धार्मिक त्योहार का महत्व भारतीय त्योहारों का महत्व त्योहार हमें आपस में जोड़ते हैं कैसे (Meaning of Social Significance)

(Meaning of Social Significance of Festival in hindi) धार्मिक त्योहार का महत्व भारतीय त्योहारों का महत्व त्योहार हमें आपस में जोड़ते हैं कैसे ? 

इकाई का विषय क्षेत्र (Scope of the Unit)
इस इकाई में अब तक जो कहा जा चुका है, उसे ध्यान में रखते हुए आप को दो प्रश्नों पर विचार करना है। धार्मिक पर्व क्या है ? इसके सामाजिक महत्व से हमारा क्या आशय है और हम इसकी समाजशास्त्रीय व्याख्या किस तरह कर सकते हैं ?

धार्मिक पर्व क्या है ? (What is a Religious Festival ?)
पर्व का अर्थ होता है आनंदपूर्ण उत्सव, भोज। इसका अर्थ सार्वजनिक उत्सव या आमोद-प्रमोद भी होता है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी किसी नियत दिन या ऋतु में आनंदपूर्वक सामाजिक उत्सव करना या आमोद-प्रमोद पर्व के अनिवार्य तत्व हैं। आमतौर पर, इस प्रकार के उत्सव में भोज भी शामिल होता है।

जब दैवीय तत्व से जुड़े होने के कारण किसी पर्व में मोक्ष प्राप्ति के माध्यम के रूप में प्रार्थना और साधना के अनुष्ठान और उत्सव भी जुड़ते हैं तो वह धार्मिक हो जाता है। भारत में, पर्व या त्योहार अधिकतर धर्म और जादू के अटूट क्रम की परिधि में पड़ते हैं। उनमें से कुछ की प्रकृति तो धार्मिक होती है और कुछ की जादू की। अधिकतर पर्र्वोें में धर्म और जा दू दोनों का मिलाजुला पुट होता है।

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भारतीय स्थितियों में पवित्र और अपवित्र में प्रार्थना और साधना में या संक्षेप में कहें तो धर्म और जादू में बहुत थोड़ा अन्तर है, और अधिकतर में तो यह अंतर पता ही नहीं चलता है। अभ्यास के लिए, आप होली, दिवाली या क्षेत्र, गाँव या शहर के किसी अन्य लोकप्रिय पर्व को ले सकते हैं। फिर हम यह निष्कर्ष निकालने का प्रयास करेंगे कि उस पर्व के अनुष्ठान और संस्कार पूरी तौर पर धार्मिक तत्वों या जादू से जुड़े हैं या उनका विस्तार धर्म से जादू तक है और वे धार्मिक-जादुई या जादुई-धार्मिक हैं।

दैवीय तत्व से जुड़े होने के कारण धार्मिक पर्व को पवित्र माना जाता है। यह एक ऐसी परंपरा है जिसने संस्कार और तत्वों का आनुष्ठानिक नैत्यीकरण कर दिया है। जो संस्कार और उत्सव अत्यधिक नैत्यिक और परिष्कृत होते हैं उन्हें पुरोहित या जादू टोना करने वाले संपादित कर सकते है। लेकिन अन्य संस्कारों और उत्सवों को समूह के स्तर पर अनौपचारिक रूप से संपादित किया जा सकता है। दीपावली मनाते समय परिवार के स्तर पर देवी लक्ष्मी की पूजा उतनी अधिक नैत्यीकृत और औपचारिक नहीं होती जितनी की महाशिवरात्रि पर्व के उत्सव के समय किसी प्रतिष्ठित मंदिर में शिव की पूजा होती है।

कार्यकलाप 1
‘‘दीपावली एक धार्मिक पर्व है‘‘ विषय के पक्ष या विपक्ष में अधिकतम दो सौ शब्दों में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए। हो सके तो अपनी टिप्पणी का मिलान अपने अध्ययन केन्द्र में ई.एस.ओ.-15 के अन्य छात्रों से कीजिए।

सामाजिक महत्व का अर्थ (Meaning of Social Significance)
धार्मिक पर्व अपनी प्रकृति के चलते सामाजिक संबंधों के सुरक्षित तंत्र में अपना स्थान बना लेता है। सामाजिक संबंधों के तंत्र के स्वरूप की यह रचना समाज के स्तर पर और/अथवा समूहों के स्तरों पर हो सकती है। अर्थात जैसा कि हमारे समाज में है, ऐसा परिवार, जाति, शहर, क्षेत्र और विभिन्न प्रकार के धार्मिक समूहों के स्तरों पर हो सकता है।

समाजशास्त्री/मानवविज्ञानी जिसे ‘‘धार्मिक अनुभव‘‘ कहते हैं, धार्मिक पर्व उसी की एक सामाजिक अभिव्यक्ति है। इमाइल दुर्खाइम के अनुसार ज्ञान की सीमाओं के परे जो चीजें हैं तमाम किस्म के उनके बारे में उठने वाले सवाल उस मानवीय सामाजिक अनुभव का आधार होते हैं जिसे धर्म कहते हैं। इस विषय में विवेचन के लिए हम निम्न उदाहरण लेंगे।

प) मुहर्रम मनाने में शिया और सुन्नी मुसलमानों में सामाजिक संबंधों, अभिवृत्तियों और धार्मिक विचारधारा के अलग-अलग तंत्र देखने को मिलते हैं। मुसलमानों के लिए मुहर्रम सामूहिक अस्मिता की अभिव्यक्ति का उपाय भी है और अंतर सामूहिक विभेदन और संघर्ष का मुद्दा भी।
पप) होली के उत्सव में शहरी और देहाती स्तरों पर सामाजिक संबंधों और धार्मिक
औपचारिक रूप से संगठित समूहों में मनाई जाती है। उर्वरता, फसल की प्रचुरता और अंतर्जातीय संबंधों की अंतर्धाराओं का शहर में लोप हो गया है। इसके साथ ही, शहर में प्रकृति की वह मनोहर छटा नहीं होती जो ग्रामीणों में इस सुपरिचित मस्ती का कारण होती है।
पपप) बंगालियों में बसंत पंचमी का पर्व अन्यों की तुलना में कहीं अधिक उत्साह से मनाया जाता है। वही पर्व भक्ति संप्रदाय के शिवनारायणी पंथ के अनुयायियों के लिए एक बिल्कुल ही अलग किस्म का महत्व धारण कर लेता है। इस अवसर पर, वे लोग रात में मुरू की गद्दी का आयोजन करते हैं। इसकी अगुआई स्थानीय महंत करता है। यहाँ पर लोग पंथ के संस्थापक शिवनारायण के लिए भजन गाते हैं। उन भजनों का अर्थ आम लोगों को समझाया जाता है। इसी समय इस पंथ में शामिल हुए नए लोगों को गुरू के बलाए मार्ग में दीक्षित किया जाता है। इस अवसर पर गुरू एक प्रकार से सरस्वती का ही रूप होता है जिस की पूजा के साथ बसंत पंचमी जुड़ी होती है।

उपर्युक्त उदाहरण की रोशनी में अब हम यह सवाल उठाते हैं कि धार्मिक पर्व के सामाजिक महत्व का क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए। क्या हम स्वयं को इसकी सार्थकता तक सीमित रखें? निश्चित रूप से हम ऐसा ही करेंगे। लेकिन यह हमारे या आपके द्वारा समझी गई सार्थकता नहीं होगी। ऐसा करना मनमानापन, वैयक्तिक और अत्यधिक असमाजशास्त्रीय होगा।

सामाजिक होने के लिए, ‘‘महत्व‘‘ को हमें इस अर्थ में समझना होगा कि उस पर्व को मानने वाले उसकी क्या सार्थकता समझते हैं। इसके महत्व को हमें सामाजिक संबंधों के उस सुरक्षित तंत्र के संदर्भ में समझना होगा जिसमें उक्त पर्व स्थान बनाता है। इसी सार्थकता और महत्व दोनों को व्यक्ति के समाज और संस्कृति और उस स्तर पर उनके संबंध और सरंचना के संदर्भ में समझना होगा जो हमारे मस्तिष्क में है। उदाहरण के लिए, शिवनारायणियों में बसंत पंचमी के महत्व को शिवनारायणी पंथ उसकी सामाजिक सरंचना और विश्वदर्शन के संदर्भ में समझना होगा। समाजशास्त्र के विद्यार्थी के नाते अब तक आप समारोह की धारणा से परिचित हो चुके होंगे जिसमें सार्थकता और महत्व दोनों शामिल हैं। संक्षेप में कहा जाए तो, समाजशास्त्र में समारोह को एक सांस्कृतिक विशेषता, एक संस्था, एक सुरक्षित सामाजिक गतिविधि और उस सुरक्षित सामाजिक तंत्र के संचालन से संबंधित भूमिका या भूमिकापुंज के परिणामों के रूप में लिया जाता है जिससे उसका संबंध होता है या जिसका वह अंग होता है। ये परिणाम सकारात्मक या नकारात्मक या आंशिक रूप से सकारात्मक और आंशिक रूप से नकारात्मक हो सकते हैं। सामूहिक एकात्मकता और अस्मिता की दृष्टि से, मुसलमानों के लिए मुहर्रम आंशिक रूप से सकारात्मक और आंशिक रूप से नकारात्मक है।

अगले अनुभाग में हम कुछ विशेष धार्मिक पर्र्वोें के विषय में बताने जा रहे हैं जिससे आपके लिए धार्मिक पर्व के सामाजिक महत्व को रेखांकित करना आसान होगा।