सामूहिक योग से प्रणालियों का निर्माण होता है। क्रिया की इन प्रणालियों को तीन तरह से संगठित किया जा सकता है। पार्सन्स के अनुसार ये प्रणालियां हैंः व्यक्तित्व प्रणाली (personality system), सांस्कृतिक प्रणाली (cultural system) और सामाजिक प्रणाली (social system)।

व्यक्तित्व प्रणाली मानव के व्यक्तित्व के उन पहलुओं के बारे में बताती है जो व्यक्ति की सामाजिक क्रिया पद्धति को प्रभावित करती है। दूसरी ओर, सांस्कृतिक प्रणाली में वास्तविक विश्वास, मूल्यों की मूर्त व्यवस्था, संप्रेषण के प्रतीकात्मक साधन शामिल हैं। सामाजिक प्रणाली में व्यक्तियों और इनसे बनने वाले संगठनों के बीच अंतःक्रिया के रूपों और तरीकों की ओर संकेत किया गया है। इस संदर्भ में मिचल (1979ः 204) ने सामाजिक प्रणाली के उदाहरण के रूप में किसी संगठन की प्राधिकार संरचना को या किसी परिवार में श्रम विभाजन को लिया है।

पार्सन्स के अनुसार किसी सामाजिक प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं।

I) दो या अधिक व्यक्तियों के बीच अंतःक्रिया होती है और अंतःक्रियात्मक प्रक्रिया ही इसका मुख्य केंद्रबिंदु है।
II) अंतःक्रिया ऐसी स्थिति में होती है, जिसमें किसी अन्य पात्र या व्यक्ति की अपेक्षा होती है। इन व्यक्तियों में संवेगों और मूल्यों के बारे में निर्णय लेने की शक्ति होती है तथा इनके द्वारा वे अपने लक्ष्यों और क्रिया के साधनों को प्राप्त करते हैं।
III) सामाजिक प्रणाली में सामूहिक लक्ष्योन्मुखता होती है या समान मूल्य होते हैं और मानदंडों तथा संज्ञानात्मक अर्थों में अपेक्षाओं पर सर्वसम्मति होती है।

सामाजिक प्रणाली की अवधारणा को और अच्छी तरह से समझने के लिए आइए, अब हम सामाजिक प्रणाली के गठन की आधारभूत इकाई का परीक्षण करें।