Physiology of Osmoregulation in hindi , परासरण-नियमन की कार्यिकी क्या है , परासरण संतुलन की क्रियाविधि (Mechanism of osmoregulation)

परासरण संतुलन की क्रियाविधि (Mechanism of osmoregulation) क्या है ?

परासरण-नियमन की कार्यिकी (Physiology of Osmoregulation)

भूमण्डल के समस्त प्राणियों के लिये जल अनिवार्य है। यह जीवद्रव्य (protoplasm) का एक महत्वपूर्ण घटक (constituent ) है जिसमें कोशिका की अनेक क्रियायें सम्पन्न होती है। जन्तु एवं पादपों के कोशिकाद्रव्य एवं बाह्य कोशिकीय द्रव्य (extra cellular fluid) में काफी अधिक मात्रा में जल उपस्थित रहता है। जन्तुओं के शरीर में जल खाद्य सामग्री के साथ, पेय द्रव्यों के रूप में कोशिकीय उपापचयी क्रियाओं से एवं अर्धापारग्मय (semipermeable) झिल्ली से परासरण आदि विधियों से प्रवेश करता है । जन्तुओं के शरीर से पानी अपशिष्ट पदार्थों के रूप में, स्वेद ( sweat) एवं अन्य ग्रन्थियों से स्त्राव (secretion) के साथ निकाला जाता है। जन्तु के शरीर के बाहर एवं अन्दर जल की मात्रा समान होनी चाहिए जिससे इसके ऊत्तक एवं शरीरिक द्रव्य सहनशीलता से अधिक तनु (dilute) अथवा सान्द्र (concentrate) नहीं हो सकें। इस प्रकार की स्थायी दशा (steady state) तभी सम्भव है जब जन्तु के शरीर में प्रवेश करने वाली एवं बाहर निकलने वाली जल की मात्रा लगभग समान हो । जल के साथ-साथ जन्तुओं के शरीर में निश्चित मात्रा में लवण (salt) उपस्थित होना भी अनिवार्य होता है। इस प्रकार (जन्तुओं के शरीर में जल एवं लवणों के संतुलन की क्रिया को जल संतुलन (water regulation) कहते हैं। परासरण नियमन (osmoregulation) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सजीव अपने शरीर के अन्दर जीवद्रव्य में जल की एक निश्चित मात्रा बनाये रखते हैं और अपने दैहिक तरल (body fluid) में एक स्थिर परासरण दाब ( osmatic pressure) तथा लवणों की सान्द्रता (concentration of salts) का नियमन करते हैं।

परासरण – नियमन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम होबर (Hober, 1902) ने किया। परासारी, अल्परासारी एवं अतिपरासारी जन्तु ( Isotonic, hypotonic and hypertonic animals) ऐसे जलीय जन्तु हैं जिनके दैहिक तरल (body fluid) में लवणों की सांद्रता उसके बाहरी वातावरण के बराबर होती है समपरासारी ( isotonic) जन्तु कहलाते हैं। ऐसे प्राणियों में जल के नियमन की कोई समस्या नहीं होती है क्योंकि उनके दैहिक तरल का परासरण दाब बाह्य माध्यम के बराबर होता है। इन जन्तुओं में शरीर के बाहर एवं अन्दर लवणों की सांद्रता के कारण अन्दर व बाह्य पर्यावरण का परासरण दाब भी समान होगा जिससे जल किसी ओर भी वितरित नहीं होगा। इस प्रकार के जन्तुओं को समपरासारी दैहिक तरल वाले प्राणी कहा जाता है।

ऐसे जन्तु जो कम लवणों की सान्द्रता वाले जलीय माध्यम में रहते हैं अल्पपरासारी (hypotonic) कहलाते हैं। इन जन्तुओं के दैहित तरल में सांद्रता प्रवणता (concentration gradient) में अन्तर होने के कारण जल लगातार शरीर में प्रवेश करता रहता है। जल की यह अधिक मात्रा शरीर में जल संतुलन बनाये रखने हेतु लगातार बाहर निकाली जाती है। उदाहरण के लिए स्वच्छ जलीय प्रोटोजोअन्स एवं क्रस्टेशियन्स जन्तुओं में अल्परासारी स्थिति से मुकाबला करने हेतु आवश्यकता से अधिक जल संकुचनशील रसधानी (contractile vacuole) एवं उत्सर्जी अंगों (excretory organs) द्वारा बाहर निकाला जाता है।

ऐसे जन्तु जो उच्च लवणीय सांद्रता (higher salt concentration) वाले जलीय माध्यम में रहते हैं अतिपरासारी (hypertonic) कहलाते हैं। इन जन्तुओं में जल लगातार शरीर से बाहर निकलता रहता है। उदाहरण के लिए समुद्री अस्थिल मछलियों (marine bony fishes) में लगातार शरीर से जल बाहर निकलने के कारण जल की कमी (dehydration) होने का भय बना रहता है। ऐसी स्थितियों में मछलियाँ बाहरी वातावरण में सदैव जल ग्रहण करती रहती है।

परासरण संतुलन की क्रियाविधि को समझने हेतु विभिन्न प्रकार के विलयनों (solutions) में उपस्थित पदार्थों (substances) के व्यवहार को समझना आवश्यक है, जब कभी निम्न एवं उच्च सांद्रता के विलयनों को आपस में मिलाया जाता है तो | अर्धापारगम्य झिल्ली से विलायक निम्न से अधिाक सांद्रता वाले विलयन की ओर गमन करता है। इस प्रकार अर्धपारगम्य झिल्ली से पदार्थ के निश्चित दिशा में गमन को परासरण ( osmosis) कहा जाता है। यह प्रक्रिया तब तक लगातार बनी रहती है जब तक अर्धपारगम्य झिल्ली के दोनों ओर लवणों की सान्द्रता बराबर नहीं हो जाती । द्रव या विलायक के बहने से उत्पन्न द्रवस्थैतिक दाब (hydrostatic pressure) पुनः बहने की क्रिया को रोकने हेतु पर्याप्त दाब जो झिल्ली से द्रव या विलयक के बहने को रोकता है परासरणीय दाब (osmotic pressure) कहलाता है। परासरणीय दाब विलयन की सांद्रता का आनुपातिक (proportional) होता है। दूसरे शब्दों में विलयन की अधिक सांद्रता होने पर उसका परासरणीय दाब भी अधिक होता है। इस प्रकार परासरणीय दाब या परासरणीय सांद्रता का परिमाण (magnitude) विलाय में उपस्थित कणों की संख्या पर निर्भर करता है। यदि विलायक विभिन्न पदार्थों का मिश्रण हो तो परासरणीय दाब समस्त कणों के योग पर निर्भर करता है। यदि दो विलयनों की परासरणीय सांद्रता एक दूसरे के तुल्य हो तो वे समपरासारणीय ( isotonic) कहलाते हैं। इसी प्रकार अल्प परासारणीय विलयन (hypotonic solution) अधिक तनु एवं अतिपरासारणीय (hypertonic) अधिक सान्द्र होता है।

परासरण संतुलन की क्रियाविधि (Mechanism of osmoregulation)

प्रकृति में जन्तु विभिन्न आवासों (habitalts) में बने रहते हैं। इसमें स्वच्छ जल (fresh water) . लवणीय जल (sea water) एवं स्थलीय ( terrestrial) आवास प्रमुख है। इन जन्तुओं में अपनी आन्तरिक परासरण सान्द्रता ( osmotic concentration) को स्थिर रखने हेतु विभिन्न अनुकूलतायें (adaptations) पाई जाती है। इन अनुकूलताओं द्वारा जन्तु अपनी शारीरिक रचनाओं एवं क्रियाविधि में अनेक परिवर्तन कर लेता है। कई जन्तुओं में अनुकूलन के रूप में शरीर के चारों ओर एक अपारगम्य (impermeable) रचना जैसे बाह्य कंकाल ( exoskeleton) या क्यूटीकल ( cuticle) उपस्थित रहता है। अनेक जन्तुओं में वाहक अणुओं (carrier molecules) की संख्या में कमी या उन्हें निष्क्रिय (inactive) करके सतह की पारगम्यता को कम किया जाता है जिससे जन्तु को पानी के ह्रास (loss) को बाहरी वातावरण से जल प्राप्त करके पूरा किया जाता है। यह जल उत्सर्जी तंत्र . (excretory system) या आहारनाल (gut) अथवा शरीर की सतह से सीधे ही बाहरी वातावरण से द्वारा लवणों की प्राप्ति की जाती हैं। ये जन्तु अपने जीवित रहने हेतु शरीर से न्यूनतम (minimum) प्राप्त किया जाता है। स्थलीय जन्तुओं ( terrestial animals) में भोजन (food) एवं पानी (water) जल का ह्रास होने देते हैं। यह स्थिति (i) उत्सर्जी तंत्र की नलिकाओं ( tubules) द्वारा पानी के सम्पूर्ण हो पाती हैं। ऐसे पदार्थों के शरीर में बाह्य निष्कासन में अधिक जल की आवश्यकता नहीं अवशोषण एवं (ii) उपापचयी क्रियाओं से प्राप्त कम घुलनशील नाइट्रोजन युक्त पदार्थों की प्राप्ति से होती है।

स्वच्छ जलीय जन्तुओं में परासरण – नियमन (Osmoregulation in fresh water animals)

सभी अकशेरूकी (invertebrates) एवं कशेरूकी ( veterbrates) जन्तु जो स्वच्छ जल (fresh water) में पाये जाते हैं, अपने बाहरी वातावरण (external environment) में उपस्थित जल की अपेक्षा अतिसान्द्रता (hypertonic) वाले होते हैं। स्वच्छ जल में समुद्री जल की अपेक्षा मात्र 1 / 1000 वाँ भाग ही लवण होते हैं। इन जन्तुओं में बाहरी वातावरण से जल के शरीर में प्रवेश करने की प्रवृत्ति (tendency) पाई जाती है। इन जन्तुओं के शरीर से अकार्बनिक लवणों का बाहरी वातावरण में हा भी देखा जाता है। यदि यह ह्रास शरीर से लगातार बना रहे तो शरीर से लाभदायक लवण बाहरी वातावरण में निकल जायेंगे एवं शरीर में रूधिरतनुता (haemodilution) की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। इस स्थिति से छुटकारा पाने हेतु विभिन्न प्राणियों में विभिन्न विधियाँ अपनाई जाती है।

शरीर से बाहर से आने वाले आवश्यकता से अधिक जल (excess water) को शरीर में संग्रह (store) करके अथवा इसको बाहर निकाल कर (pump out) परासरण नियमन किया जाता है। जल को शरीर से बाहर निकालकर स्थिति पर अच्छी तरह काबू पाया जाता है। शरीर से होने वाले लवणों के ह्रास (salt loss ) की क्षतिपूर्ति सक्रिय अभिगमन तंत्र (active transport system) द्वारा की जाती है। विभिन्न रचनायें जैसे क्लोम (gills), त्वचा (skin), मलाशय ( rectum) एवं आहार नाल के विभिन्न भाग लवणों का अर्न्तग्रहण करते हैं।

स्वच्छ जल में रहने वाले प्रोटोजोअन्स (protozoans) जन्तु जैसे अमीबा (amoeba ), युग्लीना (cuglena) एवं पेरामेशीयम (paramecium) आदि में परासरण नियमन की क्रिया संकुचनशील रसधानी (contractile vacuole ) द्वारा की जाती है। ये रचनायें आवश्यकता से अधिक जल को शरीर से बाहर निकाल देती है। ये रसधानी कोशिकाद्रव्य में उपस्थित छोटी-छोटी जल धानियों (water vacuoles) के संलयन (fusion) में बनती है। संकुचनशील रसधानी कोशिका झिल्ली से टकराकर फट जाती है जिससे आवश्यकता से अधिक जल शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। इसके उपरान्त कोशिकाद्रव्य में नई संकुचनशील रसधानी पुनः बल जाती है। समुद्री एवं परजीवी प्रोटोजोआ में संकुचनशील रसधानी अनुपस्थित रहती है।

स्वच्छ जलीय हाइड्रा एवं प्रोसेरोडेस उल्वी (procerodes ulvae) नामक चपटे कृमि में जल का शरीर में संग्रह किया जाता है। इन जन्तुओं के शरीर में संग्रह रसधानियाँ (storage vaculoes) होती है जो जल को कई घण्टों तक संग्रह करके रखती है। स्वच्छ जलीय क्रस्टेशिन आर्थ्रोपोड जन्तुओं में आवश्कयता से अधिक जल को शरीर से उत्सर्जी अंग (excetory organ) ऐटेनरी ग्रन्थि द्वारा निकाला जाता है। इन जन्तुओं में मूत्र के साथ होने वाले लवणों के ह्रास को स्वच्छ जल से क्लोम (gills) द्वारा अवशोषित करके पूर्ण किया जाता है। स्वच्छ जलीय मॉलस्क जैसे यूनिओ (unio) एवं एनोडोन्टा (anodonta) कम सान्द्रता का मूत्र काफी अधिक मात्रा में शरीर से बाहर निकालते हैं। ये जन्तु भी बाहरी वातावरण से लवणों को अवशोषित करते हैं। इसी प्रकार स्वच्छ जलीय मछलियों (fresh water fishes) के शरीर में बाहरी वातावरण से आने वाले जल को वृक्कों द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। अधिकांश स्वच्छ जलीय जन्तुओं की तरह इनके मंत्र में लवणों की सान्द्रता काफी कम होती है तथा यह काफी कम सान्द्रता युक्त (hypotonic) होता है। इनमें लवणों की क्षति को क्लोम द्वारा बाहरी जल से सक्रिय अवशोषण द्वारा पूर्ण किया जाता है। (चित्र 1.2)

सामान्य रूप से स्वच्छ जलीय जन्तुओं में परासरण नियमन हेतु निम्न अनुकूलन पाये जाते हैं- (i) इनमें श्वसन एवं पाचन हेतु अर्धपारगम्य (semipermeable) अन्तरांग उपस्थित होते हैं। (ii) शरीर का शेष भाग अपारगम्य ( impermeable) एवं रक्षात्मक (protective) सतह से आवरित रहता है।

(iii) इनमें वृक्कों (kidneys) एवं वृक्ककों (nephridia) के रूप में उत्सर्जी अंग पाये जाते हैं तो बहुत ही तनु मूत्र (dilute urine) निष्कासित करते हैं। इनका मूत्राशय छोटा होता है तथा मूत्र, उत्सर्जन की क्रिया के शीघ्र बाद, देह से बाहर निकाल दिया जाता है।

(vi) मूत्र में पानी के साथ लवण भी घुले होते हैं। ये जन्तु बाहरी वातावरण में से लवणों का अवशोषण करने हेतु क्लोम या आहारनाल अथवा वृक्क के कुछ भाग में विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं की उपस्थिति दर्शाते हैं। ये कोशिकायें लवण अवशोषित करके दैहिक द्रव्य (body fluid) में उच्च परासरणीय सांद्रता बनाये रखती है।