एकल संक्रमणीय मत पद्धति क्या होती है का सूत्र प्रणाली किसे कहते है ?
एकल संक्रमणीय मत पद्धति
आनुपातिक प्रतिनिधित्व की इस पद्धति को (1) हेयर प्रणाली भी कहते हैं क्योंकि इसका सुझाव टॉमस हेयर ने दिया थाय तथा (2) पसंद या रुचि के अनुसार मतदान की प्रणाली भी कहा जाता है क्योंकि इस पद्धति में मतपत्र (Ballot paper) पर प्रत्येक मतदाता अपनी पसंद के उम्मीदवारों के नामों के सामने 1, 2, 3 इत्यादि लिखकर अपनी रुचि अभिव्यक्ति करते हैं, चाहे प्रत्येक मतदाता का एक ही मत होता है। यह पद्धति केवल अनेक सदस्यों वाले निर्वाचन क्षेत्रों में ही लागू की जाती है। इसका अर्थ हुआ कि एक निर्वाचन क्षेत्र से दो या अधिक सदस्य चुने जाने होते हैं। परन्तु प्रत्येक मतदाता का एक ही मत (वोट) होता है, जिसे सम्बद्ध मतदाता की पसंद के उम्मीदवारों को हस्तांतरित किया जा सकता है। इसीलिए इसको एकल संक्रमणीय मत पद्धति कहते हैं। मतदान के पश्चात्, कुल डाले गए मतों को, स्थानों (सीटों) की कुल संख्या ़1 से विभाजित करके भजनफल में 1 जोड़ा जाता है। यह जो संख्या प्राप्त होती है वह ही नियतांश (Quota) कहलाता है। किसी भी उम्मीदवार को जीतने के लिए इस कोटे के बराबर मत प्राप्त करने होते हैं। जो मत इस कोटे से अधिक (surplus) होते हैं उन्हें मतदाताओं की पसंद के अनुसार हस्तांतरित कर दिया जाता है। इसी प्रकार, जिन्हें सबसे कम मत प्राप्त हुए हों उनको एक-एक करके नीचे (कम मतों) से ऊपर के क्रम से हटा दिया (eliminate) जाता है, तथा उनके द्वारा प्राप्त सभी मतों को ! मतदाताओं की पसंद के दूसरे ध्तीसरे उम्मीदवारों को हस्तांतरित कर दिया जाता है। इस प्रकार जहाँ तक सम्भव हो मतदाताओं की पसंद के अनुपात में उम्मीदवार विजयी होते हैं। अतः कोई भी मत बेकार नहीं जाता। इस पद्धति को भारत की राज्य सभा के चुनाव में प्रयोग किया जाता है, क्योंकि प्रत्येक राज्य की विधान सभा एक बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र होती है और इस पद्धति से राज्य सभा के सदस्यों को चुना जाता है। इसी पद्धति से भारत में राज्यों की विधान परिषदों, ऑस्ट्रेलिया की सीनेट तथा माल्टा और आयरलैण्ड के संसदीय चुनाव होते हैं।
चुनावी प्रक्रिया तथा राजनीतिक दल
चुनावी प्रक्रिया सम्बन्धी चर्चा में दो प्रमुख प्रकरण सामने आते हैं। प्रथम का सम्बन्ध चुनावी प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व की आनुपातिकता, और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व प्राप्त करने की सम्भावना के साथ है। दूसरे का सम्बन्ध दलों पर चुनावी प्रक्रिया के प्रभाव से है। जिसके परिणामस्वरूप फलस्वरूप लोकतान्त्रिक सरकार के प्रभावी होने को सुनिश्चित किया जा सकता है।
किसी एक ही पद के लिए होने वाले चुनाव स्वभावतः साधारण बहुमत पर आधारित तथा गैरआनुपातिक होते हैं। परन्तु, द्वितीय मतदान प्रणाली उन दलों को विजय के अवसर प्रदान करती है जिनका प्रदर्शन मतदान के प्रथम दौर में अच्छा रहा हो। मतदान के दो दौरों के बीच सौदेबाजी हो सकती है, तथा उन्हें उन चुनावों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। बहुलवादी व्यवस्था में बड़े दलों को प्रोत्साहन मिलता है। ऐसी व्यवस्था में दो दलीय प्रणाली के विकास में सहायता मिलती है। दो-दलीय व्यवस्था में भी विधायिका में छोटे दलों को कुछ स्थान प्राप्त करने की सम्भावना अवश्य रहती है। उदाहरण के लिए इंगलैण्ड के कॉमन सदन में सामान्यतः बड़े-छोटे दस दल तो होते हैं किन्तु प्रभुत्व केवल दो ही दलों का रहता है जिनमें से एक सत्तारूढ़ होता है तथा दूसरा मुख्य विपक्षी दल होता है।
बहुलवादी (बहुमत आधारित) साधारण बहुमत प्रणाली में जिस एक दल को संसद में आधी सीटें मिलती हैं, हो सकता है उसे प्राप्त राष्ट्रव्यापी मतों का योग आधे से कहीं कम हो। भारत, इंगलैण्ड, न्यूजीलैण्ड इत्यादि देशों में अनेक बार ऐसा हुआ है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली वाले देशों में प्रायः बहुदलीय व्यवस्था पाई. जाती है, परन्तु उनमें किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत कभी नहीं मिलता। इसी कारण संसदीय प्रणाली वाली सरकारें या तो अल्प-मतों के आधार पर चुनी हुई सरकारें होती हैं जिन्हें ज्यादा सीटें मिल जाती हैं, या फिर वे मिली-जुली (बवंसपजपवद) सरकारें होती हैं। सामान्य तर्क यह है कि दो दलीय व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ होती है, क्योंकि इसमें किसी एक दल को निश्चित रूप से बहुमत मिलता है, और सरकारों को स्थायित्व प्राप्त होता है। इसके विपरीत साझी (मिली-जुली) सरकारें अस्थिर होती हैं, उन्हें बार-बार दलीय सिद्धान्तों से समझौते करने पड़ते हैं, तथा निर्णय करना प्रायः कठिन हो जाता है।
जब हम द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् के पश्चिम के विभिन्न संसदीय लोकतन्त्रों की पारस्परिक तुलना करते हैं तब पाते हैं कि दो-दलीय प्रणालियाँ, किसी भी प्रकार से, बहुदलीय प्रणालियों से श्रेष्ठ सिद्ध नहीं हुई। यह बात अर्थव्यवस्था के प्रबंध (आर्थिक विकास करने, मुद्राव स्फीति और बेरोजगारी पर नियंत्रण) और कानून-व्यवस्था बनाए रखने, दोनों के संदर्भ में सही है। दो दलीय प्रणाली के आलोचकों का तर्क हैं कि जर्मनी जैसे बहुदलीय लोकतन्त्र निरंतरता, मजबूती और कार्यकुशलता में इंगलैण्ड की दो-दलीय प्रणाली की तुलना में अधिक सक्षम रहे हैं। उनका मत है कि एक शक्तिशाली (ेजतवदह) हाथ की अपेक्षा एक परिश्रमी/संतुलित/गंभीर/एकसमान अथवा मजबूत (ेजमंकल) हाथ कहीं बेहतर है और मध्यमार्गी मिली-जुली सरकारें, सार्वजनिक नीति को दो दलीय वैकल्पिक सरकारों की अपेक्षा अधिक निरंतरता प्रदान करती हैं। इसी प्रकार, धार्मिक और भाषायी विविधता वाले समाजों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व और मिली-जुली सरकारें, संकीर्ण एक दल की (दो दलीय में) सरकारों की अपेक्षा ऐसी नीतियाँ अपनाने में अधिक सफल होती हैं जो सामान्य रूप से अधिक मान्य होती हैं।
दो दलीय सरकारों का महत्वपूर्ण गुण है कि उनमें उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जा सकता है। मतदाता जानते हैं कि पिछली नीतियों के लिए कौन-सी पार्टी उत्तरदायी थी। जब वे नीतियाँ सफल पाई जाती हैं तो मतदाता उसी पार्टी को पुनः सत्तारूढ़ कर देते हैं। परन्तु यदि ये नीतियाँ उन्हें स्वीकार्य नहीं होतीं, तो मतदाता दूसरे दल को जनादेश देकर सत्तारूढ़ कर देते हैं। परन्त, उत्तरदायित्व का यह अर्थ नहीं है कि यह सरकार जन-हित के प्रति अधिक जागरूक होती है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि एक दल की सरकारों की अपेक्षा अनेक दलों की मिली जुली सरकारें जनहित के प्रति कम सजग तथा उत्तरदायी होती हैं। दूसरी ओर, मिली-जुली सरकारें प्रायः राजनीतिक परिवेश के केन्द्र में पाई जाती हैं। इस प्रकार उनकी वैचारिक स्थिति वामपंथी या फिर दक्षिणपंथी विचारधारा के शिकंजे में जकड़ी एक दल की सरकार की वैचारिक स्थिति के स्थान पर औसत मतदाता के अधिक निकट होती है। परन्तु, जिस प्रकार आनुपातिक प्रतिनिधित्व के समर्थक इस पद्धति के पक्ष में सब कुछ दाँव पर लगा देते हैं, उसी प्रकार दो-दलीय प्रणाली में विश्वास करने वाले इसे कुशलता के शिखर पर बैठा देते हैं।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के समर्थक और आलोचक दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि साधारण बहुमत प्रणाली की अपेक्षा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर आधारित चुनावों में अधिक उचित अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। इसका परिणाम होता है अल्पसंख्यकों का बेहतर प्रतिनिधित्व। इसमें छोटे दल ही नहीं, धार्मिक, भाषायी और जातीय अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होना भी शामिल है। यही नहीं, आनुपातिक प्रतिनिधित्व से महिलाओं को भी अन्य पद्धतियों की अपेक्षा अधिक औचित्यपूर्ण प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सकता है।