सामाजिक मूल्य का अर्थ बताइए , सामाजिक मूल्यों को परिभाषित कीजिए क्या है social values in hindi

social values in hindi सामाजिक मूल्य का अर्थ बताइए , सामाजिक मूल्यों को परिभाषित कीजिए क्या है ?

सामाजिक मूल्य
भारत ने भी सभ्यता की महायात्रा में शामिल होकर एक लम्बा माग्र तय किया है। इसकी निरंतरता ने जिस ऐतिहासिकता से इसे अलंकृत किया है, वह भारतीय सभ्यता को बहुत ऊंचा स्थान प्रदान करती है। यही वजह है कि भारत की प्रागैतिहासिक सभ्यता से प्रारंभ कर वर्तमान सभ्यता को काल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। वास्तव में जब हम भारत के सांस्कृतिक इतिहास की ओर देखते हैं तो पाते हैं कि विभिन्न मतभेदों के बावजूद भारतवासियों के विचारों, भावनाओं और रहन-सहन के तरीकों में एक बुनियादी एकता है, जो राजनीतिक नक्षत्रों के बदलने से घटती-बढ़ती तो है, किंतु कभी समाप्त नहीं होती। अनेक बार भीतरी और बाहरी अलगाववादी शक्तियों ने इस एकता को नष्ट करने का भय व भ्रम उत्पन्न किया, किंतु एक रहने की भावना ने विरोधी प्रवृत्तियों और आंदोलनों को एक समन्वयात्मक संस्कृति में लपेट लिया।
भारत के परंपराग्त समाज पर दृष्टिपात करें तो इसका एक बुनियादी पहलू सामने आता है और वह है पदानुक्रम व्यवस्था। इस पदानुक्रम को सबसे मुखर वाणी देती है इसकी ‘वर्ण’ व्यवस्था। समाज का हर कार्य इसी क्रम को ध्यान में रखकर निष्पादित होता था। यह वर्ण व्यवस्था गुण धर्म के आधार पर प्रारंभ हुई थी तब इसमें वर्तमान कठोरता विद्यमान न थी। किसी एक वर्ण के लोग किसी दूसरे वर्ण में शामिल हो सकते थे। महाभारत में हमें एक ऐसे व्याध का नाम मिला है जो ‘धर्म व्याध’ कहलाता था और जिससे अनेक धर्म-परायण ब्राह्मणों ने गुरु-दीक्षा ली थी। वैश्य तुलाधार भी ब्राह्मणों के आध्यात्मिक गुरु थे। इससे पता चलता है कि जाति व्यवस्था का भेदभाव प्राचीन भारत में नहीं था और ऋग्वेद के काल में तो था ही नहीं।
कालक्रम में यह भेदभाव बढ़ता गया और वर्ण व्यवस्था ने जीवन के हर क्षेत्र में असमानता को संस्थागत बना दिया। पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर किसी समूह विशेष में जन्म होने की बात प्रचलित हुई। इसी के आधार पर व्यक्ति का सामाजिक स्तर और सामाजिक संसाधनों में उसका हिस्सा तय होने लगा। यह ‘कर्म’ और ‘पुगर्जन्म’ की धारणा को स्वीकृति थी।
समयानुसार साधारण वैदिक संस्कृति अपने विकास की उच्च अवस्था में पहुंची और विभिन्न परिवर्तनों की साक्षी बनी। आधारभूत परिवर्तन यह था कि एक ओर आर्यों के मस्तिष्क ने एकता के विचार को दार्शनिक गहराई दी तो दूसरी तरफ प्राचीन भारतीय परंपराओं को धर्म का अभिन्न अंग बना लिया। इस तरह एक नया सामान्य धर्म विकसित हुआ, जिसे हम वैदिक हिंदू धर्म कह सकते हैं। यह हिंदू धर्म काफी व्यापक था और इसकी विशेषता इसका सहिष्णु होना थी। कई समूह इसमें समाए। बहुलवाद ने स्वयं को बना, रखते हुए अन्यों से सहिष्णुता बना, रखने को प्राथमिकता दी। हिंदुओं का विश्वास था कि सभी माग्र एक ही सत्य की ओर जाते हैं। सदियों तक शासकों एवं शासितों ने अलग-अलग माग्र अपनाकर उत्तरजीविता बना, रखी, किंतु अलग मतों व कर्मकाण्डों की विद्यमानता के बावजूद धर्मों का आपसी सामंजस्य भारत में बना रहा।
जाति प्रथा के संस्थागत होने से बहुलवादी परंपरा बनी रही। प्रत्येक जाति अपने पेशे, रिवाजों, कर्मकाण्डों, परंपराओं का अनुसरण करती रही। किंतु विशेष बात यह थी कि स्वतंत्र होकर भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आपसी निर्भरता बनी रही। इस मायने में बहुलवाद ने समानांतर के साथ-साथ ऊध्र्वाधर भूमिका भी निभाई। हालांकि ऐसा भी न माना जाए कि यह अस्तित्व शांतिपूर्ण या समानता पर आधारित था। किसी न किसी समूह का वर्चस्व बना रहा। श्रेष्ठ-हेय का संबंध बिना किसी प्रत्यक्ष विरोध के जारी रहा। ऐसी स्थिति में संसाधनों का असमान वितरण सुनिश्चित हुआ।
तथापि समुदाय के हितों को सर्वदा प्राथमिकता दी गई और उसी क्षेत्र में कर्तव्यों व अधिकारों को मूर्त रूप दिया गया। संयुक्त परिवार का प्रचलन था। इसमें बहुत लोग होते थे वृद्ध, विधवाएं व विकलांग इत्यादि। हर व्यक्ति अपनी क्षमता व दक्षता के अनुसार सहयोग करता था और अपनी आवश्यकता के अनुसार ही सम्पत्ति का हिस्सा उपयोग में लाता था। अनाथों व आश्रितों को साधन-सम्पन्न अपना उत्तरदायित्व मानते थे, जो सामुदायिक सम्पदा के न्यासी बनते थे न कि व्यक्तिगत लाभ के अधिकारी। समुदाय के हित में आत्मसंयम या आत्मनिग्रह का पालन करना पड़ता था।
सामाजिक विधानों की यह व्यवस्था कोई नियम न थी। इसके अपवाद भी उपस्थित थे। जाति को लेकर विवाद भी थे। यदि सहिष्णुता के संतुलनकारी तत्व विद्यमान थे तो धर्मांधता की विघटनकारी शक्तियां भी चलायमान थीं।
साथ ही साथ मनुष्य समाज में रहे या इसे छोड़ दे, आध्यात्मिक पक्ष कभी भी अनुपस्थित न रहा। सामाजिक क्रियाकलापों में धर्म का प्रमुख स्थान था। धर्म की ही आधारशिला पर भारतीय जीवन की विशाल इमारत बड़ी मजबूती से सदियों खड़ी रही। धर्म ने ही नैतिकता के उच्च मानक बना,, व्यवहार के नियम बना, और अलौकिक मूल्यों को भौतिक साधनों के आधिपत्य से श्रेष्ठ बताया। यही भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रतिबिम्ब बना।