middle society in hindi meaning and definition मध्यवर्ती समाज किसे कहते है | मध्यवर्ती समाज की परिभाषा क्या है विशेषताएं बताइये ? की स्थापना कब हुई थी शुरुआत ?
मध्यवर्ती समाज
पार्सन्स के अनुसार आदिम चरण के पश्चात् दूसरा विकासात्मक सार्विकीय चरण है समाज का मध्यवर्ती प्रकार । समाज का यह प्रकार सामाजिक विभेदीकरण के दबाव के फलस्वरूप अस्तित्व में आता है। पार्सन्स के विचार में सामाजिक प्रणाली में इस तरह के दबाव का सर्वाधिक सामान्य कारण है जनसंख्या में वृद्धि। इससे समाज के आकार तथा रचना में बदलाव आता है। जैविक प्रणाली वाले समाजों में विभेदीकरण का स्वरूप दोहरे विभाजन का होता है अर्थात् इसमें इकाइयों के दो हिस्से हो जाते हैं। जैविक प्रणाली के समरूप सामाजिक प्रणाली में भी जनसंख्या वृद्धि के दबाव के कारण मानव बस्तियों का दोहरा विभाजन होता है और यह है शहरी तथा ग्रामीण। यह विभाजन और आगे बढ़ता हुआ व्यवसायों में विभेदीकरण लाता है, जिसमें अनेक प्रकार के कृषि से भिन्न व्यवसाय उभरते हैं यह इसलिए होता है क्योंकि कस्बों एवं शहरों के विकास के कारण आबादी के नए वर्गों का सृजन होता है। इसके अंतर्गत अतिरिक्त संपत्ति को नियंत्रित करने और सत्ता तथा ऊंची सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त करने वाले लोगों, कारीगरों, शिल्पकारों, साहित्यकारों, पुजारियों, व्यापारियों, योद्धाओं आदि के अनेक वर्ग अस्तित्व में आते हैं।
विकास के दूसरे चरण में वर्ग के आधार पर अथवा जैसे कि भारत में है जाति के आधार पर सामाजिक विभेदीकरण प्रारंभ होता है। सामाजिक प्रणाली के स्वरूप में इस प्रकार के विकास के फलस्वरूप समाज के प्रशासन के लिए नए प्रकार के नियमों की आवश्यकता पड़ती है। समाज के इस चरण में पहले की भांति केवल रीतियों और प्रयासों से समाज का प्रबंध करना संभव नहीं रहता। इसलिए समाज के शासन के लिए और अधिक नियम अथवा कानूनी धाराएं संहिताबद्ध की जाती हैं और प्रायः ये लिखित रूप में होती हैं। ऐसी स्थिति में राजनीतिक प्रणाली अपेक्षाकृत अधिक व्यवस्थित रूप ग्रहण कर लेती हैं, जैसे कि सामंतवाद तथा राजतंत्र। परंतु पार्सन्स के अनुसार दो आधारभूत नई संस्थाएं विकास के मध्यवर्ती चरण में समाज को विशिष्ट स्वरूप प्रदान करती है और वे हैंः
प) सामाजिक स्तरण की व्यापक एवं जटिल प्रणाली का उदय, और
पप) समाज के सामाजिक नियंत्रण के सामान्य प्रतिमानों का उदय ।
पार्सन्स के अनुसार इस प्रकार के समाजों के उदहारण हैंः भारत, चीन, इस्लामी साम्राज्य तथा रोमन साम्राज्य । इन ऐतिहासिक उदाहरणों के अतिरिक्त अधिकतर सामाजिक प्रणालियां सामाजिक विभेदीकरण और अपनी अनुकूलन आवश्यकताओं के कारण विकास की इस प्रक्रिया से गुजरती हैं।
सामाजिक प्रणालियों में आमूल परिवर्तनरू विकासात्मक सार्विकीय तत्व
आपने अभी तक सामाजिक परिवर्तन के बारे में पार्सन्स के उन विचारों का अध्ययन किया है जो मुख्यतया उसकी प्रारंभिक पुस्तक द सोशल सिस्टम (1951) में प्रतिपादित किए गए हैं। अपनी बाद की पुस्तकों विशेषकर सोसायटीजः एवल्युशनरी एंड कैम्पेरेटिव पर्सपेक्टिव्स (1966), द सोशियोलॉजिकल थ्योरी एण्ड माडर्न सोशियोलॉजी (1967), द सिस्टम ऑफ मार्डन सोसायटीज (1971) और द इवोलूशन ऑफ सोसायटीज (1977) में पार्सन्स ने सामाजिक परिवर्तन के विकासात्मक सिद्धांत का विस्तृत विवेचन किया। परंतु सामाजिक परिवर्तन के प्रति उसका दृष्टिकोण मुख्यतया प्रकार्यात्मक रहा अर्थात् वह तब भी यही मानता था कि परिवर्तन की सभी प्रक्रियाएं लंबे समय तक प्रणाली को बनाए रखने के लिए विभेदीकरण और अनुकूलन के प्रति दबावों से पैदा होती है। किंतु पार्सन्स ने दो नए कारक भी प्रस्तुत किए, जो इस प्रकार हैंः
प) उसने “विकासात्मक सार्विकीय तत्वों‘‘ (मअवसनजपवदंतल नदपअमतेंसे) की अवधारणा का प्रतिपादन किया, जिसका अर्थ है कि यदि हम समाजों में एक लंबे अंतराल का परिवर्तन देखें तो स्पष्ट होता है कि (अपनी संस्कृति और भौतिक वातावरण से बंधे होने के कारण) समाज की विशिष्ट ऐतिहासिक विशेषताओं के बावजूद प्रत्येक सामाजिक प्रणाली विकास की कुछ सामान्य दिशाओं से गुजरती है। सामाजिक विकास की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के निर्देश और स्वरूप को पार्सन्स ने विकासात्मक सार्विकीय तत्व कहा है।
पप) सामाजिक परिवर्तन के प्रति पार्सन्स के विचारों में इस अवधि में एक और नया विचार सामने आया। इस विचार को इस तथ्य में देखा जा सकता है कि उसने सामाजिक प्रणालियों के विकासात्मक चरणों के प्रमुख प्रकारों का विश्व-स्तर पर ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक विश्लेषण करने पर बल दिया। इस विश्लेषण के माध्यम से मानव इतिहास के आदिम समाजों से लेकर आधुनिक औद्योगिक समाजों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया।
पार्सन्स के अनुसार, अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए किसी भी मानव समाज में निम्नलिखित अभिलक्षण होने चाहिए।
प) अर्थव्यवस्था का मूल स्वरूप, जिसमें मनुष्यों को जीवित रखने की व्यवस्था (भोजन एकत्र करना, शिकार, पशु-पालन तथा कृषि आदि) हो।
पप) प्राथमिक तकनीकी जिसके द्वारा खाद्य सामग्री का उत्पादन, आवास की व्यवस्था तथा पर्यावरण एवं अन्य खतरों से सुरक्षा हो सके
पपप) बातचीत करने अथवा संप्रेषण के कुछ साधन, जिनसे परिवार से समुदाय स्तर तक सामाजिक एकात्मकता स्थापित हो सके और सामाजिक संगठन की देख-रेख की जा सके
पअ) विश्वास प्रणाली (जीववाद, जीवात्मवाद, जादू-टोना, धर्म आदि) जिसके माध्यम से लोगों की सांस्कृतिक तथा अभिव्यक्तिपरक प्रेरणाओं को सामाजिक दृष्टि से संयोजित तथा समन्वित किया जा सके
अ) इस प्रकार के समाजों के संचालन के लिए संगठन का प्राथमिक रूप भी आवश्यक है। राजनीतिक प्रणाली जनजाति की मुखिया प्रथा अथवा समुदाय के सामूहिक नियमों के द्वारा नियंत्रण होने के सरल रूप में भी हो सकती है। अतः समाज के समन्वित अस्तित्व के लिए राजनीतिक संगठन का होना अनिवार्य है।
पार्सन्स ने समाजों का विकासात्मक वर्गीकरण तीन प्रकारों में किया प) आदिम अथवा प्राचीन समाज, पप) मध्यवर्ती समाज, पपप) आधुनिक समाज, आइए अब तीनों की क्रमवार चर्चा करें।
बोध प्रश्न 1
प) प्रकार्यवाद की अवधारणा की व्याख्या लगभग छः पंक्तियों में कीजिए।
पप) टीलियोलॉजी (जमसमवसवहल) से क्या अभिप्राय है? चार पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
पपप) निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थान भरिए।
क) मानव शरीर के विपरीत, जो मनुष्य की सभी प्रजातियों में एक समान है, सामाजिक प्रणालियां …………………… उपज हैं।
ख) अभिप्रेरणाओं तथा मूल्यों के उन्मुखीकरण की दिशा सामाजिक प्रणाली में ……………………………..और …………………… दोनों को जन्म देती है। पहले से स्थिरता आती है और दूसरा ……………. का कारण बनता है।
बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 1
प) प्रकार्यवाद एक दृष्टिकोण है, जिसमें यह माना जाता है कि सभी सामाजिक प्रणालियों में प्रक्रियाओं तथा संस्थाओं जैसे तत्व अथवा अंग होते हैं, जिनसे प्रणाली जीवित रहती है और उसका अनुरक्षण होता है। यह दृष्टिकोण जीवविज्ञान से काफी प्रभावित है और इसमें समाज तथा जैविक प्रणाली की तुलना की गई है।
पप) टीलियोलॉजी का अभिप्राय उस विश्वास से है कि किसी संस्था या प्रक्रिया के अस्तित्व का उद्देश्य यह है कि वह सामाजिक प्रणाली को जीवित रखने के लिए कोई आवश्यक कार्य संपन्न करती है। प्रकार्यवाद के सिद्धांत में इस विश्वास का केन्द्रीय स्थान है।
पपप) क) ऐतिहासिक
ख) सामंजस्य, तनाव, परिवर्तन