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Osmoregulation in marine animals in hindi , समुद्री जन्तुओं में परासरण नियमन , स्थलीय जंतुओं में in terrestrial animals

पढ़िए Osmoregulation in marine animals in hindi , समुद्री जन्तुओं में परासरण नियमन , स्थलीय जंतुओं में in terrestrial animals ?

समुद्री जन्तुओं में परासरण नियमन (Osmoregulation in marine animals)

समुद्री जन्तु (marine animals) जैसे हेग फिश (hag fish), अस्थिल मछलियाँ (bony fishes), उपास्थिल मछलियाँ (certilaginous fishes), समुद्री पक्षी (marine birds ), समुद्री रेप्टाइल (जैसे कछुआ, मगरमच्छ, सर्प एवं छिपकली) एवं समुद्री स्तनी (जैसे व्हेल, सील एवं पोरपोइज आदि)

जन्तु अपने बाहरी वातावरण के लिये अल्प सांद्रीय (hypotonic) होते हैं क्योंकि इनके देहीय तरल में समुद्री जल की अपेक्षा लवणीय सांद्रता लगभग आधी होती है। इन जन्तुओं से परासरण की क्रिया द्वारा लगातार पानी का ह्रास होता रहता है तथा लवण विसरण द्वारा संरक्षित (conserve) होते हैं। इन जन्तुओं में देहि तरल को अधिक सान्द्र होने से रोकने हेतु पानी का संरक्षण (conservation of water) एवं लवणों का निष्कासन (removal of salts) आवश्यक होता है। यह समस्या जन्तुओं द्वारा विभिन्न प्रकार से सुलझायी जाती है।

हेग फिश (Hag fish) के देहिक तरल में लवणों की मात्रा समुद्री जल के बराबर होती है अर्थात् यह समपरासरणीय (isotonic) होती है। इस परिस्थिति में इसके शरीर से परासरण द्वारा जल का ह्रास नहीं होता है। अस्थिल मछलियों (bony fishes) में देहिय तरल बाहरी वातावरण की अपेक्षा अल्परासरी (Hypotonic) होता है। इसका परासरणी दाब ( osmotic pressure) समुद्री जल की अपेक्षा लगभग एक तिहाई (one-third) होता है। इस स्थिति में इनके शरीर से जल का काफी मात्रा में ह्रास होता है जिससे विलायक (solute) की देहीय तरल द्रव में सांद्रता बहुत अधिक हो जाती है। पानी की कमी एवं विलायक की अधिक सांद्रता से कोशिकाओं की मृत्यु ( death) होने की संभावना बढ़ जाती है। इन मछलियों के क्लोमों (gills) में विशिष्ट ग्रंथिल कोशिकायें (special gland cells) पायी जाती है जो आवश्यकता से अधिक लवणें को देह से बाहर निकालती है। इनके कार्य के अनुसार इन्हें क्लोरॉइड स्त्रावी कोशिकायें (chloride secrtory cells) भी कहा जाता है। उपास्थित मछलियों का मूत्र काफी अधिक सान्द्र (concentrak) एवं काफी मात्रा में कम (scauty) होता है। मूत्र में यह परिवर्तन इनके वृक्क में कोशिकागुच्छ (glomerulus) के कम विकसित तथा दूरस्थ कुण्डलित भाग (distal convoluted tubule) के नेफ्रोन से हासिल होने के कारण होता है।

इस प्रकार मूत्र मात्रा में काफी कम एवं अधिक सांद्रित होता है। इस प्रकार ये मछलियाँ समुद्री जल में रहने हेतु सक्षम हो पाती है। मछलियाँ पानी को आहारनाल (gut) द्वारा सीधे ही ग्रहण कर लेती है जबकि आवश्यकता से अधिक लवण को से क्लोमों की लवण स्त्रावी कोशिकाओं द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। (चित्र 1.4)

समुद्री उपास्थिल मछलियाँ (marine cartilaginous fishes) इस समस्या का समाधान अलग प्रकार से करती है। इन मछलियों में समुद्री अस्थिल मछलियों के समान ही लवणों की सान्द्रता होती है। इन मछलियों में यूरिया (urea) एवं ट्राइमिथाइल एमीन ऑक्साइड (trimethylamine oxide) हेतु असामान्य सहनशीलता (tolerance) पाई ही है। इस कारण ये मछलियाँ उच्च मात्रा में लवणें को देहीय तरल एवं रूधिर में रख सकती है। यूरिया एवं ट्राइमिथाइलएमीन ऑक्साइड के कारण इन मछलियों के वेहीम तरल में लवणों की सान्द्रता समुद्री जल के बराबर हो जाती है जिससे ये परासरण द्वारा पानी का ह्रास नहीं करती है। बर्जर (Burger, 1962) के अनुसार मछलियाँ आवश्यकता से अधिक लवणों को मलाशयी ग्रंथियों (rectal glands) द्वारा स्त्रावित करती है। ये मछलियाँ भी स्वच्छ जलीय मछलियों की तरल काफी मात्रा में तनु या समपरासरणीय मूत्र का निष्कासन करती है।

समुद्री पक्षी (sea birds ) जैसे गल्स (gulls) एवं पेट्रेल्स (petrels) ऐसे समुद्री जन्तुओं को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं जिनमें लवणों की उच्च मात्रा पाई जाती है। इस कारण इनमें समुद्री मछलियों की तरह पानी के ह्रास एवं लवणों के अर्न्तग्रहण की समस्या होती है। इसी प्रकार की दशा सरीसृपों जैसे कछुआ ( tutle), मगरमच्छ ( crocodile ). सर्प (snake) एवं छिपकली ( lizard ) आदि में देखी जाती है। ये जन्तु समुद्री जल की अपेक्षा अल्पपरासारी (hypotonic) देहीय तरल वालं होते हैं। समुद्री पक्षी एवं समुद्री रेप्टाइल जन्तुओं के वृक्क आदि अधिक सान्द्र मूत्र के निष्कासन हेतु सक्षम नहीं होते हैं। आवश्यकता से अधिक लवणों के निष्कासन हेतु इन जन्तुओं में लवणीय ग्रन्थियाँ (salt glands) पाई जाती है। नीलसन एवं फेंग (Nielson and fang; 1958) एवं नीलसन (Nielson, 1960) के अनुसार समुद्री पक्षियों में ये लवणीय ग्रन्थियाँ सिर (head) में तथा समुद्री कछुओं में आँखों (eyes) के निकट स्थित होती है। ये ग्रन्थियाँ लवणों को बाहर निकालने हेतु सक्षम होती है। लवणीय ग्रथियों में रूधिर कोशिकाओं का जल होता है जिनसे इन ग्रंथियों की शाखित नालिकायें लवण ग्रहण करती है। ये लवण नासिका गुहा ( nasal cavity) द्वारा या सीधे ही शरीर से बाहर निकाल दिये जाते हैं।

समुद्री स्तनी जैसे व्हेल, पोरपॉइज एवं सील में भी पानी के ह्रास की समस्या होती है। ये जन्तु उत्सर्जन एवं निःश्वसन के साथ निकलने वाली वायु में उपस्थित नहीं के रूप में ही पानी कां बाहर निकालते हैं। ये जन्तु भोजन के ऑक्सीकरण से प्राप्त जल को भी शरीर की क्रियाओं में काम लेते हैं। मादाओं में दुग्धा (milk) के साथ भी पानी का ह्रास होता है जब ये बच्चों को दूध प है। इस जल के ह्रास की क्षतिपूर्ति दुग्ध की सान्द्रता से हो जाती है। इन स्तनियों का दुग्ध गाय के दुग्ध की अपेक्षा लगभग दस गुणा अधिक सान्द्र होता है। अतः पानी का ह्रास अधिक नहीं हो पाता है।

इस प्रकार समुद्री जन्तुओं में परासरणी समस्या से पिटने हेतु निम्न अनुकूलन पाये जाते हैं-

(i) बाह्य परासरण (exosmosis) से पानी के ह्रास को बचाने हेतु इन जन्तुओं का शरीर मोटे क्यूटिकल (अकशेरूकियों में) अथवा शल्क अर्थात् मोटी देह भित्ति या बाह्य कंकाल (कशेरूकियों) द्वारा ढका रहता है।

(ii) अस्थिल मछलियों (marine bony fishers) के क्लोमों (gills) में लवणों के निष्कासन हेतु विशिष्ट ग्रंथिल कोशिकायें (special gland cells) पाई जाती है।

(iii) समुद्री मछलियों में वृक्कीय नालिकाओं में कम विकसित केशिकागुच्छ एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिका का नहीं पाया जाना भी जल की अधिकांश मात्रा का संरक्षण करने हेतु उत्तरदायी होता है।

(iv) समुद्री उपास्थिल मछलियाँ (marine elasmobranch fishes) अपने देहीय तरल एवं रूधिर में यूरिया एवं अन्य घुलित पदार्थों की अधिक मात्रा रखने में सक्षम होती है। इस कारण इनका देहीय तरल समुद्री जल हेतु समपरासारी ( isotonic) या अतिपरासारी (hypertonic) होता है जिससे परासरण द्वारा जल का ह्रास नहीं हो पाता है।

स्थलीय जन्तुओं में परासरण नियमन (Osmoregulation in terrestrial animals)

स्थलीय आवास में रहने वाले जन्तुओं के बाहरी माध्यम अथवा वातावरण (वायु) में जल एवं लवणों की कमी होती है। इन जन्तुओं में पानी का ह्रास देहीय सतह (body surface) से वाष्पीकरण (evaporation) द्वारा या पसीने ( sweat ) के रूप में अथवा मूत्र (urine) के साथ होता है। लवणों का निष्कासन पसीने एवं मूत्र के साथ किया जाता है। इन जन्तुओं में निर्जलीकरण ( dehydration) की समस्या का सामना करने अर्न्तग्रहित या अंतर्वाही एवं निष्कासित (removed) जल के मध्य नियमन आवश्यक होता है। इस कारण स्थलीय जन्तु अधिक जल का सेवन करते हैं तथा ऐसे भोजन को ग्रहण करते हैं जिसमें लवणों की सान्द्रता अधिक होती है। ये जन्तु जल में संरक्षण हेतु अनुकूलतायें भी दर्शाते हैं। स्थलीय जन्तु जैसे रेप्टाइल्स, पक्षी स्तनि एवं क्रास्टेशियन्स तथा कुछ ऐनेलिड परासरणीय समस्या के समाधान हेतु निम्न अनुकूलतायें प्रदर्शित करते हैं :

  • अधिकांश स्थलचर प्राणियों के शरीर पर अपारगम्य (impermeable) क्यूटिकल (आर्थोपोड्स में), शल्क (रेप्टाइल्स में), पंख (पक्षियों में ) एवं बाल या फर ( स्तनियों में ) इत्यादि का आवरण उपस्थित होता है। इन रचनाओं में वाष्पीकरण द्वारा पानी का ह्रांस नहीं हो पाता है या कम मात्रा में होता है।

(ii) मूत्र एवं विष्ठा (laeces) द्वारा होने वाले जल का ह्रास विभिन्न क्रियाओं द्वारा नियमन किया जाता है। रेप्टाइल एवं पक्षियों में विष्ठा से जल का अवशोषण मलाशय ( rectum) एवं अवस्कर (cloaca) द्वारा किया जाता है। पक्षियों एवं स्तनियों के मूत्र में उपस्थित जल के अधिकांश भाग का अवशोषण वृक्क नलिका हेनले के लूप द्वारा किया जाता है। कई स्थलीय जन्तु जैसे पक्षी, सर्प एव छिपकली अर्ध-ठोस (Semi solid) मूत्र का निष्कासन करते हैं जो यूरिक अम्ल के क्रिस्टल के रूप में होता यूरिक अम्ल पानी में घुलनशील होता है यह अर्धठोस या पिट्ठी (paste) या लेई के रूप में होता है अत: तथा यह बिना जल के साथ ही शरीर से बाहर निकाला जा सकता है। पानी की बहुत कम मात्रा यूरिक अम्ल को अवस्कर (cloaca) तक ले जाने में काम आती है। अवस्कर में भी पानी की अधिकांश मात्रा अवशोषित कर ली जाती है तथा शेष यूरिक अम्ल क्रिस्टल अथवा लेई के रूप में देह से बाहर निकाल दिया जाता है।

(iii) शुष्क स्थानों पर रहने वाले स्थलीय जन्तुओं में जल के संरक्षण हेतु विशेष अनुकूलन होते हैं। अधिकांश मरूस्थलीय ( desert ) जन्तु उपापचयी क्रियाओं से बनने वाले जल का सेवन करते हैं। इन जन्तुओं के मूत्र में से लगाग 99% पानी वृक्कीय नलिकाओं द्वारा अवशोषित की लिया जाता है जो पुनः रूधिर परिवहन तन्त्र में चला जाता है । उदाहरण के लिये कंगारू चूहा ( Kangaroo rat) दक्षिणी-पश्चिमी अमेरिका के सबसे अधिक शुष्क एवं गर्म स्थानों पर पाया जाता है। यह केवल शुष्क बीजों का भक्षण करता है तथा कभी पानी नहीं पीता है। इसमें स्वेद ग्रंथियाँ अनुपस्थित रहती है जिससे पानी पसीने के रूप में बाहर नहीं निकलता है। यह शुष्क विष्ठा एवं उच्च सांद्रीय मूत्र निष्कासित करता है। इन अनुकूलताओं के साथ यह ऑक्सीकारी उपापचयी क्रियाओं से प्राप्त जल का सेवन भी करता है। इसी प्रकार ऊँट भी मरूस्थल में बिना जल के सेवन किये हुये कई दिनों तक रह सकता है। ऊँट देहीय तरल से लगभग 40 प्रतिशत तक जल बाहर निकाल सकता है जबकि मनुष्य तरल से मात्र 20 प्रतिशत जल ही बाहर निकाल सकता है, इससे अधिक पानी का ह्रास होने की मृत्यु हो सकती है।

(vi) मनुष्य में पानी का उत्सर्जन शरीर में पानी की उपलब्धता पर निर्भर करता है। अत्यधिक पसीना आने पर मूत्र में पानी मी मात्रा कम हो जाती है जबकि अधिक पानी का सेवन करने पर मूत्र में पानी की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। शरीर में पानी का संतुलन काफी हद तक प्यास (thirst) पर निर्भर करता है जो अधिक पसीना आने तथा वृक्क नलिकाओं से अधिक मूत्र बनने पर बढ़ जाती है। यह क्रिया पीयूष ग्रंथी द्वारा स्त्रावित एण्टहीडाइयूरेटिक हारमोन (antidiuretic hormone) ADH द्वारा नियंत्रित होती है।

(v) कीटों (insects) में मलाशय द्वारा मूत्र में पानी अवशोषित कर लिया जाता है और ठोस (solid) या अर्ध ठोस (semi solid) मूत्र देह से बाहर उत्सर्जित होता है।

(vi) अनेक स्थलीय जन्तुओं में परासरण नियमन स्वेद ग्रंथियों (sweat glands) मुख (mouth), जिव्हा (tongue). फेफड़े ( lungs) तथा वृक्क (kidneys ) द्वारा होता है।