लोकसभा अध्यक्ष के कार्य क्या है की रचना एवं शक्तियां का वर्णन कीजिए | speaker of lok sabha in hindi

speaker of lok sabha in hindi लोकसभा अध्यक्ष के कार्य क्या है की रचना एवं शक्तियां का वर्णन कीजिए ?

अध्यक्ष तथा अन्य अधिकारी
किसी सदन को यदि व्यवस्थित और कुशल ढंग से कोई कार्य करना हो तो उसके लिए किसी प्राधिकारी का होना आवश्यक है जो उसकी कार्यवाहियों को और कार्यकरण को नियमित करे। संविधान में लोक सभा के लिए अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का और राज्य सभा के लिए सभापति और उपसभापति को इसी उद्देश्य से उपबंध किया गया है । भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है। सदन द्वारा अपने सदस्यों में से एक उपसभापति चुना जाता है। लोक सभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष लोक सभा द्वारा अपने सदस्यों में से चुने जाते हैं । लोक सभा में अध्यक्ष जब उपस्थित न हो तो सदन में उसके कृत्यों का निर्वहन उपाध्यक्ष करता है। इसी तरह, सभापति जब अनुपस्थित हो तो राज्य सभा में उपसभापति पीठासीन अधिकारी के रूप में कार्य करता है। प्रत्येक सदन में सभापति-तालिका भी बनाई जाती है। उस तालिका के सदस्य अपने अपने सदन की उस समय अध्यक्षता करते हैं जब वहां दोनों पीठासीन अधिकारियों में से कोई भी उपस्थित न हो। दो पीठासीन अधिकारियों के बाद, प्रत्येक सदन में महत्वपूर्ण अधिकारी महासचिव होता है जो सदन का गैर-निर्वाचित स्थायी अधिकारी होता है।

अध्यक्ष
अध्यक्ष का पद ब्रिटेन के सवैधानिक इतिहास में विकास के लंबे और गहन संघर्ष के परिणामस्वरूप बना । पुराने दिनों में जब हाउस आफ कामंस विधि का निर्माण करने वाला निकाय न होकर याचिका प्रस्तुत करने वाला निकाय हुआ करता था तो अध्यक्ष का मुख्य कृत्य वाद-विवाद के अंत में दोनों पक्षों के तर्कों का निष्कर्ष निकालना और सदन के विचार ‘‘क्राउन‘‘ के समक्ष प्रस्तुत करना हुआ करता था। इस प्रकार वह सम्राट के समक्ष कामंस का प्रवक्ता या ‘‘स्पीकर‘‘ हुआ करता था। उसके विपरीत आज का अध्यक्ष कभी कभार ही बोलता है और जब कभी बोलता है तो सदन से नहीं बल्कि सदन के लिए बोलता है। वह सदन की कार्यवाही में भाग नहीं लेता; वह केवल सदन की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
सामान्य रूप से, भारत में अध्यक्ष की स्थिति लगभग वैसी ही है जैसी कि हाउस आफ श्कामस के अध्यक्ष की है। उसका पद प्रतिष्ठा, गौरव और प्राधिकार का पद है । वह लोक सभा का प्रमुख है । उसका मुख्य उत्तरदायित्व सदन का कार्य शांत एवं व्यवस्थित ढंग से चलाना है। सदन के भीतर और सदन से संबंध रखने वाले सब मामलों में अंतिम प्राधिकार उसी का है।
स्वतंत्रता और निष्पक्षता अध्यक्ष पद के दो महत्वपूर्ण गुण हैं । यह उद्देश्य कई प्रकार से सुनिश्चित होता है । वरीयता के क्रम में अध्यक्ष को बहुत उच्च स्थान दिया गया है। इस क्रम में उसका स्थान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बाद आता है। उसका स्थान, सिवाय प्रधानमंत्री के, मंत्रिमंडल के अन्य सब मंत्रियों से ऊंचा है। उसके वेतन और भत्ते भारत की संचित निधि पर प्रभारित हैं, अर्थात उनके लिए संसद की स्वीकृति आवश्यक नहीं होती। उसके आचरण पर सिवाय मूल (सबस्टेंटिव) प्रस्ताव के, अन्यथा चर्चा नहीं की जा सकती। वह सदन में, सिवाय उस स्थिति के जब किसी प्रस्ताव पर दोनों पक्षों के समान मत हों अन्यथा मतदान नहीं करता। और जब समान मत होने की ऐसी स्थिति में वह अपना निर्णायक मत देता है तो ऐसा सदा सुस्थापित संसदीय सिद्धांतों और प्रथाओं के अनुसार ही किया जाता है। यह संयोग की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में ऐसा एक भी अवसर नहीं आया जबकि अध्यक्ष को अपने निर्णायक मत का प्रयोग करना पड़ा हो । अध्यक्ष राजनीतिक रूप से तटस्थ होता है। अध्यक्ष चुने जाने पर, वह अपने दल की सब गतिविधियों से अपने को अलग कर लेता है। वह किसी दल का बेशक होकर रहे परंतु दल की किसी राजनीति में उसका दखल नहीं होता। वह किमी दल का पद धारण नहीं करता, किसी दल की बैठकों में या क्रियाकलापों में भाग नहीं लेना और राजनीतिक विवादों से और दल के अभियानों से दूर रहता है।
अध्यक्ष सदन के कार्य का संचालन करता है और उसकी कार्यवाहियों को नियमित करता है । वह संविधान के उपबंधों और ‘‘लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों‘‘ के अनुसार ही इन कृत्यों का निर्वहन करता है। सदन के भीतर संविधान के उपबंधों और प्रक्रिया नियमों की जो व्याख्या वह करे वही अंतिम होती है। सब संसदीय मामलों में उसका फैसला अंतिम फैसला होता है। जिन मामलों के बारे में नियमों में विशेष रूप से उपबंध न किया गया हो, उनके संबंध में निर्देश देने की अवशिष्ट शक्तियां अध्यक्ष को प्राप्त हैं ऐसा करते समय, वह किसी सदस्य से या सरकार से कह सकता है कि ऐसे तथ्य, साक्ष्य एवं सूचना उसे उपलब्ध की जाए जो वह किसी फैसले पर पहुंचने के लिए आवश्यक समझता हो । परंतु सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद जब एक बार वह विनिर्णय दे देता है तो उसे अंतिम ही माना जाना चाहिए। किसी मामले पर पुनर्विचार करने के लिए तो उससे निवेदन किया जा सकता है परंतु उसके फैसले को न तो चुनौती दी जा सकती है और न ही उसकी आलोचना की जा सकती है।
सदन के कार्य का संचालन शांत एवं व्यवस्थित ढंग से सुनिश्चित करने के लिए अध्यक्ष को बहुत शक्तियां प्राप्त हैं। कोई सदस्य सदन में तब तक नहीं बोल सकता जब तक पीठासीन अधिकारी द्वारा उसे बोलने के लिए कहा नहीं जाता या बोलने की अनुमति नहीं दी जाती । इस बात का फैसला अध्यक्ष करता है कि सदस्य किस क्रम से बोलेंगे और किसी सदस्य को कितने समय तक बोलने दिया जाए । वह किसी भी सदस्य को अपना भाषण वहीं समाप्त करने के लिए आदेश दे सकता है और यह आदेश भी दे सकता है कि वह सदस्य ऐसे शब्द या अभिव्यक्ति को वापस ले ले जो अध्यक्ष के विचार में असंसदीय या अभद्र हों। वह यह आदेश भी दे सकता है कि उसकी अनुमति के बिना किसी सदस्य द्वारा कही गई कोई बात कार्यवाही-वृत्तांत में सम्मिलित नहीं की जाएगी और असंसदीय पाई गई किसी बात को कार्यवाही-वृत्तांत से निकाल दिया जाए। जिन शब्दों या भाषण के अंशों के बारे में यह आदेश दिया गया हो कि वे ‘‘रिकार्ड न किए जाएं‘‘ या असंसदीय होने के कारण कार्यवाही-वृत्तांत से निकाल दिए जाएं, उन्हें समाचारपत्रों द्वारा अन्य लोगों द्वारा प्रकाशित नहीं किया जा सकता क्योंकि संसद के सदनों के कार्यवाही-वृत्तांतों को प्रकाशित करने का अधिकार असीमित अधिकार नहीं है।
सदन में अव्यवस्था पैदा करने के कारण अध्यक्ष किसी सदस्य से किसी एक दिन के लिए या दिन के किसी भी भाग के लिए सदन से चले जाने के लिए कह सकता है या भारी अव्यवस्था फैलाने के कारण उचित प्रस्ताव पेश किए जाने पर किसी सदस्य को सदन से निलंबित भी कर सकता है। सब सदस्यों को अनुशासन में रखना अध्यक्ष का ही काम है और उसके साथ उचित सम्मान से पेश आने में और उसके विनिर्णयों एवं फैसलों को मानने में सदस्यों को बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है। जब कभी वह बीच में बोलता है या प्रश्नों का प्रस्ताव करने या प्रश्न मतदान के लिए रखने के उद्देश्य से खड़ा होता है, कुछ टिप्पणियां करता है या अपने विनिर्णय देता है तो शांति से उसे सुनना अनिवार्य है। इस बात का फैसला भी अध्यक्ष करता है कि क्या विशेषाधिकार भंग या सदन की अवमानना से संबंधित किसी विषय में प्रथम दृष्टया मामला बनता है, या किसी सदस्य के आचरण का मामला जांच पड़ताल के लिए किसी समिति को निर्दिष्ट किया जाना चाहिए। यदि वह अपनी सम्मति प्रदान नहीं) करता तो उस मामले पर आगे कार्यवाही नहीं की जाती । सदन में आरोपात्मक, मानहानिकारक या दोषारोपण करने वाले वक्तव्यों से व्यक्तियों के सम्मान की रक्षा भी अध्यक्ष करता है और वह किसी सदस्य को ऐसा वक्तव्य देने से रोक सकता है, यदि ऐसे वक्तव्य के स्वरूप के बारे में या जिस साक्ष्य पर वे आधारित हैं उसकी पूर्व सूचना उसे न दे दी गई हो।
अध्यक्ष को सदन के वातावरण के प्रति संवदेनशील होना पड़ता है। कभी कभी जब सदन में उत्तेजना होती है, कोलाहल होता है या लगातार अंतर्बाधा होती है तब उसे स्थिति को संभालने, तनाव दूर करने और ऐसा वातावरण पैदा करने के लिए जिसमें व्यवस्थित एवं शांत ढंग से वाद-विवाद हो सके, बड़ी होशियारी, सूक्ष्म बुद्धि एवं स्वस्थ हास्यप्रियता से काम लेना पड़ता है। ऐसा गुण स्वाभाविक भी हो सकता है और पैदा भी किया जा सकता है, परंतु एक बुद्धिमान एवं योग्य अध्यक्ष में यह निश्चित रूप से बहुत प्रभावी उपाय होता है।
प्राप्त होने वाली विभिन्न प्रस्तावों की सूचनाओं, प्रश्नों आदि को गृहीत करने या न करने के बारे में विचार करते समय अध्यक्ष अपने मूल कर्तव्य को सदा ध्यान में रखता है कि उसे इस तरह कार्य करना हैं जिससे कि समय समय पर उत्पन्न होने वाले लोक महत्व के विभिन्न मामलों पर सदन विचार कर सके और उनके बारे में फैसला कर सके। जब कभी अध्यक्ष को संदेह हो तो वह आमतौर पर सदन को अपने विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान करता है। वह अपने कर्तव्यों को या अपनी शक्तियों को इस रूप में नहीं लेता कि जैसे वह सदन से अलग हो या सदन के प्राधिकार से उसकी शक्ति अधिक हो, या कि वह सदन के निर्णयों को रद्द कर सकता हो । वह सदन का अंग होता है और सदन के बेहतर कार्यकरण के लिए सदन से ही शक्तियां प्राप्त करता है। अंततोगत्वा वह सदन का सेवक होता है, उसका स्वामी नहीं।
सदन की ओर से संदेश अध्यक्ष के प्राधिकार से भेजे जाते हैं और उसी के प्राधिकार से प्राप्त होते हैं। कोई विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए उसके समक्ष प्रस्तुत किए जाने से पूर्व अध्यक्ष ही अपने हस्ताक्षर द्वारा प्रमाणित करता है कि वह विधेयक सदन द्वारा पास कर दिया गया है। वह कोई विधेयक सदन द्वारा पास कर दिए जाने के पश्चात उसमें स्पष्ट त्रुटियों में शुद्धि कर सकता है और उसमें ऐसे अन्य परिवर्तन कर सकता है जो सदन द्वारा स्वीकृत संशोधनों के परिणामी परिवर्तन हों । सदन को भेजे गए दस्तावेज, याचिकाएं और संदेश वही प्राप्त करता है और सदन के सब आदेश उसी के द्वारा कार्यान्वित किए जाते हैं। वह सदन के फैसलों की सूचना संबद्ध प्राधिकारियों को देता है और उनसे कहता है कि ऐसे फैसलों का पालन किया जाए।
लोक सभा की सब संसदीय समितियां उसके द्वारा या सदन द्वारा गठित की जाती हैं। वे उसी के नियंत्रण में और निदेशाधीन कार्य करती हैं। सब समितियों के सभापति अध्यक्ष द्वारा नियुक्त किए जाते हैं । वह समितियों के कार्यकरण संबंधी मामलों में निर्देश जारी करता है और यह भी निर्देश देता है कि वे क्या प्रक्रिया अपनाएं। सब विवादास्पद मामले अध्यक्ष के मार्गदर्शन के लिए उसके पास भेजे जाते हैं और उसके फैसलों का पालन किया जाता है। कार्य मंत्रणा समिति, सामान्य प्रयोजन समिति और नियम समिति सीधे उसी की अध्यक्षता में कार्य करती हैं।
जहां तक कुछ मामलों में दोनों सदनों के आपसी संबंधों का प्रश्न है, संविधान के अनुसार अध्यक्ष को एक विशेष स्थान दिया गया है। यह वही निर्धारित करता है कि वित्तीय मामले कौन कौन-से हैं जो लोक सभा के संपूर्ण अधिकार क्षेत्र में आते हैं। यदि वह प्रमाणित कर देता है कि अमुक विधेयक “धन विधेयक‘‘ है, तो उसका फैसला अंतिम होता है। किसी विधेयक पर दोनों सदनों में असहमति की स्थिति में जब कभी दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है तो ऐसी संयुक्त बैठक की अध्यक्षता वही करता है और ऐसी बैठक में सब प्रक्रिया नियम उसके निर्देशों और आदेशों से लागू होते हैं।
सदस्यों के लिए ग्रंथालय, आवास, टेलीफोन, वेतन तथा भत्तों की अदायगी, संसद भवन में जलपान और विश्राम-कक्षों, संसदीय पत्रों के मुद्रण और उनकी सप्लाई आदि जैसी विभिन्न प्रकार की सुविधाओं की व्यवस्था करने का उत्तरदायित्वअध्यक्ष का होता है । अध्यक्ष गैलरियों में दर्शकों और प्रेस संवाददाताओं के प्रवेश को नियमित करता है और इस संबंध में सुरक्षा प्रबंधों के लिए उत्तरदायी है। उसके आदेशों के उल्लंघन की स्थिति में, वह सदन के आदेश के अनुसार दर्शकों को आवश्यक दंड दे सकता है। यदि किसी व्यक्ति की, सदन का विशेषाधिकार भंग करने या उसकी अवमानना करने के आरोप में, सदन के समक्ष उपस्थिति अपेक्षित हो तो वह उसे “समन‘‘ जारी कर सकता है। यदि सदन के किसी सदस्य या बाहर के किसी व्यक्ति को कारावास का दंड देने के लिए प्रस्ताव सदन द्वारा स्वीकृत किया जाता है तो उसके विरुद्ध गिरफ्तारी के वारंट भी अध्यक्ष जारी कर सकता है।
संसदीय दलों को मान्यता प्रदान करने के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत अध्यक्ष निर्धारित करता है और लोक सभा में विपक्ष के किसी दल के नेता को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता उसी के द्वारा दी जाती है। किसी सदस्य का त्यागपत्र स्वीकार करने से पूर्व अध्यक्ष का समाधान हो जाना आवश्यक है कि वह त्यागपत्र सही है और स्वेच्छा से दिया गया है। यदि जांच के पश्चात अध्यक्ष का समाधान हो जाता है कि वह त्यागपत्र स्वेच्छा से नहीं दिया गया या सही नहीं है तो वह त्यागपत्र स्वीकार करने से इंकार कर सकता है।
कोई भी सदस्य अध्यक्ष से उसके कक्ष में मिल सकता है। दल बदलने के कारण लोक सभा के किसी सदस्य की अनर्हता संबधी सब प्रश्नों का फैसला करने की पूर्ण शक्ति अध्यक्ष को प्राप्त है । वह सदस्यों के विचार, उनकी शिकायतें और सुझाव सुनता है और आवश्यक कार्यवाही करता है। कोई भी सदस्य या मंत्री पहले समय निश्चित करके, अध्यक्ष के कक्ष में उसे मिल सकता है। उसकी निष्पक्षता, योग्यता, चरित्र या आचरण या अपेक्षा करना विशेषाधिकार भंग करना है। उसके फैसलों की सदन के भीतर या बाहर आलोचना नहीं की जा सकती। उसका उल्लेख सम्मानपूर्वक किया जाना चाहिए और उसे उच्च स्थान दिया जाना चाहिए। सदन की गरिमा की रक्षा और उसको बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।
यदि लोक सभा का कोई सदस्य किसी अपराध में गिरफ्तार किया जाता है, या उसे कारावास का दंड दिया जाता है, या कार्यपालिका के किसी आदेश से नजरबंद किया जाता है तो ऐसे तथ्य की सूचना दंडाधिकारी या कार्यपालिका प्राधिकारी के द्वारा तुरंत अध्यक्ष को दी जानी अनिवार्य है। किसी सदस्य की रिहाई की स्थिति में भी ऐसी सूचना का दिया जाना अनिवार्य है। अध्यक्ष की अनुमति प्राप्त किए बिना सदन के परिसर में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता और न ही उसके विरुद्ध किसी दीवानी या आपराधिक, कानूनी आदेशिका की तामील की जा सकती है।
अध्यक्ष सदन में निधन संबधी उल्लेख करता है, सदन की कार्यावधि समाप्त होने पर विदाई भाषण देता है और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का औपचारिक रूप से उल्लेख भी करता है।
अध्यक्ष भारतीय संसदीय ग्रुप का, जो भारत में अंतर्संसदीय संघ के राष्ट्रीय ग्रुप के रूप में और राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की मुख्य शाखा के रूप में कार्य करता है, पदेन प्रेजिडेंट होता है। वह, राज्य सभा के सभापति के परामर्श से, विदेशों में जाने वाले विभिन्न संसदीय प्रतिनिधिमंडलों के सदस्य मनोनीत करता है । वह प्रायः ऐसे प्रतिनिधिमंडलों का नेतृत्व स्वयं करता है । अध्यक्ष भारत में विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन का सभापति भी होता है।
लोक सभा सचिवालय अध्यक्ष के निदेश और नियंत्रण में कार्य करता है। उसे सचिवालय के कर्मचारियों पर, सदन के परिसर पर और संसद भवन संपदा पर सर्वाेच्च प्राधिकार प्राप्त है। वह अपने इस प्राधिकार का प्रयोग लोक सभा के महासचिव की सहायता से करता है।
अध्यक्ष के इतने महत्वपूर्ण और वृहत उत्तरदायित्वों को देखते हुए, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 8 मार्च, 1958 को अध्यक्ष विठ्ठलभाई पटेल के चित्र का अनावरण करते हुए कहा था:
‘‘अध्यक्ष सदन का प्रतिनिधित्व करता है। वह सदन की गरिमा. सदन की स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है और सदन क्योंकि राष्ट्र की स्वतंत्रता का प्रतीक बन जाता है इसलिए, यही उचित है कि यह पद सम्मान का पद हो, स्वतंत्र हो और यह सदा ऐसे व्यक्तियों से सुशोभित हो जो असाधारण योग्यता रखते हों और असाधारण रूप से निष्पक्ष हों।‘‘
वर्ष 1921 से पहले, भारत के गवर्नर-जनरल विधान परिषद की बैठकों की अध्यक्षता किया करते थे। भारत में अध्यक्ष की संस्था का उद्भव 1921 में तब हुआ जब मांटेगु-चेम्सफोर्ड सुधारों के अधीन केंद्रीय विधान सभा पहली बार गठित हुई । गवर्नर-जनरल द्वारा सर फ्रेडरिक व्हाईट को 3 फरवरी, 1921 को चार वर्षों की अवधि के लिए सभा का प्रथम अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
श्री विठ्ठलभाई पटेल प्रथम गैर-सरकारी व्यक्ति थे जो 24 अगस्त, 1925 को सभा के अध्यक्ष चुने गए। 20 जनवरी, 1927 को वह पुनः निर्वाचित हुए और अपने पद पर 28 अप्रैल, 1930 तक बने रहे, जिस तिथि को उन्होंने अपने पद का त्याग कर दिया। श्री पटेल को केंद्रीय विधानमंडल का प्रथम भारतीय और प्रथम निर्वाचित अध्यक्ष होने का श्रेय प्राप्त था। श्री गणेश वासुदेव मावलंकर को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात प्रथम आम चुनावों के परिणामस्वरूप गठित प्रथम संसद के प्रथम अध्यक्ष के रूप में चुना गया। परंतु वह संविधान सभा (विधायी) में इसी पद पर आसीन रह चुके थे और संविधान के प्रारंभ होने पर अस्थायी संसद के अध्यक्ष बने रहे थे।
जो प्रतिष्ठित व्यक्ति अध्यक्ष पद पर, या प्रेजीडेंट पद पर, जिस पदनाम से वे 1947 तक जाने जाते थे, रह चुके हैं, उनके नाम और पदावधियां इस प्रकार हैं:

स्वतंत्रता-पूर्व की अवधि
सर फ्रेडरिक व्हाईट 3 फरवरी, 1921 -अगस्त, 1925
विट्ठलभाई जे. पटेल 24 अगस्त, 1925-28 अप्रैल, 1930
मोहम्मद याकूब 9 जुलाई, 1930-31 जुलाई, 1930
इब्राहीम रहीमतुल्ला 17 जनवरी, 1931-7 मार्च, 1933
सर शनमुखम चेट्टी 14 मार्च, 1933-31 दिसंबर, 1934
अब्दुल रहीम 24 जनवरी, 1935-1 अक्तूबर, 1945
गणेश वासुदेव मावलंकर 24 जनवरी, 1946-14 अगस्त, 1947

स्वतंत्रता-पश्चात की अवधि
गणेश वासुदेव मावलंकर 17 नवंबर,1947-25 जनवरी, 1950
ख्संविधान सभा (विधायी),
26 जनवरी, 1950-17 अप्रैल, 1952 (अस्थाई संसद)
17 अप्रैल, 1952-15 मई, 1952
अनन्तशयनम अय्यंगर 15 मई, 1952-27 फरवरी, 1956
हुकम सिंह 17 अप्रैल, 1962-16 मार्च, 1967
डा. नीलम संजीव रेड्डी 17 मार्च, 1967-19 जुलाई, 1969
डा. गुरदयाल सिंह ढिल्लन 9 अगस्त, 1969-1 दिसंबर, 1975
बलिराम भगत 5 जनवरी, 1976-25 मार्च, 1977
डा. नीलम संजीव रेड्डी 5 जनवरी, 1976-25 मार्च, 1977
के. एस. हेगड़े 21 जुलाई, 1977-21 जनवरी, 1980
डा. बलराम जाखड़ 22 जनवरी, 1980-18 दिसंबर, 1989
रविराय 19 दिसंबर, 1989-9 जुलाई, 1991
शिवराज पाटिल 10 जुलाई, 1991