जीव और समष्टियाँ नोट्स अध्याय-13 जीव विज्ञान कक्षा 12 | organism and population class 12 notes

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अध्याय-13 जीव और समष्टिया

पारिस्थितिकी (Ecology)
‘पारिस्थितिकी शब्दका प्रयोग सर्वप्रथम एच.रेटर ने सन् 1868 ई. में आॅइकोलाॅजी के रूप में किया।‘
अर्नेस्ट हेकल के अनुसार-
‘जीवधारियों के कार्बनिक तथा अकार्बनिक वातावरण से बने पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते है।‘
भारतीय पारिस्थितकी के जनक रामदेव मिश्रा हैं।
पारिस्थितिकी की ईकाई ‘जीव‘ है।

पर्यावरण-
पर्यावरण दो शब्दों परि + आवरण का योग है यहां परि का अर्थ ‘चारो और से‘ तथा आवरण का अर्थ ‘ढके हुयें‘ अर्थात हमारे चारो और उपस्थित हर चीज पर्यावरण केे अन्र्तगत आते है।
पर्यावरण के वे घटक जो जीवों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते है पर्यावरणीय कारक कहलाते है।
पर्यावरण के प्रकार-
पर्यावरण को मुख्यतया तीन भागों में विभाजित किया गया है-
I. भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण-
पर्यावरण का मुख्य भाग भौतिक पर्यावरण से बनता है इसके अन्तर्गत भूमि, जल, ताप, प्रकाश अग्नि, विकिरण आदि सम्मिलित है जोे कि मानव के सीधे सम्पर्क में होते है भौतिक पर्यावरण के समान्य समांजस्यता टूटने पर मनुष्य पर पर्यावरण का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
II. जैविक पर्यावरण-
सम्पूर्ण भू-मण्डल में जैविक पर्यावरण बहुत बड़ा भाग है जो कि मनुष्य के सम्पर्क में रहते है जीव जन्तु व वनस्पति इस पर्यावरण के मुख्य भाग है इसे दो भागों में बांटा गया है-
i. पौधों का पर्यावरण
ii. जीव-जन्तु का पर्यावरण
III मनोसामाजिक पर्यावरण-
मनोसामाजिक पर्यावरण मानव के सामाजिक सम्बन्धों से प्रकट होता हैं। इसके अन्तर्गत राजनैतिक आर्थिक, धार्मिक अध्यात्मिक सामाजिक क्षेत्रों में मानव के विकास का वर्णन करते हैं।
 वासस्थान- वासस्थान वह स्थान है जहां कोई जीव समान्य रूप् से निवास करते हैं।
 पारिस्थितिक संघटन- परिस्थितिक जगत में पाये जाने वाले क्रियाशील घटकों का क्रमबद्ध संघटन जो एक अरोही क्रम में होता है परिस्थितिक संघटन कहलाता है। प्रत्येक जीव एक व्यष्टि, समष्टि समुदाय पारितंत्र का भी सदस्य होता है।
ऽ व्यष्टि (Individual)
जीव या व्यष्टि परिस्थितिकी संघटन की आधारभूत ईकाई है, व्यष्टि अपने समान जीवों से एवं अन्य जाति के जीवों के साथ अन्योन क्रिया करता है। प्रत्येक जीव का अपना एक स्वरूप होता हैै।
ऽ समष्टि (Population)
एक ही जाति के जीवों के समूह को समष्टि कहते है। जैसे गेहूं के खेत में गेहूं की समष्टि।
ऽ समुदाय-
एक से अधिक जाति के जीवों के समूहों को एक साथ समुदाय कहते है। आवास स्थान की भिन्नता के आधार पर जैव समुदाय में भी भिन्नताएं पायी जाती है- वनसमुदाय, घास स्थली समुदाय, तालाब समुदाय।
ऽ पारितंत्र-
जैव समष्टि व भौतिक पर्यावरण से बन यह एक स्व नियत्रिंक एवं स्व निर्भर प्रकृति का भाग है। पारितन्त्र में जैव व अजैव घटक दोनों पाये जाते है। पारितन्त्र में उर्जा एवं पोषक पदार्थाे का पुनःचक्रण होता रहता है।
ऽ जीवोम –
यह प्राकृतिक एवं स्थायी वृहद क्षेत्र होता है जिसका आकार पारितंत्र से काफी बड़ा होता है। इसकी सीमा विभिन्न प्रकार की जलवायु द्वारा सुनिश्चित होती है जीवोम दो प्रकार का होता है, स्थलीय एवं जलीय यद्पि प्रत्येक प्रकार के जीवोम में अनेक प्रकार े पारितंत्र के खण्ड पाये जाते है। जैसे – वन में झील, समुुद्र में टापू आदि।
ऽ जैव मण्डल-
पृथ्वी का सम्पूर्ण स्थलीय एवं जलीय जीवोम जहां तक जीवो के पाने जाने की संभावना होती है। यह पारिस्थितिकी का सबसे बड़ा भाग जैव मण्डल होता है इसमें पृथ्वी के तीन घटक, जल, वायु स्थलमण्डल होता है।
 पारिस्थितिकीय कारक-
पर्यावरण का वह प्रत्येक भाग जो सजीवों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालते है, पारिस्थितिकीय कारक कहलाते हैं। पारिस्थितिकीय कारक मुख्यता दो प्रकार के होते है-
1. भौतिक या अजैव कारक- इन्हें तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है-
i. जलवायु सम्बन्धी कारक- इसमें निम्न कारक आते है-
(A) प्रकाश (Light)
पौधों के जैविक क्रियाओं के लिए प्रकाश एक महत्वपूर्ण कारक है। जीवों के लिए आवश्यक उर्जा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सूर्य से ही प्राप्त होती है प्रकाश अपने गुण तीव्रता तथा अवधि के द्वारा पौधों को प्रभावित करता है इसका प्रभाव जन्तुओं पर भी पड़ता है।
(A-1) प्रकाश का पौधों पर प्रभाव-
ऽ हरे पौेधे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिती में प्रकाश संश्लेषण कि क्रिया द्वारा अपना भोजन अर्थात कार्बोहाइडेट का निर्माण करते है।
ऽ रन्ध्रों के खुलने एवं बंद होने की प्रक्रिया पर भी प्रकाश का प्रभाव पड़ता है जिससे पौधों के वाष्पोत्सर्जन की क्रिया की दर का निर्धारण होता है।
ऽ पौधों की वृद्धि, एंजाइम का बनना, उतक का विभेदन पुष्पन, पादप हार्मोन का संवहन, पौधों के अंगो के मुड़ने आदि पर भी प्रकाश का प्रभाव पड़ता है। अनेक पुष्प, दिन व रात्रि के अवस्थाओं में खिलते या बंद होते है।
ऽ गति-पौधों द्वारा प्रकाश के तीव्रता के अनुरूप गति प्रदर्शित करना धनात्मक प्रकाशनुकंचन कहलाता है।
ऽ दीप्तिकालिता- पौधों की कार्यिकी, आकार्यिकी एवं पारिस्थितिकी पर प्रकाश के अवधि के प्रभाव को दीप्तिकालिता कहते है। दीप्तिकालिता के आधार पर पौधों को निम्न प्रकारों मंे बाटां गया है-

1. अल्प प्रकाशीय पौधा (Short Light Plant) –
इनमें पुष्पन के लिए निर्णायक दीप्तिकाल से कम प्रकाश अवधि की आवश्यकता होती है जैसे- धतूरा, जैन्थियम, सात्विया, सोयाबीनन।
2. दीर्घ प्रकाशीय पौधा –
इनमें पुष्पन के लिए निर्णायक दीप्तिकाल से अधिक प्रकाश अवधि की आवश्यकत होती है जैसे- पालक, मूली आदि।
3. दिवस-निरेपक्ष पौधा-
इन पौधां में पुष्पन पर प्रकाश की अवधि का प्रभाव नही पड़ता है जैसे- टमाटर कपास मिर्च आदि।
4. अल्प दीर्घ प्रकाशीय पौधा-
इन पौधों में पुष्पन के लिए पहले कम प्रकाश अवधि बाद में अधिक प्रकाश अवधि की आवश्यकता होती है, गेहूं आदि।
5. दीर्घ अल्प प्रकाशीय पौधा-
इन पौधों में पहले पुष्पन के लिए दीर्घ प्रकाश अवधि बाद में अल्प प्रकाश अवधि की आवश्यकता होती है। ब्र्रायोफिल्लम ;अजूबाद्ध
(A-2) जन्तुओं पर प्रकाश का प्रभाव-
जन्तुओं को प्रकाश तीव्रता प्रकाश अवधि निम्न प्रकार के प्रभावित करता है।
प्रजनन-
अनेक जन्तुओं पर प्रकाश की अवधि का प्रभाव पड़ता है जो निम्न प्रकार में बाटें गये है-

1. अल्प प्रकाशीय प्राणी-
कुछ प्राणी जैेसे हिरन, भेड़ बकरी आदि अल्प प्रकाश अवधि में प्रजनन करते हैं।
2. दीर्घ प्रकाशीय प्राणी-
ऐसे प्राणियों में प्रजनन लम्बी प्रकाश अवधि के दौेरान होता है जैसे रर्की, स्टाइइडिंग।
3. दिवस निरपेेक्ष प्र्राणी-
ऐसे प्राणियों के प्रजनन पर प्रकाश की अवधि का प्रभाव नही पड़ता है जैसे- गिलहरी, खरगोश।
4. सक्रियता की अवधि-
कुछ जन्तु केवल रात्रि में सक्रिय रहते है इन्हें रात्रिचर प्राणी कहते है जैसे उल्लू, काकरोच, चमगादड़ आदि।
नोट- सूर्य का दृश्य प्रकाश (390-690nm) तंरगदैध्र्यद्ध सात रंगों का बना होता है स्पेक्टम के नीले व लाल रंग के प्रकाश से प्रकाश संश्लेषण सर्वाधिक होता है।
पराबैंगनी किरण (300nm -390nm) तंरगदैध्र्य वाली किरणद्ध पौधों पर हानिकारक प्रभाव डालतेे है।

(B) तापमान (Temperature)
तापमान अति महत्वपूर्ण कारक है यह पौधों में बीजों अंकुरण, वृद्धि, पुष्पन, श्वसन, प्रकाश संश्लेषण आदि तथा वायु की गति, जलवृष्टि समुद्री धाराओं का संचालन एवं अनेक क्रियाओं को प्रभावित करता है। प्रत्येक जीव को अनुकूलतम ताप की आवश्यकता होती है इसके अलावा ताप सहन करने की अधिकतम व न्यूतम होती है।

(C) जल (Water)
पृथ्वी के लगभग 73% भाग पर जल पाया जाता है पादपों की वृद्धि एवं विकास जल की प्र्राप्ति पर निर्भर करता हैै पृथ्वी सतह व वातावरण के बीच दो क्रमिक धटनाऐं वाष्पोत्सर्जन, वर्षा होती है जिसके कारण निरन्तर रूप से जल का विनिमय एक चक्र के रूप् में होता है जिसे जल चक्र कहते हैं।
 जल का पौधों पर प्रभाव –
ऽ पौधों में विभिन्न क्रियाआंे का माध्यम होता है।
ऽ जल की उपलब्धता के आधार पर पौधों को तीन भागों में बांटा गया है।
i. जलोदभिद् या, आद्र्वतोद््भिद (Hygrophyte)
नम क्षेत्रों में रहने वाले पौधें जलोद्भिद कहलाते है।
ii. समोद्भिद (Mescophytes)
अनुकूल नमी व वायु मेें उगने वालेे पौधें।
iii. मरूदभिद (xerophyte)
शुष्क क्षेेत्र में उगने वाले पौधें।
iv. लवणोद्भिद (Nolophytes)
समुद्र तट पर पाये जाने वाले पौधें।
(D) वायुमण्डलीय गैंसें
पृथ्वी की सतह से लगभग 15 कि.मी. उपर तक की वायु मौसम, जलवायु , जीवों आदि को प्रभावित करती है।
वायुमण्डल में –
N2 = 78%
O2 = 21%
Co2= 0.03%
अन्य = 1% से कम
(E) वायु
तेज वायु मृदा अपरदन, अधिक वाष्पोेत्सर्जन व वाष्पीकरण वृक्षों के टूटने का प्रमुख कारण है वायु परागण तथा फलों व बीजों प्रकीर्णन में भी सहायक होती है।

(II) स्थलाकृतिक कारक-
वे सभी कारक जिनका सम्बन्ध किसी प्राकृतिक बनावट या प्राकृतिक भूगोल से सम्बन्धित होता है उनकों स्थलाकृतिक कारक कहते है।ं ये निम्न प्रकार के होते है-

(II-A) समुद्र तल से ऊंचाई-
किसी स्थान के ऊंचाई के साथ उस जगह के तापमान व वायु के दबाव में कमी होती जाती है लेकिन वायु की तीव्रता व वायु आर्द्रता में बढ़ती है पर्वतों की ऊंचाई लगभग 90मी0 बढ़ने पर 10 िमें कमी होती है।
(II-B) पर्वतो व घाटियों की दिशा
पर्वतो की दिशा वर्षा तथा प्रकाश को प्रभावित करती है। वायु पर्वतो या घाटियों से टकरानेे के कारण भिन्न-भिन्न दिशा में मुड़ जाती है टकराने के कारण वायु आर्द्रता द्रवीभूत होकर बादल का निर्माण करते जो वर्षा के रूप् में भूमि पर आती हैं।
(II-C) ढलान की प्रवणता-
पर्वतो के ढाल की प्रवणता का प्रभाव सूर्य से प्राप्त विकिरणों की मात्रा तथा जल प्रवाह के कारण मिट्टी की विशेषताओ पर प्रभाव डालता है सीधे ढलान के कारण जल तेजी से नीचे की तरफ बह जाता है जिसके कारण ऐसे स्थानों की मिट्टी सूखी बह जाती है नीचे को बहता हुआ जल मृदा तथा पोषक तत्वों को बहा ले जाता है। मृदा का अपरदन पर्वतो के ढलाव पर निर्भर करता है।

III. मृदीय कारक-
सभी स्थलीय पौधे जल तथा खनिज तत्वों को मृदा से ही प्राप्त करते हैं मृदा में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव पौधों पर विशेष प्रभाव डालता है पृथ्वी के चट्टानों के टूूटने फूटने से बनने वाली उसकी उपरी परत को मृदा कहते है मृदा मुख्य अवयव, खनिज पदार्थ, जल, मृदा, वायु जीव आदि है।
मृृदा के आधार पर वनस्पतियों को निम्न वर्ग में विभाजित किया गया है-
III-A) अम्लोदभिद- जो पौधे अम्लीय मृदा में उगते हैं।
III-B) लवणोदभिद- लवणीय मृदा का पौधा।
III-C) बालूकोदभिद- जो बालू में उगते हैं।
III-C) शैलोद्भिद- चट्टानों की सतह के पौधें।
III-D) परारोद्भिद- चट्टानों की दरारों में उत्पन्न पौधें।

 अजैविक कारकों से अनुक्रिया-
किसी जीव का बाह्य वातावरण के साथ साम्यावस्था व सन्तुलन तथा प्रतिकूल वातावरणीय परिवर्तनो के बावूजद भी शरीर का स्थिर अनुकूल अन्तः वातावरण को बनाए रखने की क्षमताा को समस्थैतिकता कहते है।
बहुत से जीवधारी अपने शरीर का स्थिर वातावरण को बनाये रखने में सक्ष्म नही होते है। तनावयुक्त अजैविक कारकों से निपटने के लिए ये जीव निम्न क्रियाकलापों का सहारा लेता है।
1. नियंत्रण (Regulation) नियमन
कुछ जीवधारी शरीर ताप व परासरणीय सान्द्रता को स्थिर बनाये रखने में सक्षम होते है तथा समस्थैतिकता को बनाये रखते है ऐसे सभी जीवधारी नियंत्रक कहलाते है। जैसे- स्तनधारी , पक्षी आदि।
चाहे अत्यधिक गर्म सहारा मरूस्थल हो या फिर अत्यधिक ठण्डा हो इनके शरीर ताप को नियंत्रित करने की क्षमता होती है पौधों में इस प्रकार की आंतरिक ताप नियंत्रण की कोई व्यवस्था नही होती हैं।
2. अनुरूपता (Conformens) संरूपण
लगभग 99 प्रतिशत जीव या पौधें किसी स्थिर अनुकूल अन्तः वातावरण को बनाये रखने में सक्षम नही होते है तथा इनमें ताप नियंत्रण क्रियाविधि का भी अभाव होता है ऐसे जीव उष्माक्षेपी शीत रूधिर वाले या विषमतापी होते हैं।
बहुत सेे जलीय जीवों की परासरण सांद्रता स्थिर नही रहती है जल की सान्द्रता बदलने के साथ-साथ इनके शरीर तरल की सान्द्र्रता भी परिवर्तित होती है अतः वे सभी जीवधारी जिनका शरीर ताप व शरीर तरल परासरणीयता व्यापक वातावरण के साथ परिवर्तित होता है अनुरूपक कहलाते है।
3. आंशिक नियंत्रक (Partical Regulator)
कुछ जन्तु अनुरूपक व नियंत्रक के मध्य की स्थिती में होते है। ये समस्थैतिकता को एक सीमा तक नियत बनाये रखते है किन्तु इनके आगे ये अनुरूपक की तरह व्यवहार करते है ऐसे जन्तुओं को आंशिक नियंत्रक कहते है जैसे- कुछ जलीय आकशेरूकी।
4. अभिगमन (Migration) प्रवास करना
भोजन, अनुकूल मौसम, आवास एवं अन्य कारकोे से एक समष्टि द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए गमन मुख्यता अभिगमन कहलाता है ये दैनिक कालिक, मौसम के अनुसार भी हो सकता है।
मौसमी अभिगमन का अच्छा उदाहरण इस प्रकार है-सर्दी के मौसम साइबेरिया व उत्तरी क्षेत्रों से साइबेरियन पक्षी क्रेन, टील भोजन एवं उपयुक्त वातावरण की खोज में उड़कर केवलादेव राष्टीय उद्यान भरतपुर राजस्थान मंेे चले आते हैं।
5. अस्थायी निष्क्रियता (Suspend) निलंबित करना-
जीवाणु, कवक निम्न पौधें विपरीत परिस्थितियों से बचने के लिए मोटी भित्ति वाले बीजाणुओं को उत्पन्न करते हैे जैसे ही अनुकूल दशा आती है ये अंकुरण करते है वे सभी जीव जो नियंत्रक नही है अभिगमन करने में भी सक्षम नही है विपरीत स्थितियों में अपने क्रिया कलापों अस्थायी रूप से निष्क्रिय करने के लिए शीत निष्क्रियता भ्पइमतदंजपवद या ग्र्रीष्म निष्क्रियता ।मेजपअंजपवद या डायापाॅल जैसे क्रिया अपनाते हैं।

2. जैविक कारक (Biotic factor)
आबादी के जीवों पर अन्य जीवों का जो प्रभाव पड़ता है उसे जैविक कारक कहते हैं। जैविक कारकों को निम्नलिखित भागों में बांटा गया है-
1. वनस्पति और जन्तुओं के बीच पारस्परिक सम्बन्ध –
किसी पारितंत्र में उत्पादक पौधेे तथा उपभोक्ता जन्तु के बीच आपसी सम्बन्धों का सीधा प्रभाव उत्पादक पर पड़ता है यदि किसी प्रकार उपभोक्ता की संख्या बढ़ जाय तो इसका उत्पादक की संख्या पर प्रभाव पड़ेगा जिससे उत्पादक की संख्या कम हो जाती है। कुछ कीट भक्षी पौधे – डोसेरा, वीनस, प्लाइटैप व्लैडरवर्ट भूद्र्रिकुलेरिया नेपंथीज ऐसे स्थानों पर उगतें है जहां नाइटोजन की कमी होती है वैसे तो कीट भक्षी पौधे स्वापोषी होते किन्तु अपने नाइटोजन की पूर्ति के लिए कीटों का भक्षण करते है इन पौधांे में कीटों को पकड़ने के लिए विशेष रचनाऐं होती हैं।
2. किसी स्थान पर उगने वाले पौधों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध-
किसी स्थान पर कोई पौधा उगता है तो उसके दूसरे पौधों के साथ क्या सम्बन्ध है ये निम्न प्रकार के होते है-
A. अधिपादप (Epiphyte)
इसके अन्तर्गत आर्किडेसी कुल के पौधे आते है जो दूसरे पौधों पर उगते है किन्तु में अपना भोजन पौधें से ग्रहण नही करते ये अपना भोजन स्वयं बनाते है।
B. परजीवी पौधें-
परजीवी पौधें अपना भोजन स्वयं नही बना पाते बल्कि अपने भोजन के लिए दूसरे पौेधे पर आश्रित रहते है ये पौधे निम्न दो प्रकार के होते है-
a. पूर्ण परजीवी पौेधें-
ये पौधे अपने पोषण के लिए पूर्ण रूप से दूसरे पौधों पोषक पर आश्रित होते है। ये भी दो प्रकार के होते हैं।
a.1 पूर्ण स्तम्भ परजीवी-
इन पौधों में तने से चूसक मूल निकलकर दूसरेे पौधे ;पोषकद्ध केे तने के जाइलम व पलोेएम मे प्रवेश कर खनिज लवण आदि प्राप्त करते है जैसे-अमरबेल

b.2 पूर्ण मूल परजीवी पौधे-
ये पौधें पोषक पौधे के जड़ो से अपना भोजन प्राप्त करते है जैसे- रंगुदी, रेपलीसिया आदि।
b. अपूर्ण परजीवी पौधे-
ये पौधे अपने भोजन निर्माण के लिए आवश्यक कुछ पदार्थो को ही पोषक पौधों से प्राप्त करते हैं।
ये निम्न दो प्रकार के होते है-
b.1 अपूर्ण स्तम्भ परजीवी पौधे-
ये पौधे दूसरे पौधों के तनों पर उगकर उनसे जल व खनिज लवण ही ग्रहण करते है जैसे- विस्कम एल्बम
b.2 अपूर्ण मूल परजीवी पौधे-
ये पौधे पोषक पौधे से जड़ो से अपने भोजन प्राप्त करते हैं। जैसे-सेन्टेलम एल्बम
c. सहजीवी पौधे (Symbiotic Plants)
ये दो पौधो के बीच पाया जाने वाला ऐसा सहसम्बन्ध हो जिससे दोनों को लाभ होता है।
शैवाल तथा कवक से बना लाइकेन सहजीवी पौैधे का अच्छा उदाहरण है।
इसमेें शैवाल खाद्य पदार्थो का संश्लेषण करता तथा कवक जल एवं खनिज पदार्थ उपलब्ध कराता है।
नोट-लाइकेन दूषित वातावरण में नही उगते हैे जिसके कारण Pollution Indicator कहते है।
D. मृतजीवी पौधेे (Saprophytic Plant)
इसकेे अन्तर्गत वे पौधें आतें है जो सड़े गले मृत पदार्थो से अपना भोजन प्राप्त करते है जैसे- मोनोटोपा

3. पौधों और मृदा में रहने वाले सूक्ष्म जीवों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध-
विभिन्न प्रकार के जीवाणु, प्रोटोजोआ, शैवाल कवक आदि भूमि पर उगने वाले पौधों को प्रभावित करते है, कुछ पौधों की जड़ों में कवक एवं जीवाणु पायें जाते हैै जिसके कारण पौधों को नाइटोजन व अन्य पदार्थ मिलते रहते है।
लेग्भूमिनोसी कुल के सदस्यों की जड़ों की मूल ग्रन्थियों में पाया जाने वाला राइजोबियम नामक जीवाणु वायुमण्डल से नाइटोजन ग्रहण कर पौधों को देता है और पौधों से भोजन लेकर अपना जीवन चलाता है।

 समष्टि या जनसंख्या (Population)
एक ही जाति के जीवों के समूह को समष्टि कहते है जैसे- मानव की समष्टि, गेहूं की समष्टि। समष्टि में कुछ ऐसे गुुण होते है जो व्यष्टि में नही होते है।
व्यष्टि जन्मता एवं मरता है लेकिन होती है समष्टि में जन्मदरें एवं मृत्यु दरें होती है समष्टि में इन दरों को क्रमशः प्रति व्यक्ति जन्म दर एवं मृत्युदर कहते है। इस लिए दर को समष्टि के समन्धों में परिवर्तन ;वृद्धि या हवासद्ध केे रूप में प्रकट किया जाता है उदाहरण के लिए आदि किसी तालाब में पिछले साल कायल के 20 पौधें थें और जनन द्वारा 8 नयें पौधें हो जाते है जिससें वर्तमान में समष्टि 28 हो जाती है तो हम जन्मदर को 8/20 = 0.4 संतति प्रति कमल प्रति वर्ष के हिसाब से परिकल्पना करते है अगर प्रयोगशाला में 40 मधुमक्खियों में संे 4 मधुमक्खी किसी समय अन्तराल में मर जाते है तो उससमय के दौरान समष्टि में मृत्युदर 4/40 = 0.1 व्यष्टि प्रति फलनकर्ता प्रति सप्ताह कहलाएगी।

 समष्टि में लिंग अनुपात व आयु पिरामिड-
समष्टि का दूसरा विशेष गुण लिंग अनुुपात यानी नर एवं मादा का अनुपात है। व्यष्टि या तो नर या मादा है परन्तु समष्टि में लिंग अनुपात होता है किसे दिये ये समय में समष्टि भिन्न आयु वाले व्यष्टियों से मिलकर बनी होती है अगर समष्टि के लिए आयु वितरण (दी गई आयु या वर्ष के आयु वर्ग के व्यक्तियों का प्रतिशत) आरेखित किया जाता हैे तो बनाने वाली संरचना आयु पिरामिड कहलाती है।
मानव वर्ग के लिए आयु पिरामिड आमतौर पर नर व स्त्रियों का आयु वितरण संयुक्त आरेख को दर्शाता है इससें हमें पता चलता है।
a. समष्टि का आकार क्या बढ़ रहा है।
b. स्थिर है।
c. आकार घट रहा है।
आयु पिरामिड तीन प्रकार के होते है-
1. त्रिभुजाकार पिरामिड (Triangle Shaped Pyramid)
इसमें पूर्व प्रजननी सदस्यों संख्या अधिक होती है। प्रजननी सदस्यों की संख्या मध्यम अनुपात में होती है। यह पिरामिड वृद्धि शील समष्टि को प्रदर्शित करता है।
Post Reproductive
Reproductive
Pre Reproductive
2. घंटी के आकार का पिरामिड (Bell Shaped Pyramid)
इसमें पूर्व प्रजननी सदस्यों की संख्या प्रजननी सदस्यों की संख्या के लगभग बराबर होती है यह पिरामिड स्थिर समष्टि को दर्शाता हैै-
Post Reproductive
Reproductive
Pre Reproductive

3. कुम्भाकार पिरामिड (Urn Shaped Pyramid)
Post Reproductive
Reproductive
Pre Reproductive
इसमेें पूर्वप्रजननी की संख्या प्रजननी की संख्या से बहुत कम होती हैं। यह पिरामिड बनाता हैै की समष्टि घट रही है।

 समष्टि का आकार या घनत्व –
समष्टि का आकार या घनत्व व्यष्टियों की वह संख्या है जो एक ईकाई क्षेत्र या स्थान पर दिये हुये समय में उपस्थित रहता हैं।
 समष्टि वृद्धि (Population Growth) –
किसी जाति के लिए समष्टि का आकार निश्चित नही होता है यह समयानुसार बदलता रहता है जो विभिन्न कारकों जैसे आहार उपलब्धता, परभसक्षण दाब और मौेसमी परिस्थितियों पर निर्भर करता है दी गई अवधि के दौरान दिये गये आवास में समष्टि का घनत्व चार मूलभूत प्रक्रमों में घटता एवं बढ़ता है।

माना किसी क्षेत्र की जनसंख्या घनत्व समय ज पर त्र छज
समय t1 के बाद क्षेत्र की जनसंख्या घनत्व – N1़1
Nt1 = Nt ़ (B़I) – (D़E)

इन चारों में से दो जन्मदर व आप्रवासन समष्टि घनत्व को बढ़ाते है किन्तु मृत्युदर एवं उत्प्रवासन समष्टि घनत्व को घटाते है।

1. जन्मदर (Birth rate)
जन्मदर से मतलब समष्टि में जन्मी उस संख्याऐं है जो दिये गये अवधी के दौरान आरम्भिक जनसंख्या घनत्व में जुड़ती है।
2. मृत्युदर (Death rate)
ये दी गई अवधि में व्यष्टि के मौतांे की संख्या है।
3. आप्रवासन (Immigration)
उसी जाति के व्याष्टियों की वह संख्या है जो दी गई, समय अवधि के दौरान आवास में कहीं और से आयें हैं।
4. उत्प्रवासन (Emigration)
समष्टि के व्यष्टियों की वह संख्या है जो दी गई समयावधि में के दौरान आवास छोड़ कर कहीं और चलें गयेंह ै।

 जैव सूचकांक (Vital Indux)
इसमें जन्मदर, मृत्युदर का प्रतिशत अनुपात एक ईकाई समष्टि व एक इकाई समय में मापा जाता है।
Vital Indux = Birthrate/Deathrate  100
ऽ यदि जैव सूचकांक का मान 100 से अधिक है तो समष्टि वृद्धि कर रही हैंै।
ऽ 100 आता है तब समष्टि स्थिर है।
ऽ 100 से कम आता है तब समष्टि घट रही है।

 वृद्धि माॅडल (Growth Model)
ये दो प्रकार के होते है।
1. चरघतांकी वृद्धि माॅडल (Exponetial Growth Mode) –
किसी समष्टि की आबाधित वृद्धि के लिए संसाधन (आहार व स्थान) का उपलब्ध होना आवश्यक है। आदर्शतः आवास में जब संसाधन असीमित होते है तो प्रत्येक जाति में संख्या में वृद्धि कर सकने की अपनी जन्मजात शक्ति को पूरी तरह अनुभव करने योग्यता होती है।
तब डार्विन के अपने प्रकृतिवरण के सिद्धांत के अनुसार समष्टि चरघांतकी शैली में वृद्धि करते है।
अगर छ आकार के समष्टि में जन्मदरें इ के रूप मेें एवं मृत्युदरें क के रूप में निरूपित की जाती है तो इकाई समय अवधि ज;कछध्कजद्ध के दौरान वृद्धि या कमी निम्न होगी-
dN/dt = (b-d) N
dN/dt = rn r = प्राकृतिक वृद्धि की इंटीन्जिक दर
= b-d
Intigrated form
Nt = Noert
Nt = समय t में घनत्व
No = समय 0 शून्य में घनत्व
r = प्राकृतिक वृद्धि दर
e = 3.71828 प्राकृतिक लघुगणकों का आधार
2. संभार वृद्धि माॅडल (Logestic G.M.) –
प्रकृति में किसी भी समष्टि के पास असीमित संसाधन नही होते है कि चरघातांकी वृद्धि हो इसके कारण सीमित संसाधन के लिए व्यक्तियों में प्रति स्पर्धा होती है आखिर में योग्यतम व्यक्ति जीवित बना रहता है और जनन करता है।
प्रकृति में दिये गये आवास के पास अधिकतम संभव संख्या के पोषण के लिए पर्याप्त सीमित संसाधन होते है इसके आगे वृ़ि़द्ध नही होती उस आवास उस जाति के रहने के लिए इस सीमा को प्रकृति की पोषण क्षमता यदि इस प्रकार के वृद्धि तंत्र में समय ज के सन्दर्भ में छ का आलेख से सिग्माइॅड वक्र बनता है। इस प्रकार की समष्टि वृद्धि को विर्हुस्ट पर्ल लाॅजिस्टिक वृद्धि भी कहा जाता है। यह निम्न समीकरण द्वारा वर्णित होता ।

dN/dt = rn (k-N/k)

N = समय N = समष्टि घनत्व
K = पोषण क्षमता
 समष्टि पारस्परिक क्रियाएं-
किसी भी जाति के लिए न्यूनतम आवश्यक एक और जाति की जिसकों वह भोजन के रूप में ग्रहण कर सकें-
समष्टि में समान जाति या विभिन्न जाति के बीच में पारस्परिक क्रिया होती है- ये दो प्रकार की होती है।

1. अन्तराजातीय अन्तः क्रियाएं (Interspecific Interaction)
यह दो भिन्न समष्टियों की पारस्परिक क्रिया से उत्पन्न होती है।
2. अन्तराजतीय अन्तः क्रियाएं (Interspecific Interaction)
यह समान समष्टि की पारस्परिक क्रिया से उत्पन्न होती है।

 उदासीन अन्तक्रिया (Neutral Interaction)
इस प्रकार की अन्तः क्रियाओं में किसी भी सहयोगी को न तो लाभ, न तो हानि होती है जैसे- कलभक्षी एवं कीट भक्षी पक्षियों का एक साथ रहना।
 ऋणात्मक अन्तःक्रिया (Negative Interaction)
जीवो के मध्य होने वाली वह पारस्परिक क्रिया जिसमें एक या दोनों जीवों को हानि होता है ये निम्न प्रकार की होती है।

1. परभक्षण (Predation)
यह दो जातीय के मध्य अस्थायी वास्तविक सम्बन्ध है जिसमें एक जाति के जीव दूसरे जाति के जीव कोे मारकर भोजन के रूप खाता है इसमें एक जीव को लाभ व दूसरे जीव को हानि होती है।
2. स्पर्धा (Compititon)
जीवों के बीच स्थान, जल, भोजन, खनिज लवण तथा अन्य संसाधनों के लिए स्पर्धा होती है एक जाति के जीवों स्पर्धा अन्तरजातीय स्पर्धा व भिन्न जाति के जीवों के बीच स्पर्धा कहलाती है इसमें दोनों जीवों को हानि होती हैं।
3. परजीविता (Parasitism)
ये विषमपोषी जीव हैै जो परपोषी जीव से अपना आहार प्राप्त करते है।
4. ऐमेन्सेलिजम (Ammensalism)
यह वह क्रिया है जिसमें एक जीव रसायनों एलोकेमिकल्स का स्त्राव करते है, और दूसरे जीव को अपने आस-पास नही उगने, ठहरने देते जैसे- सूर्यमुखी, जौ अपने आस-पास खरपतवार उत्पन्न नही होने देतें।
 धनात्मक अन्तक्रियाऐं (Positive Interactive)
इसमें एक जीव या दोनों जीव को लाभ होता है ये निम्न प्रकार के होते है-
1. अपमार्जक (Scarenging)
मृत जन्तुओं का भक्षण करने वाले जीव अपमार्जक कहलाते है जैसे-गिद्ध, लकड़बग्घा आदि।
2. सहभोजिता (Commansalism)
इस सम्बन्ध में एक जीव को लाभ तथा दूसरे जीव को न लाभ न हानि होती हैै आम की शाखा पा आर्किट पौधा व व्हेल के पीठ की आवास बनाने वालेे बर्निकल को लाभ होता है किन्तु आम के पेड़ व व्हेल को न लाभ न हानि होता हैंै।
3. सहोपकारिता (Mutalism) सहजीवी-
इसमें दोनो जीवों को लाभ होता है जैसे लाइकेन मे कवक व शैवाल एक दूसरे से लाभ प्राप्त करते है।

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