strike and lockout difference in hindi हड़ताल और तालाबंदी के बीच अंतर क्या है | हडताल और तालाबंदी क्यों होते हैं ?
सिद्धान्त : हडताल और तालाबंदी क्यों होते हैं ?
अर्थशास्त्रियों का मत है कि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश आर्थिक कार्यकलापों में पैरेटो अनुकूलतमता का सरल सिद्धान्त कार्य करता है। इसका निम्नलिखित अभिप्राय है । एक आर्थिक कार्यकलाप, जो निजी उद्देश्यों (जैसे लाभ) के लिए संगठित किया जाता है और यह सामाजिक अधिशेष के उत्पादन के साथ समाप्त होता है और सामूहिक रूप से अनुकूलतम बन जाता है। साधारणतया, निजी हितों के अपने अनुसरण में लोग स्वतः अपव्ययपूर्ण कार्यकलापों से बचते हैं और सामाजिक संपत्ति का सृजन करते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे अधिकांश कार्यकलाप इतने समय तक निरन्तर नहीं चलते रहते और अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है।
हड़ताल और तालाबंदी, उत्पादन रोकने का चेतनापूर्ण कार्य, होने के कारण अपव्ययपूर्ण है। श्रमिक, हड़ताल करके उत्पादन क्यों रोकते हैं, अथवा नियोजक तालाबंदी की घोषणा करके अस्थायी तौर पर फैक्टरियों को क्यों बंद कर देते हैं जबकि उनका अस्त्वि उत्पादन को बनाए रखने पर निर्भर करता है? यह अत्यन्त ही विरोधाभासी व्यवहार है जिसका कुछ सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सौदाकारी की स्थिति विवाद की समस्या और इसी प्रकार के अपव्ययपूर्ण कार्यकलापों को जन्म दे सकती है। उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब एक माता-पिता आइसक्रीम का एक कप खरीदते हैं तथा अपने दो बच्चों को उसे बाँटकर खाने को कहते हैं। हम देख सकते हैं कि जब तक उनमें समझौता होता है आधी आइसक्रीम पिघल चुकी होती है जो कि पैरेटो अनुकूलतमता का उल्लंघन है।
आइसक्रीम के उदाहरण की भाँति ही एक फर्म का आर्थिक अधिशेष श्रमिकों और नियोजकों के बीच सौदाकारी का विषय है। मजदूरी संबंधी बातचीत में श्रमिक अत्यधिक ऊँची मजदूरी की माँग से शुरू करता है, जबकि नियोजक अत्यन्त ही कम पेशकश पर अड़ा रहता है। समय बढ़ने के साथ, हम उम्मीद करते हैं कि दोनों पक्ष कुछ रियायत देंगे और समुचित समय के अंदर उनमें समझौता हो जाना चाहिए। किंतु कई बार ऐसा नहीं होता है। बातचीत आगे नहीं बढ़ पाती है तथा कोई भी पक्ष रियायत देने को तैयार नहीं होता है। सामान्यतया ऐसी स्थितियों में, श्रमिक हड़ताल कर देते हैं और/अथवा नियोजक तालाबंदी की घोषणा कर देते हैं।
ऐसा क्यों होता है? इसके दो स्पष्टीकरण हैं जिनका स्रोत प्रसिद्ध ब्रिटिश अर्थशास्त्री सर जॉन हिक्स के निबंधों में है। पहला स्पष्टीकरण यह है कि श्रमिक और नियोजक हड़ताल और तालाबंदी को ‘हथियार‘ के रूप में देखते हैं जिसका उपयोग संघर्ष के समय किया जा सकता है। इतना ही नहीं, इन हथियारों का प्रयोग सिर्फ कभी कभी करना चाहिए ताकि इनके उपयोग करने की गंभीर चेतावनी दी जा सके। दूसरा स्पष्टीकरण असंगत सूचना पर आधारित है। इसके अनुसार दोनों पक्षों को बहुधा एक-दूसरे की क्षमता और रियायत देने की इच्छा के बारे में अलग-अलग बोध होता है। अतएव, प्रत्येक पक्ष इस आशा में कि दूसरा पक्ष झुक जाएगा अडिग रहता है। उदाहरण के लिए एक फर्म में जहाँ लाभ संबंधी सूचना गोपनीय रखी जाती है, यदि श्रमिकों को विश्वास हो जाए कि फर्म ने भारी मुनाफा कमाया है, तो वे अधिक बोनस पर जोर डालेंगे, और यदि उनका विश्वास सही है तो नियोजक को एक सीमा के बाद उनकी बात माननी ही पड़ेगी। किंतु यदि श्रमिकों का विश्वास गलत है तब क्या होगा? नियोजक अभी भी कहेगा कि वह इस तरह की माँग नहीं पूरी कर सकता है किंतु श्रमिक, उस पर विश्वास नहीं करके डटा रहेगा और अंत्तः नियोजक को हड़ताल स्वीकार करना होगा, क्योंकि उसके पास श्रमिकों को यह विश्वास दिलाने का कोई दूसरा उपाय नहीं है कि बोनस की यह माँग पूरी नहीं की जा सकती।
हड़तालों के रूढ़िवादी तथ्य
विवादों के इन दो सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण के साथ विभिन्न देशों (मुख्यतः पश्चिमी देश) में अर्थशास्त्रियों ने हड़ताल से संबंधित विभिन्न मुद्दों की जाँच का प्रयास किया है। यहाँ अनेक रोचक तथ्यों का उल्लेख किया जा सकता है। पहला, शक्तिशाली श्रमिक संघ और हड़ताल की घटना के बीच स्पष्ट संबंध है। यह सर्वत्र सच प्रतीत होता है और हड़ताल को हथियार के रूप में देखे जाने की हिक्स की दलील की पुष्टि करता है। दूसरा, जब अर्थव्यवस्था में तेजी रहती है तब अधिकांश हड़तालें होती हैं। श्रमिक यह विश्वास करते हैं कि जब व्यवसाय अच्छा चल रहा है तो उन्हें अधिक मिलना चाहिए। इसके विपरीत, मंदी के समय में श्रमिकों को अपनी नौकरी छूटने की अधिक चिन्ता होती है और इसलिए वे अधिक मजदूरी की माँग स्थगित रखते हैं। यदि हम असंगत सूचना तर्क की दृष्टि से सोंचते हैं, तब वस्तुस्थिति यह है कि तेजी के समय लाभ के प्रति श्रमिकों की प्रत्याशा और वास्तविक लाभ आँकड़े समरूप नहीं होते किंतु मंदी के समय ऐसा होता प्रतीत होता है। तीसरा, यह भी देखा गया है कि सामान्यतया लम्बी हड़तालों से कम लाभ हुआ है अथवा मजदूरी में कम वृद्धि हुई है। तुलनात्मक रूप से, अल्पकालिक हड़तालों के परिणामस्वरूप मजदूरी में अधिक वृद्धि हुई है। यह भी असंगत सूचना दृष्टिकोण से मेल खाता है। मुम्बई में 1982 के प्रसिद्ध कपड़ा हड़तालों में हड़ताल एक वर्ष से अधिक समय तक चली थी किंतु इसका परिणाम श्रमिकों के लिए अत्यन्त ही विनाशकारी हुआ। अंत्तः, विकासशील देशों में जहाँ अधिक औद्योगिकरण हुआ है (जैसे भारत में) हड़ताल की घटनाएँ विकसित देशों की तुलना में अधिक होती हैं। इसका मुख्य कारण औद्योगिक संबंधों के साथ कार्य करने वाली संस्थाओं का कमजोर स्थिति में होना है।
उपरोक्त अंतिम टिप्पणी के संबंध में, भारत की कुछ विकसित देशों जैसे, जापान, नीदरलैण्ड और फ्रांस के साथ तुलना करना रोचक हो सकता है। तालिका 32.1 में, हमने उनका औसत वार्षिक हड़ताल आँकड़ा प्रस्तुत किया है जिसकी गणना अस्सी के दशक के आरम्भ में विभिन्न वर्षों के लिए एकत्र किए गए आँकड़ों से की गई है (समयावधि कोष्ठक में दी गई है)।
यह उल्लेखनीय है कि भारत के बाद जापान में प्रतिवर्ष (उस अवधि के दौरान) सबसे अधिक संख्या में हड़ताल (5850) हुई थी। नष्ट श्रम-दिवस के मामले में भी भारत के बाद जापान का दूसरा स्थान थाय किंतु प्रति हड़ताल आधार पर जापान का स्थान सूची में सबसे नीचे है जबकि भारत प्रति हड़ताल 6813 नष्ट श्रम दिवसों के साथ शेष देशों से कहीं बहुत आगे है। भारत की खराब स्थिति संभवतः दो तथ्यों के परिणामस्वरूप है: (1) भारत में विवाद निपटाने वाली संस्थाएँ अपेक्षाकृत कम कुशल हैं, और (2) भारत में फर्म अधिक श्रम प्रधान हैं।
इन तथ्यों पर विचार करने के बाद यहाँ यह जोड़ना महत्त्वपूर्ण है कि भारत में विवाद अन्य अनेक कारणों से भी होते हैं जो आर्थिक सिद्धान्त में परिकल्पित बातचीत रणनीति से कहीं भिन्न है। बहुधा हड़ताल प्रबन्धन के कतिपय निर्णयों के विरोध के लिए अथवा कतिपय बुनियादी मामलों के प्रति परिवाद अभिव्यक्त करने के लिए की जाती है। इस तरह का हड़ताल व्यवहार (अर्थात् परिवाद अभिव्यक्त करने के लिए), पश्चिमी देशों में आम रूप से नहीं देखा जाता है किंतु भारत में यह प्रायः होता है।
बोध प्रश्न 1
1) हड़ताल पैरेटो अनुकूलतम कार्रवाई क्यों नहीं हैं, स्पष्ट कीजिए।
2) हड़ताल और तालाबंदी की घटना को स्पष्ट करने वाले दो मुख्य सैद्धान्तिक कारणों की चर्चा कीजिए।
3) हड़ताल के बारे में कम से कम दो रूढ़िवादी तथ्यों की चर्चा कीजिए।
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) हड़ताल पैरेटो अनुकूलतम नहीं है क्योंकि श्रमिक जानबूझकर संभावित अधिशेष अपव्यय करते हैं।
2) दो कारण हैं: (1) हड़ताल और तालाबंदी हथियार हैं;
(2) असंगत सूचना के कारण श्रमिक (अथवा नियोजक) अधिक मजदूरी की आशा (अथवा इनकार) करने लगते हैं। विवरण के लिए उपभाग 32.1 पढ़िए। 3) उपभाग 32.1 पढ़िए।
औद्योगिक विवादों में प्रवृत्ति
भारत का विशाल औद्योगिक संजाल (Network) होने और उतना ही विशाल श्रम बल होने के कारण यहाँ हड़ताल और तालाबंदी की घटनाएँ निरन्तर होने लगी हैं। भारत में औद्योगिक विवाद का इतिहास बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से शुरू होता है जब विशेष रूप से वस्त्र उद्योग और आम तौर पर औद्योगिक अर्थव्यवस्था महामंदी से बुरी तरह से प्रभावित हुई। वर्ष 1928 में, ऐतिहासिक श्रमिक संघ अधिनियम पारित हुआ था और उसी वर्ष बॉम्बे टेक्सटाइल श्रमिकों ने छः महीनों की लम्बी अवधि के लिए काम ठप कर दिया और उसके बाद 1934 में फिर एक हड़ताल की गई। इस समय तक बॉम्बे, अहमदाबाद और मद्रास में अनेक श्रमिक संघ अस्त्वि में आ चुके थे। सामान्यतया यह विश्वास किया जाता है कि मद्रास (टेक्सटाइल) लेबर यूनियन पहला भारतीय श्रमिक संघ था जिसकी स्थापना 27 अप्रैल 1918 को हुई थी। इससे काफी पहले 1890 में श्रमिकों का संगठन श्बाम्बे मिल-हैण्डस एसोसिएशनश् की स्थापना हुई थी जो श्रमिक संघ नहीं बन सका था।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्, उद्योगों के बड़े पैमाने पर विस्तार और सार्वजनिक क्षेत्र के बृहत् उपक्रमों की स्थापना के बाद विवादों की समस्या ने बहु आयामी स्वरूप ग्रहण कर लिया है। पहला, अब बृहत् केन्द्रीकृत यूनियनों जिनका विकास सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विस्तार के साथ-साथ हुआ था द्वारा कार्यान्वित राष्ट्रीय स्तर के हड़ताल देखे गए। दूसरा, राजनीतिक दल श्रमिक संघों का महासंघ बनाए रखना महत्त्वपूर्ण समझते हैं जो सार्वजनिक हित के विभिन्न मुद्दों पर केन्द्र सरकार के साथ बातचीत कर सकें। तीसरा, अब सरकार न सिर्फ अपने उद्योगों में अगित निजी क्षेत्र में भी आधार विवादों को नियंत्रित करने में सक्रिय भूमिका निभा रही है।
औद्योगिक संबंधों की जानकारी रखने के लिए केन्द्र सरकार सभी राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों से औद्योगिक विवादों, विशेषकर हड़तालों और तालाबंदी के संबंध में राज्य श्रम विभागों की प्राथमिक इकाइयों और क्षेत्रीय श्रम आयुक्तों (केन्द्रीय) के माध्यम से विस्तृत आँकड़े एकत्र करती है और उन्हें श्रम ब्यूरो में संग्रह करती है। तथापि, विवादों की स्वैच्छिक सूचना पर आधारित, इन आंकड़ों में राजनीतिक हड़तालों अथवा नैतिक समर्थन में की गई हड़तालों को शामिल नहीं किया जाता है। अतएव, व्यवस्थित रूप से कन गणना करने की प्रवृत्ति है।
श्रम ब्यूरो द्वारा प्रकाशित आँकड़ो में कतिपय मुख्य चल (Variables) सम्मिलित होते है नेम् हड़तालों और तालाबंदियों की संख्या, शामिल श्रमिक, नष्ट श्रम-दिवस, दीर्घावधि अथवा अल्पावधि दृष्टि से विवादों का प्रतिशत वितरण, विवाद के कारण और परिणाम (सफलता अथवा विफलता) की दृष्टि से।
कुल विवाद
तालिका 32.2 में, हम कल विवाद ऑकड़ों से शुरू करते हैं (हड़तालों और तालाबंदियों का यो) जो विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है। सबसे पहले यह ध्यान देने योग्य है कि विवादों की समस्या भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोई नई नहीं है। जैसा कि तालिका में दर्शाया गया है, 1980 में भी, जब नई स्वतंत्र सरकार अपनी नई आर्थिक नीतियाँ तैयार कर रही थी, हमारे रोगों में विवादों की काफी घटनाएं हो रही थीं। वास्तव में 1952 और 1956 में विवादों की संख्या 1996 और 1999 के आँकड़ों से तुलना योग्य है।
वर्षों पश्चात्, निःसंदेह विवाद की संख्या बढ़ी, क्योंकि देश विशेषकर उद्योग और श्रम के मामले में अनेक महत्त्वपूर्ण नीति प्रणालियों से होकर गुजरा। जैसा कि तालिका द्वारा दर्शाया गया है, साठ के दशक के उत्तरार्द्ध से अस्सी के दशक के आरम्भ तक 1976, आपातकाल वर्ष, को छोड़कर विवाद की संख्या बहुत अधिक थी। अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध से विवादों में कमी आई है और नब्बे के दशक के उत्तरार्द्ध में विवादों की संख्या उतनी ही कम थी जितनी की पचास के दशक के आरम्भ में। यह तस्वीर रेखाचित्र 1 में सत्त् टाइम सीरीज (समय श्रृंखला) आँकड़ों के साथ दर्शाई गई है। यदि हम 1976 का वर्ष छोड़ दें, तब विवादों की संख्या से घंटे की आकृति का एक सुंदर वक्र बनता है। इसका अभिप्राय यह है कि घटना की दृष्टि से, औद्योगिक परिदृश्य में व्यवस्थित रूप से सुधार हो रहा है। सम्मिलित श्रमिकों की कुल संख्या और कुल नष्ट श्रम-दिवस की दृष्टि से भी यही कहा जा सकता है क्योंकि दोनों में अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से गिरावट की प्रवृत्ति है। आकृति 32.1 में भी यदि अस्थिर मध्य भाग को छोड़ दिया जाए तो नष्ट श्रम-दिवस वक्र को भी प्रायः घंटा की आकृति में देखा जा सकता है।
यहाँ हमें कुछ महत्त्वपूर्ण प्रेक्षणों पर ध्यान देना चाहिए। पहला, जैसा कि आकृति 32.1 में दर्शाया गया, आपातकाल से पहले और उसके बाद भी (1975 और 1976), विपरीत दिशाओं में होने पर भी विवादों की संख्या ने समान प्रवृत्ति का अनुसरण किया। वर्ष 1970 से 1980 तक (1975 और 1976 को छोड़कर) की अवधि में अधिक घटनाओं वाले वर्ष देखे जा सकते हैं जिसमें 1973 में सबसे अधिक घटनाएँ हुईं (3370 विवाद)। दूसरा, नष्ट श्रम दिवस आँकड़े, यद्यपि कि कुल मिलाकर इसी प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं, बहुत हद तक विशेषकर आपातकाल के वर्षों के पश्चात् लगभग एक दशक तक परिवर्तनशीलता दशति हैं। वर्ष 1984 में प्रसिद्ध बॉम्बे टैक्सटाइल हड़ताल जो 1982 में शुरू हुई और डेढ़ वर्षों तक चली के, परिणामस्वरूप पराकाष्ठा पर पहुँच गए। यद्यपि यह रुख नब्बे के दशक में स्थिर हो गया, फिर भी नष्ट श्रम दिवस, का औसत आंकड़ा काफी ऊपर रहा। यह कम से कम साठ के दशक के मध्य से दोगुना था।
तीसरा, दो वकों के बीच असमानता, आपातकालीन वर्षों के दौरान अस्थिरता और पचास तथा साठ कदशकों की तुलना में उनके हाल के स्तर दोनों की दृष्टि से अन्य बातों का पता चलता है। चूंकि नब्बेे के दशक में सम्मिलित श्रमिकों की संख्या साह के दशक से तुलनीय है, यह दलील दी जा सकती है कि हाल के वर्षों में अधिक प्रेम-दिवसों के नष्ट होने का कारण विवादों की लम्बी अवधि था। चैधा कुल आँकड़ों के विपरीत, प्रति विवाद नष्ट श्रम-दिवस में बराबर वृद्धि हो रही है, जिसका अथ यह है कि प्रत्येक विवाद अधिक मंहगा होता जा रहा है। दूसरे शब्दों में पद्यपि कि विवादों की संख्या कम है, दिए गए विवाद की लागत में भारी वृद्धि हो गई है। अंत में हम सभी विवादों से प्रति शामिक कल नष्ट समय (दिए गए वर्ष में) की माप द्वारा समयावधि तर्क को और तीक्ष्ण बना सकते है जो कि तालिका में अंतिम कॉलम में दर्शाया गया है। जैसा कि स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. कार के दशक की अपेक्षा नब्बे के दशक में औसत अमिकों ने 2.5 से 3 गुणा अधिक भार-दिवस मट किया है।
हड़ताल और तालाबंदी
विवाद का प्रवृत्ति इसके एक या दोनों घटकों, हड़ताल और तालाबंदी के कारण है। निम्नलिखित आकृति (आकति 32.2) और दो तालिका (तालिका 32.3 और 32.4) में इसका पता लगाते हैं।
कुल विवादों के लिए घंटे के आकार का वक्र, जिसे हमने आकृति 32.1 में देखा, पूरी तरह से हड़तालों के कारण है। विगत दो दशकों से हडतालों की संख्या और इसके साथ ही सम्निलित श्रमिकों की संख्या और कुल नष्ट श्रम दिवसों में कमी आई है। वस्तुतः. 1992 तक हड़तालों की संख्या 1961 के स्तर से नीचे गिर गई है, और इसमें और गिरावट आ रही है। दूसरी ओर तालाबंदियों की संख्या में पूरी अवधि के दौरान बराबर वृद्धि हुई है।
हड़तालों और तालाबंदियों के प्रवृत्तियों में विरोध, आकृति 32.2 में अधिक मुखर है। हम देखते हैं कि 1976 तक दोनों वक्रों की प्रवृत्ति समान रही अर्थात् दोनों ऊर्ध्वगामी थे। वास्तव में, हडतालों के लिए चरम वर्ष 1973 था (2958 हड़ताल), और लगभग इसी समय 1974 में तालाबंदियों की संख्या नई ऊंचाई पर पहुँच गई और यह 428 तालाबंदी तक पहुँच गई जिसने अगले दशक के लिए निम्न सीमा बाँध दी। तथापि, 1975 में आपातकाल की घोषणा और केन्द्र सरकार द्वारा श्रमिक संघ कार्यकलापों पर सख्त पाबंदी ने हड़तालों और तालाबंदियों दोनों में वृद्धि की प्रवृत्ति को रोक दिया तथा यहाँ तक कि 1976 में इसमें भारी गिरावट आई।
1977 में आपातकाल की समाप्ति पर, हड़तालों और तालाबंदियों दोनों में नाटकीय वृद्धि हुई और इसने आपातकाल पूर्व की गति पकड़ ली। वर्ष 1977 और 1983 के बीच हड़तालों की संख्या सत्त् रूप से बहुत ऊँचे स्तर पर रही। नष्ट श्रम दिवसों संबंधी आँकड़ा भी समान प्रवृत्ति प्रदर्शित करता है। मुख्य रूप से बॉम्बे टेक्सटाइल हड़ताल के कारण यह 1982 में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया और 1978 तथा 1984 के बीच की पूरी अवधि में ऊँचे स्तर पर बना रहा। इस प्रकार, यदि हम 1975 और 1976 के आपात वर्षों को छोड़ दें, तो 1970 से 1984 के बीच की समयावधि को हड़तालों का प्रमुख काल कहा जा सकता है। वर्ष 1984 से, हड़तालों और नष्ट श्रम-दिवसों दोनों की संख्या गिर रही है।
इसके विपरीत, तालाबंदियों का मुख्य चरण 1982 के पश्चात् आरम्भ हुआ। अस्सी के दशक के मध्य में न सिर्फ तालाबंदियों की संख्या में तीव्र दर से वृद्धि हुई अपितु तालाबंदी के कारण नष्ट कुल श्रम दिवस भी हड़ताल के कारण नष्ट श्रम-दिवसों से कहीं आगे निकल गया। 1984 से तालाबंदियों में नष्ट कुल श्रम दिवसों की संख्या हड़ताल के कारण नष्ट कुल श्रम दिवसों से लगभग दोगुना है, यद्यपि कि नब्बे के दशक में दोनों में गिरावट आई। तथापि, यह उल्लेखनीय है कि आर्थिक उदारीकरण के नए युग वर्ष 1992 में सबसे अधिक संख्या में तालाबंदियाँ हुईं, जबकि 1982 में अधिकतम नष्ट श्रम दिवस दर्ज किया गया था। इसी वर्ष हड़तालों में नष्ट श्रम दिवसों की संख्या भी अधिकतम थी।
दोनों प्रकार के विवाद की एक समान विशेषता हड़ताल अथवा तालाबंदी की प्रति इकाई नष्ट श्रम-दिवसों में बढ़ने की प्रवृत्ति है। वर्ष 1996 में एक औसत हड़ताल में 10,246 श्रम दिवस नष्ट हुए जो 1961 में नष्ट श्रम दिवसों का चार गुणा है। तालाबंदी के मामले में भी यही स्थिति है। प्रति इकाई आधार पर, विशेषरूप से हड़ताल में श्रमिकों की भागीदारी भी बढ़ रही है। इतना ही नहीं, एक औसत श्रमिक का हड़ताल अथवा तालाबंदी के कारण अधिक समय नष्ट हो रहा है। इन तथ्यों से पता चलता है कि हड़तालों की संख्या कम होने पर भी कुल नष्ट कार्य समय की दृष्टि से एक औसत हड़ताल अधिक महँगी हो गई है।
बोध प्रश्न 2
1) कुल विवादों में प्रवृत्ति पर चर्चा कीजिए।
2) हड़ताल बनाम तालाबंदी में प्रवृत्तियों की तुलना कीजिए। वर्ष 1961 से 1999 तक की पूरी अवधि में उनकी समानता और भिन्नता पर चर्चा कीजिए।
3) औद्योगिक विवादों पर उनके प्रभाव की दृष्टि से वर्ष 1976 और 1982 के महत्त्व की विवेचना कीजिए।
4) सही के लिए ‘हाँ‘ और गलत के लिए ‘नहीं‘ लिखिए।
क) नब्बे के दशक में हड़तालों में वृद्धि हो रही थी।
ख) अस्सी के दशक के आरम्भ से तालाबंदी में वृद्धि हो रही है।
ग) यदि वर्ष 1975 और 1976 को छोड़ दिया जाए तो 1961 से 1999 तक कुल विवादों की संख्या घंटा-आकृति का वक्र बनाती है।
घ) हड़तालों में नष्ट श्रम-दिवसों की संख्या द्वारा हड़तालों की संख्या को विभाजित करके प्रति हड़ताल नष्ट श्रम दिवस निकाला जाता है।
ड.) तालाबंदियों में नष्ट श्रम-दिवसों की संख्या विभाजित करके तालाबंदी में प्रति श्रमिक नष्ट श्रम-दिवस निकाला जाता है।
बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) अंतिम उपभाग 34.4 में पहला पैराग्राफ पढ़िए जिसमें विवाद प्रवृत्ति का सार संक्षेप प्रस्तुत किया गया है।
2) अस्सी के दशक के आरम्भ तक हड़ताल और तालाबंदी में ही समान रुझान रहा। उसके बाद हड़तालों में कमी आने लगी और तालाबंदी बढ़ने लगी। विवरण के लिए उपभाग 32.2 पढ़िए ।
3) वर्ष 1976 में आपातकाल के कारण विवादों की संख्या और विवादों में नष्ट श्रम दिवसों दोनों में अचानक कमी हुई। इसके विपरीत, 1982 में विवादों में असामान्य रूप से अधिक और अधिकतम नष्ट श्रम-दिवस देखा गया। इसका कारण बॉम्बे टेक्सटाइल हड़ताल थी।
4) (क) गलत (ख) सही (ग) सही (घ) गलत (ड.) सही