सामाजिक मनोविज्ञान का परिचय क्या है | social psychology in hindi सामाजिक प्रभाव (Social Influence)

सामाजिक प्रभाव किसे कहते हैं (Social Influence) सामाजिक मनोविज्ञान का परिचय क्या है | social psychology in hindi 
सामाजिक मनोविज्ञान (Social Psychology)
इतिहास गवाह है कि सभ्यता के शुरुआत से ही मानव किसी-न-किसी कारण से युद्ध, नस्लवाद, नरसंहार, धार्मिक असहिष्णुता एवं धार्मिक उन्माद, आतंकवाद, जैसे कार्यों में संलिप्त रहा है। अब प्रश्न यह उठता है मानव जाति आखिरकार इस तरह का व्यवहार क्यों करती रही है या फिर अभी भी यह क्यों जारी है? इसका क्या कारण हो सकता है? मानव जाति में इस तरह की मनोवृत्ति उत्पन्न होने के पीछे कौन-सी प्रेरक शक्ति हो सकती है? सामाजिक मुद्दे हो या फिर राजनीतिक क्षेत्र, मनुष्य इस तरह का असामान्य व्यवहार क्यों करता है? इन व्यावहारिक समस्या का प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सभी या अधिकांश व्यक्तियों पर पड़ता है। अतः ऐसी समस्याओं का समाधान जरूरी है और यही वह बिन्दु है जहां सामाजिक मनोविज्ञान का अध्ययन जरूरी हो जाता है, ताकि मानव-व्यवहार एवं मनोवृत्ति के इन पहलुओं की व्याख्या प्रामाणिक तरीके से की जा सके जिससे ऐसी समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त हो। वर्तमान में अधिकांश सामाजिक मनोवैज्ञानिकों का भी यह मानना है कि बहुत सारी सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं को अच्छी तरह समझने के लिए उनमें निहित संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को पहले समझना अनिवार्य है।

जहां तक समाज मनोविज्ञान का प्रश्न है तो यह इस बात को समझने तथा व्याख्या करने का एक प्रयास है कि व्यक्ति के विचार, भाव तथा व्यवहार दूसरों की वास्तविक, कल्पित या लक्षित उपस्थिति से किस रूप में प्रभावित होते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो समाज मनोविज्ञान सामाजिक उत्तेजना परिस्थिति के संदर्भ में व्यक्ति के अनुभव तथा व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन है। समाज मनोवैज्ञानिक यहां इस बात पर बल देते हैं कि समाज मनोविज्ञान की विषय वस्तु तथा व्यक्ति का व्यवहार है, जो सामाजिक परिस्थितियों में होता है। अर्थात् इसमें व्यक्ति तथा सामाजिक परिस्थिति दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी खास परिस्थिति में एक खास तरीके से व्यवहार करता है जो उसकी व्यक्तिगत मनोवृत्ति का परिचायक होता है। साथ ही, एक ही परिस्थिति भिन्न-भिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न तरीके से व्यवहार करने के लिए भी प्रेरित कर सकती है। अतः समाज मनोविज्ञान का मौलिक संबंध व्यक्ति से है, समूह से नहीं, व्यक्तिगत-व्यवहार (Individual Behaviour) से है, समूह-व्यवहार से नहीं। लेकिन, व्यक्तिगत व्यवहार पर समूह सम्बद्धता का प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण एक व्यक्ति का व्यवहार अकेले में तथा समूह में समान नहीं हो पाता। समूह प्रभाव के कारण व्यक्तियों के व्यवहार भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। समाज मनोविज्ञान इसलिए एक व्यवहारपरक विज्ञान कहलाता है जो सभी व्यावहारिक समस्याओं की खोज करता है तथा उनके समाधान के उपायों का सुझाव भी देता है।

सामाजिक प्रभाव (Social Influence)
व्यक्ति के व्यवहार पर समाज के प्रभाव का गहन अध्ययन समाज मनोविज्ञान की एक महत्वपूर्ण विषय वस्तु है। इस संदर्भ में समाज मनोविज्ञान यह जानने का प्रयास करता है कि व्यक्ति जिस समूह का सदस्य है, उस समूह का उस व्यक्ति की सोच, व्यवहार, प्रतिमान तथा अनुभवों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
वस्तुतः व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह अपने समूह से अपनी सुरक्षा तथा अपने निर्वाह आदि आवश्यकताओं की पूर्ति की मांग करे। इसके साथ-साथ उसका यह कर्तव्य है कि वह अपने समूह के व्यवहार प्रतिमानों, विश्वासों तथा मानदंडों के अनुकूल व्यवहार करे। ऐसे में समाज मनोविज्ञान की विषय वस्तु इस बात पर भी केन्द्रित है कि वे कौन से बाह्य कारक हैं जो एक व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। पुनः ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य-व्यवहार स्वयं व्यक्ति का अपना निजी एवं स्वाभाविक व्यवहार है या उसका यह व्यवहार उस पूरे समूह का प्रतिनिधित्व करता है जिसका वह सदस्य है। इस संबंध में कई विद्वानों ने इस बात पर मंथन किया है कि एक व्यक्ति सामाजिक प्रभावों के प्रति किस प्रकार अनुक्रिया करता है? प्रोफेसर हरबर्ट केलमेन जो कि समाज मनोविज्ञान के एक प्रतिष्ठित विद्वान हैं, के अनुसार, एक व्यक्ति सामाजिक या समूह प्रभाव के अन्तर्गत तीन प्रकार से अनुक्रिया करता है- पालन (Compliance), आन्तरीकरण (Internalçation) तथा आत्मीकरण (Identification)।
पालन (Compliance) सामाजिक प्रभाव का एक प्रकार है जिसके अंतर्गत एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से अनुरोध करता है। पालन शब्द से यह प्रतीत होता है कि दोनों व्यक्तियों में एक प्रकार की सहमति है परन्तु यह भी हो सकता है कि पालन करने वाला व्यक्ति अनुरोध करने वाले व्यक्ति की बातों से पूर्ण रूप से सहमत ही हो। उदाहरण के लिए, दो लोगों के बीच बातचीत के क्रम में अगर एक व्यक्ति नस्लभेदी टिप्पणी करता है और दूसरा व्यक्ति आहत महसूस करने के बाद भी मौन रहता है तो इससे यह प्रतीत हो सकता है कि दूसरा व्यक्ति टिप्पणी करने वाले व्यक्ति से सहमत है अर्थात यह ‘पालन‘ जैसा ही प्रतीत हो सकता है जबकि ऐसा भी हो सकता है पहला व्यक्ति सिर्फ दिखाने के लिए सहमति बनाए रखने हेतु मौन हो।
जहां तक आत्मीकरण (Identification) का प्रश्न है तो यह भी व्यक्ति पर सामाजिक प्रभाव का एक रूप है। आत्मीकरण का अर्थ यह है कि हम जिस व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं या फिर उसे काफी नजदीक से जानते हैं, हम उसके विचार तथा व्यवहार का अनुकरण करने लगते हैं, जिस कारण हमारे विचार तथा व्यवहार प्रभावित होते हैं। केलमेन ने इसे ही ‘आत्मीकरण‘ कहा है। अगर एक व्यक्ति किसी फैशन विशेषज्ञ या सुपरमॉडल के पहनावे की नकल करता है तो इसका अर्थ यह है कि उसके विचार व व्यवहार उस सुपरमॉडल से प्रभावित है और वह उस मॉडल का अनुकरण कर रहा है। दूसरी तरफ, आन्तरीकरण (Internalisation) के अंतर्गत वह दूसरों के विश्वासों व मान्यताओं को अपना लेता है। उदाहरण के लिए, आपस में बातचीत कर रहे दो व्यक्तियों में अगर दोनों ही नस्लभेदी टिप्पणी कर रहे हों तो इसका अर्थ यह हुआ कि दोनों व्यक्ति एक ही प्रकार की सोच वाले हैं तथा उनकी मान्यताएं व विश्वास एक ही है अर्थात् आन्तरीकरण (Internalisation) में दो व्यक्तियों में पूर्ण सहमति होती है जबकि पालन (ब्वउचसपंदबम) में आपसी सहमति तथा एक जैसे विश्वासों का अभाव होता है।
व्यक्ति पर पड़ने वाले समूह प्रभावों को कुछ अन्य संदर्भो में भी समझा जा सकता है। एक औसत व्यक्ति का व्यवहार कुछ अन्य सामाजिक कारकों पर भी निर्भर करता है। इन कारकों के अन्तर्गत व्यक्ति का परिवार, पारिवारिक मान्यताएं व विश्वास तथा परिवार की संरचना मुख्य रूप से भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा व्यक्तित्व का विकास, उसकी उम्र तथा व्यक्ति के अपने मित्रगण आदि के व्यवहार का भी प्रभाव एक व्यक्ति के व्यवहार को काफी हद तक प्रभावित करता है।

सामाजिक प्रभाव के स्वरूप व प्रकार (Types of Social Influence)

जैसा कि पहले भी बताया गया है, यहां समाजिक प्रभाव से अभिप्राय है मानव व्यवहार पर सामाजिक समूह का प्रभाव तथा व्यक्ति का इन प्रभावों के प्रति अनुक्रिया। बुशमैन ने व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभावों को मुख्य रूप से दो वर्गों में बांटा हैः
ऽ नियामक/आदर्शी प्रभाव (Normative Influence)
ऽ सूचनात्मक प्रभाव (Informational Influence)

नियामक/आदर्शी प्रभाव (Normative Influence)
नियामक प्रभाव एक प्रकार का सामाजिक दबाव है जो समाज के प्रत्येक सदस्य के व्यवहार को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है। किसी समूह का प्रत्येक सदस्य यह जानता है कि यदि वह अपने समूह के प्रतिमान (Norm) के अनुकूल व्यवहार नहीं करेगा तो उसे सामूहिक तिरस्कार मिल सकता है, उसे भौतिक अथवा मौलिक दण्ड भी दिया जा सकता है। यही चिन्ता या भय उसे समह प्रतिमान अर्थात् समूह के मूल्यों, विश्वासों के अनुकूल व्यवहार करने पर बाध्य करती है। ऐसा करने पर उस समूह के सदस्य के रूप में उसके स्वीकृत होने तथा एक मान्यता प्राप्त की उसकी संभावना बढ़ जाती है। स्पष्ट है कि नियामक प्रभाव उन परिस्थितियों है जो व्यक्ति को अनुपालन के लिए बाध्य करती है।
ऐश का क्लासिक अध्ययन (1955) (Asch’s Classic Study): सोलोमन ऐश ने अपने प्रयोग द्वारा यह दर्शाने का प्रयास किया कि क्या व्यक्ति अपने समूह के दूसरे लोगों के प्रभाव में अनुरूपता का व्यवहार करता है अथवा समूह दबाव के कारण व्यक्ति के निर्णय में अनुरूपता आती है या वह अपने निर्णय पर स्थिर रहता है। इस प्रयोग में उसने एक प्रयोगात्मक समूह तैयार किया तथा इसमें शामिल सदस्यों के सामने सरल रेखाओं की एक श्रृंखला प्रत्यक्षीकरण हेतु प्रस्तुत की। इन रेखाओं में एक रेखा मानक रेखा (Standard line) तथा अन्य  A , B तथा C भिन्न लंबाई की रेखाएं थी। समूह के सदस्यों को इन तीन रेखाओं  A, B तथा C में कौन मानक रेखा के बराबर है, यह निर्णय था। प्रयोगात्मक समूह के सदस्यों में से बहुमत ने गलत निर्णय दिया, परन्तु अधिकांश लोगों ने इस गलत निर्णय को ही सही मानकर उनके अनुरूप अपना उत्तर दिया। इससे समूह दबाव के कारण व्यक्ति के निर्णय में अनुरूपता की धारणा प्रमाणित हुई।

सूचनात्मक प्रभाव (Informational Influence)
व्यवित दो प्रकार से सूचना प्राप्त करता है- एक तो अपने व्यक्तिगत अनुभव से और दूसरा, अपने समूह के दूसरे सदस्यों से। दूसरों के माध्यम से प्राप्त सूचना को सामाजिक सूचना कहते हैं। यहां व्यक्ति दूसरों पर भरोसा या विश्वास रखता है और अपने व्यवहार एवं विचार का मूल्यांकन करते समय वह सामाजिक सूचना के अनुकूल दबाव महसूस करता है, क्योंकि उसे लगता है कि समूह उसकी अपेक्षा ज्यादा समझ रखता है। खासकर ऐसा तब होता है जब कोई विकट परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जहां व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसे ही सूचनात्मक दबाव कहते हैं जो अनुपालन का कारण बनता है। सूचनात्मक प्रभाव खासकर दो परिस्थितियों में किसी व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती है-
परिस्थिति की अस्पष्टता/संदिग्धता (Ambiguous Situation)ः यह वह परिस्थिति है जिसमें व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि क्या किया जाए।
संकट की स्थिति में (Crisis Situation)ः यह वह स्थिति है जब व्यक्ति के पास इतना भी समय नहीं होता कि वह यह सोच सके कि क्या करे।
इन्हीं परिस्थितियों में व्यक्ति समूह के व्यवहार का अनुपालन करता है क्योंकि वह यह सोचता है कि जो समूह का निर्णय है, वही सही है क्योंकि उनकी समझ बेहतर है और वे जान रहे हैं कि वे क्या करने जा रहे हैं?

सामाजिक प्रभाव के सिद्धान्त (Principles of Social lnfluence)
सामाजिक प्रभावों के अन्तर्गत समाज मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार पर समाज या समूह के प्रभावों तथा इसके प्रति व्यक्ति की अनुक्रिया का अध्ययन करते हैं। सामाजिक प्रभावों का संबंध व्यक्ति की मौलिक प्रवृत्तियों से होता है। सामाजिक प्रभावों के द्वारा व्यक्ति की मौलिक प्रवृत्तियों को ही किसी खास उद्देश्य के लिए या फिर अनजाने में प्रभावित किया जाता है। अर्थात् कभी-कभी व्यक्ति के व्यवहार में अनजाने में बदलाव आ जाता है या फिर व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए फिल्म, विज्ञापनों आदि द्वारा व्यक्ति को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है। ऐसे में व्यक्ति अगर सचेत नहीं है तथा व्यवहार को प्रभावित करने वाले इन सामाजिक एजेन्ट के कार्य-कलापों को नहीं समझ पाता है तो फिर व्यक्ति का व्यवहार प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हम सब यह महसूस भी कर रहे हैं। भाषण, समाचार-पत्र, रेडियो, सिनेमा, दूरदर्शन आदि प्रचार माध्यमों द्वारा व्यवहार-परिवर्तन का कार्य आम हो चुका है। अतः अगर इन सब सामाजिक कारकों के प्रभावों से खुद को बचाना हो तो यह इनकी कार्य-प्रणाली तथा उस संदर्भ को समझना जरूरी है जिसके कारण व्यक्ति आसानी से इनका शिकार हो जाता है।
सामाजिक प्रभावों की भूमिका को समझने के लिए इनसे जुड़े सिद्धान्तों को जानना आवश्यक है। जो मुख्य रूप से छह (6) हैंः
पारस्परिकता (त्मबपचतवबपजल): पारस्परिकता व्यक्ति की मौलिक प्रवृत्तियों तथा सामाजिक मांगों के बीच पारस्परिक प्रतिक्रिया और लेन-देन होता है। इसके अन्तर्गत द्विगामी प्रक्रिया (जूव.ूंल चतवबमेे) चलती है जिसमें एक और व्यक्ति समाज से प्रभावित होता है और दूसरी ओर समाज उस व्यक्ति से प्रभावित होता है। हम सब स्वयं इसकी सिद्धान्त की परीक्षा कर सकते हैं, जैसे अगर आप मुस्कुरा कर लोगों से मिलते हैं तो देखिए कि कितने लोग मुस्करते हुए आपकी मुस्कराहट का जवाब देते हैं?
निरन्तरता (ब्वदेपेजमदबल): निरन्तरता का सिद्धान्त इस बात पर आधारित है कि ज्यादातर लोगों का व्यवहार उनके द्वारा पूर्व में किए गए कार्य-व्यवहार से साम्य रखता है। वे वहीं प्रक्रिया, प्रणाली या परम्परा का निर्वाह करते हैं जिसे वे पूर्व में भी अपनाते रहे हैं। किसी वस्तु, व्यक्ति या कार्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते हुए एक व्यक्ति वही करता है या फिर वही सोचता है जो पहले भी उसकी सोच रही है।
सामाजिक प्रमाण (Social Proof) : इस सिद्धान्त के अन्तर्गत इस तथ्य पर बल दिया गया है कि लोग अधिकांश वहीं कार्य करते हैं अथवा वही निर्णय लेते हैं जो समाज अथवा उनके समूह द्वारा अपनाया जाता है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति ज्यादातर उदाहरणों में समाज का ही अनुपालन करता है और खासकर यह तब अवश्य होता है जब परिस्थिति विकट या फिर अस्पष्ट हो और व्यक्ति यह न समझ पाए कि उसे अमूक परिस्थिति में क्या करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति जो दुविधा में होते हैं, आसानी से समूह के निर्णय से प्रभावित हो जाते हैं।
रुचि (Liking): रुचि अथवा पसंद से संबंधित सिद्धान्त इस तथ्य पर बल देता है कि एक व्यक्ति अपनी रुचि व पसंद की वस्तु से आसानीपूर्वक और जल्द ही प्रभावित होता है। किसी व्यक्ति विशेष के प्रति हमारी रुचि के कई कारण हो सकते हैं, जैसे शारीरिक आकर्षण, वैचारिक समता, आपसी संबंध अथवा व्यक्ति विशेष का प्रशंसित व्यक्तित्व आदि।
प्राधिकार (Authority): प्राधिकार से अभिप्राय यहां प्रभावशीलता है। परिवार में होने पर व्यक्ति अपने माता-पिता के प्राधिकार के अन्तर्गत रहता है खासकर वयस्क होने से पहले और किसी कार्य या संस्था से जुडे़ होने पर अपने बॉस के अधीन। ऐसे में व्यक्ति पर इन प्राधिकारों के प्रभाव को कतई नकारा नहीं जा सकता। इस प्रभाव को हम कई रूपों में पहचान सकते हैं, जैसे-पहनावे में, उपनाम के इस्तेमाल में या फिर भौतिक वस्तुओं के इस्तेमाल में भी।
अभाव (Scarcity): अभाव-सिद्धान्त के अन्तर्गत ऐसा माना जाता है कि हम उन वस्तुओं तथा अवसरों के लिए ज्यादा उद्धत होते हैं या उसे पाने की कोशिश करते हैं जिन तक हमारी पहुंच आसान नहीं होती अर्थात् जिनका हमारे पास अभाव होता है। हम उन सुविधाओं के प्रति बहुत जल्द आकर्षित हो जाते हैं जिनका मिलना मुश्किल होता है। पुनः अभाव-सिद्धान्त को हम इस संदर्भ में भी समझ सकते हैं कि हम वैसे कार्य करने को ज्यादा उत्सुक होते हैं जिनके लिए हमें रोका जाता है अथवा किसी खास नियंत्रण में रहता है। आजकल बाजार में ‘अंतिम प्रति‘ अथवा ‘छूट के लिए अंतिम सप्ताह‘ जैसे लुभावने विज्ञापन हमें बहुत जल्द आकर्षित करते हैं। वस्तुतः ऐसे शब्दों का आम लोगों पर तत्क्षण प्रभाव पड़ता है।