राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थापना कब हुई | राष्ट्रीय विकास परिषद के कार्य क्या है | national development council in hindi

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राष्ट्रीय विकास परिषद
(National Development Council)

योजना के समर्थन में देश के संसाधनों एवं प्रयासों को गतिशील बनाने, सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सामान्य आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देने तथा देश के सभी भागों में संतुलित एवं तीव्र विकांस (Balanced and Rapid Development) को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद का गठन 6 अगस्त 1952 को किया गया था। योजना आयोग की तरह यह भी एक संविधानेत्तर (Extra constitutional) संस्था है। इसका गठन केन्द्र सरकार के एक शासकीय आदेश के द्वारा हुआ था।

उद्देश्य (Objectives)
राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थापना निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए थी-
1. योजना निर्माण एवं क्रियान्वयन में राज्यों का सहयोग प्राप्त करना।
2. योजना के समर्थन में राष्ट्र के संसाधनों एवं प्रयासों को गतिशील बनाना।
3. सभी अहम क्षेत्रों में सामान्य आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देना।
4. देश के सभी भागों में तीव्र एवं संतुलित विकास को बढ़ावा देना।

कार्य (Functions)
राष्ट्रीय विकास परिषद के निम्नलिखित कार्य हैं-
1. योजना आयोग द्वारा बनाई गई पंचवर्षीय योजना पर विचार करना।
2. योजना निर्माण हेतु दिशा-निर्देश देना।
3. योजना के क्रियान्वयन हेतुः संसाधनों का अनुमान लगाना।
4. राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाली सामाजिक व आर्थिक नीति से जुड़े महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार करना।
5. समय-समय पर योजना संचालन की समीक्षा करना तथा ऐसे उपायों को अनुशंसा करना जिससे राष्ट्रीय योजना के उद्देश्यों एवं
लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके!

संरचना (Structure)
राष्ट्रीय विकास परिषद में प्रधानमंत्री सभी कैबिनेट मंत्री, सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, सभी केन्द्रशासित प्रदेशों के प्रशासक/मुख्यमंत्री तथा योजना आयोग के सभी सदस्य शामिल होते हैं।
इसके अलावा स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्रियों को भी इसकी बैठकों में बुलाया जाता है। इस परिषद का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। योजना आयोग का सचिव ही राष्ट्रीय विकास परिषद का सचिव होता है।
वर्ष में दो बार राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक होती है। योजना आयोग द्वारा पंचवर्षीय योजना के प्रारूप को सबसे पहले कैबिनेट के समक्ष रखा जाता है। कैबिनेट की संस्तुति के बाद इसे राष्ट्रीय विकास परिषद के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रीय विकास परिषद से स्वीकृति मिलने के बाद इसे संसद में पेश किया जाता है। संसद की संस्तुति मिलने के बाद इसे आधिकारिक तौर पर सरकारी राजपत्र में प्रकाशित कर दिया जाता है।

उपयोगिता (Relevance)
राष्ट्रीय विकास परिषद सहकारी संघवाद की भावना को बढ़ावा देता है। केन्द्र-राज्यों के बीच योजनाओं के प्रारूप के संबंध में यह विस्तृत विचार-विमर्श करता है। केन्द्र-राज्य के बीच सहभागिता, समन्वय एवं सहयोग को बढ़ावा देता है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि परिषद में केन्द्र-राज्यों के अलावा अन्य हितों से जुड़े प्रतिनिधियों को भी अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है। राष्ट्रीय विकास परिषद संघवादी व्यवस्था का प्रतीक है। इसके संगठन का चरित्र राष्ट्रीय है। स्वयं प्रधानमंत्री के अध्यक्ष होने के कारण इसे एक विशेष प्रकार का नेतृत्व, नियंत्रण, निर्देशन तथा महत्त्व प्राप्त है। विकास की गति को बढ़ाने, क्षेत्रीय असंतुलन को समाप्त कर संतुलित विकास को बढ़ावा देने, गरीबी, बेरोजगारी व पिछड़ापन को दूर करने में परिषद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

अन्तर्गत गवाह को समन करना एवं अपने समक्ष उपस्थित करना, किसी दस्तावेज को अपने पास मंगवाना तथा किसी भी सरकारी कार्यालय या न्यायालय से रिकार्ड मंगवाना शामिल हैं।

योजना आयोग का प्रभाव (Impact of Planning Commission)
संविधान के अन्तर्गत वित्त आयोग को केन्द्र-राज्य के बीच वित्तीय संतुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है लेकिन व्यवहार में यह कार्य तीन तरीके से संपन्न होता है। वित्त आयोग तो अपना दायित्व निभाता ही है. योजना आयोग एवं संबंधित मंत्रालय भी कतिपय वित्तीय आवंटन में अपनी भूमिका निभाते हैं। देखने में आता है कि वित्तीय आवंटन का बड़ा भाग योजना आयोग के माध्यम से किया जाता है। भारत द्वारा योजनागत विकास का मार्ग चुने जाने के कारण योजना आयोग की बढ़ी भूमिका देखने को मिलता है। राज्यों के बीच राजकोषीय समानता स्थापित करने का कार्य योजना आयोग द्वारा ही किया जाने लगा है जबकि संवैधानिक रूप से यह कार्य वित्त आयोग को सौंपा गया था। योजना आयोग के गठन के पश्चात् निश्चित तौर पर वित्त आयोग का कार्यक्षेत्र सीमित हुआ है। भारत में सामान्य तौर पर योजना, नीति एवं कार्यक्रम योजना आयोग के अधिकार क्षेत्र में चला गया है। योजना आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर ही योजनागत परियोजनाओं के लिए वित्तीय आवंटन किया जाता है जिससे वित्त आयोग की भूमिका सीमित हो गई है। वित्त आयोग एवं योजना आयोग के कार्यों में आच्छादन (Overlapping) पैदा होने से राज्यों की वित्तीय स्थिति की व्यापक समीक्षा भी बाधित हुई है।
बदलते राजकोषीय स्थिति एवं अपने कार्यों में विस्तार के बावजूद वित्त आयोग ने केन्द्र-राज्य वित्तीय संबंधों को सामान्य बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यदि अब तक केन्द्र-राज्य संबंध भंग नहीं हुए. हैं तो उसमें वित्त आयोग का बहुत बड़ा योगदान रहा है। अब वित्त आयोग केन्द्र-राज्य वित्तीय संबंधों में केवल मध्यस्थ (Arbitrator) की भूमिका ही नहीं निभाता बल्कि पूरे वित्तीय पुनर्संरचना (Restructuring) में अग्रणी भूमिका निभाता है। वित्त आयोग की यह भूमिका उभरती चुनौतियों एवं बदलते वित्तीय वातावरण के बीच और भी बढ़ने की संभावना है।