विकास जीव विज्ञान अध्याय -7 कक्षा 12 नोट्स pdf , development biology class 12 notes in hindi

development biology class 12 notes in hindi विकास जीव विज्ञान अध्याय -7 कक्षा 12 नोट्स pdf download?

अध्याय-7 विकास (Development)
ऽ ब्रहमाण्ड की उत्पति लगभग 2000 करोड़ वर्ष पूर्व मानी जाती है।
ऽ ब्रहमाण्ड की उत्पति के सन्दर्भ में प्रचलित सिद्धान्त बिग-बैग सिद्धान्त है।
ऽ पृथ्वी की उत्पति लगभग 50 करोड़ वर्ष के बाद जीवन की उत्पति हुई होगी।

 जीवन की उत्पति से सम्बन्धित विभिन्न मत –
ये मत निम्न है।
1. विशिष्ट स्रृृष्टवाद (Theory of Special Creation)
इस मत के अनुसार पृथ्वी व जीवन के उत्पति किसी दैवीय शक्ति के द्वारा हुई है सृष्टि का निर्माण लगभग 6 दिन में हुआ।
2. स्वतः जननवाद (Spontaneous generation Theory)
इस मत के अनुसार जीवन की उत्पति अकार्बनिक पदार्थो से हुआ है। अरस्तु के अनुसार जीवों का जन्म निर्जीव पदार्थो से हुआ।
3. जैैव जननवाद या जैव निर्माणवाद (Theory of Biogenesis)
स्वतः जननवाद का खण्डन करते हुये हार्वे ने बताया की जीवन उत्पत्ति पहले से विद्यमान जीवों के अण्डो या बीजाणु से हुई हैं।
4. औेपेरिन का सिद्धान्त या प्रकृतिवाद हाल्डेन का सिद्धान्त
रूसी वैज्ञानिक A.Jo Oparin नेे जीवन की उत्पत्ति के सन्दर्भ में पदार्थवाद प्रस्तुत किया। उन्होनें अपनी पुस्तक ‘The Origin of Life’ में इसका वर्णन किया।
इस मत के अनुसार पृथ्वी एक आग के गोले के समान संरचना थी धीरे-धीरे ठण्डा हुआ फिर भौतिक एवं रसायनिक परिक्रियाओं के कारण अकार्बनिक व कार्बनिक पदार्थ बनेे जो संघनित होकर और जटिल यौगिक बनें।
इन कार्बनिक पदार्थो के परस्पर मिलने से एक ऐसे संरचना का निर्माण हुआ जिसमें जीवन के लक्षण विद्यमान थें।
इस मत के अनुसार पहले पृथ्वी की रचना हुई फिर सात चरणों में जीव की उत्पति हुई।
1. आदि वायुमण्डल का निर्माण एवं परमाणु अवस्था –
ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी की उत्पति सूर्य जैस गैसीय पिण्ड के अलग हो जाने से हुई या फिर धूल कणों के धीरे-धीरे संघनित होने से हुई जिससे हमारा सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड बना इसमें रासायनिक तत्व जैसे- हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, फास्फोरस सल्फर आदि स्वतंत्र परमाणु के रूप् थें। जैसे-जैसे पृथ्वी ठण्डी होती गई परमाणु अपने घनत्व के अनुसार तीन स्तरों में बंट गये वेे जिनके भार अधिक था वे पृथ्वी के कोर का निर्माण जिन परमाणु का भार मध्यम था पृथ्वी के धरातल का निमार्ण व अत्यधिक हल्के परमाणु ने पृथ्वी के वायु मण्डल का निर्माण किया।
2. अणुओं एवं सरल कार्बनिक यौगिको का निर्माण-
आदि वायुमण्डल मंे हाइड्रोजन सबसे अधिक एवं सक्रिय था हाइड्रोजन गैस आक्सीजन के साथ मिलकर जल (H2O) का निर्माण किया बचे हुऐ हाइड्रोजन ब् व छ के साथ मिलकर ब्भ्4 व छभ्3 का निर्माण किया।
2H2 + O2 –> 2H2O
3H2 + N2 –> 2NH3
3. कार्बनिक यौगिको का निर्माण-
प्राथमिक अणुओं के मिश्रण से यौगिको के जल में घुलने से जल खारा हो गया जल में इन तत्वों की अधिक मात्रा में होने के कारण इनकी आपस में क्रिया के फलस्वरूप अंसतृप्त हाइड्रोकार्बनों क निर्माण हुआ जैसे- एथिलीन, एसीटिलीन, एल्डिहाइड, कीटोम, एल्कोहाॅल आदि।
4. जटिल कार्बनिक पदार्थ का निर्माण-
रासायनिक संश्लेषण द्वारा बने कार्बनिक यौगिक जैसे-अमीनो अम्ल शर्करा वसा आदि समुद्र में गर्म जल में उबलते रहे टकराते रहे और नये जटिल कार्बनिक यौगिको का निर्माण हुआ।
मौनो सैकेराइडस के अणुओं सेे डाईसैकेराइड्स अणु जैसे- सुक्रोज, गेल्कटोज का निर्माण हुआ।
अमीनो अम्ल से प्रोटीन का निर्माण हुआ फास्फोरिक अम्ल, नाइट्रोजन क्षार व राइबोस शर्करा मिलकर न्यूक्लियोटाइडस का निर्माण हुआ न्यूक्लिमोटाइस से न्यूक्लिक अम्ल बना जो जीवन की उत्पत्ति में एक परिवर्तनकारी घटना थी।
5. न्यूक्लियोंप्रोटीन्स का निर्माण-
इस प्रकार बने प्रोटीन व न्यूक्लिक अम्लों के परस्पर क्रिया करने से न्यूक्लियोप्रोटीन्स का निर्माण हुआ।
यह माना जाता है कि न्यूक्लियों प्र्रोटीन्स में स्वतंत्र जीवन के लक्षण रहे होगें।
6. कोलाइडस, कोएसरवेड्स व आदि कोशिका का निर्माण-
कार्बनिक यौगिको में परस्पर क्रिया के फलस्वरूप बड़े कोलाइडी कणों का निर्माण हुआ।
ओपेरिन ने विरेाधी आवेशो के कोलाइडी कणों के परस्पर मिलने बनी बड़ी कणों को कोएसरवेडस नाम दिया।
कोएसरवेड्स तथा न्यूक्लियोडोेरीन के मिलने से पूर्व -केन्द्रीकीय कोशिकाओं का निर्माण हुआ यह माना जाता है की ये कोशिकाएं विषमपोषी रहीं होंगी।
7. पूर्व केन्द्रीय कोशिका निर्माण-
ओपेरिन के मत के अनुसार जिन कोपरवेड्स में न्यूक्लियों प्रोपेन का संश्लेषण हुआ वह प्रारम्भिक कोशिका रूपी जीवों में विकसित हुये ऐसे जीवों बाद जीन उत्परिवर्तन के कारण विशिष्ट अण्डक बन एवं इनके लक्षणों में विभिन्नताएं आई।

 स्वपोषण की उत्पति-
आदिसागर के कार्बनिक अणुओं का लगातार रसायन पोषी जीवाणु द्वारा उपयोग करते हुये कार्बनिक अणुओं की मात्रा में भारी कमी होने लगी फलस्वरूप पोषण की नयी विधि रासायनिक संश्लेषण का विकास हुआ कुछ जीवाणओं ने आदिसागर में उपस्थित अकार्बनिक पदार्थो से कार्बनिक पदार्थो का संश्लेषण करने लगे ऐसे जीवाणुओं को रसायन स्वपोषी कहते है जैसे-जैसे पहले से उपस्थित रसायनिक उर्जा स्त्रोेत में कमी आने लगी कुछ जीव सूर्य की उर्जा को ग्रहण कर प्रकाश संश्लेषण द्वाररा स्वपोषी हो गये इस प्रकार से प्रकाश संश्लेषित जीवाणु व नीलरहित शैवाल का विकास हुआ।
 जैव विकास प्रमाण-
पण् तुलनात्मक आकारिकी एवं शरीरिकी से प्रमाण-
a. समजात अंग (Homologus Organs)
वे अंग जिनकी रचना व उत्पत्ति समान हो किन्तु कार्य भिन्न होता है जैसे- पक्षी का पंख चमगादड़ के पंख, मनुष्य के हाथ घोड़े के अग्र पद।
b. समरूप अंग या समवृत्ति अंग (Anulogous Organs)
ऐसे अंग जो रचना व उत्पत्ति में भिन्न हों किन्तु कार्य समान होता हैै।
कीट का पंख, चिड़ियों के पंख व चमगादड़ पंख आदि।
b. अवशेषी अंग (Vestigial Organs)
वे अंग जो पूर्वजों में कार्यशील थे लेकिन वर्तमान मेें कार्यविहीन है, अवशेषी अंग कहलाते है। उदाहरण मनुष्यो मेें निमेषक पटल, कर्ण पल्लवों की पेशियां अक्ल दाढ़ आदि।ं
पपण् संयोजी कड़ियो से प्रमाण-
वह जीव जो दो वर्गो के जीवों का लक्षण विद्यमान होता हैे संयोजी कड़ी कहलाते है जैसे-
विषाणु- निर्जीव व सजीव के बीच की कड़ी
भूग्लीना-जन्तु व पादप
आर्किआॅप्टोक्सि- सरीसृप व पक्षी
नियाोसिलाइना-संघ मोलस्का व एनील्डिा
नियोपिलाडना के लक्षण
एनीलिडा संघ मोलस्का संघ का.ल.
1. शरीर खण्ड युक्त 1. शरीर पर कवच आवरण
2. श्वसन क्लोमों 2. शरीर कोमल
पैरीपैप्स- ऐनेलिडा व आथ्रोपोडा के बीच
बैलेनोग्लासस-कशेरूकी अफशेरूकी बीच की कड़ी
प्रोटोथीरिया- सरीसृप व स्तनधारी के बीच की कड़ी
iii. भ्रौमिकी के प्रमाण-
एक ही समूह के विभिन्न जाति के जन्तुओं के भ्रूणों मंे अत्यधिक समानता होती है, परन्तु इनके वयस्कों में अत्यधिक विभिन्नताएं पाई जा सकती है जैसे- मछली, मेढ़ंक, मानव के भ्रूणों में अत्यधिक समानता होती है।
iv. पूर्वजता या प्रत्यावर्तन से प्रमाण-
जीवों में ऐसे लक्षण का आकस्मिक विकसित होना जो कि वर्तमान जातीय लक्षण न होकर पूर्व जातीय लक्षण होता है मनुष्य के कभी-कभी नुकीले दांत।
v. जीवश्म विज्ञान से प्रमाण-
जीवाश्म का अर्थ उन जीवों के अंश से है जो अब सेे पहले करो़ड़ो वर्ष पहलेे जीवित रहंे होगें।
 मिलर का प्रयोग-
सन् 1953 ई0 को एक अमेरिकी वैज्ञानिक एस0एल0मिलर ने अपनी प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप् से अमीनो अम्ल बनाया था।
इन्होनंे अपने प्रयोग में मीथेन, अमोेनिया, हाइड्रोजन व जलवाष्प का प्रयोग किया।
 अनुकूली विकिरण – Adoptive Radiation
किसी भू-भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों के विकास का प्रक्रम एक बिन्दु से शुरू होकर अन्य बिन्दु क्षेत्र तक प्रसारित होने को ही अनकूली विकिरण कहते है।
उदाहरण- डार्विन के फिंचे बीज भक्षी पक्षी ये दक्षिण अमेरिका मंे शाकाहारी हैै व यही पक्षी गैलापगोस द्वीप पर यह मांसाहारी हो गये थें।
इससे निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते है –
ऽ प्रकृति में एक जीव जाति की उत्पति एक बार तथा एक क्षेत्र में होती है।
ऽ किसी जाति कि जीवों की संख्या बढ़ने पर मंे उत्पति क्षेत्र के चारों और फैला जाते है।
ऽ एक जाति के जीवों वातावरण के बदलाव के कारण नये प्रजाति की उत्पत्ति होती है।
ऽ नये भू-भागमंे पहुंचने पर जीवों में नये आकारिकी का विकास हुआ है।
नोट- डार्विन ने H.M.S Begle नामक जहाज से दक्षिण अमेरिका से गैलापेगोस द्वीप पर गये थें।

 भूवैज्ञानिक समय मापन-
जीव की उत्पत्ति से लेकर आज तक के समय को 5 महाकल्प मे विभाजित किया गया है।

 जैव विकास के सिद्धान्त-
जीवों के विकास के सन्दर्भ में तीन सिद्धान्त प्रचलित है।
1. लैमार्कवाद या उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त-
लैमार्क ने सन् 1809 में ‘फिलाॅसाफी जूलोजिक‘ नामक पुस्तक प्रकाशित की थी।
नोट- जैव विकास का पहला सिद्धान्त लैमार्क 1801 ई0 में दिया।
इस सिद्धान्त का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
1. आन्तरिक जैव बल-
जीवांे में आन्तरिक बल से अपनेे शरीर या विशेष अंगो को बढ़ाने की प्रवृत्ति होती है।
2. वातावरण का प्रभाव-
वातावरण सभी प्रकार के जीवों को प्रभावित करता है परिवर्तित वातावरण जीवों नये आवश्यकताओं को जन्म देता है।
3. अंगो का उपयोग व अनुपयोग –
अंगो का विकास व उसके कार्य करने की क्षमता उसके उपयोग या अनुपयोग पर निर्भर करता है किसी अंग का लगातार उपयोग करते रहने से वह अंग मजबूत व पूर्ण विकसित हो जाता है।
लेकिन उसके अनुपयोग से इसका उल्टा प्रभाव पड़ता है अर्थात विकसित न होकर विलुप्त हो सकता है।
4. उपर्जित लक्षणों की वंशागति –
इस प्रकार जीवों में आये परिवर्तन आनुवंशिकी द्वारा उनकी संतानों मे ंवंशागति हो गया।
उदाहरण-
अंगो के उपयोग का प्रभाव-
अफ्रीका के रेगिस्तान में पाया जाने वाला जिराफ ऊंचे – ऊंचे पेड़ो की पत्तियों को खाता है इसके लिए उसकी अगली टांगे लम्बी व गर्दन लम्बे होते है लैमार्क का मानना था की जिराफ पहले सामान्य गर्दन व पैर का था जो जमीन की घास खाता था घास सूखने के कारण वे पेड़ो की पत्तियां खाने लगे जिससे ये गर्दन ऊंची करने लगे जिसके कारण जिराफ के गर्दन लम्बे हो गये।
अंगो के अनुपयोग का प्रभाव-
सांप के पहले पैर रहे होगे ये बाद में रेंगने लगे व बिल आदि में घुसने के कारण उनके पैर विलुुप्त हो गये।

लैमार्कवाद की आलोचना-
लैमार्कवाद के आलोचना भी की गई जिसमें मुख्य आलोचक वीजमान व लोएव ने निम्न प्रकार से किया वीजमान ने सफेद चुहो की पुंछो को अनेक पीढ़ी के काटे मगर उनकी संतानो किसी क भी पहले से पंूछ कटेे नही थें।

 डार्विनवाद या प्राकृतिक चयन सिद्धान्त-
चाल्र्स राबर्ट डार्विन एवं एल्फ्रैड रसैल वैलेस ने सामान्य रूप से जीवों की उत्पति के संदर्भ मेें एक परिकल्पना प्रस्तुत किया जिसे डार्विनवाद कहते है।
डार्विन की यह विचारधारा थी की प्रकृति जन्तु व पौधों का इस प्रकार चयन करती है कि वह जीव जो उस वातावरण में रहने के लिए सबसे अधिक अनुकूल होते संरक्षित हो जातेे है औे वे जीव जो कम अनुकूल होते है नष्ट हो जाते है।
प्राकृतिक चयनवाद को समझाने लिए डार्विन ने अपने विचार को निम्न रूप से प्रकट किया-
ऽ जीवो की संख्या बढ़ जाने प्रवृत्ति –
सभी जीवों में यह प्रवृत्ति होती है कि वह जनन द्वारा अपनी संख्या में अधिक वृद्धि करे लेकिन उनसे उत्पन्न सभी जीव जीवित नही रह पाते क्योेंकि उनकी वृद्धि ज्यामितीय अनुपात में होती है परन्तु खाने व रहने का स्थान स्थिर रहता है।
ऽ सीमान्त कारक (Limiting Factor)
प्रत्येक जाति के विकास को रोकने के लिए कुछ बाधक हो जाते है जिनसे उनकी संख्या सीमित हो जाती है।
जिन्हें सीमान्त कारक कहते है जो निम्न है-

1. सीमित भोज्य साम्रगी- जनसंख्या भोज्य साम्रगी के कमी के कारण जनसंख्या सीमित हो जाते हैं।
2. परभक्षी जन्तु- दूसरेे जीवों को खाने वाले जीव जनसंख्या को सीमित अंकुश लगाना है।
3. रोग- रोग जनसंख्या के विकास में बाधा हो जाता है।
4. प्र्राकृतिक विपदा में- प्राकृतिक विपदायें किसी विशेष क्षेत्र के जीवों के जनसंख्या में अंकुश लगाते है।

ऽ विभिन्नताएं-
विभिन्नताएं जैवविकास की मुख्य आवश्यकता है विभिन्नता के बिना विभिन्न प्रजाति का विकास असंभव होता है।
ऽ योग्यतम की उत्तरजीविता
वे जीव में जो वातावरण के अनुुसार अनुकूल जाते है उन्ही का विकास होता है जो जीव वातावरण् के अनुकूल नही होता नष्ट हो जाते है।
ऽ नई जाति की उत्पत्ति-
वातावरण निरन्तर परिवर्तित होता रहती है जीवांे में उनके अनुकूल होने के लिए विभिन्नताएं उत्पन्न होती। ये विभिन्नताएं पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़कर नये जाति की उत्पत्ति हो जाती है।

 हसूगो डी ब्रीज का उत्परिवर्तन का सिद्धान्त –
हयूगो डी ब्रीज के अनुसार नयी जातियां सामान्य जातियों में आये अचानक आये परिवर्तन में हुआ है जिसे उत्परिवर्तन नाम दिया।
उत्परिवर्तन जीनी ढांचों में उत्पन्न आनुवंशिक परिवर्तन होता है।
ये दो प्रकार के हो सकते है।
 ऐलेन का नियम-
अधिकाधिक ठण्डे प्रदेशों में रहने वाले जीव जन्तु के शरीर के खुले भाग जैसे- कान, पूंछ, पैर आदि छोटे-छोटे जाते है जिससे उनमें ताप की हानि कम हों।
 वर्जमान का नियम-
ठण्डे प्रदेशों में रहने वाले जीवों का शरीर अधिकाधिक बड़ा होता जाता है।
 कोप का नियम-
जैव विकास के लम्बें इतिहास में जीवों में शरीर के अधिकाधिक बड़े होने प्रवृत्ति रही है।
 डोलो का नियम-
डोलो के नियमानुसार जैव विकास कभी उल्टी दिशा में नही बढ़ता है।

 मानव का उद्भव व जैव विकास-
लगभग 15m वर्ष पूर्व ड्र्रायोपिथिकस तथा रामापिथिकस नामक नरवानर विद्यमान थे इनके शरीर बालों सेे भरपूर थे तथा ये गोरिल्ला एवं चिपैंजी जैसे चलते थे इनमें रामापिथिकस मनुष्य जैसे व ड्रायोपिथिकस वनमानुष जैसे थे।
मानव का जैव विकास-

ड्र्रायोपिथिकस  रामापिथिकस

40m Year ago 14m Y.a.

आस्ट्रेेलोपिथिकस  होमोहैविलिस

5m Year ago 2.5m Y.a.

होमो इरेक्टस  निएण्डरथल मा.

5lac Year ago 2.5lac Y.a.

(जीवमानव)

क्रोन्मैग्नान मानव  आधुनिकता

70k Year ago 35k Y.a.

1. डायोपिथिक्स- यह चिम्पैजी सेे बहुत मिलता-जुलता था कपि की तरह हाथ व पैर समान लम्बाई केे व इनका शरीर झुका हुआ था।
2. रामापिथिक्स- इसको पहला मानव जैसा प्रामवेट माना जाता है ये द्विपादी थे इनका विकास मायोसीन युग में हुआ था।।
3. आस्टेे्रलोपिथिक्स-
1. इनका शरीर 4फीट लम्बें एवं शरीर का द्रव्यमान 20-25 किलोग्राम था।
2. इनके कपाल गुहा का आयतन 450-700cc (औसत 500cc) था।
3. इनका मुख आगे की तरफ निकला हुआ था।
4. होमोहैबिलस-
1. इनके कपाल गुहा का आयतन 700cc था।
2. इनके दांत मनुष्य के समान थें।
3. ये सीधेे चलते थें।
5. होमो इरेक्टस- में दो जाति में विभाजित थें।
A. होमो इरेक्टस इरेक्टस (जावा मानव)
1. ये 5 फीट लंबे एवं वजन 70 किलोग्राम था।
2. इनके जबड़े आगे निकले हुये थें।
3. ये सर्वाहारी थें।
4. ये पत्थर का औेजार का प्रयोग एवं गुफा में रहते थें।
5. इनके कपाल गुहा का आयतन 900cc था।
ठण् होमो इरेक्टस पेकिनेन्सिस (पेंकिग मानव)
1. कपाली गुहा का आयतन (850-1300) औसत 1075cc था।
2. माथा छोटा था।
3. ये अग्नि का अधिक प्रयोग करते थें।
6. निरूण्डस्थल मानव-
1. ये सुडोल भारी शरीर वाले थे।
2. ये कपाली गुहा का आयतन 1450 cc था।
3. ये उत्तम औजार बनाते थें।
4. ये मुर्दो को रीतिरिवाज से गाड़ते थें।
5. जनवर के खाल को पहनते थें।
7. क्रो-मैग्नान मानव
1. यह लम्बाई मेें 6 फीट थें।
2. ये कपाली गुहा का आयतन 1600 cc था।
3. ये गुफओं में छोटे परिवार बनाकर रहते थें।
4. ये हांथी दांत एवं पत्थर के औजार बनाते थें।
5. आग पर खाना पकाते थे।
6. मुर्दो को धार्मिक रीति-रिवाज से दफनाते थें।
8. आधुनिक मानव (होमो सेपियन्स-2)
1. सीधे खड़े होकर चलना, सोेचना
2. कपाली गुहा का आयतन 1450 cc
3. अत्यन्त विकसित
4. घर बनाकर धार्मिक देवी देवताओं की पूजा करते है।

मानव के कपालिय गुहा मुख्य
प्रकार का आयतन लक्षण
1. आस्टेे्रलोपिथिक्स 500 cc मुख आगे की
2. होमो हैबिलिस 700 cc प्रथम हथियार का प्रयोग
3. जावा मानव 900 cc वजन 70 किलोग्राम
4. पैकिंग मानव 1075 cc आग का प्र्रयोग
5. निएण्डरथल मानव 1450 cc गुफावासी, पत्थर के हथियार
6. क्रो-मैग्नान मानव 1600 cc हाथी दांत का प्रयोग
7. आधुनिक मानव 1450 cc सभ्यता का विकास

 हार्डी वेनवर्ग सिद्धान्त-
इस सिद्वान्त के अनुसार एकबड़ी जीव आबादी का जीन पूल तब तक अपरिवर्तित रहता है जब तक विकास को प्रेरित करने वालेे कारक जैसे-जीनी अपवह्न, पारगमन, उत्परिवर्तन तथा प्राकृतिक वरण उसकांे प्रभावित नही करतें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *