यहाँ हम जानेंगे कि role of gender in indian politics in hindi भारतीय राजनीति में महिलाओं की सहभागिता , लिंग आधारित राजनीति भूमिका ?
लिंग की भूमिका :
० यद्यपि भारत में लैंगिक पहचान (विशेषकर महिलाओं से संबंधित) राजनीति के मैदान में अपना मजबूत अस्तित्व नहीं रखती, और परिवार, जाति, धर्म, वर्ग क्षेत्र आदि पहचानें इसपर भारी पड़ जाती है। लेकिन विगत कुछ समय से लैंगिक मुद्दों का राजनीति से जुड़ाव उत्तरोत्तर रूप से मजबूत होता दिख रहा है। वर्तमान में कई नारीवादी संगठन नेताओं और सरकार पर दबाव समूह के रूप में उन्हें प्रेरित करते हैं कि वे महिलाओं के हित में कदम उठाए तथा उनसे जुड़ें मुद्दों को भी मूल मुद्दों में शामिल किया जाना चाहिए एवं उन्हें राजनीति में समान अवसर दिए जाने चाहिए | हाल ही के समय में निम्न रूपों में लिंग-राजनीति संबंध देखने को मिले है :
a. संसद में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने संबंधी विधेयक। इससे महिलाओं की राजनीति में सक्रीय भागीदारी निश्चित हो सकेगी |
b. तीन तलाक व समान नागरिक संहिता से महिला समानता का मुद्दा भी जुड़ा है। इससे सभी धर्मों में महिलाओं को समान रूप से व्यवहार किया जायेगा |
c. मंदिर-मस्जिद प्रवेश को लेकर आंदोलन (शनि शिंगणापुर मंदिर व हाजी अली दरगाह में महिलाओं को प्रवेश दे दिया गया।) इससे पूर्व कई मस्जिदों और मंदिरों में महिलाओं का प्रवेश नहीं था जो कि समानता के अधिकार के विपरीत था |
d. कई राज्यों में महिलाओं द्वारा सरकार से शराबबंदी की मांग। इससे महिलायें सशक्त हुई है कि उनकी मांगों को भी सरकार गंभीर रूप से लेती है और उनका समाधान भी करती है |
किन्नरों को तृतीय लिंग का दर्जा :
० सुप्रीम कोर्ट ने तृतीय लिंग का दर्जा किन्नरों को देते हुए हुए सरकार से उन्हें । नीतिगत व संवैधानिक संरक्षण देने को कहा है, ताकि ये वर्ग उपेक्षित् के हेय जीवन जीने हेतु मजबूर न हो। उन्हें भी भारतीय संविधान के अनुसार समानता प्रदान की जा सके और उनके मूल अधिकार जिसमें सम्मान के साथ जीने का अधिकार प्रदान किया गया है |
० लैंगिक भेदभाव व महिला अधिकार का मुद्दा । आधुनिक भारत में स्त्रियों की स्थिति का प्रश्न 19 वीं सदी के मध्य वर्गीय समाज सुधार आंदोलन के एक हिस्से के रूप में उदित हुआ। इन आंदोलनों को माध्य वर्गीय सुधार आंदोलनों की संज्ञा दी जाती है क्योंकि यह सुधारक वर्ग नए उभरते पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त भारतीय मध्यम वर्ग से था। वे अक्सर आधुनिक पश्चिम के लोकतांत्रिक आदर्शो द्वारा और अपने स्वयं के अतीत की लोकतांत्रिक परम्पराओं पर गर्व एवं गौरव महसूस करते हुए इन सुधारों से प्रेरित हुए थे। उदाहरण-जैसे राजा मोहन राय ने सत्ती प्रथा विरोधी अभियान का नेतृत्व किया रानाडे ने विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए आंदोलन चलाया, ज्योतिबा फूले एवं सावित्री बाई फुले ने जातीय एवं लैंगिक अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई और सर सैयद अहमद खान ने इस्लाम में सामाजिक सुधारों की आवाज को बुलंद किया।
15 इन सुधारकों के विचारों में पाश्चात्य तर्क संगति और भारतीय पारंपरिकता का सुंदर मिश्रण था।
इनके द्वारा महिला आधिकारों की बात मानवतावादी तथा नैसर्गिक अधिकारों (मानव होने के नाते) के सिद्धांतों एवं हिन्दु शास्त्रों के आधार पर की गई।
महिला शिक्षा हेतु दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद आदि ने विशेष जोर दिया ताकि महिलाएँ घर की चारदिवारी से बाहर निकलकर नए मूल्यों विचारों एवं स्वयं के अधिकारों से रुबरू हो सके तथा अपने अधिकारों की लड़ाई स्वयं लड़ सके।
पुरुषों एवं स्त्रियों के बीच जैविक और शारीरिक स्पष्ट अंतरों के कारण अक्सर यही समझा जाता है कि लैंगिक असमानता प्रकृति के देन है किंतु इस बाहरी दिखावट के बावजूद विद्वानों ने यह भी दर्शा दिया है कि पुरुषों एवं स्त्रियों के बीच असमानताएँ प्राकृतिक नहीं बल्कि सामाजिक है।
इस संबंध में प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका “सिमोन दी बुआवर’ का कथन “स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है महत्त्वपूर्ण है क्योंकि हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच स्त्रियों को समान नजर से देखती ही नहीं है तथा स्त्री को दोयम दर्जे का मानव मानकद उसी अनुरूप व्यवहार करता है। लेकिन कई समाज में मातृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था (मघालय का खासी समा) देश के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों एवं निर्वाचनों (इंदिरा गांधी, प्रतिभा पाटिल) समाज सुधार आंदोलनों (मेघा पाटेकर, अरुणा रॉय) अंतरिक्ष विदेश नीति आदि क्षेत्रों में महिलाओं की प्रभावी भूमिका ने पुरुष प्रधान सोच को चुनौती दी है।
० महिला अधिकारों लैंगिक समानता सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक न्याय के लिए संघर्ष को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
a. आजादी से पूर्व (1947 से पहले)
b. आजादी के बाद स्वतंत्रता
आंदोलन में गांधी जी के आगमन के पश्चात् महिलाओं की भागीदारी में आमूलचूल परिवर्तन आया क्योंकि गांधी जी के संघर्ष के साधनों की प्रकृति जैसे- अहिंसा, असहयोग शांतिपूर्ण धरनों जैसे तौर तरीकों ने महिलाओं की भागीदारी के लिए सहज माध्यम प्रदान किया।
1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन में नागरिकों के मूल अधिकारों के संबंध में की गई घोषणा के तहत विधि के समक्ष समानता सार्वजनिक व्यस्कमताधिकार छ विभिन्न सार्वजनिक पदों हेतु निर्वाचन में महिलाओं के समानता के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई।
1947 के पश्चात अधिकारों के लिए संघर्ष को मूर्त रूप देने के लिए कानूनी एवं संवैधानिक माध्यम को अपनाया जिसके तहत हिंदु विवाह अधिनियम, दहेज विरोधी अधिनियम, घरेलू हिंसा से बचाव हेतु अधिनियम, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचाव हेतु अधिनियम एवं संपत्ति व उत्तराधिकार में समान भागीदारी के लिए प्रावधानों को वैधानिक दर्जा दिया गया
भारतीय संविधान के विभिन्न अधिनियम जैसे – 14, 16, 19. 23 (मानव दूर्व्यापार, डी पी एस पी व मूल कत्तव्यों में महिलाओं की गरीमा एवं समानता हेतु विभिन्न प्रावधान किए जिनसे समान कार्य हेतु सामन वेतन मातृत्व लाभ, 73 वाँ व 74 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा महिलाओं हेतु पंचायती राज संस्थाओं में एक तिहाई आरक्षण जैसे प्रावधान मुख्य है। इनके साथ ही संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय की परिकल्पना भी महिलाओं से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी है। नीति निर्देशक तत्वों में अधिनियम-44 समान नागरिक संहिता भी महिला के अधिकारों से संबधित है। क्योंकि अधिकांश कानून व प्रथाएँ महिला विरोधी अथवा भेदभावकारी प्रतीत होती है।
० सामाजिक संदर्भ में महिलाओं के अधिकारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए विभिन्न कानूनी प्रावधान किए गए जैसे- उत्तराधिकार में समान भागीदारी संपत्ति में समान हिस्सेदारी के लिए कानून (1956), यौन उत्पीड़न से सुरक्षा हेतु अधिनियम (2013), घरेलू हिंसा से बचाव हेतु अधिनियम (2005) दहेज प्रथा पर रोक हेतु अधि. (1961)
इस संदर्भ में भारत की न्यायपालिका ने भी न्यायिक सक्रियता द्वारा कई अधिकारों को मान्यता दी जिसमें विशाखा गाईडलाइन (1997) जो कार्य स्थल पर महिलाओं हेतु सहज व सम्मानजनक परिस्थितियों के निर्माण हेतु महत्त्वपूर्ण है साथ ही हाल में आए निजता के अधिकार से संबंधित निर्णय ने महिलाओं को नए अधिकार दिए है कि वे अपना निर्णय अपने अनुसार ले सके। मंदिर प्रवेश को लेकर हाल ही में चले आंदोलनों व उसके पश्चात में मिले प्रवेश के अधिकार ने महिला समानता के अधिकार को पुनः महसूस करवाया है।
मातृत्व अवकाश को बढ़ाकर 26 सप्ताह करने संबंधित अधिनियम का उल्लेख करना लाजिमी है जो महिला स्वास्थ्य, पोषण व समान भागीदारी के बढ़ावा देने में सहायक है। राजनीतिक पक्ष को देखा जाए तो सार्वभौमिक वयस्कता मताधिकार, पंचायती राज संस्थानों में एक तिहाई आरक्षण किसी भी सार्वजनिक पद पर नियुक्त व निर्वाचित होने के अधिकार में महिलाओं को अपनी बात मुख्य रूप से राष्ट्रीय पटल पर रखने में समक्ष बनाया है। संसद व राज्य विधान मंडलों में आरक्षण का मुद्दा भी समय- समय पर विभिन्न मंचों से उठाया जाता रहा है। जिससे अनुपूर्ति के पश्चात ही महिलाओं का राजनीति में भागीदारी और अधिक बढ़ सकेगी।
सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण जैसी महिला व्यक्तित्व आज विदेश एवं रक्षा जैसे मंत्रालयों को सुशोभित कर रही है जो महिलाओं की सर्वोच्च स्तर पर अभिव्यक्ति का उदाहरण है
0 डॉ. अम्बेडकर का कथन “किसी भी समुदाय को राजनीतिक रूप से स्वतंत्रता तथा समाज में बंधुत्व व बराबरी का दर्जा दिलाने हेतु आवश्यक है कि उसे पहले आर्थिक रूप से समानता दी जाए ” यह दर्शाता है कि महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल बनाने के अभाव में अन्य राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकार बेइमानी साबित होते है।
इसी संदर्भ में भारत सरकार द्वार भी कई प्रावधान किए जिनका विस्तार हमारी न्यायापालिका द्वारा भी किया गया। जैसे समान कार्य हेतु समान वेतन, महिला सशक्तिकरण हेतु चलाई गई विभिन्न योजनाएँ, स्वयं सहायता समूहों को दिए जाने वाले प्रोत्साहनकारी उपाय, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से संबंधित विशाखा गाइडलाइन, राष्ट्रीय महिला आयोग को वैधानिक दर्जा, गर्भवती महिलाओं को 26 सप्ताह का सवैतनिक अवकाश, स्टेंड अप इंडिया, महिला हाट, बेटी बचाओबेटी पढ़ाओं जैसी योजनाएँ महत्त्वपूर्ण है।
इस प्रकार आर्थिक भागीदारी को बढ़ाकर ही समाज को मजबूत बनाया जा सकता है जो राष्ट्र को मजबूत बनाने में सहायक होगा, इन विभिन्न प्रयासों के बावजूद भी आज का महिला समाज | अनेक भेदभावों व चुनौतियों का समाना कर रहा है।
जैसे :
राजनीतिक क्षेत्र में :
1. विभिन्न प्रतिनिधि संस्थानों में भागीदारी जनसंख्या के अनुरूप नहीं।
2. सरपंच पति की अवधारणा – सभी स्तरों पर
3. सार्वजनिक मंचों से महिला नेताओं की आवाज बुलंद नहीं
4. वोट देने प्रत्याशी के तौर पर खड़ा होने के निर्णयन का अधिकार नहीं
5. महिला अधिकारों से संबंधित मुद्दों पर केवल जुबानी खर्च 6. महिला आरक्षण पर आम सहमति का अभाव- विधेयक लंबित
* सामाजिक क्षेत्र में चुनौतियाँ
1. पितृसत्तात्मक व पुरुष प्रधान सोच या मानसिकता
० इंटरनेट तक सहज पहुंच ने पोर्नोग्राफी, यौन हिंसा, अभद्र टिप्पणीयों महिला गरिमा विरोधी सोच के प्रसार को बढ़ावा
शिक्षा
AIMPLAB (All india muslin personal law board)
1. परम्परा की प्राचीनता किसी कुप्रथा की सही ठहराने का साधन नहीं।