राज्य सूचना आयोग क्या है , कार्य , शक्ति , गठन संगठन संरचना (State Information Commission in hindi)

(State Information Commission in hindi) राज्य सूचना आयोग क्या है , कार्य , शक्ति , गठन संगठन संरचना ?
राज्य सूचना आयोग (State Information Commission)
राज्यों में सूचना के अधिकार के कार्यान्वयन के लिए राज्य सूचना आयोग को लाया गया है। आयोग में राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्त (दस से अधिक नहीं) होते हैं। राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा एक समिति की सिफारिश पर की जाएगी। समिति में निम्नलिखित सदस्य शामिल होंगे-
ऽ मुख्यमंत्री, जो समिति का अध्यक्ष होगाय
ऽ विधानसभा में विपक्ष का नेताय और
ऽ मुख्यमंत्री द्वारा नामनिर्दिष्ट मंत्रिमंडल का एक मंत्री।
राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त विधि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, समाज सेवा, प्रबंधन, पत्रकारिता, जन माध्यम या प्रशासन तथा शासन का व्यापक ज्ञान और अनुभव रखने वाले जनजीवन में प्रख्यात व्यक्ति होंगे। राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त, संसद का सदस्य या किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के विधानमंडल का सदस्य नहीं होगा या कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा या किसी राजनैतिक दल से सम्बद्ध नहीं होगा अथवा कोई कारोबार या वृत्ति नहीं करेगा।
राज्य सूचना आयोग का मुख्यालय राज्य में ऐसे स्थान पर होगा जो राज्य सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे और राज्य सूचना आयोग राज्य सरकार के पूर्व अनुमोदन से भारत में अन्य स्थानों पर अपना कार्यालय स्थापित कर सकेगा।

पदावधि और सेवा शर्ते (Terms of ffoice and Condition or Service)
राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त पाँच वर्ष की अवधि या पैंसठ वर्ष की आयु तक (जो भी पहले हो) पद धारण करेगा और पुनर्नियुक्ति के लिए पात्र नहीं होगा। राज्य सूचना आयुक्त, राज्य मुख्य सूचना आयुक्त के रूप में नियुक्ति के लिए पात्र होगा लेकिन उसकी पदावधि राज्य सूचना आयुक्त और राज्य मुख्य सूचना आयुक्त के रूप में कुल मिलाकर पाँच वर्ष से अधिक नहीं होगी। राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त राज्यपाल या उनके द्वारा प्राधिकृत किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष शपथ लेते हैं। राज्य मुख्य सूचना आयुक्त, और राज्य सूचना आयुक्त किसी भी समय राज्यपाल को संबोधित कर अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकते हैं। राज्य मुख्य सूचना आयुक्त के वेतन भत्ते एवं सेवा-शर्ते वही होंगी जो भारत के निर्वाचन आयुक्त के हैं। राज्य सूचना आयुक्त के वेतन भत्ते एवं सेवा-शर्ते वही होंगे जो राज्य के मुख्य संचिव के हैं। राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त के वेतन भत्तों और सेवा शर्तो में उनकी नियुक्ति के पश्चात् अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा।

राज्य मुख्य सूचना आयुक्त या राज्य सूचना आयुक्त को हटाया जाना
(Removal of State Chief Information Cominissioner of State Information Commissioner)
राज्यपाल द्वारा उच्चतम न्यायालय की रिपोर्ट के आधार पर साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त को पद से हटाया जा सकता है। इसके अलावा निम्नांकित परिस्थितियों में भी इन्हें राज्यपाल द्वारा पद से हटाया जा सकता है-
ऽ दिवालिया होने पर
ऽ अपराध के लिए दोषसिद्ध होने पर
ऽ पदावधि के दौरान कहीं और वैतनिक नियोजन में लगे होने परय
ऽ मानसिक एवं शारीरिक रूप से अक्षम होने पर और
ऽ सरकार द्वारा या उसकी ओर से की गयी किसी संविदा या करार से सम्बद्ध होने पर।

आयोग की शक्तियाँ और कार्य (Powers And Functions of Commission)
केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग का यह कर्त्तव्य होगा की वह किसी व्यक्ति से निम्नांकित शिकायत प्राप्त करे और उसकी जाँच करे-
ऽ जिसे इस अधिनियम के अधीन अनुरोध की गयी कोई जानकारी तक पहुँच के लिए इनकार कर दिया गया है।
ऽ जिससे ऐसी फीस की रकम का संदाय करने की अपेक्षा की गयी है, जो अनुचित है।
ऽ जो यह विश्वास करता है की उसे अधिनियम के अधीन अपूर्ण, भ्रम में डालने वाली या मिथ्या सूचना दी गयी हैय और
ऽ इस अधिनियम के अधीन अभिलेखों के लिए अनुरोध करने या उन तक पहुँच प्राप्त करने से संबंधित किसी अन्य विषय के संबंध में।

केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग को किसी मामले में जाँच करते समय वही शक्तियाँ प्राप्त होंगी, जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1907 के अधीन किसी वाद का विचरण करते समय सिविल न्यायालय में निहित होती हैं, जैसे-
ऽ समन जारी करना और शपथ पर मौखिक या लिखित साक्ष्य देने के लिए और दस्तावेज पेश करने के लिए उनको विवश करना।
ऽ दस्तावेजों के प्रकटीकरण और निरीक्षण की अपेक्षा करना।
ऽ शपथ पत्र पर साक्ष्य का अभिग्रहण करना।
ऽ किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतियाँ लेना।
ऽ साक्षियों या दस्तावेजों की परीक्षा के लिए समन जारी करना और कोई अन्य विषय जो विहित किया जाए।

सूचना उपलब्ध कराने के लिए जवाबदेह
ऽ समुचित सरकार।
ऽ लोक प्राधिकारी।
ऽ सक्षम प्राधिकारी।

‘‘समुचित सरकार‘‘
किसी लोक प्राधिकरण के संबंध में समुचित सरकार से तात्पर्य है-
ऽ केन्द्रीय सरकार या संघ राज्यक्षेत्र द्वारा स्थापित गठित, उसके स्वामित्वाधीन नियंत्रणाधीन या उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षरूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा पूर्णतया वित्तपोषित संगठन।
ऽ राज्य सरकार द्वारा स्थापित गठित उसके स्वामित्वाधीन नियंत्रणाधीन या उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा पूर्णतया वित्तपोषित संगठन।

लोक प्राधिकारी (Public Authority)
लोक प्राधिकारी से तात्पर्य ऐसे प्राधिकारी या निकाय या स्वायत्त सरकारी संस्था से है, जो –
ऽ संविधान द्वारा या उसके अधीन, संसद द्वारा बनाई गई किसी अन्य कानून द्वारा, राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई किसी अन्य कानून द्वारा समुचित सरकार द्वारा जारी अधिसूचना या आदेश द्वारा स्थापित या गठित हो।

‘‘सक्षम प्राधिकारी‘‘ (Competent Authority)
सक्षम प्राधिकारी से तात्पर्य है-
ऽ लोकसभा व राज्य विधानसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा या राज्य विधानपरिषद् के सभापति,
ऽ उच्चतम न्यायालय की स्थिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश,
ऽ किसी उच्च न्यायालय की स्थिति में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश,
ऽ संविधान द्वारा या उसके अधीन स्थापित या गठित अन्य प्राधिकरणों की दशा में राष्ट्रपति या राज्यपाल,
ऽ संविधान के अनुच्छेद 239 के अधीन नियुक्त प्रशासक।

अपील (Appeal)
ऽ व्यक्ति को समय सीमा के भीतर सूचना प्राप्त नहीं होने पर वह ऐसे अधिकारी को अपील कर सकेगा, जो प्रत्येक लोक प्राधिकरण में लोक सूचना अधिकारी की पंक्ति से ज्येष्ठ पंक्ति का है।
ऽ दूसरी अपील पहली अपील के विनिश्चय वाली तारीख से नब्बे दिन के भीतर केंद्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग की होगी।

शास्ति (Penalties)
केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग की राय में जब कोई केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य सूचना अधिकारी बिना किसी आवश्यक कारण के आवेदन लेने से इनकार करता है या जानबूझकर गलत, अपूर्ण या भ्रामक सूचना देता हैय या ऐसी सूचना नष्ट कर दी है तो वह ऐसे प्रत्येक दिन के लिए, जब तक आवेदन प्राप्त किया जाता है या सूचना दी जाती है, दो सौ पचास रुपये की शास्ति अधिरोपित की जाएगी और यह कुल रकम पच्चीस हजार रुपये से अधिक नहीं होगी। कुछ मामलों में लागू सेवा नियमों के अधीन अनुशासनिक कार्यवाही की सिफारिश का भी प्रावधान है।

सूचना का अधिकार बनाम राजनीतिक दल (Right to Information Vs Political Party)
आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल ने सूचना के अधिकार के माध्यम से कुछ प्रमुख राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों का ब्यौरा मांगा था। लेकिन राजनीतिक दलों ने स्वयं को इस कानून के दायरे से बाहर बता कर यह जानकारी देने से मना कर दिया। श्री अग्रवाल ने इस मामले को सामाजिक संगठन एडीआर की ओर से केंद्रीय सूचना आयोग के समक्ष पेश किया। आयोग ने 3 जून, 2013 को ऐतिहासिक फैसला देते हुये कहा कि राजनीतिक पार्टियाँ सरकार से रियायती दरों पर देश भर में जमीन, भवन और संचार जैसी तमाम सुविधाएँ वसूल रही हैं, इसलिए राजनीतिक दलों की कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अपने आय और व्यय का ब्यौरा जनता को बताएँ।
केंद्रीय सूचना आयोग ने अपने आदेश में कहा कि सूचना का अधिकार कानून की धारा 2(एच) (i) और (ii) के तहत छह राजनीतिक दल लोक प्राधिकरण (पब्लिक अथॉरिटी) हैं, क्योंकि वे काफी हद तक सरकार द्वारा वित्त पोषित हैं।
राजनीतिक दलों ने आयोग के फैसले के प्रति नाराजगी अभिव्यक्त की। उनका तर्क था कि यह फैसला स्वीकार करने पर सभी दलों को देश भर में अपने सभी पार्टी कार्यालयों पर सूचना अधिकारी तैनात करने होंगे जो कि सीमित संसाधनों वाले दलों के लिए व्यावहारिक तौर पर मुमकिन नहीं होगा और दूसरी दलील यह थी कि इसके लागू होते ही आरटीआई आवेदनों की बाढ़ आ जाएगी जिसे राजनीतिक दलों के लिए संभालना नामुमकिन होगा। राजनीतिक दल न सार्वजनिक संस्थाएँ हैं न सरकारी संस्थाएँ और वे सरकार से फंड भी नहीं लेते। लिहाजा उन्हें आरटीआई के दायरे में नहीं होना चाहिए। ऐसी आशंका भी व्यक्त की जा सकती है कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दुर्भावना के साथ राजनीतिक दलों के केंद्रीय जन सूचना अधिकारियों के पास आरटीआई आवेदन दाखिल करेंगे जिससे उनका राजनीतिक कामकाज बुरी तरह प्रभावित होगा।
केंद्र सरकार ने एक अतिमहत्त्वपूर्ण फैसला करते हुए राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून के दायरे से बाहर रखने का प्रावधान करने वाले एक संशोधन विधेयक प्रस्ताव को ! अगस्त, 2013 को मंजूरी दे दी। 12 अगस्त, 2013 को कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन राज्य मंत्री वी नारायणसामी ने इस संशोधन को लोकसभा में पेश किया था। इस पर व्यापक विचार विमर्श के लिए 5 सितम्बर, 2013 को इसे राज्यसभा सदस्य शांताराम नाइक की अध्यक्षता वाली कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया था। समिति अभी इस पर विचार विमर्श कर रही है।

सूचना के अधिकार अधिनियम में विभिन्न तरह की चुनौतियाँ
(Various Challenges in Right to Information Act)
ऽ सूचना के रख-रखाव का आधुनिकीकरण आवश्यकतानुसार नहीं किया जा सका है।
ऽ सूचना के अधिकार और गोपनीयता के अधिकार में पारस्परिक विरोधाभास है। (दोनों को ही न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों से जोड़ा है।)
ऽ अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद और उभरती असुरक्षा की वजह से सूचना के अधिकार को लागू करने में देरी होती है (जैसे कि ब्रिटेन में यह कानून 2000 में लाया गया किंतु उसे 2005 में लागू किया जा सका)
ऽ कुछ देशों में ऐसे कानून प्रतिबंधात्मक ज्यादा है।
ऽ कहीं-कहीं सूचना में अनावश्यक केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों भी है।
ऽ कुछ निजी क्षेत्रों में भी सूचना के अधिकार को लागू करने की जरूरत है।
ऽ सूचना के अधिकार के कानून के अनुसार सिविल सेवाओं की कार्य संस्कृति एवं आचार संहिताओं में उचित परिवर्तन नहीं लाये जा सकें हैं।
ऽ सूचना के अधिकार के कानून और डंदनंस व िव्ििपबम च्तवबमकनतम के मध्य असंगतियों को प्प् ।त्ब् की पहली रिपोर्ट में रखा गया।
ऽ स्थानीय सरकारों के लिए लाए गये कानूनों में सूचना के अधिकार और नागरिक चार्टर के संबंध में कमियाँ हैं।
ऽ कुछ देशों में शिकायत निवारण के उचित तंत्र को लाये जाने में कमियाँ हैं।
ऽ यद्यपि इलेक्टॉनिक माध्यम से सूचना प्राप्त करने का अधिकार दिया गया लेकिन कम्यूटर (Computer) साक्षरता में कमी का प्रतिकूल असर है।
ऽ नागरिकों में दूसरों की गोपनीयता के अधिकार के आदर की प्रवृत्तियों में कमियाँ हैं।
ऽ एक संघीय व्यवस्था में संघीय स्तर पर लाए गये कानूनों के संदर्भ में राज्यों में लागू करने में संघ-राज्य मतभेद बने रहते हैं।
ऽ शिकायत निवारण व्यवस्था में अभी भी क्षेत्रीय स्तर पर उचित पहुँच में कमियाँ बनी हुई हैं। (प्प्-।त्ब्द्ध ने केन्द्रीय सूचना आयुक्त और बड़े राज्यों में राज्य सूचना आयोगों में ऐसी समस्याओं को रखा)
ऽ अभी भी आवश्यकतानुसार सूचना के अधिकार और जनसम्पर्क में प्रशिक्षण देने में कमियाँ हैं।

12 राज्यों में सूचना के अधिकार की प्रगति का विवरण
(Discription of Progress of Right to Information in 12 states)
12 राज्यों में सूचना के अधिकार अधिनियम की प्रगति की स्थिति का आकलन एशिया में सहभागी शोध (PRIA) के द्वारा किया गया। इन बारह राज्यों में शामिल थे- हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, केरल, गुजरात एवं बिहार। इन राज्यों में राज्य सूचना आयोगों के गठन, इनकी भूमिका, नोडल एजेंसियों की भूमिका, लोक सूचना अधिकारियों की नियुक्ति, इनसे सूचना प्राप्ति के अनुभव, त्ज्प् अधिनियम की धारा प्ट में प्रकट बाध्यत्ताएँ एवं अधिनियम की धारा 26 के तहत लोगों को त्ज्प् के बारे में शिक्षित करने में सरकार की भूमिका इत्यादि का अध्ययन किया गया।
(i) राज्य सूचना आयोग का गठन एवं भूमिका- अध्ययन में पाया गया कि इन 12 राज्यों में से अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर सभी 11 राज्यों में सूचना आयोग अगस्त 2006 तक गठित किये जा चुके थे। परंतु इनमें से कुछ राज्यों जैसे- बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान में राज्य सूचना आयोगों की स्थापना में कुछ महीनों की देरी हुई। इन्हें पर्याप्त अवसंरचनाएँ जैसे कार्यालय, कम्प्यूटर, स्टॉफ व निधियाँ आदि उपलब्ध नहीं कराई गई थीं। उदाहरण के लिये, उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग में कार्यबोझ ज्यादा था और केवल दो सूचना आयुक्त ही नियुक्त किये गये थे। बिहार राज्य सूचना आयुक्त ने हाल ही में शपथ ली थी परंतु कार्यालय का पता वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं था। राजस्थान सूचना आयोग एक कमरे में कार्य कर रहा था। लोक सूचना अधिकारियों द्वारा कर्तव्य की अवहेलना करने पर भी राज्य सूचना आयोग उनको दण्डित करने के अनिच्छुक थे। इस तरह के मामले में दण्डित करने के बहुत कम उदाहरण थे (उत्तराखण्ड, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश में ही कुछ पेनाल्टी के मामले देखे गये थे)। ग्रामीण क्षेत्रीय लोगों ने महसूस किया कि अपील प्रक्रिया काफी महँगी थी (मध्य प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ में अपील के लिये फीस का प्रावधान था)। हालाँकि डाक के माध्यम से अपील करने का प्रावधान था परंतु लोगों को लगता था कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पक्ष को सही ढंग से नहीं रखा जा सकेगा। आवेदन शुल्क हरियाणा में सर्वाधिक था (50 रु) एवं फोटोकॉपी फीस सर्वाधिक हिमाचल प्रदेश में थी (10 रु प्रति पृष्ठ)
(ii) नोडल एजेंसियों की भूमिका- उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, राजस्थान एवं केरल में लोक सूचना अधिकारियों के प्रशिक्षण की प्रक्रिया राज्य की नोडल एजेंसियों के माध्यम से शुरू की गई। सुशासन के लिये केन्द्र, यशादा (पुणे) एवं लोक प्रशासन संस्थान की देखरेख में सर्वेक्षण वाले राज्यों के लोक सूचना अधिकारियों (PIO) के लिये प्रशिक्षण कार्य चल रहा था। सूत्र विभागों (Line Departments) एवं खण्ड विकास अधिकारी और लोक सूचना अधिकारी का प्रशिक्षण संतुष्टिपूर्ण नहीं था। इनमें से कई तो अधिनियम के प्रति जागरूक भी नहीं थे। प्रखण्ड विकास अधिकारियों (BDO’S) और पंचायत सचिवों को प्रशिक्षण नोडल एजेंसीज द्वारा कैसे दिया जायेगा यह स्पष्ट नहीं था। कोई समय सीमा व रोडमैप तैयार नहीं था। उत्तर प्रदेश में ही 52 हजार ग्राम पंचायतों के पंचायत सचिवों को प्रशिक्षण दिया जाना था और बजट केवल दस लाख वार्षिक था। आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, आदि राज्यों की नोडल एजेंसी ने त्ज्प् सीखने की सामग्रियों (टेम्पलेट, पर्चे आदि) के माध्यम से सूचना प्रसारित की। वहीं अन्य राज्यों में इसकी गति काफी धीमी थी। करले में एक्ट मलयालस में था, जिसे पढ़े-लिखे लोगों को समझने में कठिनाई आ रही थी।
(iii) लोक सूचना अधिकारियों की नियुक्ति- कई जगह लोक अथॉरिटी की परिभाषा को लेकर संदेह व्याप्त था। कुछ राज्यों में जैसे केरल में कई लोक अथॉरिटी वर्ग ऑपरेटिव बैंक, सहायता प्राप्त शैक्षिक संस्थाएँ घोषणा कर रही थीं कि वे RAT एक्ट के तहत नहीं आते। इसी तरह हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखण्ड में बाँधों के निजी बिल्डर एवं निजी बैंक भी घोषणा कर रहे थे। केंद्रीय एवं राज्य सूचना आयोंगों को इस मूद्दें को स्पष्ट करना आवश्यक है। हरियाणा एवं पंजाब के उच्च न्यायालयों में (जो कि लोक अथॉरिटी हैं) कोई लोक सूचना अधिकारी नहीं थे। कई जगह ऐसे व्यक्तियों को लोक सूचना अधिकारी नियुक्त किया गया जिनकी सूचना तक आसान पहुँच ही नहीं थी। उत्तराखण्ड में सरंपच को लोक सूचना अधिकारी बना दिया गया था। हिमाचल प्रदेश में प्रखण्ड विकास अधिकारी के ग्राम पंचायत तक को लिये च्प्व् नियुक्त किया गया। PIOs सामान्यतः विभाग के जूनियर अधिकारियों को बनाया गया जिन्हें वरिष्ठ अधिकारियों से सूचना लेने में कठिनाई आती थी। च्प्व् की नियुक्ति की गई किन्तु लोक प्राधिकरणों की आवश्यकता के अनुसार नहीं। अधिकतर लोक प्राधिकरणों में (यहाँ तक कि जिला स्तर पर भी) च्प्व्े के नाम पट्टिकाओं का अभाव पाया गया, जिससे लोगों को यह जानकारी नहीं मिल पा रही थी कि आवेदन कहाँ जमा किये जायें।
(iv) PIOs से सूचना प्राप्ति का अनुभव- राज्य एवं जिला स्तर पर अधिकतर च्प्व्े सहयोगी नहीं थे, कई बार वे आवेदक के आवेदन वापस लेने आ जाते थे। ऐसा उदाहरण हरियाणा में देखने को मिला। ऐसे ही कुछ उदाहरण, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में देखे गये। अधिकतर च्प्व्े यह नहीं जानते थे कि किस अधिकारी के अधीन आवेदन शुल्क निक्षेपित किया जाये। ये अधिकतर अनुपस्थित रहते थे और उनकी अनुपस्थिति में कोई अन्य आवेदन नहीं होता था। शुल्क पोस्टल ऑर्डर के माध्यम से ली जा सकती थी परंतु अधिकतर च्प्व्े ने ऐसी फीस यह कह कर लौटा दी थी कि पोस्टल ऑर्डर के माध्यम से फीस लिए जाने का कोई प्रावधान नहीं है। उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में ही PIOs पक्षतापपूर्ण ढंग से कई लोगों से बिना पैसे लिए उन्हें सूचना दे रहे थे। लोगों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए PIOs को विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये और जानबूझकर दोषपूर्ण कार्य करने वाले च्प्व्े को या सूचना देने से इंकार करने पर सजा दी जानी चाहिये।
(अ) RTI अधिनियम की धारा प्ट में प्रकट बाधाएँ- मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड एवं आंध्र प्रदेश के मंत्रालय एवं निदेशालय स्तर के कार्यालयों ने अपनी क्रियाविधियों की जानकारी अपनी वेबसाइट में दी हुई थी। जबकि हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखण्ड, राजस्थान एवं बिहार के सरकारी विभागों में RTI अधिनियम की धारा IV के क्रियान्वयन के लिए कोई कदम नहीं उठाये थे। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और आंध्र प्रदेश के कृषि विभाग ने RTI एक्ट की धारा IV के बहुत से मुद्दे अपना लिए थे। कार्यालयीन एवं PIOs की सूची मंत्रालयों व निदेशालयों में नहीं थी। साथ ही खर्चों का विवरण केवल वरिष्ठों के हाथों में था, जिला व प्रखण्ड स्तरीय फण्ड का विवरण उपलब्ध नहीं था, दिनांक आदि नहीं डाली जाती थी। यह भी देखा गया कि इन 12 राज्यों में जिला प्रखण्ड एवं पंचायत स्तर पर स्व-प्रकटीकरण प्रारंभ नहीं किया था।
(vi) RTI एक्ट की धारा 26 के तहत लोगों को शिक्षित करने की सरकार की भूमिका- RTI के अभियान एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों का अनुभव दर्शाता है कि लगभग 90ः लोग एक्ट के प्रति जागरूक नहीं हैं, एवं वे आवेदन करने को जागरूक नहीं हैं। शिक्षित लोगों विशेषतः सरकारी सेवकों के लिए त्ज्प् का कम उपयोग प्रतिबंधित है। त्ज्प् का ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोग सभी राज्यों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा काफी कम था। सरकार ने RTI को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया का न ही इस्तेमाल किया और न ही कोई अभियान चलाया। केन्द्रीय एवं राज्य दोनों सरकारों ने RTI अभियान के लिए न ही कोई निधि अखंडित की और न ही नोडल एजेंसियों का कोई सहयोग किया।

सूचना का अधिकारः एक आकलन (Assessment of Right to Information)
लोक कल्याणकारी एवं जवाबदेह शासन का प्रमुख आधार सूचना का अधिकार है। संवेदनशील एवं स्मार्ट शासन को मूर्त रूप देना और जनता का विश्वास अर्जित करना प्रशासकों के सामने एक चुनौती बन चुका है। सूचना का अधिकार एक्ट उस आम आदमी के लिए प्रभावी हथियार है जिनकी नौकरशाही में सीधी कोई जान पहचान या दखल नहीं है। इससे शोषण और मनमाने व्यवहार पर अंकुश लग सकेगा और भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया जा सकेगा। इससे प्रशासन एवं शासन में जनसहभागिता, मूल्यांकन, फीडबैक और सुधार सुझाव जैसे कारकों का समावेश होगा।
इससे प्रशासनिक निर्णयों में तार्किकता और तटस्थता बढती है, लोक प्रशासन को भी जनता की भावनाओं और रुझानों का पता चलता है तथा प्रशासनिक गुणवत्ता और विश्वसनीयता बढ़ती है। संजग संवेदनशील एवं उत्तरदायी प्रशासन का विकास होता है। वैसे भी सूचना, ज्ञान, प्रतिभा जानकारी में स्वयं को बंधन मुक्त करने की नैसर्गिक शक्ति होती है।
सूचना अधिकार के दुष्परिणाम पीत पत्रकारिता (Yellow Journalism) दूसरों पर टालने (Buckmastership) की प्रवृत्ति के रूप में भी आ सकते हैं। भारत में व्याप्त, निरक्षरता, गरीबी, बेरोजगारी आदि से बाधाएँ आ सकती हैं। भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी.बी. सावत के अनुसार ‘‘अगर सूचना का अधिकार के साथ-साथ अन्य संस्थाओं जैसे- जनसंचार माध्यमों गैर सरकारी संगठनों तथा लोकपाल एवं लोकायुक्त को सक्षम नहीं बनाया गया तो यह अधिकार निरर्थक सिद्ध होगी।‘‘
दूरगामी परिणाम आज पूरा विश्व एक गांव की तरह परिलक्षित होता है। कंप्यूटर एवं संचार तकनीक ने समय एवं दूरी के अभाव को समाप्त कर दिया है। फिर राजकीय सूचनाओं के अधिकार से व्यक्ति क्यों वंचित रहे? अधिकांश ग्रामीण सरकार द्वारा उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं एवं योजनाओं कें बारें मे अनभिज्ञ रहते है। इसका प्रमूख कारण अशिक्षा व अधिकारों के प्रति अचेत रहना है। वैसे गाँवों में संचार माध्यमों जैसे रेडियो टी.वी. इन्टरनेट आदि के माध्यम से लोग अपने अधिकारों को जानने की कोशिश कर रहें है। मध्य प्रदेश के धार जिलें में ‘‘ज्ञानदत‘‘ योजना के तहत कई सूचना केंद्र खोले जाते है। यहाँ से कोई भी व्यक्ति कई दस्तावेज प्राप्त कर सकता है और अधिकारियों को शिकायत भेज सकता है। इस परियोजना को स्टाॅकहोम चैलेंज अवार्ड भी प्राप्त हूआ है। अब इस सूचना का विस्तार पूरे प्रदेश में कर दिया गया है।
त्ज्प् द्वारा पंचायत या ब्लॉक के रिकॉर्ड देखे जा सकते है। गांव वाले आवश्यकता पड़ने पर इस विषय पर एक जन सुनवाई का आयोजन भी कर सकते हैं। इस जन सूनवाई में गाँव के सभी लोगों को बुलाया जायेगा व विकास कार्यों संबंधी जो जानकारी त्ज्प् के उपयोग व गाँववासियों की अपनी जाँच से प्राप्त हुई है उसे सबके सामने रखा जायेगा तथा जनसुनवाई में उनको अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए बुलाया जा सकता है।
सूचना के अधिकार को सशक्त बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव
(Important Suggestions For Empowering Right to Information)
ऽ आरटीआई एक्ट की जानकारी आम लोगों तक शीघ्रातिशीघ्र पहुँचाई जाए, ताकि इसका सार्थक उपयोग व्यापक स्तर पर किया जा सके। इसके लिए न केवल सरकारी स्तर पर प्रयास हो बल्कि विभिन्न स्वैच्छिक संस्थाएँ, जनआन्दोलन व जनसंचार माध्यम भी इस विषय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
ऽ आरटीआई एक्ट की मूलभूत बातों के प्रति किसी भी दृष्टिकोण से आम जनता को परिचित कराया जाए, अन्यथा सूचना का अधिकार निश्चय ही विधि ग्रंथों में दबकर रह जाएगा।
ऽ शासकीय विभाग व संस्थाएँ सूचना प्राप्त करने संबंधी सामान्य प्रक्रिया व नियम आदि बिल्कुल सरल भाषा में जन साधारण की जानकारी हेतु प्रदर्शित करें, ताकि भ्रम की कोई स्थिति शेष न रहे।
ऽ शासकीय निकाय अथवा प्रवर्तन तंत्र में केवल वही लोग नियुक्त किये जाएँ जिनकी योग्यता, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, चारित्रिक मूल्य व प्रतिष्ठा जनसाधारण में सुविख्यात हो।
ऽ जनसाधारण को भी अपने सूचना सम्बन्धी अधिकारों के प्रति जागरूक होने की महती आवश्यकता है।
ऽ भविष्य में निजी क्षेत्र को भी कुछ विशिष्ट परिस्थितियों के अधीन सूचना के अधिकार की परिधि में लाये जाने के गंभीर प्रयास होने चाहिए, क्योंकि निजी क्षेत्र भी वास्तव में लोक सहयोग से ही चलता है अतरू इसे किसी भी दशा में गोपनीयता का लाभ देकर जनहित के विरुद्ध कार्य करने की अनुमति दिया जाना न्यायसंगत नहीं होगा।
ऽ इस सबके अतिरिक्त सरकार अपने क्रियाकलापों में स्वतः ही पूर्ण ईमानदारी, पारदर्शिता व उत्तरदायित्व की संस्कृति विकसित करे जिससे की लोगों को अपना सूचना संबंधी अधिकार प्रयुक्त करने की आवश्यकता ही प्रतीत न हो।

सूचना के अधिकार को बेहतर रूप से लागू करने के सुझाव
(Suggestions for Better Implications of Right to Information)
सूचना के अधिकार कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए निम्नलिखित पहलुओं एवं सुझावों को ध्यान में रखे जाने की आवश्यकता है-
ऽ संविधान समीक्षा आयोग और द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की कि लोक पदाधिकारियों को गोपनीयता के स्थान पर पारदर्शिता की शपथ दिलाई जाए।
ऽ वह निजी क्षेत्र जो महत्त्वपूर्ण रूप से राज्य से कार्य लेता है उसमें भी सूचना का अधिकार कानून लागू किया जाए।
ऽ मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद 19 में सूचना के अधिकार के प्रावधान किये जाएँ।
ऽ इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से सूचना लेने की प्रवृत्ति बढे, इसके लिए कम्प्यूटर साक्षरता बढ़ाई जाये।
ऽ सूचना के अधिकार के कानून के अनुरूप सिविल सेवाओं की आचार संहिताओं को बदला जाये।
ऽ सूचना के अधिकार के सन्दर्भ में शिक्षा और जागरूकता को लाने के लिए गैर सरकारी संगठनों की भागीदारी बढ़ाई जाये।
ऽ द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने लोक, सूचना अधिकारियों के अतिरिक्त अन्य कार्मिकों को भी सूचना के अधिकार के सम्बन्ध में प्रशिक्षण देने की सिफारिश की है।
ऽ सुशासन के सन्दर्भ में राज्य सरकार रिपोर्ट में पारदर्शिता एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा हो।
ऽ अधीनस्थ और संलग्न संस्थाओं में भी इसे लागू करने के लिए संबंधित मंत्रालय या विभाग प्रयास करें।
ऽ द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सरकार के अभिलेखों या सूचना रखरखाव के आधुनिकीकरण के लिए विशेष कार्यक्रम की सिफारिश की है।
ऽ द्वितीय प्रशार सुधार औयोग ने एकल खिड़की एजेंसी (Single Window Agency) के प्रयोग एवं स्वतंत्र लोक अभिलेख कार्यालय की सिपारिश की है जिससे पारदर्शिता बढ़ाने के प्रावधान प्रभावी हों सकें।
ऽ द्वितीय प्रशासनिक आयोग ने केन्द्रीय और राज्य समिति (नियुक्ति के लिए सिफारिश के सन्दर्भ में) में एक कैबिनेट मंत्री के स्थान पर क्रमशः उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सम्मिलित करने की सिफारिश की है।
सूचना का अधिकार किसी भी रूप में होने वाले सत्ता के निरंकुश प्रयोग को पूर्णतया निरुत्साहित करता है। यह हमारे देश की लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को सही अर्थों में न्यायपूर्ण, कार्यकुशल, जनता के प्रति संवेदनशील, पारदर्शी व उत्तरदायित्व की भावना से अनुपूरित करने की दिशा में एक गंभीर प्रयास है। जनमानस अब सूचना के अधिकार को एक साधन के रूप में प्रयुक्त करते हुए शासन की प्रत्येक इकाई से जवाबदेही की मांग कर सकता है। इस कानून के द्वारा लोक सेवकों की जवाबदेही सुनिश्चत करके उनकी अकर्मण्यता, अकुशलता, पक्षपातपूर्ण व्यवहार, निरंकुशता, अनुशासनहीनता एवं भ्रष्टाचार की मनोवृत्ति पर एक प्रकार का प्रभावी अंकुश लगा दिया गया है। इसी व्यवस्था का परिणाम है की आज देश का साधारण से साधारण नागरिक भी शासकीय व्यवस्था में व्याप्त त्रुटियों को दूर करने में सक्षम हो गया है।