डेविस का भौगोलिक चक्र या सामान्य अपरदन चक्र क्या है Davis’s Geographical Cycle or Normal Cycle of Erosion in hindi

Davis’s Geographical Cycle or Normal Cycle of Erosion in hindi डेविस का भौगोलिक चक्र या सामान्य अपरदन चक्र क्या है ?

अपरदन चक्र की संकल्पना एवं बाधायें
(Concept of Cycle of Erosion and Obstructions)
पृथ्वी पर भूगर्भिक शक्तियाँ निरन्तर असमानताएँ उत्पन्न करती रहती हैं एवं वात्यशक्तियाँ उन्हें समाप्त करने में लगी रहती हैं। सागर तल से ऊपर उठते ही प्रत्येक भू-भाग पर बहिर्जात बलों का अपरदन कार्य प्रारम्भ हो जाता है और अपरदित पदार्थ समुद्रों में निक्षेपित होने लगता है। इस प्रकार दोनों प्रकार के बलों के पारस्परिक संघर्ष और प्रतिद्वन्द्विता से भू-पृष्ठ पर अनेक स्थलरूपाों का विकास होता है। इस विकास प्रक्रिया में एक निश्चित क्रम देखने को मिलता है। उत्थित स्थलाकृति का अपक्षय व अपरदन तब तक
क्रियाशील रहता है जब तक वह आधार तल (समुद्र तल) के बराबर न हो जाये। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को अपरदन चक्र कहा जाता है।
‘अपरदन चक्र‘ की संकल्पना सर्वप्रथम जेम्स हटन ने 1785 में प्रस्तुत की थी। उनके बाद पाॅवेल, गिलबर्ट आदि ने इस संबंध में अपने विचार रखे, परन्तु इसका क्रमबद्ध विवेचन डेविस महोदय, (W.M. Davis 1850-1934) ने प्रस्तुत किया। डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति का निर्माण तथा विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है जिसके अन्तर्गत उसे कई अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। वारसेस्टर के अनुसार अपरदन चक्र वह समय है जो एक नदी को एक उत्थित भूखण्ड को आधार तल तक काटने में लगता है। चक्र स्थलरूपाों का विकास है जो अपरदन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में होता है।‘‘ डेविस ने चक्र को भौगोलिक चक्र (geographical cycle) कहा। डेविस ने आर्द्र शीतोष्ण प्रदेश की स्थलाकृतियों अध्ययन कर अपना मत प्रस्तुत किया था। उनके विचारों के आधार पर किंग ने शुष्क प्रदेशों में, पेल्टियर ने परिहिमानी क्षेत्रों में, पप्प व टॉमस ने अफ्रीका के शुष्क, अर्द्धशुष्क प्रदेशों की भू-आकृतियों के विकास को समझाया। अपरदन चक्र की संकल्पना को इन क्षेत्रों में स्थापित किया।
डेविस का भौगोलिक चक्र या सामान्य अपरदन चक्र
(Davis’s Geographical Cycle or Normal Cycle of Erosion)
डब्ल्यू. एम. डेविस महोदय ने स्थलरूपाों के विकास से संबंधित सर्वप्रथम वास्तविक सामान्य सिद्धान्त 1880 में प्रस्तुत किया था। उसका लक्ष्य स्थलरूपाों के व्यवस्थित वर्णन एवं जननिक वर्गीकरण करना था। डेविस का सिद्धान्त विकासीय तंत्र का प्रतिरूपा है जो आर्द्र शीतोष्ण जलवायु में स्थलरूपाों के विकास को स्पष्ट करता है। डेविस के अनुसार “भौगोलिक चक्र वह समयावधि है, जिसके अन्तर्गत एक ऊँचा भूखण्ड अपरदन की क्रिया द्वारा अन्ततः एक आकृतिविहीन समप्राय मैदान में परिवर्तित हो जाता है।‘‘
डेविस ने अपने अपरदन चक्र को भौगोलिक चक्र कहा। उसकी व्याख्या उसने नवीन आकृति विहीन स्थलखण्ड के उत्थान के साथ की। जैसे ही भूखण्ड का सागर तल से उत्थान होता है उस पर अपरदन का कोई साधन सक्रिय हो जाता है। वह उसमें काट-छाँट कर अनेक स्थलरूपाों का निर्माण करता है। अपरदन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए वह भूखण्ड सागर तल के बराबर रह जाता है। समस्त स्थलरूपा, विषमतायें समाप्त हो जाती हैं तथा वह समतल मैदान में बदल जाता है। कहीं-कहीं कुछ कठोर चट्टानें खड़ी रह जाती हैं। इस मैदान को डेविस ने पेनीप्लेन (Peniplain) कहा तथा अवशिष्ट चट्टानों को मोनाडनाक्स (Monodanock) कहा।
प्रमुख आधार – डेविस के अनुसार अपरदन की गति एवं स्वरूपा पर भूखण्ड की संरचना, अपरदनकारी शक्ति एवं समय का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। ‘‘स्थलाकृति संरचना प्रक्रम एवं अवस्था का परिणाम होती है।‘‘
ये तीन तत्व डेविस के सिद्धान्त के आधार हैं इन्हें Trio-Isostasy भी कहा जाता हैः
(1) संरचना (Structure) – संरचना से तात्पर्य भूखण्ड में पायी जाने वाली विभिन्न चट्टानों की बनावट से है। स्थलरूपाों के विकास में इनका विशेष योगदान होता है। चट्टान के विभिन्न गुण जैसे खनिजीय संगठन, रासायनिक गुण, कठोरता, स्तरों की मोवई शैलों की व्यवस्था आदि अपरदन को प्रभावित करते हैं। आग्नेय चट्टानों में (नीस ग्रेनाइट) अपरदन की प्रतिरोधात्मक शक्ति अधिक होती है। वह आसानी से कटती-छटती नहीं है। अवसादी चट्टानें परतदार व अपेक्षाकृत कोमल होती हैं अतः शीघ्रता से अपरदित होती हैं। कुछ चट्टानों में घुलनशील तत्वों की प्रधानता होती है वह शीघ्र अपरदित हो जाती है। खड़ी स्तर वाली चट्टानें क्षैतिज स्तर वाली चट्टानों में अपरदन एवं बनने वाले भूरूपाों में अन्तर मिलता है। दृश्यभूमि के निर्माण में संरचना का महत्वपाल प्रभाव होता है। अपरदन चक्र की अवधि एवं व्यवस्था में संरचना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसका प्रभात चाहे सामने दिखाई दे या पृष्ठभूमि में रहे, सभी विद्वान मानते हैं।
थार्नबरी के अनुसार – ‘‘दृश्यभूमि के विकास में भूवैज्ञानिक संरचना का प्रमुख हाथ होता है और दृश्यभूमि में संरचना परिलक्षित होती है।‘‘
(2) प्रक्रम (Process) – प्रक्रम से तात्पर्य उन बाह्यशक्तियों से है जो धरातल पर हर समय क्रियाशील रहती हैं। स्थलाकृति का निर्माण नदी, हिमनदी, भूमिगत जल, वायु, समुद्री लहरों आदि प्रक्रमों में से किसके द्वारा हुआ है यह उनको देखकर आसानी से बताया जा सकता है। थार्नबरी के अनुसार – ‘‘भू-आकृति प्रक्रम स्थलरूपाों पर अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। प्रत्येक भू-आकृति प्रक्रम स्वयं का स्थलरूपाों का एक विशिष्ट समुदाय प्रस्तुत करते हैं।‘‘ डेविस ने नदी के कार्यों के आधार पर अपना अपरदन चक्र स्पष्ट किया है जो प्रक्रम सबसे ज्यादा क्रियाशील होता है उसका प्रभाव स्थलरूपा पर स्पष्ट रूपा से दिखाई पड़ता है। शुष्क प्रदेश में वायु के प्रभाव से छत्रक, जालीदार शिला, इन्सेलवर्ग बनते हैं तो नदियों द्वारा घाटी, जलप्रपात व निर्माण होता है। हर प्रक्रम विशिष्ट स्थलरूपाों का निर्माण करता है। अपरदन चक्र पर प्रक्रम का प्रभाव पड़ता है।
(3) अवस्था (Stage) – अपरदन चक्र में बनने वाली विशिष्ट भू-आकृतियों पर चक्र की अवस्था का नियंत्रण होता है। डेविस के अनुसार स्थलरूपाों को कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। यद्यपि मानव आयु की तरह अवस्था का कोई निश्चित समय नहीं होता है। किसी भी क्षेत्र का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुंचने में लगने वाला समय भी निश्चित नहीं है। डेविस ने अपने सिद्धान्त में तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है- युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था। यह वह समयावधि है जिसमें एक स्थलाकृति का निर्माण एवं अंत हो जाता है।
चक्र की विवेचना -डेविस के अनुसार किसी भी क्षेत्र में भौगोलिक चक्र का प्रारंभ भूखण्ड के उत्थान के साथ होता है। उत्थान त्वरित अल्प अवधि का होता है। इस काल में यह आकृति- विहीन भूखण्ड होता है। डेविस का मत है कि उत्थान समाप्त हो जाने पर अपरदन शुरू होता है। दोनों क्रियायें साथ-साथ नहीं चलती है।
उत्थान के पश्चात अपरदनकारी शक्तियाँ भूखण्ड पर क्रियाशील हो जाती हैं। डेविस ने नदी के कार्य के आधार पर अपरदन चक्र का वर्णन किया है। जैसे ही भूखण्ड पर जल बहना शुरू करता है वा नदी का रूपा ले लेता है तथा विभिन्न अवस्थाओं में अनेक भूरूपाों का निर्माण होता हैः
(1) युवावस्था (Youth Stage) – प्रारंभिक अवस्था में भूखण्ड पर विषमतायें नहीं होती हैं। इस अवस्था में अपरदन प्रारम्भ होता है। नदियाँ छोटी-छोटी व दूर-दूर होती हैं। शीर्ष अपरदन से नदियाँ तेजी से लम्बी होती जाती हैं। साथ ही ये अपनी घाटी का निर्माण करती हैं। तीव्र ढाल व तीव्र प्रवाह से नदिया तेजी से अपरदन करती है। अपने साथ में बड़े-बड़े शिलाखण्डों बहा ले जाती है। मार्ग में क्षिप्रिका, जलगर्तन, जलप्रपात का निर्माण करती हैं। घाटी का आकार सैंकरे अक्षर ट के सामान होता है।
(2) प्रौढावस्था (Mature Stage) जब नदी द्वारा पाश्विक अपरदन अधिक किया जाता है, तब वह प्रौढ़ावस्था का सूचक होता है। नदी में पानी व अवसाद की मात्रा बढ़ जाती है। घाटी गहरी होने के साथ-साथ चैड़ी होने लगती है। अवसादों की अधिकता व ढाल की कमी से नदी के मार्ग में मोड पड़ने लगते भी है। घाटी का आकार चैड़े ट अक्षर की तरह हो जाता है। स्थल पर विषमतायें बढ़ जाती हैं।
(3) वद्धावस्था (Old Stage) – समय के साथ अपरदनचक्र वृद्धावस्था में प्रवेश करता है तब भूखण्ड की ऊँचाई घटकर बहुत कम रह जाती विषमताएँ घटने लगती हैं। अपरदन क्रिया लगभग समाप्त होने लगती है। लम्बवत् अपरदन बिल्कुल नहीं होता परन्तु थोड़ा बहुत पाश्विक अपरदन होता रहता है। घाटियाँ इतनी चैड़ी व उथली हो जाती हैं कि नदी का पानी कई शाखाओं में बँट जाता है। अवसादों की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि नदी जगह-जगह उन्हें निक्षेपित करती जाती है। अन्त में समतल मैदान रह जाता है जिसे डेविस ने ‘पेनीप्लेन‘ कहा। कहीं-कहीं कुछ कठोर चट्टानें दिखाई पड़ती हैं, जिन्हें ‘मोनोडनॉक‘ कहा जाता है। इसे अपरदन चक्र की समाप्ति का सूचक माना जाता है।
डेविस के अपरदन चक्र का रेखीय प्रदर्शन भी किया जा सकता है। दिये गये चित्र में क, ख, रेखा भाखण्ड की ऊँचाई दर्शाती है व क,ग रेखा अपरदन चक्र का समय प्रदर्शित करती है। चित्र में दो वक्र रेखायें दिखायी गयी हैं। ऊपरी वक्र रेखा स्थला खण्ड के अधिकतम औसत उच्चावच एवं निचला वक्र न्यूनतम उच्चावच को प्रदर्शित करता है।
समस्त अपरदन चक्र को चार भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम अवस्था उत्थान का सचक है जो अल्प अवधि में होता है व भूखण्ड सर्वोच्च ऊँचाई को प्राप्त करता है। ‘c’- ‘l’ व ‘n’ अपरदन चक्र की यवावस्था प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था को दर्शाते हैं। तृतीय अवस्था सबसे लम्बी है जिसमें प्रौढावस्था एवं वृद्धावस्था शामिल है। इस भाग में ऊपरी व निचले वक्र में अन्तर निरन्तर घटने लगता है व अन्त में समस्त विषमतायें समाप्त हो जाती हैं तथा दोनों वक्र मिल जाते हैं। भूखण्ड पुनः अपने आधार तल के समकक्ष रह जाता है।
आलोचनाः- पचास वर्षों तक डेविस के मत को बहुत मान्यता मिलती रही। यह अत्यधिक सामान्य व सरल था। इसमें अनेक औसत दशायें मान ली गयी थीं, परन्तु वास्तविक धरातल यह हर जगह क्रियाशील नहीं पाया जाता। अतः बाद में इसे कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा।
(1) डेविस का यह कहना कि उत्थान के बाद अपरदन शुरू होता है पूर्णतः भ्रामक व गलत है। नवीन भूभाग के उत्थान के साथ ही तुरंत अपरदन शक्तियाँ उस पर क्रियाशील हो जाती है।
(2) डेविस के मत के अनसार अपरदन चक्र के दौरान भखण्ड स्थिर रहता है। यह अवधि इतनी लम्बी होती है कि भूखण्ड का स्थिर रहना संभव प्रतीत नहीं होता। भूसन्तुलन की गतियों का भूआकृति पर अवश्य प्रभाव पड़ता है इससे अपरदन चक्र में बाधा अवश्य पड़ेगी।
(3) डेविस के चक्र शब्द के प्रयोग पर आपत्ति प्रदर्शित की गयी, क्योंकि एक चक्र के समान यह नहीं चलता है। चक्र से प्रतीत होता है कि जिस बिन्दु से शुरू हुआ है वहीं पहुंचकर पुनः क्रिया का प्रारम्भ होना, परन्तु स्थलरूपाों के विकास में यह आवश्यक नहीं है।
(4) डेविस के भूआकृति विकास को अवस्थाओं में बाँटने पर भी विरोध व्यक्त किया गया। इसे मानव आयु की अवस्थाओं से जोड़ना गलत है।
(5) स्ट्रालर, शार्ले व कई अन्य विद्वानों ने गतिक सिद्धान्त के आधार पर डेविस के मत की आलोचना की है।
(6) डावस के चक्र में उत्थान बहत तीव्र गति से होकर समाप्त हो जाता है, जबकि वास्तविक रूपा से यह मंद गति से होता है व लम्बे समय तक चलता है।
उपर्युक्त आलोचनाओं के उपरान्त भी डेविस का अपरदन चक्र का सिद्धान्त स्थलरूपाों के विकास को समझने में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।