प्रकार्यवाद क्या है | समाजशास्त्र में प्रकार्यवाद की परिभाषा किसे कहते है अर्थ सिद्धांत prakaryawad kya hai

prakaryawad kya hai प्रकार्यवाद क्या है | समाजशास्त्र में प्रकार्यवाद की परिभाषा किसे कहते है अर्थ सिद्धांत ?

 पार्सन्स की प्रकार्यवाद की अवधारणा
पार्सन्स के अनुसार सामाजिक प्रणाली की स्थिरता केवल समाज द्वारा अपने सदस्यों पर लागू किए गए नियम-मर्यादाओं तथा सरकार द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किए गए सामाजिक नियंत्रण के अन्य उपायों के माध्यम से ही नहीं, बल्कि समाज के सदस्यों द्वारा समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से सामाजिक मूल्यों, अपेक्षित आचार पद्धतियों तथा सामाजिक अस्तित्व की संहिताओं को आत्मसात करके कायम की जाती है। बच्चा विभिन्न सामाजिक संस्थाओं तथा भूमिकाओं के वांछित एवं वर्जित, दोनों तरह के मूल्यों तथा प्रतिमानों के संबंध में अपने परिवार तथा पड़ोस के वातावरण से ही सीखता है। बड़ा होने पर वह स्कूल, कॉलेज तथा काम के स्थानों पर अन्य सामाजिक मूल्यों एवं वांछित आचार-पद्धतियों को सीखता और अपनाता है।

पिछली इकाई में आपने पार्सन्स की सामाजिक प्रणाली की प्रकार्यात्मक पूपिक्षाओं की अवधारणा के बारे में भी पढ़ा होगा। पार्सन्स के मतानुसार अनुकूलन (adaptation), लक्ष्यप्राप्ति (goalorientation), एकीकरण (integration) तथा विन्यास अनुरक्षण (latency) जैसी ये पूपिक्षाएं किसी भी सामाजिक प्रणाली के अस्तित्व के लिए आवश्यक प्रतिक्रियाएं हैं। सामाजिक प्रणाली का अस्तित्व बनाए रखने में संस्थाओं एवं प्रक्रियाओं के योगदान को पार्सन्स ने प्रकार्यात्मक माना है।

प्रकार्यवाद इस दृष्टिकोण को व्यक्त करता है कि सभी सामाजिक प्रणालियों की अभिवृत्ति तत्वों (अंग) के रूप में ऐसी प्रक्रियाओं और संस्थाओं को विकसित एवं एकीकृत करने की है जो उसे बनाए रखने में सहायक होती है। सामाजिक प्रणालियां बुनियादी तौर पर इन इकाइयों को अपने अंगों के रूप में विकसित करती रहती हैं और ये इकाईयां प्रक्रियाओं(पार्सन्स के अनुसार अनुकूलन, लक्ष्य-प्राप्ति, एकीकरण तथा विन्यास अनुरक्षण) और संस्थाओं जैसे कि सरकार, अर्थव्यवस्था, विद्यालय, अदालत आदि के रूप में हो सकती हैं जो प्रणाली को बनाए रखने के उद्देश्य को लेकर काम करती हैं। इन प्रक्रियाओं तथा संस्थाओं के संचानल के परिणामों की उद्देश्यता को टीलियोलॉजी (teleology) का नाम दिया गया है जो प्रकार्यवाद का अनिवार्य गुण है। यह मानव शरीर की जैविक प्रणाली के समान काम करता है। मानव शरीर में श्वसन क्रिया, रक्त संचार, नियमित तापक्रम आदि प्रक्रियाओं का उद्देश्य शरीर को स्वस्थ बनाए रखना है। ये प्रक्रियाएं टीलियोलॉजिकल अथवा उद्देश्य निहित है।

साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि टीलियोलॉजी ऐसी व्याख्या है जिसका अभिप्राय सुनिश्चित उद्देश्य से होता है। उदाहरण के लिए यह तर्क देना उद्देश्यपूर्ण होगा कि फल और बीज (खाद्य पदार्थ) इसीलिए विद्यमान हैं कि पशु-पक्षी उनका पोषण करके जीवित रह सकें अथवा बंदरों की लंबी पूंछ का प्रयोजन यही है कि वे आसानी से एक पेड़ से दूसरी पेड़ तक छलांग लगा सकें (देखिए कोष्ठक 28.01ः टीलियोलॉजी)।

कोष्ठक 28.01ः टीलियोलॉजी
प्रकार्यवाद की आलोचनाओं में से प्रकार्यवाद का टीलियोलॉजिकल स्वरूप होना, उसकी एक तर्कसंगत आलोचना है। जैसा कि आपको मालूम है कि इसका अभिप्राय उस दृष्टिकोण से है जिसमें विकास उन्हीं उद्देश्यों के कारण होते है, जिनकी वे सिद्धि करते हैं। अतः इस व्याख्या के अनुसार परिणाम (ffeect) को कारण (cause) के समान समझा जाता है। प्रकार्यवादी सिद्धांत में यही मुख्य एतराज है। उदाहरण के लिए इस सिद्धांत के अनुसार समाज में धर्म इसीलिए होता है कि वह समाज की नैतिक व्यवस्था को बनाए रखे। इस स्थिति में धर्म जो कि एक परिणाम है, उसकी व्याख्या कारण के रूप में दी गई है परंतु वास्तव में कारण नैतिक व्यवस्था है (प्रकार्यवाद की आलोचना के लिए देखिए पुस्तक – कोहेन 1968, अध्याय 3)।

प्रकार्यवाद का टीलियोलॉजिकल स्वरूप इसकी तर्कसंगत आलोचना क्यों है? यह प्रकार्यवाद की तर्कसंगत आलोचना इसलिए है क्योंकि इसमें परिणाम, जो कि बाद में आता है, उससे कारण की व्याख्या की जाती है, जबकि कारण परिणाम से पहले होता है। यह तर्क के कानूनों के विरूद्ध है। उदाहरण के लिए यह कहना कि “क” कारक से ‘‘ख‘‘ कारक पैदा होता है अतः, ‘‘ख‘‘ कारक का विद्यमान होना “क” कारक की विद्यमानता को दर्शाता है। प्रकार्यवादी विचारधारा के समाजशास्त्री, जैसे कि दर्खाइम और अन्य, प्रकार्यवाद की त्रुटियों से अवगत थे और उन्होंने इनको सही करने का प्रयास भी किया।

मानव शरीर की महत्वपूर्ण क्रियाओं का उद्देश्य शरीर का जीवित बने रहना है और यदि किसी बाहरी तत्व से शरीर को खतरा होता है तो उसकी आंतरिक प्रणाली तुरंत शरीर के बचाव में सक्रिय हो जाती है और जब तक वह खतरा नहीं टलता यह सक्रियता जारी रहती हैं। इस प्रकार की प्रक्रियाएं शरीर में आत्म-नियामक भूमिका (self regulatory role) निभाती हैं। इसे होमोस्टेसिस (homeostasis) कहते हैं दिखें अनुभाग 28.7 शब्दावली में इस शब्द का अर्थ)।

प्रकार्यवाद का अर्थ है कि सामाजिक प्रणालियां मानव शरीर की जैविक प्रणाली के समान हैं। इन प्रणालियों में सामाजिक प्रक्रियाएं तथा संस्थाएं वही काम करती हैं तथा सामाजिक प्रणालियों को जीवित रखने के उद्देश्य को लेकर उसी प्रकार चलती हैं, जिस प्रकार मानव, शरीर में प्रकार्यात्मक प्रक्रियाएं काम करती हैं। सामाजिक प्रणाली और मानव शरीर दोनों में आत्म-नियामक क्रियाविधि होती है, जिससे उनमें स्थिरता बनी रहती है और बाहरी खतरों से उनका बचाव होता है। इस तरह की संतुलन-क्षमता को होमोस्टेसिस कहते हैं। किंतु इनमें एक अंतर है कि मानव शरीर मनुष्य की सभी प्रजातियों में एक समान होता है, जबकि सामाजिक व्यवस्थाएं इतिहास की उपज होती हैं। पार्सन्स का मानना है कि सामाजिक प्रणालियों के स्वरूप तथा शैलियों में बहुत भिन्नताएं हैं। मानव शिशु की सुघट्यता (चसंेजपबपजल) में यह तथ्य प्रकट होता है, जिनका विकास अन्य जीवों के समान आचरण की एक जैसी विशेषताओं के साथ नहीं होता। विभिन्न भाषाएं सीखने के साथ जिन समाज अथवा समूहों में उनका जन्म होता है, उनके तरह-तरह के सांस्कृतिक मूल्यों एवं आचार-विचारों के अनुकूल वे ढलते हैं। उनमें अनेक भाषाओं, सांस्कृतिक शैलियों आदि को अपनाने की क्षमता होती है। मनुष्य अन्य जीवों की तरह पूर्व-निर्धारित सहज प्रवृत्तियां लेकर जन्म नहीं लेते। मानव-शिशु की समाजीकरण की प्रक्रिया तथा उसकी व्यक्तित्व प्रणाली संबंधित सामाजिक प्रणाली के सामाजिक आचार-विचार तथा मूल्यों के आत्मसात् के माध्यम से सामाजिक प्रक्रिया की स्थिरता और एकता को बनाए रखती है। इसके अतिरिक्त, मनुष्य संस्कृति और समाज से सीखने के साथ-साथ संस्कृति की नई शैलियां विकसित करने तथा उन्हें मौजूदा शैलियों में समन्वित करने में भी सक्षम हैं।

 प्रकार्यवाद और सामाजिक परिवर्तन
प्रकार्यवाद की उपर्युक्त विशेषताओं से हमें यह आभास हो सकता है कि इसका संबंध सामाजिक प्रणाली की निरंतरता एवं अनुरक्षण मात्र से है। इसमें सामाजिक परिवर्तन की धारणा नहीं है। वास्तव में अनेक समाजशात्रियों ने प्रकार्यवाद की केवल इसलिए आलोचना की है कि इसमें सामाजिक प्रणाली के उस पहलू पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है, जिसके फलस्वरूप स्थिरता एवं निरंतरता बनी रहती हैं। उनका यह भी कहना है कि प्रकार्यवाद बुनियादी मूल्यों, विश्वासों, आचार-पद्धतियों या सामाजिक समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण के मामले में व्यापक सहमति या सर्वानुमति से चलता है। यह आलोचना उस प्रकार्यवादी दृष्टिकोण पर आधारित है, जो कि यह विश्वास करता है कि समाज के सदस्य समाज विशेष में अपनी समूची बाल्यावस्था में एक ही तरह के मूल्यों और विश्वासों से परिचित रहते हैं।

पार्सन्स ने संबंधित सामाजिक प्रणालियों की प्रकार्यात्मक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप सामाजिक प्रणाली में स्थिरता तथा मूल्य सहमति के तत्व के प्रवेश से इनकार नहीं किया। परंतु उसने सामाजिक परिवर्तन की संभावनाओं की भी कल्पना की थी। यह सामाजिक प्रणाली के विशिष्ट स्वरूप तथा प्रेरक प्रवृत्तियों के स्वरूप का परिणाम होता है, जो कि समाज में सदस्यों की कार्य-व्यवस्थाओं को संगठित करते हैं। पहला स्वरूप सामाजिक प्रणालियों को पारिस्थितिकीय संसाधनों और भौतिक एवं पर्यावरण परिस्थितियों जैसा बाह्य सीमवर्ती स्थितियों तथा सांस्कृतिक संपर्क एवं विचारों और हितों के प्रसार जैसे ऐतिहासिक पहलुओं एवं इन ऐतिहासिक पहलुओं के कारण उत्पन्न सामाजिक दबावों के साथ जोड़ता हैं । दूसरा स्वरूप इसे कार्य-प्रणालियों में अभिप्रेरक तत्वों से जोड़ता है, जो अपने स्वरूप में अनिवार्यतः निर्देशात्मक (directional) है। उद्देश्यों तथा मूल्यों के उन्मुखीकरण की दिशा सामाजिक प्रणाली में सामंजस्य और तनाव, दोनों को जन्म देती है। सामजस्य से स्थिरता आती है और तनाव से परिवर्तन होता है। पार्सन्स ने दो स्तरों पर सामाजिक परिर्वतन की कल्पना की है। पहला सामाजिक प्रणाली के भीतर की प्रक्रियाओं से उभरने वाला परिवर्तन और दूसरा है सामाजिक प्रणाली में आमूल परिवर्तन की प्रक्रियाएं ।

पार्सन्स के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन के दोनों पहलुओं पर ध्यान देने के लिए सामाजिक विज्ञानों में अभी तक कोई निश्चित सिद्धांत विकसित नहीं हो पाया है, किंतु समाजशास्त्र अपने विश्लेषण को दो पहलुओं तक सीमित रखकर सामाजिक परिवर्तन को समझने की समस्या हल कर सकता है। पहला यह कि परिवर्तन का अध्ययन अवधारणात्मक श्रेणियों अथवा प्रतिरूपों (चंतंकपहउे) की सहायता से किया जाए। अवधारणात्मक श्रेणियां जिन्हें पार्सन्स ने सामाजिक परिवर्तन के विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण माना है, वे हैं अभिप्रेरणात्मक और मूल्यपरक उन्मुखता तथा सामाजिक प्रणाली की प्रकार्यात्मक पूर्वापक्षाएं (इस खंड की इकाई 27 के भाग 27.6 में आपको इसके बारे में जानकारी दी गई है)। पार्सन्स के अनुसार, दूसरा पहलू यह है कि सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन सामान्य स्तर पर नहीं किया जाना चाहिए, जो सभी समाजों पर समान रूप से लागू हो, बल्कि विशिष्ट ऐतिहासिक स्तर पर किया जाना चाहिए। इसलिए पार्सन्स का यह मत है कि समाजशास्त्रियों के लिए समग्र सामाजिक प्रणाली के परिवर्तन की प्रक्रियाओं की तुलना में सामाजिक प्रणाली के भीतर के परिवर्तन का अध्ययन करना सरल है। पार्सन्स का मुख्य योगदान विभिन्न स्थितियों में सामाजिक प्रणाली के भीतर होने वाले परिवर्तन का अध्ययन है, किंतु उसने समग्र सामाजिक प्रणालियों में परिवर्तन का विश्लेषण करने का, विशेषकर विकासात्मक सार्विकीय तत्वों की अपनी अवधारणा के माध्यम से प्रयास भी किया है, जिसका विकास उसने अपने जीवन के बाद के वर्षों में किया था। हमने सामाजिक परिवर्तन में पार्सन्स के योगदान का अध्ययन इन दोनों स्तरों पर किया है। इसकी चर्चा अगले भाग में की जाएगी।

परंतु, अगले भाग को पढ़ने से पूर्व बोध प्रश्न 1 को पूरा करें।