नियामक किसे कहते है | नियामक की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब लिखिए की विशेषताएं Normative in hindi

Normative in hindi meaning and definition नियामक किसे कहते है | नियामक की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब लिखिए की विशेषताएं ?

नियामक (Normative) ः समाज के विन्यास से संबंधित होता है। समाज के विन्यास के नियम और विनियम होते हैं जो समाज में मानदण्डों और मूल्यों के आधार पर निश्चित होते हैं।

बहुलवाद (Pluralism) ः एक ऐसा सिद्धांत जिसमें अनेकता या विविधता को माना जाता है। इस इकाई के संदर्भ में धार्मिक बहुलवाद का अर्थ है- एक ऐसा समाज जिसमें विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं और अपनी विशिष्टगत जीवन-पद्धति व्यतीत करते हैं।

धार्मिक बहुलवाद: मूल्य के रूप में (Religious Pluralism as Value)
अब तक आपने धार्मिक बहुलवाद के विषय में कुछ तथ्यों को देखा है, जैसे कि भारत में मुख्य धर्मो की आबादी और भौगोलिक फैलाव। आप उन सामाजिक और विचारात्मक कारकों के विषय में भी पढ़ चुके हैं, जिससे धर्म में विभेदीकरण होता है, जैसे कि पंथ, जाति व्यवस्था और भाषा । इन सबसे धार्मिक बहुलवाद को बढ़ावा मिलता है।

अब हम इस भौगोलिक दृष्टिकोण से हमारे देश के बहुलवाद के विषय में चर्चा करेंगे। सवाल यह उठता है: हमारे देश के विभिन्न धर्मों में किस हद तक मौलिक मूल्यों में समानता दिखाई देती है। विभिन्न धार्मिक विचारधाराओं में उदारता को कितना महत्व दिया गया है। धर्म अपने अनुयायियों के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश को किस हद तक प्रभावित करता है ? इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए प्रत्येक धर्म के विशिष्ट स्वरूप को देखना बेहतर होगा। भारतीय धर्मों में इस्लाम, ईसाई और सिक्ख धर्म सामूहिकता और समानता पर जोर देते हैं। इस्लाम और ईसाई धर्मों में व्यवस्थित संगठन (चर्च) होता है जो अनुयायियों के जीवन के तौर-तरीकों को मार्गदर्शित और नियंत्रित करता है। इस्लाम में ‘‘उम्मा‘‘ (धार्मिक समुदाय) और ईसाइयों में भाई चारे की अवधारणाएं, अनुयायियों की धार्मिक एकबद्धता को मजबूत करते हैं।

धर्म एवं सामाजिक पहचान (Religion and Social Identity)
बदलती हुई सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण धार्मिक पहचान और अनन्यता की भावना भी बढ़ चुकी है। इस बदलाव का परिणाम यह है कि धार्मिक शुद्धिकरण पर जोर, जिससे उन प्रथाओं, अनुष्ठानों और मान्यताओं को हटाया जाता है, जो किसी धर्म विशेष की मूल मान्यताओं से मेल नहीं खाती हैं। इस प्रवृत्ति के अनेक उदाहरण भारत के धर्मों में मिलते हैं। इस्लाम, जिसमें विभिन्न धर्मों के व्यक्ति शामिल हुए हैं, अधिक समन्वयवादी धर्म हुआ करता था, अर्थात इसमें विभिन्न धर्मों के विचार, मान्यताएं और अनुष्ठान समा गए थे। आज भी अनेक मुसलमान समुदाय कुछ ऐसे मूल्यों, विश्वासों और रीतियों का पालन करते हैं, जो इस्लाम से पूर्व उनकी संस्कृति में शामिल थे। यह बात ईसाई, सिक्ख और बौद्ध अनुयायियों पर भी लागू होती है। यहूदियों में भी यह पाया जाता है। उदाहरण के लिए, बेने इस्राइलियों के मूल्यों और विश्वासों पर हिन्दू धर्म का गहरा प्रभाव रहा है। अक्सर ये विश्वास यहूदी विश्वासों के विपरीत रहे हैं। कहा जाता है कि आधुनिक काल में सिर्फ भारतीय यहूदी ही बहुदेववादी समाज में रहते हैं, जिसमें अनेक देवी-देवताओं को पूजा जाता है। बाइबिल के समय से यहूदी बहुदेववाद के सख्त विरूद्ध थे और इसे पाप मानते थे।

परंतु बेने इस्राइली ऐसा कोई विरोध प्रकट नहीं करते हैं। हिन्दू धर्म से लंबे समय तक संपर्क के कारण ये इसके मूल्यों और विश्वासों को मानने लगे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि यहूदियों को भारत में धार्मिक शोषण और विरोध का सामना नहीं करना पड़ा । अन्य जातियों की तरह शांति से रहने के लिए अपनी जीवन-पद्धति का पालन करने के लिए वे मुक्त थे। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो भारत के अलावा यहूदियों का हर जगह शोषण हुआ है, इसलिए हिन्दू धर्म के प्रति उनका सकारात्मक रवैया रहा। वे मानने लगे कि यह धर्म उनके अपने धर्म के विरूद्ध नहीं है। इस तरह के व्यवहार का एक कारण यह भी था कि उनके धर्म की तरह इस धर्म में भी द्वेष, अत्याचार और शोषण का अभाव था। अन्य समुदायों की तरह उन्हें भी हिन्दू धर्म के साथ शांति से रहने की एक आशा दिखाई दी थी। इसमें अपने अनुयायियों के अपने तरीके से जीने की स्वतंत्रता थी। इस तरह का व्यवहार उन्हें पहले कहीं नहीं दिखाई दिया था। इससे पहले उनके साथ प्रत्येक स्थान पर अत्याचार ही हुआ था। उन्हें अपने धर्म की तरह ही हिन्दू धर्म में भी मुक्त जीवन व्यतीत करने की विशेषताएं दिखाई दी थीं।

बहुदेववाद पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया और वे हाल ही तक मानते थे कि बाइबिल के अनुसार गौ मांस खाना मना है। ये विचार हिन्दू धर्म के प्रभाव के परिणाम हैं। (पेटाई, राफैल 1987ः 164-172) जाति व्यवस्था अन्य धर्मों को किस प्रकार प्रभावित करती है, इस विषय में आप पहले ही पढ़ चुके हैं कि हिन्दू धर्म की जाति पद्धति भारत के अन्य धर्मों में भी व्याप्त है।

धार्मिक बहुलवाद और साझे मूल्य (Religious Pluralism and Shared Values)
भारत में धार्मिक बहुलवाद के मूल्यों की मौजूदगी अनेक स्तरों पर देखी जा सकती है। सबसे पहले, लगभग सारे धर्मों में कुछ मूल्य समान रूप से मौजूद हैं। इनमें से कुछ एक जैसे मूल्य हैं-दूसरे धर्मों के प्रति उदारता, मानव प्रेम, अहिंसा और नैतिक व्यवहार । हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई और सिक्ख धर्मों में अहिंसा और मानववाद पर जोर दिया गया है। इस्लाम न्याय और मानववादी मूल्यों पर जोर देता है। इस प्रकार, आंतरिक भेदों के बावजूद विभिन्न धर्म कुछ सार्वभौमिक मूल्यों को महत्व देते हैं। इससे बहुलवाद समृद्ध होता है। दूसरी बात यह है कि ऐतिहासिक कारणों की वजह से इस्लाम, ईसाई, और सिक्ख धर्म (जिनकी संख्या में धर्म परिवर्तन के कारण वृद्धि हुई है) अनेक तत्वों को शामिल कर चुके हैं, जो धर्म परिवर्तन से पहले अन्य धर्मों में थे। हिंदू धर्म में अनेक जनजातीय अनुष्ठान समा गये। माना जाता है कि शिव, हनुमान और कृष्ण आदिवासियों के देव थे, जिन्हें हिन्दू धर्म में शामिल किया गया।

कथाओं और मिथ्कों से पता चलता है कि किस प्रकार विभिन्न आदिवासी देवी-देवताओं को हिन्दू धर्म के उच्च देवी-देवताओं में स्थापित किया गया । उदाहरण के लिए, पूरी के भगवान जगन्नाथ आदिवासी देवता माने जाते थे। आदिवासी धर्म की और विशेषताएं भी हिन्दू, बौद्ध और ईसाई धर्म में पाई जाती हैं इसके उदाहरण हैं – भूत-प्रेत में विश्वास और ‘‘टोटमवाद‘‘ अर्थात किसी जीव को आदिवासियों का पूर्वज मानकर उसकी पूजा करना और बुरे समय में उससे मदद मांगना । आदिवासी धर्म के विषय में आप अगली इकाई में और अधिक जानकारी पा सकते हैं। जैन धर्म की कई मान्यताएं और अनुष्ठान अन्य धर्मों से प्रभावित हैं। सिक्ख धर्म, हिन्दू, इस्लाम और सूफीवाद से गहरे रूप से प्रभावित है। भारत के सभी मुख्य धर्मों में अनन्यवाद और समन्वयवाद साथ-साथ पाए जाते हैं।

कार्यकलाप 2
क्या आप वास्तविक जीवन, फिल्म या कहानियों में होने वाले किसी अंतरूधर्मीय विवाह के बारे में जानते हैं ? ऐसे विवाह का-सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव क्या हुआ ?

अपने विचार दो पृष्ठों में लिखिए। यदि संभव हो, तो अपने अध्ययन केन्द्र के अन्य छात्रों के लेखों से इसकी तुलना कीजिए।

तीसरी बात यह है कि धर्म अपनी रोजमर्रा की अभिव्यक्ति में मानव जीवन की समस्याओं से संबद्ध है। जन्म, मृत्यु, रोग, उत्तरजीविता जीवन की ऐसी समस्याएँ हैं, जिन्हें कोई भी धर्म अंतर्ध्यान नहीं कर सकता है। देखा जाए तो जीवन की इन समस्याओं का उत्तर ही धर्म है। इसलिए हर धर्म में अमूर्त सिद्धांतों के साथ-साथ भौतिक जीवन से संबद्ध नियम भी मिलते हैं। दैनिक दृष्टिकोण से स्थान, काल और प्रकृति का वर्णन किया जाता है। हर धर्म में सामान्य जीवन से संबंधित बातों के विषय में कई नैतिक सिद्धांत और मूल्य होते हैं, जैसे-काम, व्यवसाय, स्थान, काल, प्रकृति इत्यादि।

सामान्य जीवन के अनुभवों से संबद्ध होने के कारण ही धर्म की भौतिक बुनियाद समान होती है। इसलिए अपनी विशिष्ट पहचान के बावजूद प्रत्येक धर्म में कुछ समान सिद्धांतध्नियम पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए विभिन्न धर्मों में विशिष्ट व्यावसायिक समूह कुछ समान धार्मिक मान्यताओं और मूल्यों का पालन करते हैं (शुभ तिथियाँ, व्यावसायिक अनुष्ठान) जो उनके व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। यह विशेष रूप से किसान वर्ग में देखा जाता है।

धार्मिक विश्वास एवं अनुष्ठान (Religious Beliefs and Rituals)
अंततः धर्म में विश्वास और अनुष्ठान दोनों शामिल हैं। समय के साथ मान्यताएं संशोधित और अनन्यवादी बन सकती हैं, परंतु अनुष्ठानों का मूल स्वरूप सामाजिक और सहभागी ही रहता है। हर धर्म में त्योहार और पर्व मनाए जाते हैं जो बिभिन्न मिथकों, पुराणों और नियमों से संबंधित है।

ऐसे मौकों पर हर धार्मिक समूह के लोग भाग ले सकते हैं। हिन्दुओं की रामलीला में विभिन्न धर्मों के लोग हिस्सा लेते हैं। इसी तरह, मुहररम के दौरान भी अन्य धर्मों के लोग हिस्सा लेते हैं। इससे धार्मिक बहुलवाद मौलिक स्तर पर मजबूत और गहरा होता है। अंतः-धार्मिक सहयोग और आपसी संबंधों को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार, अनेकवादी मूल्यों का ठोस प्रमाण अनुष्ठान है।

अगली इकाई में आप जनजातीय धर्मों के विषय में पढ़ेंगे, जिससे भारत के धार्मिक बहुलवाद का एक और पहलू स्पष्ट होगा।

शब्दावली
सिद्धांत (Canons) ः धार्मिक संगठनों के ढाँचे से संबंधित कानून अथवा नियम।
बीतमबींस (Functionaries) ः जो लोग पद-भार संभालते हैं। हमारे इस संदर्भ में जो लोग धार्मिक पदों पर जैसे कि पुजारी या फादर/पुरोहित का काम करते हैं।
भंडार/संग्रह (Repertoire) ः वस्तुओं का संग्रह या भंडार। इस संदर्भ में धर्म में मूल्य, विश्वास और अनुष्ठानों का संग्रह।
पंथ (Sect) ः ऐसी धार्मिक बिरादरी जिसके सदस्य मूल धर्म की किसी बात से असहमत हैं। पंथ विशिष्ट मान्यताओं पर आधारित है और इसकी सदस्यता अनिवार्य न होते हुए व्यक्ति की इच्छा पर आधारित होती है।
समन्यवादी (Syncretic) ः जिसमें अनेक विचारों, मूल्यों और प्रथाओं का समन्वय हो, जो अनन्यवादी न हो।