निर्धनता की परिभाषा क्या है दीजिए | निर्धनता किसे कहते है ? what poverty in hindi meaning essay

what poverty in hindi meaning essay definition निर्धनता की परिभाषा क्या है दीजिए | निर्धनता किसे कहते है ?

उद्देश्य
इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आपके लिए संभव होगा:
ऽ गरीबी का सामाजिक समस्या के रूप में वर्णन करना;
ऽ निर्धनता की परिभाषा करना;
ऽ निर्धनता के कारणों पर प्रभाव डाल पाना;
ऽ निर्धनता और उसके परिणामों का विवेचन करना; और
ऽ कुछ गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का परिचय देना।

प्रस्तावना
पिछले खंड में हमने औद्योगिक, ग्रामीण, महिला एवं बाल मजदूरों जैसे विभिन्न वर्गों के श्रमिकों की सामाजिक समस्याओं का अध्ययन किया। इस खंड में हम वंचना एवं वैमुख्य के विभिन्न रूपों से जुड़ी समस्याओं की चर्चा करेंगे। इस खंड की पहली इकाई निर्धनता और उसके सामाजिक प्रभावों के बारे में है। इस इकाई में एक सामाजिक समस्या के रूप में निर्धनता का विश्लेषण किया गया है। हम निर्धनता की परिभाषा करने के साथ-साथ इसको आँकने के लिए श्रेणियाँ भी बताएँगे। इसके पश्चात् निर्धनता के कारणों, दुष्चक्र तथा भौगोलिक पहलुओं के परख की जाएगी। तत्पश्चात् गरीबी के परिणामों की जानकारी दी जाएगी। इसमें निर्धनता की संस्कृति, भारत में गरीबी और आय के वितरण में विषमता आदि शामिल हैं। इकाई के अंत में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का परिचय दिया जाएगा, जिनमें एकीकृत ग्राम विकास कार्यक्रम, रोजगार कार्यक्रम, महिला और युवा क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम एवं शहरी क्षेत्र शामिल हैं।

 निर्धनता एक सामाजिक समस्या के रूप में
सभी समाजों में पिछले लंबे समय से गरीबी रही है। तथापि, कुछ देशों में गरीबी की ‘‘सीमा‘‘ कम हैं तो कुछ में अधिक है। प्रत्येक समाज में, चाहे वह कितना ही सम्पन्न क्यों न हो, गरीब लोग अवश्य होते हैं। बताया जाता है कि अमेरिका में ढाई करोड़ से भी अधिक व्यक्ति (12.15 प्रतिशत) गरीबी में जी रहे हैं। 1960 के दशक में आकर ही गरीबी की व्यापकता को स्वीकार किया गया। तब अमेरिका में ‘‘निर्धनता के विरुद्ध युद्ध‘‘ नाम से एक कार्यक्रम चलाया गया। इंग्लैण्ड में कई सौ वर्ष पहले सन् 1601 में ही गरीबों के लिए एक कानून पारित किया गया था। इस कानून में उन लोगों को रोजगार देने के लिए एक कार्य केंद्र स्थापित करने का प्रावधान था, जिनके पास जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी करने का कोई भी साधन नहीं था। हालाँकि इस कार्य केंद्र में काम करने की स्थितियों तथा वेतन निराशाजनक थे, किन्तु इसे गरीबों की सरकारी तौर पर सहायता करने के विचार का शुभारंभ माना जा सकता है। तदनुसार, सम्पन्न देश अमेरिका में भी गरीबी है, किन्तु कुल मिलाकर वह अमीर देश है। दूसरी ओर, भारत में गरीबी एक मुख्य समस्या है। इस प्रकार निर्धनता एक सापेक्ष अवधारणा है। हमारे यहाँ गरीबी इतनी अधिक रही है कि इस ओर ज्यादा ध्यान दिया ही नहीं गया है। निर्धनता को किसी समाज का सामान्य पक्ष माना जाता था। हाल तक गरीबी से. निपटने के प्रति सामाजिक दायित्व का बोध नदारद था। इसके विपरीत गरीबी को युक्तिसंगत सिद्ध करने के प्रयास होते रहे हैं। ऐसा माना जाता था कि गरीब लोग अपनी दुर्दशा के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। बेरोजगारी को आलस्य को ही लक्षण माना जाता था। कर्म सिद्धांत में यह प्रतिपादित किया गया कि दरिद्रता यानी हमारे पिछले जन्म के पापों तथा दुष्कर्मों का फल है। किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं गरीबी का वरण किए जाने पर समाज उसकी सराहना करता था। किन्तु ऐसे मामलों में इसे निर्धनता नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह तो संन्यासी का जीवन अपनाने के लिए किया जाता है। महात्मा गाँधी ने स्वेच्छा से निर्धनता को अपनाया था। ऐसा ही महात्मा बुद्ध ने किया। यह स्थिति स्वाभाविक निर्धनता से भिन्न है, जिसमें व्यक्ति जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित रहता है।

वर्तमान समय में गरीबी को एक सामाजिक समस्या के रूप में स्वीकृति मिली है। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में गरीबी के शिकार लोगों की आमदनी को बढ़ाने की दिशा में कुछ प्रयास किए गए हैं। 1960 में दाण्डेकर तथा रथ (1971) ने गरीबी की रेखा की अवधारणा को बल दिया। चैथी पंचवर्षीय योजना में गरीबी दूर करने के लिए विशेष कार्यक्रम चालू किए गए।

निर्धनता की समस्या का योजनाबद्ध अध्ययन हाल ही में प्रारंभ हुआ है। ऐसा माना गया है कि गरीबी को समझने के लिए चार प्रश्नों का हल ढूँढना जरूरी है:
प) गरीबी क्या है?
पप) गरीबी की सीमा कितनी है?
पपप) गरीबी के कारण क्या हैं?
पअ) समाधान क्या है?

तीसरे प्रश्न में यह भी जोड़ा जा सकता है कि गरीबी के परिणाम क्या हैं? इस इकाई में इन्हीं प्रश्नों के आधार पर निर्धनता का अध्ययन किया जाएगा। प्रयास यह होगा कि इसके समाजशास्त्रीय पहलुओं का विवेचन किया जाए।

निर्धनता की परिभाषा एवं दृष्टिकोण
इस भाग में निर्धनता की विभिन्न परिभाषाओं और दृष्टिकोणों की चर्चा की जा रही है। पहले हम निर्धनता की परिभाषा दे रहे हैं।

परिभाषा
निर्धनता की परिभाषा के लिए सामान्यतया आर्थिक दृष्टिकोण अपनाया जाता है, जिसमें आय, सम्पत्ति तथा रहन-सहन के स्तर शामिल हैं। उन लोगों को निर्धन माना जाता है, जिनकी आय इतनी नहीं होती कि वे रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकें। भारत तथा अमेरिका द्वारा अपनाई गई ‘‘गरीबी की रेखा‘‘ की अवधारणा में निश्चित आमदनी को ही रेखा निर्धारित किया गया। जो लोग उस रेखा से नीचे आते हैं, वे गरीब माने जाते हैं। गरीबी की रेखा का निर्धारण एकतरफा तौर पर किया जाता है, इसलिए इस अवधारणा पर आपत्ति की जा सकती है। फिर भी इससे यह तय करने का एक आधार तो मिलता ही है कि गरीब कौन हैं? घोर निर्धनता के लिए ‘‘कंगाली‘‘ शब्द इस्तेमाल किया जाता है। यह शब्द उन लोगों के लिए है जो अपना पेट पालने में असमर्थ हैं। आज के समय में गरीबी का अध्ययन करते हुए अनेक आयामों पर विचार किया जाता है। इसे केवल आर्थिक विषय नहीं माना जाता। अब यह अनुभव किया गया है कि गरीबी को समझने के लिए समाजशास्त्रीय, राजनीतिक, मनोविज्ञानिक तथा भौगोलिक कारणों के साथ-साथ दृष्टिकोणों और जीवन-मूल्य प्रणालियों पर भी विचार करना आवश्यक है।

हमारा विचार है कि किसी भी ऐसे समाज में, जो व्यापक विषमताओं से युक्त है, सरकार का न्यूनतम दृष्टिकोण न सिर्फ आय का बल्कि आत्म-सम्मान तथा सामाजिक गतिशीलता के अवसरों और निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी का न्यूनतम स्तर बढ़ाने के प्रयास की ओर होना चाहिए। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि गरीबी से निपटने के प्रयास में हमें केवल आमदनी पर ही नहीं बल्कि व्यक्ति की राजनीतिक भूमिका, उसके बच्चों के लिए अवसरों एवं उसके आत्म-सम्मान पर भी ध्यान देना होगा। निर्धनता आर्थिक अभाव की स्थिति-मात्र नहीं है, यह सामाजिक तथा राजनीतिक वंचना भी है। इसलिए गरीबी का अध्ययन केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं करना चाहिए, बल्कि उसके राजनीतिक एवं सामाजिक पहलुओं से भी किया जाना चाहिए। ई.एस.ओ.-02 की इकाई 12 में गरीबी की अवधारणाओं तथा दृष्टिकोणों का विस्तृत विवेचन किया गया है। उसमें हमने गरीबी को एक जीवन स्तर के रूप में प्रस्तुत किया है, जो इतना नीचे है कि वह मानव के सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक विकास में बाधक है। उसमें यह भी बताया गया है कि निर्धनता सदियों से मानव सभ्यता तथा संस्कृति का अंग रही है। मानव समाज के विकास के प्रारंभिक चरण में सामाजिक संगठन तथा प्रौद्योगिकी के विकास का स्तर बहुत कम था और निर्धनता सामान्य प्रकार की थी, जो सारे समाज में व्याप्त थी। मानव समाज के विकास की प्रक्रिया में सामाजिक संगठन तथा प्रौद्योगिकी में बहुत प्रगति हुई है। परंतु इस प्रगति के लाभ समाज के सभी वर्गों को समान रूप से प्राप्त नहीं हुए हैं। इस कारण लोग अमीर भी बने हैं और गरीब भी बने हैं।

इस प्रकार गरीबी समाज के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे से जुड़ी रही है। गरीबी के विशेषज्ञों ने मोटे तौर पर दो प्रकार से दृष्टिकोण अपनाए हैं। पहला है – पोषाहार दृष्टिकोण। इस दृष्टिकोण में न्यूनतम खाद्य आवश्यकताओं के आधार पर निर्धनता का आकलन किया जाता है। दूसरा दृष्टिकोण है – तुलनात्मक वंचन दृष्टिकोण। इस दृष्टिकोण में समाज के पूर्व-विकसित वर्गों की तुलना में किसी वर्ग में व्याप्त वंचना को गरीबी का मापदंड माना जाता है। निर्धनता के आकलन से संबंधित भाग में हम इन विषयों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

दृष्टिकोण
निर्धनता के आकलन के बारे में अनेक दृष्टिकोण हैं। निर्धनता के आकलन में सबसे प्रमुख कारक आमदनी है। अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है कि एक खास आमदनी से क्या-क्या साधन जुटाए जा सकते हैं? क्या उस आमदनी से बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर पाना संभव है? इस कारण यह भी राय व्यक्त की गई है कि किसको कितना और कैसा भोजन मिलता है, इसको निर्धनता की कसौटी माना जाए। यदि कोई वयस्क व्यक्ति प्रतिदिन एक निश्चित मात्रा में कैलोरी (2,250) नहीं ले पाता, तो वह वयस्क व्यक्ति गरीब माना जाएगा। आर्थिक पहलू सामान्य तौर पर मूलभूत आवश्यकताओं के निर्धारण पर आधारित है और इसका उल्लेख उन साधनों के संदर्भ में किया जाता है, जो स्वास्थ्य एवं शारीरिक क्षमता को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। किन्तु इस प्रकार के दृष्टिकोण को अब सही नहीं माना जा सकता है। बुनियादी आवश्यकताओं में शिक्षा, सुरक्षा, आराम तथा मनोरंजन भी शामिल हैं। जिन व्यक्तियों के पास इतने कम संसाधन हों कि वे समाज की जीवन पद्धतियों, रिवाजों तथा गतिविधियों से वंचित रहते हों, उन्हें गरीब माना जाता है। जिन पद्धतियों से निर्धनता का निष्पक्ष तथा विश्वसनीय आकलन संभव है, उनमें से एक है जीवन सूचकांक का भौतिक स्तर (च्ीलेपबंस ुनंसपजल व िसपजम पदकमग) यानी पी.क्यू.एल.आई.। इस अवधारणा में तीन सूचक इस्तेमाल किए जाते हैं। ये हैं: औसत आयु, शिशु मृत्यु तथा साक्षरता। इन क्षेत्रों में प्रत्येक देश की उपलब्धियों के आधार पर सभी देशों के बीच एक सूचकांक निर्धारित किया जाना चाहिए। सबसे कम उपलब्धि के लिए शून्य तथा सबसे अच्छी उपलब्धि के लिए 100 सूचकांक रहेगा। 1970 के दशक में भारत के लिए पी.क्यू.एल.आई. 43 था। भारत में निर्धनता के आकलन के लिए अनेक अध्ययन किए गए हैं। उदाहरण के लिए, ओझा ने अपने अध्ययन में कैलोरी की औसत प्राप्ति की निर्धनता के आकलन का मापदंड बनाया। उनके अनुसार जो व्यक्ति प्रतिदिन 2,250 प्रति व्यक्ति के कम कैलोरी लेते हैं, वे गरीबी की रेखा से नीचे हैं। दाण्डेकर तथा रथ (1971) ने कैलोरी (2,250) का मूल्य 1960-61 में कीमतों के आधार पर तय किया। उनकी राय है कि वित्तीय सूचकांक के हिसाब से ग्रामीण तथा शहरी निर्धनता की सीमा में अंतर होता है। उनका कहना है कि योजना आयोग ने प्रति व्यक्ति 20 रुपये प्रति माह अथवा 240 रुपये प्रति वर्ष आय को आमदनी का न्यूनतम वांछित स्तर स्वीकार किया है, किन्तु शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों पर इस राशि को लागू करना उचित न होगा। उन्होंने 1960-61 की कीमतों के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए न्यूनतम स्तर 180 रुपये तथा अधिकतम स्तर 270 रुपये प्रति वर्ष तय किया।

प) चरम निर्धनता
चरम निर्धनता से अभिप्राय है किसी व्यक्ति अथवा परिवार की जीवन की बुनियादी आवश्यकताएँ जुटा पाने में असमर्थता। इसका अर्थ है भौतिक आवश्यकताओं का घोर अभाव, भूखमरी, कुपोषण, आश्रय तथा कपड़ों की कमी, चिकित्सा सुविधाओं से पूर्णतया वंचित रहना। ‘‘चरम निर्धनता‘‘ को कभी-कभी ‘‘अस्तित्व निर्धनता‘‘ भी कहा जाता है क्योंकि यह जीवित रहने की न्यूनतम आवश्यकताओं के आकलन पर आधारित है। पौष्टिकता का आकलन कैलोरी तथा प्रोटीन की मात्रा से, आश्रय का आकलन मकान के स्तर तथा उसमें रहने वाले लोगों की संख्या, तथा शिशु मृत्युदर और चिकित्सा सुविधाओं के स्तर से किया जाता है। निर्धनता की परिभाषा को व्यापक बनाए जाने के बाद यह भी कहा जा रहा है कि भौतिक आवश्यकताओं से आगे जाकर सांस्कृतिक आवश्यकताओं – शिक्षा, सुरक्षा तथा मनोरंजन को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। ‘‘चरम निर्धनता‘‘ की अवधारणा में जीवित रहने की जिन न्यूनतम आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है, वे सभी लोगों के लिए समान हैं।

यह तक पूरी तरह से स्वीकार कर पाना कठिन है। किसी कृषि मजदूर की भोजन संबंधी आवश्यकताएँ किसी क्लर्क की आवश्यकताओं से भिन्न होंगी। इसी प्रकार कपड़े की जरूरतों में भी भिन्नता होगी। यदि सांस्कृतिक आवश्यकताओं को भी शामिल करें, तो मापदंड और जटिल हो जाएंगे। इन सभी दृष्टिकोणों में निर्धनता की अवधारणा की समझ का व्यापकीकरण तथा निर्धनता के आकलन में कठिनाई भी शामिल है।
कोष्ठक 13.01
भारत में 1947 के बाद हुई प्रगति इतिहास में द्वितीय है। किन्तु अन्य विकासशील देशों के मुकाबले यह प्रक्रिया धीमी और कष्टपूर्ण रही है। पिछले 40 वर्षों में निर्धनता में भी वृद्धि हुई है। प्रश्न कुछ हिस्सों में मौजूद गरीबी का नहीं है, बल्कि समूचे देश में बड़ी संख्या में गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे लोगों का है।
गरीबी की रेखा का निर्धारण सामान्यतया जीवित रहने तथा काम कर सकने के लिए आवश्यक कैलोरी की प्रतिदिन न्यूनतम प्राप्ति (2400) के आधार पर किया जाता है। इसलिए इसमें जीवित रहने की अन्य आवश्यकताएँ जैसे कि मकान, कपड़ा, स्वास्थ्य तथा शिक्षा शामिल नहीं हैं। इस प्रकार यह वाकई एकदम न्यूनतम है।

पप) तुलनात्मक निर्धनता
‘‘चरम निर्धनता‘‘ को पूर्णतया स्वीकार करना कठिन है, इसलिए ‘‘तुलनात्मक निर्धनता‘‘ की नई अवधारणा विकसित हुई है। इस अवधारणा के अनुसार किसी स्थान तथा समय विशेष में जीवन स्तर के अनुसार निर्धनता का आकलन किया जाता है। भाव यह है कि समाज के जीवन स्तर के मानक बदलते रहते हैं, इसलिए निर्धनता की परिभाषा भी इन बदलते हुए मानकों के अनुसार बदलती रहनी चाहिए। अतः निर्धनता की परिभाषा बदलते हुए समाजों की आवश्यकताओं तथा माँगों से जुड़ी होनी चाहिए। 1960 में 20 रुपये या उससे कम की प्रति व्यक्ति मासिक आय वाले लोग गरीबी की रेखा से नीचे माने जाते थे। 1990 में जिन लोगों की मासिक आय 122 रुपये से कम है, वे गरीबी की रेखा से नीचे माने जाते हैं। ‘‘तुलनात्मक निर्धनता‘‘ में यह तथ्य भी निहित है कि विभिन्न समाजों के मानक भिन्न होते हैं, अतः निर्धनता का सार्वभौमिक मापदंड तय करना असंभव है। अमेरिका में वहाँ के मानकों के हिसाब से लोग निर्धन माने जाते हैं, वे भारत में गरीब नहीं होंगे।

बोध प्रश्न 1
1) निर्धनता की परिभाषा कैसे की जा सकती है? अपना उत्तर पाँच-सात पंक्तियों में दीजिए।
2) निर्धनता के प्रति न्यूनतम दृष्टिकोण क्या है? अपना उत्तर पाँच-सात पंक्तियों में दीजिए।

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) निर्धनता की परिभाषा ‘‘गरीबी की रेखा‘‘ के संदर्भ में की जाती है। इस रेखा से नीचे रहने वाले लोग गरीब माने जाते हैं। इसमें एक दोष यह है कि गरीबी की रेखा का निर्धारण इकतरफा तौर पर किया जाता है। इसलिए इसके औचित्य पर आपत्ति की जा सकती है। फिर भी, इससे यह निर्धारित करने का एक तरीका तो मिलता ही है कि गरीब कौन है।
2) निर्धनता के प्रति न्यूनतम दृष्टिकोण है सभी निर्धन लोगों का न्यूनतम जीवन स्तर ऊपर उठाने का प्रयास करना। इसमें लोगों में आत्म-सम्मान बढ़ाना, सामाजिक गतिशीलता तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी बढ़ाने का प्रयास शामिल है।