जैन एवं बौद्ध धर्म में समानताएं एवं असमानताएं क्या हैं ? what are the similarities and dissimilarities between jainism and buddhism

what are the similarities and dissimilarities between jainism and buddhism in hindi

प्रश्न: जैन एवं बौद्ध धर्म में समानताएं एवं असमानताएं क्या हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: बौद्ध एवं जैन धर्म में समानताएं :.
1. हिन्दू कर्मकाण्ड, यज्ञवाद, बहुदेववाद, जातिवाद एवं परम्परागत वर्ण व्यवस्था का विरोध दोनों धर्मों ने समान रूप से किया।
2. हिन्दू धर्म का ईश्वर सृष्टि रचयिता नहीं है।
3. निवृत्ति मार्ग का अनुसरण किया।
4. भिक्षु एवं गृहस्थ दोनों स्वीकार।
5. भिक्षुओं के लिए संघ व्यवस्था एवं चार प्रकार के सदस्य
6. कर्म प्रधान एवं पुनर्जन्म में विश्वास।
7. मनुष्य का परम उद्देश्य निर्वाण प्राप्ति।
8. दोनों में त्रिरत्न।
9. आदि प्रचारक या संस्थापक का पूजन।
10. अहिंसा परमोधर्म।
11. प्रारंभ में शरीर व मूर्तिपूजा का विरोध बाद में दोनों ने अपना लिया।
12. मानवतावाद की विशद व्याख्या।
13. साधारण जनता का महत्व।
14. दोनों ने सदाचार, नैतिकता व पवित्रता पर जोर दिया।
15. दोनों ने वेदों को अप्रमाणिक एवं अनिश्वरवाद को माना।
16. कर्मकाण्डों व कुरीतियों का विरोध किया।
17. वर्ण को कर्म के आधार पर स्वीकार किया। क्षत्रिय को प्रथम स्थान दिया तत्पश्चात् ब्राह्मण, वैश्य एवं शद्र को रखा।
18. दोनों ने लोकभाषा में उपदेश दिये। महावीर ने श्प्राकृतश् में तथा बुद्ध ने श्पालिश् में उपदेश दिए
बौद्ध एवं जैन धर्म में असमानताएं
1. जैन धर्म बौद्ध से अधिक प्राचीन है।
2. जैन धर्म आत्मवादी एवं बौद्ध धर्म अनात्मवादी है।
3. जैन धर्म ज्ञान प्राप्ति के लिए कंठोर मार्ग अपनाता है जबकि बौद्ध धर्म मध्यममार्ग अपनाता है।
4. ईश्वर के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण पर जैन धर्म ने स्पष्ट इंकार किया लेकिन बौद्ध धर्म मौन।
5. जैन धर्म में व्यवहार में जाति भेद जबकि बौद्ध धर्म में पूर्णतया विरोध।
6. जैन धर्म के ग्रंथ आगम (प्राकृत) एवं बौद्ध धर्म के ग्रंथ त्रिपिटक (पालि) हैं।
7. जैन दर्शन का केन्द्र बिन्दु आत्मा एवं बौद्ध दर्शन का केन्द्र बिन्दु सर्व दुःख व्याप्त। जैन धर्म के अनुसार कारण बुरे विचार एवं कार्य तथा बौद्ध धर्म के अनुसार अज्ञान एवं तृष्णा है।
8. जैन तीर्थकरों की उपासना जबकि बौद्ध बुद्ध एवं बोधिसत्वों की उपासना की बात करता है।
9. जैन धर्म हिंदू धर्म के अधिक निकट लेकिन बौद्ध धर्म नहीं।।
10. जैन धर्म अहिंसा पर अधिक बल देता हैं, बौद्ध धर्म इतना नहीं।
11. जैन धर्म देहमुक्ति को निर्वाण मानता है, बौद्ध धर्म तृष्णा विच्छेद को।
12. बौद्ध धर्म में बुद्ध की अस्थियों की पूजा की जाती है, जैन धर्म में तीर्थंकरों की नहीं।
13. दोनों ने निर्वाण प्राप्ति के लिए भिन्न मार्ग बताया। जैन धर्म त्रिरत्न के अनुसरण पर जोर देता है जबकि बौद्व धर्म अष्टांगिक मार्ग के अनुसरण पर जोर देता है।
प्रश्न: भारतीय संस्कृति को जैन धर्म की दर्शन, साहित्य एवं कला के क्षेत्र में देन का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तररू (1) दार्शनिक क्षेत्र में देन
ज्ञान सिद्धान्त, स्यादवाद, सत्य, अहिंसा आदि के विचारों को पनपाकर भारतीय चिंतन को अधिक तटस्थ और भी बनाने में जैन धर्म का महान योगदान रहा है। ज्ञान सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जीव की आत्मा ज्ञान पर्ण बै सांसारिकता का पर्दा ज्ञान प्रकाश को प्रकट नहीं होने देता है। अतः इस पर्दे को हटाकर ज्ञान को समझना चाहिए। ऐसा करने से वह निर्ग्रन्थ हो जाता है। अनेकान्त दर्शन की देन बड़ी महत्वपूर्ण है। महावीर ने कहा किसी बात या सिद्धान्त एक तरफ से मत देखो। एक ही तरह से उस पर विचार मत करो तुम जो कहते हो वह सत्य होगा। किंतु दसरा जो कहता है वह भी सत्य हो सकता है। इसलिए सुनते ही भड़को मत। वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो। महावीर ने सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाकर भारतीय जीवन को नयी चेतना दी। जिसे महात्मा बुद्ध, अशोक, अनेक संतों तथा गांधी जी ने आगे बढ़ाया। जो इनकी महानता का कारण बना। अहिंसा आज भारत की आंतरिक एवं बाहरी नीतियों का अंश बन गयी है जो मूलतः जैन दर्शन की ही देन है।
(2) साहित्य के क्षेत्र में देन
भाषा और साहित्य के क्षेत्र में जैन धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय को प्रोत्साहन दिया। जैनाचार्यों ने संस्कृत को ही नहीं अपितु अन्य प्रचलित लोक भाषाओं को अपनाकर उन्हें समुन्नत किया। इसी उदार प्रकृति के कारण मध्ययुगीन विभिन्न जनपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित रह सके। संस्कृत और प्राकृत भाषा, साहित्य को जैन लेखकों ने बहुत समृद्ध किया और समस्त पौराणिक सामग्री को अपनी मान्यताओं के साथ समन्वित किया। इससे भारत के आध्यात्मिक चिंतन को सर्व-साधारण तक पहुँचाने में अत्यन्त सहायता मिली। विमल सूरी ने प्राकृत भाषा में पहुनचरित, स्वयंभू ने अपभ्रंश में पढ़चरिऊ तथा देवप्रिय ने पाण्डवचरित जैसे अनेक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे। तमिल एवं कन्नड साहित्य को भी जैन विद्वानों ने सुशोभित किया। व्याकरण, ज्योतिष, चिकित्सा, नीति, दर्शन, काव्यकोश, रचनाशास्त्र, कथाएंय गणित आदि विविध विषयों पर जैन विद्वानों एवं साधुसंतों ने विद्वतापूर्ण ग्रंथ लिखे। नाटक और गीति काव्य के क्षेत्र में भी उन्होंने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। साथ ही इतिहास के लिए उपयोगी सामग्री भी उनकी भारतीय साहित्य को देन है।
(3) कला क्षेत्र में देन
जैन धर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन कलात्मक स्मारक, मूर्तियाँ, मठ, गुफाओं आदि के रूप में आज भी सुरक्षित ही उड़ीसा की उदयगिरी एवं खण्डगिरी पर्वत में 35 जैन गुफाएं हैं। ऐलोरा में भी अनेक जैन गुफाएं हैं। जहां की मूर्तिया बड़ कलात्मक हैं। खजुराहो, देलवाड़ा के जैन मंदिर भारत की विरासत है। इन मंदिरों में मूर्तिकला, बेलबूटें, तोरणद्वार, नक्काशा आदि का काम अत्यन्त कलात्मक है। काठियावाड़, गिरनार, रणकपुर, पार्श्वनाथ, श्रवणबेलगोला में जैन मंदिरों के संकुल हैं। श्रवण बेलगोला की गोमतेश्वर की प्रतिमा अद्भूत है जो 35 फुट ऊँची है। इसके अलावा सांस्कृतिक विषमता में समन्वय व एकता, जन्मनावर्ण व्यवस्था की जगह कर्मणा पर जोर, सामान कुरीतियों को दूर करना आदि भी भारतीय समाज को जैन धर्म की देन रही है। इसके लिए भारतीय समाज जैन धमन ऋणी रहेगा।
प्रश्न: जैन धर्म दर्शन के महत्त्व एवं उसकी मानवता के संदर्भ में प्रासंगिकता का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर रू ईसा पूर्व छठी शताब्दी में महावीर द्वारा जैन धर्म का पनरुत्थान किया गया। जिसने तत्कालीन समाज व्यवस्था पर कटु प्रहार करके समाज
को एक ऐसा जीवन दर्शन दिया जिससे समस्त मानवता का कल्याण हो सका जा महत्त्व इस बात में था कि वह तत्कालीन सामाजिक परिवेश को समझकर उसके हल का मार्ग तलाशे। महावार बताया गया कि संसार दुःखमूलक है, मनष्य को भ्।त्
तक है, मनुष्य को भय, तृष्णाएं घेरे रहती हैं। इनसे उसे दुःख होता है, सच्चा सुख सांसारिक मायाजाल के त्याग एवं संन्यास से ही प्राप्त
स स ही प्राप्त किया जा सकता है। संसार के सभी प्राणी अपने कर्मों के अनुसार फल पात हैं. कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है। इससे मक्त होकर श्निर्वाणश् प्राप्त किया जा सकता है।
जैन दर्शन द्वैतवादी तत्व ज्ञान में विश्वास करता है। इसके अनसार प्रकति एवं आत्मा दो तत्व हैं जिनसे मिलकर मनुष्य क व्यक्तित्व का विकास होता है। प्रकृति नाशवान है परन्त आत्मा अनंत है. जिसके विकास से मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। जैन दर्शन सात तत्वों को मानता है – जीव या आत्मा. आजीव. आसव. संवर. निर्जरा, बंधन और मोक्ष। सप्तभंगीय ज्ञान, स्यादवाद या अनेकांतवाद में विश्वास करता है और इसके जान के द्वारा मानव अपना विकास एव कल्याण कर सकता है।
मनुष्यों को बुरे कर्मों से बचना चाहिए, इसके लिए पाँच महाव्रतों (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय और ब्रह्मचय) का पालन आवश्यक है। इसके द्वारा 18 पापों से बचा जा सकता है। जैसे – हिंसा, झठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, दोषारोपण, चुगलखोरी, असंयम. निन्दा, छल-कपट. मिथ्या दर्शन। पापों से बचकर निर्वाण प्राप्ति के लिए मनुष्य को तीन रत्नों (त्रिरत्नों) का पालन करना चाहिए। ये तीन रत्न हैं – सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र (आचरण)।
जैन धर्म में अहिंसा. और तप पर अधिक बल दिया गया है। आक्रमण एवं हिंसा, चाहे ऐच्छिक हो या आकस्मिक, उनका त्याग आवश्यक है। इसी कारण मांसभक्षण, आखेट, युद्ध, यहाँ तक कि कृषि पर भी प्रतिबंध लगाया गया है जिससे हिसा को रोका जा सके। जैन धर्म के अनुसार गृहस्थ जीवन में रहते हए पापों से बचना एवं निर्वाण की प्राप्ति करना सम्भव नहीं है इसलिए संन्यासियों हेतु कठोर जीवन और आचरण आवश्यक माना गया। कठोर जीवन हेतु व्यक्ति को नग्न रहना, इन्द्रिय-दमन, निश्चित स्थान पर अधिक समय तक रहने पर निषेध है।
जैन धर्म ने वैदिक धर्म के कर्मकाण्डी और आडम्बरयुक्त स्वरूप तथा पुरोहितों एवं यज्ञों की आवश्यकता को मानने से इनकार कर दिया। ईश्वर में उनकी आस्था नहीं थी, मूर्ति-पूजा का विरोध भी इनके द्वारा किया गया।
उपयुक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि जैन धर्म का महत्व एवं मानवता के संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता तत्कालीन समाज के उपयुक्त थी तथा आज भी कुछ संशोधनों के पश्चात् वह समाज के कल्याण तथा विकास के मार्ग को प्रशस्त करने हेतु उपयुक्त है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, आदि मानव जीवन के आधार हैं। एक दूसरे के प्रति दयाभाव, युद्ध को रोकना आदि अनेकों ऐसे दर्शन हैं जिसने सम्पूर्ण मानवता के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। धार्मिक कर्मकाण्डों, कुरीतियों पर जो कुठाराघात किया गया वे कुरीतियाँ आज भी समाज में व्याप्त हैं। उन्हें रोकने हेतु जैन दर्शन हमें एक आधार प्रदान करता है। जीवन के सम्पूर्ण क्षेत्रों में जैन दर्शन की आवश्यकता आज भी समाज में प्रासंगिक है।