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physical properties of a solvent in hindi of non aqueous solvents विलायकों के भौतिक गुण

विलायकों के भौतिक गुण physical properties of a solvent in hindi of non aqueous solvents pdf b.sc 2nd year ?

 विलायकों के भौतिक गुण (Physical properties of a solvent )

अधिकांश रासायनिक अभिक्रियाएँ जल में होती हैं। विलायक के रूप में जल की भूमिका का महत्व इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि जल के बिना जीवन को जारी रखना असम्भव है । जीवन के लिए आवश्यक उपचापचयी (metabolic) अभिक्रियाओं के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी जल अति महत्वपूर्ण है और इसी कारण से इसे ‘सम्पूर्ण विलायक’ (universal solvent) नाम भी दिया गया है।

द्रव अमोनिया तथा द्रव सल्फर डाइऑक्साइड जैसे अन्य विलायकों का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि जल में होने वाली अधिकांश अभिक्रियाएँ जलीय माध्यम की ही विशिष्टता नहीं है। जल में होने वाली अभिक्रियाओं का विश्लेषण एवं वर्गीकरण करने पर ज्ञात होता है कि अधिकांश जलीय अभिक्रियाएँ सामान्य अभिक्रियाएँ हैं जो अन्य विलायकों द्वारा भी प्रदर्शित की जाती हैं, जैसा कि आगामी पृष्ठों में बताया गया है। तथापि, प्रत्येक द्रव का विलायक के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता और न ही किसी एक विलायक में सभी अभिक्रियाओं का अध्ययन किया जा सकता है । अतः हम अपना ध्यान उन गुणों पर केन्द्रित करते हैं जिनके पाये जाने पर किसी द्रव का उपयोग एक उपयुक्त विलायक के रूप में किया जा सकता है। चूंकि, हम जल के गुणों से भली भांति परिचित हैं, हम इन्हें प्रतिरूप (model) के रूप में स्वीकार कर इनकी तुलना अन्य विलायकों से करेंगे जिससे अभिक्रिया के माध्यम के रूप में अजलीय विलायकों की उपयुक्तता ज्ञात की जा सके। जल, अमोनिया तथा SO2 के कुछ भौतिक गुण तुलना की दृष्टि से सारणी – 7.1 में दिये गये हैं।

भौतिक गुणों के अध्ययन से ऐसे विलायक तलाश किये जा सकते हैं जिनमें अभिक्रियाएँ सामान्य से जल की भांति ही होती हैं लेकिन वास्तव में ये जल से भिन्न होती हैं। किसी पदार्थ के विलायक गुणों को निर्धारित करने वाले प्रमुख भौतिक गुण निम्न हैं-

(i) गलनांक तथा क्वथनांक– विलायक तन्त्रों में अधिकांश अभिक्रियाएँ द्रव अवस्था में होती हैं। यदि पदार्थ कक्षीय ताप एवं वायुमंडलीय दाब पर द्रव अवस्था में रहता है तो अभिक्रिया का अध्ययन बहुत आसानी से किया जा सकता है। विलायक के गलनांक से क्वथनांक तक का ताप क्षेत्र वह द्रव ताप क्षेत्र है जिसमें विलायक द्रव अवस्था में रहता है तथा अध्ययन कार्य हेतु उपयोगी हो सकता है क्योंकि क्वथनांक से उच्चतर ताप पर वह गैस अवस्था में तथा गलनांक से नीचे ठोस अवस्था में परिवर्तित हो जायेगा। जल का द्रव ताप क्षेत्र 0° से 100°C होने के कारण इसमें रासायनिक अध्ययन अति सुविधाजनक रहता है। अमोनिया का द्रव ताप क्षेत्र – 77.8° से 33.4 °C होने के कारण इसका उपयोग बहुत ही सीमित हो गया है । परन्तु इस प्रकार के यौगिक, जो – 33.4°C से ऊपर के ताप पर स्थायी नहीं होते, उनको द्रव अमोनिया में पृथक किया जा सकता है।

(ii) द्विध्रुव आघूर्ण (Dipole moment ) :- ध्रुवीय सहसंयोजक बन्ध वाले अणु का आचरण एक छोटे छड़ चुम्बक जैसा होता है। अतः इसे एक द्विध्रुव कहते हैं। ऐसे अणुओं में, ऋण तथा धन आवेश के केन्द्र एक स्थान पर नहीं पड़ते हैं। दोनों आवेशों के केन्द्रों के मध्य दूरी (d) तथा आवेश (e) के गुणनफल को द्विध्रुव आघूर्ण कहते हैं (u = ex d) । स्पष्ट है कि बंध की जितनी अधिक ध्रुवता होगी तथा ध्रुवों के मध्य जितनी अधिक दूरी होगी उतना ही अधिक द्विध्रुव आघूर्ण का मान होगा। अधिक द्विध्रुव आघूर्ण मान वाले पदार्थ ध्रुवीय विलेय पदार्थों के लिए अच्छे विलायक होते हैं। इसका कारण यह है कि विलायक .अणु की ध्रुवता अधिक होने पर वह विलेय पदार्थ पर अधिक आकर्षण बल लगा सकेगा तथा विलेय पदार्थ के घुलने से प्राप्त विलायकन ऊर्जा (solvation energy) भी अधिक होती है । ‘

किसी विलायक के द्विध्रुव आघूर्ण के मान से इस बात का भी अनुमान लग जाता है कि द्रव अवस्था किस हद तक संगुणित ( associated) हैं और इस प्रकार द्रव ताप क्षेत्र लगभग कितना है क्योंकि द्विध्रुव आघूर्ण अधिक होने पर विलायक अणुओं के मध्य आकर्षण भी अधिक होगा जिससे द्रव ताप क्षेत्र भी उच्च होगा। इसके विपरीत द्विध्रुव आघूर्ण कम होने से सामान्यतः क्वथनांक तथा द्रव ताप क्षेत्र भी कम होंगे

(iii) डाइइलेक्ट्रिक स्थिरांक (Dielectric constant ) – एक धनायन तथा एक ऋणायन के मध्य कूलम्बिक बल निम्न समीकरण से दिये जाते हैं-

F = e1e2/Dr2

जहां e1 तथा e2  आयनों पर आवेश, r उनके मध्य दूरी, तथा D एक स्थिरांक है जिसे माध्यम का डाइइलेक्ट्रिक स्थिरांक कहते हैं। इस स्थिरांक का मान आयनों के मध्य पाये जाने वाले माध्यम पर निर्भर करता है। D का मान अधिक होने पर F का मान कम होगा। D के उच्च मान वाले द्रव विलेय पदार्थों के अन्तराआयनिक आकर्षी बलों में अत्यधिक कमी ला देंगे अर्थात् ठोस में आयनों को एक साथ बांधे रखने वाले आकर्षण बल दुर्बल हो जायेंगे तथा अन्ततः आयनिक क्रिस्टल विलायक में घुल जायेगा। उदाहरणार्थ, जल का डाइलेक्ट्रिक स्थिरांक अमोनिया से अधिक ( क्रमशः 80 व 22 ) होने आयनिक यौगिकों के लिए जल अपेक्षाकृत उत्तम विलायक है । सामान्यतः 50 से अधिक डाइइलेक्ट्रिक स्थिरांक वाले द्रव को उच्च, 20-50 वाले को सामान्य तथा 20 से कम वाले को कम डाइइलेक्ट्रिकस्थिरांक  वाला विलायक माना जा सकता है।

(iv) विद्युत चालकता (Conductivity):- क्योंकि ये विलायक द्रव अवस्था में स्वतः ही आयनित रहते हैं विद्युत सुचालकता से इनकी स्वतः आयनन की सीमा का पता चल जाता है। अधिक आयनन होने पर इनमें अम्ल-क्षार अभिक्रियाएँ आसानी से होने लगती हैं।

(v) श्यानता (Viscosity) :- श्यानता द्रव विलायकों का एक विशिष्ट गुण है जो द्रव के गाढ़ेपन को बतलाता है। कुछ विलायक, जैसे जल, कम अणु भार के ऐल्कोहॉल तथा द्रव अमोनिया बहुत ही पतले द्रव हैं जबकि कुछ, उदाहरणार्थ शुद्ध सल्फ्यूरिक अम्ल, उच्च अणु भार के ऐल्कोहॉल इत्यादि, शहद की तरह गाढ़े होते हैं। अवक्षेपण, फिल्टरन तथा क्रिस्टलीकरण इत्यादि कार्य में गाढ़े विलायक के प्रयोग से कठिनाई उत्पन्न होती है। श्यानता कम होने पर आयन व अणुओं की विलायक में गतिशीलता बढ जाती है।

(vi) प्रोटॉन बन्धुकता (Proton affinity) – यह केवल प्रोटॉनिक विलायकों के लिए ही लागू होता है। प्रोटॉन बंधुकता से हमें पता चलता है कि उस द्रव में प्रोटॉन के साथ बंध बनाने की कितनी प्रवृति पाई जाती है। दिये गये विलायक तन्त्र में यह विलेय के आचरण को बहुत अधिक प्रभावित करता है । अमोनिया की जल की अपेक्षा अधिक प्रोटॉन बन्धुकता पाई जाती है। अतः ऐसिटेमाइड एवं यूरिया, जो जलीय विलयन में बहुत ही दुर्बल क्षार हैं, द्रव अमोनिया में अम्लीय गुण प्रदर्शित करते हैं-

 विलायकों की सामान्य विशिष्टताएँ (General characteristics of solvents)

आयनकारक विलायकों में रासायनिक अभिक्रियाओं को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है- (i) अम्ल-क्षारक अभिक्रियाएँ (ii) विलायक संकर का निर्माण (solvate formation) (iii) विलायक अपघटनी अभिक्रियाएँ (solvolytic reactions) (iv) विनिमय अभिक्रियाएँ (metathetical reactions) तथा (v) रिडॉक्स अभिक्रियाएँ (redox reactions) । इनकी विवेचना आने वाले पृष्ठों में संक्षेप में की गई है।

  1. अम्ल-क्षारक अभिक्रियाएँ- पदार्थों के अम्ल तथा क्षारक आचरण समझाने के लिए बहुत सिद्धान्त बतलाये गये हैं जिनका वर्णन पूर्ववर्ती कक्षाओं तथा अध्याय 6 में किया गया है। इनमें से प्रत्येक सिद्धान्त की कुछ विशेषताएँ तथा कुछ कमियां हैं। आर्हीनियस (Arrhenius ) का सिद्धान्त न केवल प्रथम सफल सिद्धान्त था अपितु अत्यन्त सरल भी था। इस सिद्धान्त के अनुसार जलीय विलयन में H’ आयन देने वाले पदार्थ अम्ल तथा OH- आयन देने वाले पदार्थ क्षारक माने जाते हैं। इस सिद्धान्त की मुख्य सीमा यह रही कि यह जलीय माध्यम में ही पदार्थों का अम्ल तथा क्षारक के रूप में विभेद करता तथा अन्य विलायकों में पदार्थों के अम्ल या क्षारक के रूप में आचरण के बारे में मौन रहता है। कैडी (Cady) तथा ऐल्से (Elsey) ने 1928 में अम्ल-क्षार की उपर्युक्त परिभाषा का विस्तार करते हुए जलीय एवं सभी अजलीय आयनकारी विलायकों में पदार्थों के अम्लीय या क्षारीय आचरण की व्याख्या की। उनकी परिभाषा के अनुसार एक अम्ल वह पदार्थ है जो विलायक से प्राप्त धनायनों की सांद्रता देता है तथा क्षारक वह पदार्थ है जो विलायक से प्राप्त ऋणायन की सांद्रता बढा देता है। कैडी तथा ऐल्से की परिभाषा इस तथ्य पर आधारित थी कि जलीय माध्यम में जल के स्वतः आयनन से प्राप्त धनायन H’ को बढ़ाने वाले पदार्थों HCI, HNO3CH3 COOH आदि को अम्ल तथा जल से प्राप्त ऋणायन, OH-, को बढ़ाने वाले NaOH KOH आदि पदार्थों को क्षारक नाम दिया गया था। अतः पदार्थों की अम्लों या क्षारकों के रूप में पहचान से पूर्व यह आवश्यक है कि विलायकों के स्वतः आयनन से प्राप्त धनायनों व ऋणायनों के बारे में बताया जाये। कुछ प्रमुख आयनकारी विलायकों के स्वतः आयनन नीचे दिये गये हैं–

उदाहरण के लिए, द्रव अमोनिया में सभी अमोनियम लवण अम्लों का कार्य करेंगे क्योंकि ये NH+ आयन प्रदान करते हैं और, इस प्रकार, द्रव अमोनिया के स्वतः आयनन से प्राप्त धन आयनों (NH ‘) की सांद्रता बढ़ा देते हैं। इसी प्रकार, सभी विलेय ऐमाइड क्षारकों की तरह आचरण करेंगे क्योंकि वे अमोनिया के स्वतः आयनन से प्राप्त होने वाले ऋण आयन NH – की सान्द्रता बढ़ा देते हैं। कैडी तथा ऐल्से की परिभाषा के अनुसार, द्रव अमोनिया में अमोनियम क्लोराइड तथा पोटैशियम ऐमाइड के मध्य की अभिक्रिया एक विशिष्ट अम्ल-क्षारक अभिक्रिया है, जिसके लिए फिनोल्पथेलिन सूचक के रूप में काम में लिया जा सकता है ।

NH4 + Cl + K + NH2 K+ CI + 2 NH3

या आयनिक रूप में

NH4+ + NH2 = 2NH3

इसी आधार पर कहा जा सकता है कि सल्फ्यूरिक अम्ल में बाइसल्फेट NaHSO4, KHSO4 आदि द्रव N2O4 में नाइट्रेट NaNO3, KNO3 तथा परक्लोरिक अम्ल में परक्लोरेट लवण KCIO4, NaClO4 आदि क्षारकों की तरह आचरण करेंगे क्योंकि इन लवणों के आयनन से वही ऋणायन प्राप्त होते हैं जो विलायकों के स्वतः आयनन से बनते हैं। विलायकों में अम्ल-क्षार अभिक्रिया प्रदर्शित करने हेतु कुछ प्रतीकात्मक उदाहरण नीचे किये गये हैं ।

(a) द्रव BrF3 में SnF4 एक अम्ल की तरह आवरण करता है क्योंकि विलायक BrF3 क स्वतः आयनन से प्राप्त ऋणायन BrF 4 स यह निम्न प्रकार अभिक्रिया करते हुए धनायन BrF2 + की सान्द्रता बढ़ा देता है।

SnF2-+ BrF4 → SnF62 + BrF2+

(b) द्रव हाइड्रोजन फ्लुओराइड में ऐसीटोन, ऐसीटिक अम्ल तथा नाइट्रिक अम्ल क्षारकों के रूप में काम करते हैं, क्योंकि दोनों ही HF2 आयनों की सांद्रता में वृद्धि करते हैं-

(CH3)2CO + H2F2 = (CH3)2 COH + HF2

CH3COOH + H2F2 = CH3COOH2+ + HF2

HNO3 + H2F2 = H2NO3+ + HF2

विलेय के आचरण समझने के लिए निम्न बिन्दु विशेष ध्यान देने योग्य हैं-

(i) प्रोटॉनिक विलेय का एक अम्ल या क्षारक के रूप में आचरण : किसी प्रोटॉनिक पदार्थ का विलेय होने के पश्चात् एक अम्ल या एक क्षारक के रूप में कार्य करना, मुख्यतः विलायक की प्रकृति पर निर्भर करता है। यदि घुलित पदार्थ की प्रोटॉन देने की प्रवृति विलायक की अपेक्षा अधिक है तो घुलित पदार्थ अम्ल की तरह आचरण करेगा। लेकिन यदि विपरीत सत्य है अर्थात् विलायक की प्रोटॉन देने की प्रवृत्ति अधिक है जो घुलित पदार्थ एक क्षारक होगा। उदारहण के लिए, ऐसीटिक अम्ल तथा नाइट्रिक अम्ल जलीय माध्यम में क्रमशः दुर्बल तथा प्रबल अम्ल की भाँति व्यवहार करते हैं परन्तु निर्जलीय सल्फ्यूरिक अम्ल में ये दोनों क्षार की भाँति व्यवहार करते हैं-

CH3COOH+H2O H2O- → H3O+ + CH3OO   (CH3COOH दुर्बल अम्ल के रूप में)

HNO3 + H2O  = H3O + NO3–    (HNO3 प्रबल अम्ल के रूप में)

CH3COOH + H2SO4 = HNO4 + CH3COOH2+   (CH3COOH क्षार के रूप में)

HNO3 + H2SO4 = HSO4 + NO2+ + H2O  (HNO3 क्षार के रूप में)

इसी प्रकार, H2SO4 जो कि जल में प्रबल अम्ल होता है, द्रव HF में क्षारक की भाँति व्यवहार करता है तथा परक्लोरिक अम्ल में HF का आचरण एक क्षारक जैसा है।

H2SO4 + H2O = H3O+ + HSO4–  (H2SO4 प्रबल अम्ल के रूप में)

3HF + H2SO= HOSO2F + H3O+ HF2    (H2SO4 क्षार के रूप में)

H2F2 + 2HCIO= 2H2F + 2CIO4   (H2F2 एक क्षार के रूप में)

(ii) सामर्थ्य (Strength) : किसी विलायक में किसी अम्ल की सामर्थ्य विलायक द्वारा प्रोटॉन लेने में की क्षमता पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए जल की प्रोटॉन बन्धुकता अमोनिया की तुलना कम हैं। ऐसीटिक अम्ल, जो जल में दुर्बल अम्ल है, अमोनिया में प्रबल अम्ल के गुण प्रदर्शित करता है क्योंकि अमोनिया में प्रोटॉन ग्रहण करने की सामर्थ्य जल की अपेक्षा अधिक पाई जाती है।

CH3COOH + H2O = H3O+ + CH3COO

CH3COOH + NH3 = NH4+ + CH3COO

(iii) समआयनन विलायक (Levelling solvents) :- किसी विलायक में यदि भिन्न भिन्न सामर्थ्य वाले अम्ल या क्षारक लगभग समान सामर्थ्य के प्रतीत होते हैं तो उस विलायक को समआयनन विलायक कहते हैं। जब अम्लों तथा क्षारकों की विलायक की तुलना में प्रोटॉन देने की प्रवृति मेंबहुत अधिक अन्तर होता है तो प्रबल प्रोटॉनदाता या ग्राही लगभग पूर्ण रूप से आयनित हो जायेगा । उदाहरण के लिए HCIO4, HI, HBr, HNO3, HCI, H2SO4 इत्यादि जल की तुलना में बहुत ही अधिक प्रबल प्रोटॉनदाता है, अतः ये सभी अम्ल जल से पूर्ण रूप से क्रिया करते हैं। दूसरे शब्दों में, ये अम्ल जल में पूर्ण रूप से आयनित हो जाते हैं। फलतः ऐसा प्रतीत होता है जैसे जल में ये सभी अम्ल समान रूप से प्रबल हैं। अतः इन अम्लों के लिए जल को समआयनन विलायक (levelling solvent) कहते हैं। जल में इन अम्लों का आयनन निम्न अभिक्रियाओं द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। इन अभिक्रियाओं के फलस्वरूप प्राप्त H3O+ आयन की सान्द्रता प्रत्येक अभिक्रिया में लगभग समान होगी ।

HCIO4 + H2O →  CIO4 + H3O+

HCl+H2O  = CI + H3O+

HNO3 + H2O → NO3 + H3O+

इसी प्रकार, यदि दो प्रोटॉन ग्राही पदार्थों के प्रोटॉन ग्रहण करने के गुणों में अत्यधिक अन्तर है, तो दुर्बल प्रोटॉन ग्राही में प्रबल प्रोटॉन ग्राही पूर्ण रूप से आयनित होगा। उदाहरण के लिए NaH, NaNH2, NaOC2H5 इत्यादि जल की अपेक्षा प्रबल प्रोटॉन ग्राही हैं। अतः ये सभी जल से पूर्ण रूप से अभिक्रिया कर OH- आयन देते हैं-

Na+ H- + HOH- Na+ +OH + H:H

Na+ + NH2 + HOH = Na+ + OH + NH3

Na+OC2H5 + HOH- → Na+ + OH¬+ C2H5OH

लेकिन जलीय माध्य में ये सभी समान रूप से प्रबल क्षारकों की तरह आचरण करते हैं। अतः इनके लिए जल समआयनन विलायक है, अर्थात् उपर्युक्त अभिक्रियाओं में OH- आयन सान्द्रता लगभग समान होगी।

(iv) विषम आयनन विलायक (Differentialing solvent ) :- यदि किसी विलायक में विभिन्न प्रोटॉनिक पदार्थों की प्रोटॉन देने या लेने की क्षमता का विभेद किया जा सके तो उस विलायक को विषम आयनन विलायक कहते हैं क्योंकि उनके आयनन के पश्चात् प्राप्त धनायन या ऋणायन की सांन्द्रता विषम होती है। जब प्रोटॉनिक पदार्थों की प्रोटॉन देने या लेने की प्रवृत्ति तथा विलायक की प्रवृत्ति में अधिक अन्तर नहीं होता है तो ऊपर दिये गये सभी अम्ल भिन्न-भिन्न सीमा तक आयनित होंगें। उदाहरण के लिए, ऐसीटिक अम्ल जिसकी प्रोटॉन देने की प्रवृति जल से अधिक है अम्लों के लिए विषम आयनन विलायक ( differentiating solvent) का कार्य करता है । अर्थात, वे सभी अम्ल जो जल में. पूर्ण रूप से वियोजित होकर समान संख्या में H3 O+ बनाते हैं, अब भिन्न-भिन्न सीमा तक आयनित होंगे क्योंकि अब ऐसीटिक अम्ल, जो स्वयं जल से अधिकं प्रबल प्रोटॉन दाता है, को अन्य अम्लों से प्रोटॉन स्वीकार करना होगा ।

HX+ CH3COOH ← CH3COOH+2+X

स्पष्ट है कि जिस अम्ल की प्रोटॉन देने की प्रवृति ऐसीटिक अम्ल से अधिक होगी वही अम्ल ऐसीटिक अम्ल को प्रोटॉन देते हुए आयनित हो पायेगा। किसी अम्ल की प्रोटॉन देने की प्रवृति जितनी अधिक होगी वह उतना ही प्रबल अम्ल होगा। प्रोटॉनदाता प्रवृत्ति में अन्तर के आधार पर उपर्युक्त अम्लों की अम्ल सामर्थ्य का क्रम निम्न प्रकार है :

HCIO4>HI > HBr > H2SO4 > HC1> HNO3

क्षारकों के लिए द्रव अमोनिया जैसे क्षारकीय विलायक विषम आयनन विलायकों की तरह कार्य करते हैं | हम पुनः NaH, NaNH2 तथा NaOC2 H5 उदाहरणस्वरूप लेते हैं। इन सभी क्षारकों की प्रोटॉन दाता क्षमता जल से बहुत अधिक होने के कारण, जल में ये सभी क्षार समान रूप से प्रबल क्षार प्रतीत होते हैं। हम जानते हैं कि जल की तुलना में अमोनिया अच्छा प्रोटॉनग्राही है। अतः यह इन क्षारकों के लिए विषम आयनन विलायक का कार्य करता है तथा इन क्षारों की सामर्थ्य का निम्न क्रम निर्धारित किया जा सकता है।

NaH > NaNH2 > NaOC2H5

  1. विलायक संकर का निर्माण ( Solvate formation ) – एक ऐसी अभिक्रिया जिसमें विलायक का एक अणु स्वयं को विलेय (धनायन, ऋणायन या अणु) के साथ जोड़ लेता है, विलायक संकरण या विलायकन (solvation) कहलाती है । विलायक अणु विलेय के साथ आयन-द्विध्रुव आकर्षण के माध्यम से,हाइड्रोजन बन्ध से या उपसहसंयोजन बन्ध द्वारा जुड़े रहते हैं । उपसहसयोजन बन्धन में विलायक लूइस अम्ल या लूइस क्षारक के रूप में काम कर सकता है जो विलायक के क्रमशः ग्राही या दाता गुणों पर निर्भर करता है।

(a) विलायक-लूइस क्षारक के रूप में

BF3 + NH3  = BF3 NH3

CUCI2 + 4H2O  = [CU(H2O)42+ + 2CI

( विलेय – लूइस अम्ल) (विलायक – लूइस  क्षारक) (विलायक संकर)

(b) विलायक लूइस अम्ल के रूप में

KI  + 4SO2  = K+[I(SO2)4]

(विलेय- लूइस क्षारक) (विलायक – लूइस अम्ल) (विलायक संकर)

  1. विलायक अपघटन या विलायक अपघटनी अभिक्रियाएँ :- विलायक संकर निर्माण में विलेय के अणु या आयन से विलायक का पूरा अणु बंध बना लेता है। चूँकि विलायक अणुओं का स्वतः आयनन होता है; यह सम्भव है विलेय आयन या अणु विलायक के धनायन या ऋणायन से बंध बनाकर दूसरे आयन को मुक्त कर दे। अर्थात् विलायक अणु विलेय के साथ इस प्रकार से अभिक्रिया कर सकते हैं, जिससे यह (विलायक) दो भागों में विभक्त हो जाये। इनमें से अधिकांश तरह की अभिक्रियाओं में विलायक से प्राप्त धनायन या ऋणायन की सान्द्रता बढ़ जाती है। ऐसी अभिक्रियाओं को विलायक अपघटनी अभिक्रियाएँ कहते हैं। यदि विलायक के रूप में जल या अमोनिया विलेय के साथ इस प्रकार की अभिक्रिया करते हैं तो इन विलायक अपघटनी अभिक्रियाओं को विशेष नाम क्रमशः जलअपघटन या अमोनोपघटन कहा जाता है। उदाहरण स्वरूप कुछ अभिक्रियाएँ नीचे दी गई हैं।
  2. विनिमय अभिक्रियाएँ (Metathetical reactions ) :- दो यौगिकों के विलयनों को मिलाने पर अवक्षेप का बनना, मुख्यतः, विलयन में उसकी विलेयता पर निर्भर करता है। किसी अजलीय विलायक में उत्पादों की विलेयता के आधार पर एक द्विक-विच्छेदन (double decomposition) अर्थात् विनिमय अभिक्रिया के मार्ग का अनुमान लगाया जा सकता है तथा उत्पाद की मात्रा बताई जा सकती है। उदाहरण के लिए, कुछ अकार्बनिक सल्फयुरिल यौगिकों के काफी मात्रा में अवक्षेपण के लिए सल्फर डाइऑक्साइड एक अच्छा विलायक सिद्ध हुआ है।

इसी प्रकार उपयुक्त विलायक के चयन से नाइट्रोसिक यौगिक भी बनाये जा सकते हैं। इस प्रकार की कुछ अभिक्रियाएँ नीचे दी गई है-

2NH4SCN+ SOCI2 → 2NH4C1 ↓ + SO(SCN) 2

2 KBr + SOCI2 → 2KCI↓ + SOBr2

ASCI3 +6NOF → NO[AsF6] ↓ + 2NO + 3 NOCI

  1. रिडॉक्स अभिक्रियाएँ (Redox reactions) :- सामान्य रूप से, अजलीय विलायकों में भी उसी प्रकार की रिडॉक्स अभिक्रियाएँ सम्पन्न होती हैं जिस प्रकार की रिडॉक्स अभिक्रियाएँ जलीय तन्त्र में देखने को मिलती हैं। यद्यपि अपचयन विभव का मान विलायक बदलने के साथ-साथ बदलता है, विभवों का वास्तविक क्रम ज्यों का त्यों रहता है। कभी-कभी कोई विलायक स्वयं ही रिडॉक्स अभिक्रियाओं से प्रभावित होने वाला हो सकता है। ऐसी अभिक्रियाओं में इस प्रकार के विलायकों को काम में नहीं लिया जा सकेगा। उदाहरण के लिए, जल प्रबल अपचायकों द्वारा अपचयित हो जाता है। अतः ऐसे अपचायक, जिनका इलेक्ट्रॉड विभव (electrode potential) हाइड्रोजन से अधिक होता है, जल में रिडॉक्स अभिक्रिया हेतु काम में नहीं लिये जा सकते यद्यपि, ऑक्सीकरण अभिक्रिया आसानी से जल में सम्पन्न कराई जा सकती है। अमोनिया के लिए विपरीत सत्य है । यह अपचायकों के प्रति स्थाई है, लेकिन ऑक्सीकारकों द्वारा प्रभावित होने लगता है। इस प्रकार प्रबल ऑक्सीकारकों की अभिक्रियाओं के लिए जल तथा प्रबल अपचायकों की अभिक्रिया के लिए अमोनिया उपयुक्त विलायक है। इनके विपरीत, द्रव SO2 दोनों ऑक्सीकारकों व अपचायकों द्वारा अप्रभावित रहता है, अर्थात् द्रव SO2 दोनों प्रकार की रिडॉक्स अभिक्रियाओं (ऑक्सीकरण व अपचयन) के प्रति उदासीन है। अतः यह सभी ऑक्सीकरण – अपचयन अभिक्रियाओं के लिए एक उपयुक्त माध्यम है. J

अजलीय आयननकारक विलायक (Nonaqueous ionising solvents)

उपर्युक्त विवेचन में हमनें विलायकों की विशिष्टता का वर्णन किया है जिनके आधार पर अभिकर्मकों की प्रकृति को ध्यान में रख कर उपयुक्त विलायक का चयन किया जा सकता है। अग्र विवेचन में द्रव अमोनिया तथा द्रव सल्फर डाइऑक्साइड अजलीय विलायकों के माध्यम से उपर्युक्त अभिक्रियाओं की व्याख्या की गई है।

द्रव अमोनिया एक प्रोटॉनिक विलायक है जबकि द्रव सल्फर डाइऑक्साइड एक अप्रोटॉनिक विलायक का उदाहरण है।