बर्मा या म्यांमार देश का इतिहास myanmar burma country history in hindi राजधानी , जनसंख्या

(myanmar burma country history in hindi) बर्मा या म्यांमार देश का इतिहास राजधानी , जनसंख्या बर्मा ब्रिटिश भारत से कब अलग हुआ किस अधिनियम के फलस्वरूप बर्मा के अंतिम राजा का नाम क्या था ?

बर्मा
संरचना
उद्देश्य
प्रस्तावना
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ब्रिटिश शासन की स्थापना
औपनिवेशिक शोषण तथा राष्ट्रवाद का उदय
जापान द्वारा कब्जा तथा बर्मा की स्वतंत्रता
संसदीय काल
आरंभिक दिनों की राजनैतिक अस्थिरता
विकासात्मक योजनाएं
जातीय अल्पसंख्यक तथा बर्मीकरण ।
ए.एफ.पी.एफ.एल. के भीतर आंतरिक कलह तथा तख्ता-पलट
फौजी शासन
नई राजनैतिक व्यवस्था
आर्थिक विकास की समस्याएं
प्रारंभिक प्रतिरोध
जनतंत्र के लिए आन्दोलन
बी.एस.पी.पी. शासन का अंत
जनतंत्र समर्थक आन्दोलन की कमजोरियां
1990 के चुनाव तथा उसके बाद
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
यह इकाई बर्मा में शासन तथा राजनीति से जुड़े पहलुओं पर विचार करती है। इस इकाई का अध्ययन करने के उपरान्त आपको:
ऽ बर्मा की स्वतंत्रता के समय तक की ऐतिहासिक पृष्ठभमि को खोज निकालने,
ऽ संसदीय प्रणाली की व्यवस्था तथा उसके अस्तित्व का वर्णन करने,
ऽ विकासशील राज्य में सेना तथा नौकरशाही की भूमिका की जांच करने, तथा
ऽ जनवादी आन्दोलन के महत्व को पहचानने में, सक्षम होना चाहिए।

प्रस्तावना
बर्मा दक्षिण-पूर्व एशिया तथा दक्षिण एशिया से जुड़े अधिकांश पश्चिमी हिस्से में फैला हुआ है। इसकी सीमाएं भारत, चीन, बंगलादेश, लाओस तथा थाइलैण्ड से लगी हई हैं। राज्य का कुल क्षेत्रफल 678000 वर्ग कि.मी. है तथा 1971 की जनगणना ने कुल जनसंख्या का आकलन लगभग 28,200,000 किया था। बर्मा में अनेक उप-राष्ट्रीयताएं एवं कबीले रहते हैं। बर्मी कुल आबादी का लगभग 70 प्रतिशत है। अन्य समूहों में, कारेन (18 प्रतिशत), शान (17 प्रतिशत), चिन (12 प्रतिशत) तथा काचिन (11.5 प्रतिशत) सबसे प्रमुख हैं। इन तमाम समूहों की अपनी निजी भाषा, साहित्य व संस्कृति है तथा ऐतिहासिक रूप से विकसित आर्थिक क्षेत्र भी मौजूद हैं। पूर्वी, उत्तरी तथा पश्चिमी पहाड़ी सीमाओं में विभिन्न कबीले रहते हैं-जो कि सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। बर्मा को विरासत में भारतीय मूल के लोगों की विशाल संख्या मिली है । बर्मा व्यापक एवं संपन्न आर्थिक संसाधनों से समृद्ध है, उनका उपयोग करके देश कृषि तथा औद्योगिक, दोनों ही तरह से खुशहाल हो सकता है।

स्वतंत्रता के बाद, बर्मा ने ब्रिटिश नमूने के संसदीय जनतंत्र का अनुसरण किया। हालांकि राजनैतिक प्रक्रिया पर ए.एफ.पी.एफ.एल. (एण्टी-फासिस्ट पीपुल्स फ्रीडम लीग) का वर्चस्व था, किन्तु उसके बावजूद चुनाव निष्पक्ष एवं स्वतंत्र रहे। किन्तु प्रधानमंत्री उनू के नेतृत्व में सत्ता संभालने के समय से ही, ए.एफ.पी.एफ.एल. का शासन सहजता से कोसों दूर था। स्वयं पार्टी के सम्मुख भी आन्तरिक फूट तथा व्यक्तिगत कलह की वजह से खतरा उपस्थित हो गया था। नागरिक सरकार के सामने पहली चुनौती कम्युनिस्टों द्वारा पेश की गयी जिन्होंने स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों के दौरान ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जिसमें रंगून सरकार का वास्तविक नियंत्रण राजधानी शहर की सीमाओं के बाहर प्रायः समाप्त ही हो गया। भ्रम की स्थिति का फायदा उठाते हुए जातीय अल्पसंख्यकों ने देश में राजनैतिक स्थिति को और अधिक अस्थिर बना दिया। सरकार असंतुष्ट गुटों को शान्त करने में इस कदर उलझी हुई थी कि 1950-52 से पहले तक विकास समस्याओं पर विचार करने के लिए उसके पास समय व ऊर्जा ही नहीं थी। ‘‘बर्मी नमूने का समाजवाद‘‘ नामक एक समन्वयवादी विचारधारा विकसित की गई जिसमें इजारेदार उद्योगों, विदेश-व्यापार, भूमि आदि का राष्ट्रीयकरण तथा मजदूरों, किसानों तथा गरीबों को पूँजीवादी शोषण से संरक्षण देने, जैसे सुझावों को शामिल किया गया। किन्तु उत्तरवर्ती वर्षों में इस दिशा में कोई अमल नहीं किया गया। उनू सरकार का आर्थिक प्रदर्शन असंतोषजनक था। इस अवस्था में, राजनैतिक स्वायत्तता के लिए जातीय अल्पसंख्यकों की मांग ने कहीं अधिक गंभीर राजनैतिक और सुरक्षा संबंधी समस्या खड़ी कर दी। यह जनरल ने विन के नेतृत्व में सैनिक जुण्टा द्वारा 1962 में सत्ता पर कब्जा कर लेने का तथा तब से लगातार सत्ता में बने रहने का एक बहाना बन गया।

सैनिक शासन से बर्मा में न तो राजनैतिक स्थिरता कायम हो सकी और न ही आर्थिक खुशहाली आ सकी। राजनैतिक प्रणाली अत्यधिक अधिनायकवादी थी जिसमें तमाम राजनैतिक संस्थाओं का सर्वोच्च नियंत्रण जनरल ने विन तथा उसकी चैकड़ी के हाथों में केन्द्रित था। सरकारी प्रवाहों के माध्यम से होने वाली राजनैतिक गतिविधियों के अलावा अन्य सभी राजनैतिक गतिविधियों पर पाबन्दी लगा दी गई थी। अनेक नागरिक नेताओं को गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया गया था। निजी अखबारों तथा समाचार माध्यमों पर जबर्दस्त पाबंदी थी। सेना द्वारा समर्थित बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी (बी.एस.पी.पी.) द्वारा अपनाई गई ‘‘डंडा और गांजर नीति‘‘ 26 वर्षों तक सैनिक शासन के विरुद्ध किसी प्रमुख लोकप्रिय प्रतिरोध को रोक पाने में सफल रही हालांकि आमतौर पर राजनैतिक रूप से जागृत जनता तथा खासतौर से जातीय समूहों में, कारेन, शान, चिन, तथा काचिन आदि गैर बर्मीयों पर बर्मीयों के, अधिपत्य के सवाल पर, फुसफसाहट भरा असंतोष मौजूद था। किन्तु 80 के दशक के अंत में बिगड़ती आर्थिक स्थिति के चलते इस दिखावटी स्थिरता को एक धक्का लगा और जनरल ने विन को खुले रूप में अपनी आर्थिक नीतियों की विफलता को स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा। इसने मध्य वर्ग को वाकई आन्दोलित कर दिया जबकि निम्नतर वर्गों में पहले से ही खाद्यान्न की ऊंची कीमतों के कारण असंतोष व्याप्त था। इसका स्वाभाविक नतीजा एक ऐसे जन-उभार के रूप में सामने आया जिसे महज ताकत के बल पर नियंत्रित नहीं किया जा सकता था। इसके फलस्वरूप जनता का विरोध जनतंत्र के एक आन्दोलन के रूप में विकसित हो गया जिसने अंततः बी.एस.पी.पी. शासन का अंत कर दिया। बर्मा में सैनिक शासन को गैर-बर्मी जातीय अल्पसंख्यों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किया गया, जिन्होंने अपनी स्वायत्तता पर बल देते हुए लम्बे समय तक हथियारबन्द छापामार कार्यवाहियां जारी रखी, किन्तु अब तो बहुसंख्यक बर्मी आबादी के बीच भी निजाम ने अपनी वैधता खो दी थी। यद्यपि जनवादी आन्दोलन के दबाव में बी.एस.पी.पी. शासन समाप्त हो गया किन्तु इसकी जगह एक कहीं अधिक बर्बर सरकार ने ले ली जो कि स्वयं को द स्टेट लॉ एण्ड आर्डर रेस्टोरेशन काउंसिल (एस.एल.ओ.आर.सी.) कहती थी और जिसने न सिर्फ देश में आतंक का राज कायम किया बल्कि 1990 के चुनावों के बाद नेशनल लीग फार । डेमोक्रेसी (एन.एल.डी.) नामक जनतांत्रिक ढंग से निर्वाचित गुट को सत्ता सौंपने से इंकार भी कर दिया। और न ही जनतंत्र की दिशा में एक शान्तिपूर्ण संक्रमण को सहज बनाने के लिए स्यूकी समेत बंदी नेताओं को रिहा ही किया गया। इस तरह से बर्मा अथवा म्यांमार अभी भी प्रभावी ढंग से सैनिक-शासन के अधीन बना हुआ है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ब्रिटिश शासन की स्थापना
बर्मी, अथवा वह बहुसंख्यक जातीय समूह, जो कि उस देश में बसा हुआ है जिसे आज म्यांमार (बर्मा) कहा जाता है, महान चीनी-तिब्बती परिवार के तिब्बती-बर्मी जातीय-भाषाई समूह से संबंधित हैं। उन्होंने नवीं ईसवी क आसपास इस क्षेत्र में प्रवेश किया था तथा स्थानीय लोगों पर अधिपत्य कायम कर लिया था । स्थानीय लोगों को, जो कि शान, मोन, काचिन, कारेन, चिन तथा अराकानी आदि जैसे विभिन्न जातीय समूहों से संबन्धित थे, धीरे-धीरे सीमांत क्षेत्रों की तरफ धकेल दिया गया। उन्हें एक निरंकुश बर्मी बौद्ध राजशाही के जूए के अधीन ले आया गया, जिसकी राजधानी उत्तरी अथवा ऊपरी बर्मा में स्थित अल्वा-आमरापुरा में थी।

ब्रिटिशों के आगमन से पूर्व सौ वर्षों तक कोनबौंग सल्तनत समूचे बर्मा पर शासन करती रही। इसकी सत्ता का संगठन ‘‘सकेन्द्रित चक्रों’’ की उस व्यवस्था से मिलता-जुलता है, जो कि दक्षिण एशिया की अन्य अनेक बौद्ध राजतंत्रों में विद्यमान थी। इसके मायने यह हुए कि राजसी सत्ता केन्द्र के नजदीक अत्यधिक घनीभूत एवं निरंकुश थी। परिधि की तरफ इसने अधिकाधिक बिखराव वाला चरित्र अख्तियार कर लिया था। राजसी सत्ता का यह बिखराव दक्षिण अथवा निचले बर्मा में सबसे अधिक पिलपिला था, जहां हमें स्थानीय रूप से शक्तिशाली जिला गवर्नर अथवा मियोवन तथा शहरी सरदार अथवा मियोथुगयिस की मौजूदगी देखने को मिलती हैं। केन्द्रीय सत्ता की यह दुर्बलता सीमांत क्षेत्रों में भी देखी जा सकती थी, जहां विभिन्न जातीय अल्पसंख्यकों का वर्चस्व था।

1750 के बाद, विदेश-व्यापार पर राजसी इजारेदारी का ऐलान करके, कोन बाँग राजाओं ने बर्मा को एशियाई समुद्री व्यापार तंत्र से लगभग पूरी तरह अलग कर लिया। कुछ समय तक, बर्मा पश्चिमी साम्राज्यवादी घुसपैठ से बचा रहा। किन्तु 19वीं शताब्दी में, अंग्रेज जो भारत में मजबूती से अपने पांव जमा चुके थे तथा चीनी व्यापार में भाग लेने के लिए उत्सुक थे और बर्मा पर अपनी लालच भरी नजरें डालनी शुरू कर दी थीं। 1852 में, उन्होंने निचले बर्मा पर कब्जा कर लिया। शेष हिस्से, अर्थात् ऊपरी बर्मा को 1886 में मिला लिया गया तथा समूचे देश को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का एक हिस्सा बना दिया गया।

औपनिवेशिक शोषण तथा राष्ट्रवाद का उदय
अंग्रेजों द्वारा कब्जा हो जाने के बाद बर्मा का दोहरा शोषण होने लगा। उसके पश्चिमी औपनिवेशिक स्वामियों के अतिरिक्त वहां भारतीय व्यापारी, निवेषकर्ता तथा शिक्षित मध्यम वर्गीय लोग भी मौजूद थे, जो वहां काम की तलाश में गये थे। समूची अवधि में उसकी अर्थ-व्यवस्था कृषि प्रधान ही बनी रही क्योंकि अधिकांश आबादी इसी क्षेत्र पर निर्भर थी। किन्तु इस क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण बदलाव आ रहे थे। चावल के निर्यात पर लगी पाबन्दी को हटाये जाने से तेजी से वाणिज्यीकरण का रास्ता खुला तथा इर्रापाडी डेल्टा में स्थित उपजाऊ भूमि पर लाभकारी चावल की फसल उगानी शुरू हुई। कुछ ही समय के भीतर बर्मा विश्व खाद्यान्न का भंडार बन गया। यूरोपीय बाजारों में बर्मा के चावल की भारी मांग थी और यह भारतीय उपमहाद्वीप की विशाल आबादी का भी पोषण करता था।

इस तरह चावल-धारक एकल-संस्कृति के रूप में उदित होने का बर्मा के ग्रामीण समाज पर गंभीर असर पड़ा। ब्रिटिश राजस्व प्रणाली तथा वाणिज्यीकरण ने किसानों के समुदाय को बड़े भूस्वामियों, निजी उत्पादकों, काश्तकारों तथा बढ़ते बटाईदारों के वर्ग में रूपान्तरित कर दिया। भूमि का अलगाव खेतिहरों तथा खासतौर से भारतीय सूदखोरों के लिए एक भयानक समस्या बन गई। इस परिस्थिति ने विदेशी शासन तथा उसके एजेन्टों के खिलाफ रोष पैदा कर दिया। शुरू से ही बर्मा में किसानों द्वारा औपनिवेशिक शासन के खिलाफ प्रतिरोध किया जाता रहा। बढ़ता हुआ ग्रामीण असंतोष 1930-32 के विख्यात साया-सन विद्रोह के समय पूरी तरह से फूट पड़ा। इसके हमलों का मुख्य निशाना यूरोपीय तथा भारतीय सूदखोर थे। इस तरह से इसका उद्देश्य औपनिवेशिक शासन तथा इसके भारतीय वचीनी सहयोगियों द्वारा तैयार की गई शोषणकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना था।

1932 में साया-सन विद्रोह के कुचले जाने से बर्मा में असंतोष पर काबू नहीं पाया जा सका। बल्कि इस समय तक एक स्वदेशी शिक्षित मध्यम वर्ग द्वारा उसके स्वाधीनता संघर्ष को एक बिलकुल नई दिशा प्रदान की गई। यह राष्ट्रवाद एक ऐसी पृष्टभूमि में विकसित हुआ जबकि स्थानीय आबादी लगभग पूरे तौर पर शोषित जनता से संबद्ध थी तथा उसके उत्पीड़क साम्राज्यवादी एवं पूंजीवादी विदेशी थे। इस कारण से, बर्मी राष्ट्रवाद अपने समाजवादी लक्ष्य निश्चित करने में सफल हो सका। इसने स्थानीय जनता के किसी भी प्रमुख हित अथवा किसी महत्वपूर्ण तबके को अपने से अलग-थलग कर देने का जोखिम नहीं उठाया। एक ऐसी समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना करने के विचार, जो कि विदेशी शोषण तथा औपनिवेशिक नियंत्रण से मुक्त हो, शिक्षित युवा लोगों के एक समूह के आन्दोलन द्वारा सुस्पष्ट ढंग से अभिव्यक्त हए, जो कि स्वयं को थाकिन अथवा अपने देश के स्वयं मालिक, कहते थे। धीरे-धीरे इस आन्दोलन से समाज के अन्य वर्ग प्रभावित हो गये जैसे, विद्यार्थी, मजदूर एवं किसान और इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए एक बृहत् आधार तैयार हो गया। परन्तु थाकिनों में शीघ्र ही अपने सिद्धान्तों एवं कार्यक्रमों को लेकर विभाजन हो गया। कुछ समाजवादी थे और उन्होने सन् 1939 में समाजवादी दल का गठन किया था जिसे जन क्रांतिकारी पार्टी कहा जाता था। एक अन्य वर्ग था जो पूर्ण रूप से कम्युनिस्टों का था और उन्होंने सन् 1944 में बर्मा कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया। इसके अलावा एक तीसरा वर्ग राष्ट्रवादियों का था जिनका समाजवादियों के प्रति बहुत झुकाव था।

जापान द्वारा कब्जा एवं बर्मा की स्वतंत्रता
यह करीब उस समय की बात है जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ और सन् 1942 में बर्मा जापानियों के कब्जे में चला गया। युद्ध के पहले भी कुछ बर्मी नेताओं ने बिटश साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए, जापानी सहायता द्वारा एक फौज के गठन के बारे में विचार किया था। इस उद्देश्य से ओग सेन, नी विन जैसे अपने घनिष्ट देशवासियों के साथ मिलने टोकियो गया था और वहां उसने सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त किया था। एशिया के अन्य अनेक राजनीतिक नेताओं की भांति उसका भी विश्वास था कि सैनिक रूप से जापान उपनिवेषित एशियाई राष्ट्रों को स्वाधीनता हासिल करने में सहायता प्रदान करेगा। इस आशा के साथ, उसकी नई गठित बर्मा की स्वतंत्र फौज ने जापानियों के युद्ध के प्रयासों को सहायता प्रदान की। बर्मा पर जापानियों के कब्जे के पश्चात इसकी जगह बर्मा सुरक्षा फौज द्वारा ले ली गई जिस पर जापानियों का और भी ज्यादा, सीधा नियंत्रण था। परन्तु जापान ने अपनी मुक्तिदाता की छवि को बनाये रखा। इस विश्वास को दृढ़ करने हेतु अगस्त 1943 को बर्मा को एक औपचारिक स्वतंत्र दर्जा प्रदान किया गया। डाक्टर बा मऊ प्रधान मंत्री बने एवं आंग तान को सुरक्षा मंत्री और बर्मा राष्ट्रीय फौज का कमान्डर-इन-चीफ बनाया गया।

परन्तु शीघ्र ही जापानियों के साथ मोहभंग होना शुरू हो गया। उनके कब्जे के बाद प्रबल रूप से देश का आर्थिक शोषण शुरू हो गया। बर्मा में एक विजेता का शासन कायम कर दिया गया जिसके अन्तर्गत जापानियों एवं स्थानीय बाशिन्दों के बीच जातीय ध्रवीकरण सम्पूर्ण रूप से था। इन परिस्थितियों में जनवरी 1948 में नू-एटली पैक्ट के द्वारा सना स्थानान्तरण के पश्चात राष्ट्रवादी थानिक न स्वतंत्र बर्मा के पहले प्रधान मंत्री बने।

इसके पूर्व सन 1947 के पोगलौंग समझौते द्वारा ओंग सेन ने जातीय अल्पसंख्यकों से बर्मा के संगठन में सम्मिलित होने के लिए सहमति प्राप्त कर ली थी।

हमारे लिये राष्ट्रीय आन्दोलन का अध्ययन करना महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें भविष्य के बर्मा के लिये कुछ विशेष महत्व की विरासतें निहित थी। सबसे पहले तो यह कि बर्मी लोगों की राष्ट्रवादिता, यानि बहु संख्यक समुदाय का राष्ट्रवाद, बर्मा-की राजनीति का एक प्रमुख शक्तिशाली अंग बन चुका था। समाजवादियों की विचारधारा में भी एक स्वाभाविक रूप की वैधता आ गई थी क्योंकि इनसे केवल शोषण करने वाले तत्वों के प्रभावित होने की आशा की जाती थी। शेष में इस आन्दोलन के द्वारा एक राष्ट्रीय फौज का निर्माण हुआ और इसने राष्ट्र की स्वाधीनता के संघर्ष में भाग लेकर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका निभाई । अगले चालीस वर्ष की स्वतंत्रता के काल में बर्मा की राजनीति पर इन सब घटकों का प्रभाव पड़ना था।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: क) नीचे दी गई जगह का उपयोग अपने उत्तरों के लिए कीजिये।
ख) अपने उत्तर की जांच इकाई के अन्त में दिये उत्तर के साथ कीजिए।
1. बर्मा के प्रमुख जातीय समूहों का पत्ता लगाइये।
2. बर्मा में राष्ट्रवादी जागृति के कारणों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।

बोध प्रश्न 1 के उत्तर

  1. क) बर्मी
    ख) शान
    ग) मान
    घ) काचिन
    ड़) कारेन
    च) चिन और असाकानी
  2.  क) औपनिवेशिक शोषण
    ख) खेतिहर नीति
    ग) ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ विरोध
    घ) उग्र एवं उदार विचारों के साथ देसी शिक्षित मध्यम वर्ग का उदय
    ड़) भारतीय प्रभाव

संसदीय काल
 आरंभिक दिनों की राजनीतिक अस्थिरता
स्वतंत्रता प्राप्त होने के समय से बर्मा में राजनीतिक प्रणाली को ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप बनाया गया। चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से होते थे परन्तु उन पर सदैव फासिस्ट-विरोधी पीपुल्स फ्रीडम लीग (ए.एफ.पी.एफ.एल.) का प्रभुत्व बना रहता था। इस काल में राष्ट्रवाद बर्मा के औसत लोगों को प्रबल रूप से अपने प्रति आकर्षित करता रहा। समाजवाद के सिद्धान्त भी मोटे तौर पर मान्य थे। इसी प्रकार बौद्ध धर्म की संकल्पना भी मान्य थी, जिसको सन् 1960 में राष्ट्रीय धर्म बनाया गया। परन्तु ए.एफ.पी.एफ.एल. सरकार में जब प्रधानमंत्री यू नू के द्वारा सत्ता ग्रहण की थी तब वहां शासन सुगम नहीं था।

स्वतंत्र बर्मा के लोकतांत्रिक रूप से चुने गये मंत्रिमंडल को शुरुआत में कन्युनिस्टों द्वारा चुनौती का सामना करना पड़ा। वे दो वर्गों में विभाजित थे, लाल झण्डे वाले (ट्रॉट्स्काईट) एवं सफेद झण्डे वाले (स्टेलिनिस्ट) । सफेद झण्डे वाले कम्युनिस्टों ने अपने सैद्धांतिक नेता, एम. एन. घोषाल के प्रतिभा सम्पन्न मार्ग दर्शन में ए.एफ.पी.एफ.एल. सरकार की आलोचना यह कह कर करनी शुरू कर दी थी कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एजेंट हैं। उन्होंने एक सशस्त्र विद्रोह का आह्वान किया जो यथार्थ रूप में नये मंत्रिमंडल के सत्ता ग्रहण करने के चार माह पश्चात हआ । जब बर्मा की सेना का एक वर्ग विद्रोह करके कम्युनिस्टों के साथ मिल गया तो परिस्थिति अत्यधिक संकटपूर्ण लगने लगी। एक समय पर तो रंगून सरकार का राजधानी की सीमाओं के पार नियंत्रण प्रायः समाप्त हो गया। सरकार ने प्रतिआक्रमण किया परन्तु विद्रोह को निर्णायक रूप से कुचलने में असफल रही। एक माह के दीर्घकालिक युद्ध के बाद ही धीरे-धीरे इसका संवेग बनाया पो गया।

घबराहट का लाभ उठाकर जातीय अल्पसंख्यकों ने देश की राजनीतिक स्थिति को और अस्थिर कर दिया। सबसे बड़ा खतरा करेनों से उत्पन्न हआ जो एक अलग करेन राज्य चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने करेन नेशनल डिफेन्स आर्गनाइजेशन (के.एन.डी.ओ.) नामक सैन्य दल का गठन किया, जिसने सन् 1948 के अन्त में रंगून पर हमला कर दिया। मण्डाले शहर पर कब्जा कर लिया, इन्सीन को तहस-नहस कर दिया और रंगून पर भी कब्जा करने के अनेक असफल प्रयास किये और बर्मा की सेना को अनेक बार परास्त किया। सन् 1950 में जाकर ही कहीं के.एन.डी.ओ. के दलों को सलवीन नदी के पार की पहाड़ियों तक खदेड़ा जा सका। परन्तु फिर भी काफी बड़े क्षेत्र व्यवहार में उनके नियंत्रण में बने रहे।

इसी बीच कुछ अन्य प्रांतों से भी समस्या उत्पन्न हो गई थी।

पीपुल्स वौलन्टीयर आर्गनाइजेशन (पी.वी.ओ.) के सदस्यों ने, जो कि स्वतंत्रता के पूर्व के दिनों में ए.एफ.पी.एफ.एल. का एक सैन्य दल था, अपने स्वयं के विवर्धन हेतु परिस्थिति का लाभ उठाया। सन् 1949 के मध्य में साम्राज्य के पुलिस दल ने अराकान में विद्रोह कर दिया। अराकान के उत्तरी क्षेत्र में मुजाहिद रंगून सरकार के खिलाफ सर उठाये हुए थे। जब कि अराकान के भीतरी भाग में लाल झन्डे वाले कम्युनिस्ट सक्रिय थे। रंगून में फरवरी सन् 1949 में सरकारी कर्मचारियों ने वेतन में कटौती के खिलाफ हड़ताल कर दी। परिस्थिति सचमुच निराशापूर्ण दिखने लगी और इसने सरकार की ऊर्जा एवं वित्तीय साधनों को सोख लिया।

विकासात्मक योजनाएं
1950-52 जो कि यू नू सरकार के पुख्ताकरण का काल माना जाता है, से पहले सरकार के पास विकासात्मक समस्याओं के बारे में विचार करने के लिए समय और शक्ति का वास्तविक रूप में कमी थी। इस कार्य में समाजवाद मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में बना रहा । परन्तु पहले ओंग सान द्वारा और फिर बा स्वी द्वारा इस बात पर बार-बार जोर दिया गया कि इसको बर्मा की विशष्टि परिस्थितियों और उसकी ऐतिहासिक संपत के अनुकूल बनाना है। दूसरे शब्दों में समाजवाद के एक बर्मी तरीके की योजना बनानी थी। नये संविधान में सरकार की कल्याण नीति की घोषणा की गई थी और विदेशी आर्थिक प्रवेश पर रोक लगाने हेतु उचित तरीके बताये गये थे। मिसाल के तौर पर इसमें जमीन का स्वामित्व राज्य को सौंपने का प्रस्ताव किया गया था और तदनुसार सन 1948 में खेतिहर मजदूर को कम से कम मजदूरी के बिल के साथ जमीन के राष्ट्रीयकरण की धारा को पारित किया गया था। इसी वर्ष में तैयार की गई, बर्मा के आर्थिक विकास की दो वर्षीय योजना में समाजवादी अर्थव्यवस्था की प्रस्थापना पर विचार किया गया था। इसी वर्ष जून के माह में यू नू ने पन्द्रह सूत्री समाजवादी कार्यक्रम की घोषण की। इसमें अनेक प्रस्तावों को सम्मिलित किया गया था जैसे, एकाधिकार सम्बन्धी उद्यमों का राष्ट्रीयकरण, विदेशी उद्योग, जमीन इत्यादि और पूंजीवाद के शोषण से मजदूरों, किसानों एवं गरीबों की प्रतिरक्षा की गई थी। परन्तु आगे आने वाले वर्षों में इस दिशा में वास्तविक रूप से कुछ नहीं किया गया। बाद में यूनू ने धीरे-धीरे इस परम वामपंथी आधार को छोड़ कर एक सामान्य समाजवादी स्थिति को अपनाया।

स्वतंत्रता के शुरू के कुछ वर्षों में अर्थव्यवस्था के असंतोषजनक प्रदर्शन को देखते हुए बदलाव आवश्यक हो गया था। आर्थिक एवं सामाजिक सुधार का आठवें वर्ष का कार्यक्रम जो “पिडावथा‘‘ (कल्याणकारी राज्य) कार्यक्रम के नाम से विख्यात था और जिसको सन 1952 में शुरू किया गया था, उसने अपनी दिशा को समाजवादी बनाये रखा था। सन 1955 तक इसकी असफलता सुस्पष्ट रूप से प्रकट होने लगी एवं पूंजीवादी विरोधी नारों में कमी होने लगी। अब निजी पूंजीवादी उद्यमों को स्वीकारे जाने की अधिक सम्भावना प्रतीत होने लगी थी। सन् 1957 में यू नू द्वारा घोषित अगली चार वर्षीय योजना में बदलाव स्पष्ट रूप से प्रतीत होने लगा था। हालांकि समाज सुधार के लक्ष्य को बनाये रखा गया था परन्तु स्वदेशी एवं विदेशी उद्यमों में निजी सम्पत्ति लगाने पर अधिक बल दिया गया था। इसके बाद बर्मी जीवन की वस्तुस्थितियों में समाजवाद की भूमिका का महत्व कम होना शुरू हो गया। फिर भी परिणामस्वरूप आर्थिक विकास में कोई गतिशीलता नहीं हुई बल्कि आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों प्रकार अव्यवस्थाओं का स्थायीकरण हो गया।

जातीय अल्पसंख्यक एवं बर्मीकरण
राजनीतिक अव्यवस्था का प्रमुख कारण डेल्टाई मुख्य भूमि के बाहरी क्षेत्रों में ए.एफ.पी.एफ.एल. सरकार की वैधता की कमी थी। जो प्रमुख राजनीतिक संस्कृति यहां प्रस्तुत की गई थी वह बर्मी राष्ट्रवादिता का एक सम्मिश्रण, बौद्ध मत के कुछ सिद्धान्तों और समाजवाद के कुछ अस्पष्ट नियमों के रूप में थी। और बर्मीकरण के नाम पर सरकार ने इसे अराकानियों, चिनों, काछिनों, करेनों, कायाहों, मौनों एवं शानों जैसी, एथनिक जातियों पर थोपने का प्रयल किया। बर्मी भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप में लागूकर के एवं बौद्ध धर्म को राज्य के धर्म से रूप में घोषित कर के बहुसंख्यक बर्मियों की संस्कृति का प्रभुत्व स्थापित किया गया। सन् 1948 के संविधान में भी कोई संधिसम्बन्धी व्यवस्था प्रस्तुत नहीं की गई थी। राज्य की सत्ता एवं साधन सब केन्द्रीय सरकार के हाथों में केन्द्रित थे। इसके फलस्वरूप अराकानियों, चिनों, काछिनों, करेनों, कायाहों, मोनों, एवं शानों जैसे जातीय अल्पसंख्यकों में अपनी क्षेत्रीय पहचानों को ले कर क्रोधपूर्ण निराशा की अनुभूति जागृत हो गई। इनमें से अनेक ने सशस्त्र विद्रोह कर दिया जिससे सन् 1950 के अन्त में साम्राज्य निता-बिता होता प्रतीत होने लगा।

 

1990 के चुनाव तथा उसके बाद
अपने शासन को वैधता प्रदान करने के लिए, एस.एल.ओ.आर.सी. ने जनमत को गुमराह करने के लिए अनेक राजनैतिक उपाय किये । इसकी पहली रणनीति बर्मी राष्ट्रवाद को समाप्त करना तथा राष्ट्रीय एकता एवं सुरक्षा के लिए उत्पन्न खतरों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना थी। प्रथम प्रतीकात्मक कदम के तौर पर, बी.एस.पी.पी. ने अपना नाम बदलकर नेशनल यूनिटी पार्टी कर लिया। फिर जून 1989 में, औपचारिक तौर पर देश का नाम बदल कर बर्मा से म्यांमार कर दिया गया। इसी तरह, कुछ शहरों के अंग्रेजी तर्ज पर रखे गये नामों को बदल कर उनकी जगह उनके मूल स्वदेशी नाम रखे गये, उदाहरण के लिए रंगून का नाम चून्गून हो गया। अगली 16 मई 1990 के दिन आम चुनाव कराये जाने की घोषणा की। गई थी। किंतु घोषणा में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया था कि जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को सत्ता हस्तांतरित की जायेगी। चुनावों की निगरानी के लिए एक निर्वाचन आयोग गठित किया गया। किंतु अनेक राजनैतिक दलों ने इसकी निष्पक्षता पर संदेह व्यक्त किया।

शुरू में लोग चकमे में आ गए और उन्होंने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों की संभावनाओं के प्रति उत्साह के साथ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। निर्वाचन आयोग में 230 राजनैतिक पार्टियों के पंजीकरण होने के साथ ही राष्ट्रीय एकता पार्टी (अथवा बी.एस.एस.पी.) के विभाजित होने की, आरंभिक संभावना भी शीघ्र समाप्त हो गई। उनमें से 41 ने मिलकर नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी नामक एक चुनावी गठबंधन बना लिया। टिन डो उसका अध्यक्ष, तथा औंग सान स्यू की उसको सचिव बनी। दूसरी तरफ औंग ग्यी, एक अन्य यूनियन नेशनल डेमोक्रेसी पार्टी नामक संगठन का मुखिया बना, जो कि कुछ हद तक एस.एल.ओ.आर.सी, के साथ मैत्रीपूर्ण बन गया। बाद में अनेक पार्टियों ने निर्वाचन आयोग से अपने नाम वापस ले लिये।

उसे तैयार किया जाना संभव था। जब एन.एल.डी. ग्रामीण अंचल में अपना चुनाव प्रचार शुरू करने वाली थी, जो कि अब तक जनतंत्र समर्थक आंदोलन से लगभग अप्रभावित ही रहा था, तो 17 जुलाई 1989 के देश में सैनिक शासन लागू कर दिया गया। स्यूकी को घर में नजरबंद कर दिया गया जबकि अन्य शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। करीब 5-6 हजार छात्रों तथा राजनैतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। जनसभाओं पर पाबन्दी लगा दी गयी, अर्थात् चुनाव-प्रचार को व्यवहारिक तौर पर समाप्त ही कर दिया गया। विदेशी प्रेस को लगभग देश से बाहर खदेड़ दिया गया ताकि बाहरी दुनिया तक खबरें न पहुंच सके।

किन्तु इस तरह की परिस्थितियों में हुए चुनाव के नतीजे काफी विस्मयकारी रहे, जो कि निश्चय ही एक खामोश क्रांति के द्योतक थे। एन.एल.ओ.आर.सी. फिर से विजयी हुई, जिनमें लगभग 70 प्रतिशत सीटों पर उसे स्पष्ट विजय प्राप्त हुई। (485 सीटों पर चुनाव लड़कर इसने 396 सीटें जीतीं)। एस.एल.ओ.आर.सी. ने आधिकारिक तौर पर चुनाव परिणामों को स्वीकार कर लिया, किन्तु जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को सत्ता हस्तांतरित करने से इंकार कर दिया।

यह ऐलान किया गया कि नव निर्वाचित निकाय केवल म्यांमार (बर्मा) के तीसरे संविधान की रचना करेगा। न ही जनतंत्र की ओर शांतिपूर्ण संक्रमण को सहज बनाने के लिए, स्यू की सहित गिरफ्तार नेताओं को रिहा ही किया गया। बर्मा अथवा म्यांमार अभी भी उस सैन्य शासन के प्रभावी नियंत्रण में थे, जिसे 30 वर्ष पहले मार्च 1962 में शुरू किया गया था।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिये स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) अपने उत्तर की जांच इकाई के अंत में दिए उत्तर से कीजिए।
1. बर्मा में जनतंत्र-समर्थक आन्दोलन के प्रमुख लक्षणों का वर्णन कीजिये।
2. बर्मा में जनतंत्र-समर्थक आन्दोलन को कमजोर बनाने में सहायक कारकों पर एक टिप्पणी लिखिए।

बोध प्रश्न 4 के उत्तर 
1. क) आन्दोलन छात्रों द्वारा शुरू किया गया था जिनका प्रभुत्व आन्दोलन पर शुरू से अंत तक बना रहा
ख) बढ़ते आन्दोलन के साथ ही उस पर संरक्षित दमन-चक्र चला
ग) आन्दोलन जो कि शुरुआत में एक छात्र आन्दोलन था, शीघ्र ही एक जन-आन्दोलन में परिवर्तित हो गया
घ) आन्दोलन के निरंतर दबाव के चलते शासक पार्टी में दल-बदल को प्रोत्साहन मिला।
ड़) आन्दोलन ने बह-दलीय जनतांत्रिक प्रणाली, आर्थिक तथा राजनैतिक प्रणालियों के निजीकरण तथा उदारीकरण की मांग की

2. क) आन्दोलन शुरू में स्वतः स्फूर्त था, असंगठित एवं नेता-विहीन था
ख) आन्दोलन पर छात्रों तथा शहरी मध्यम वर्गों का वर्चस्व था
ग) आन्दोलन में भाग लेने वालों की परस्पर-विरोधी महत्वकांक्षाओं ने संयुक्त मोर्चा बनाने से उन्हें रोका
घ) यह तथ्य कि नेताओं तथा प्रयोजकों को भूमिगत रहने के लिए देश के भीतर ठिकाना नहीं मिला, स्वयं में यह दर्शाता है कि आमतौर पर जनता में आन्दोलन के प्रति सहानुभूति कम थी।

 सारांश
बर्मा में गैर-बर्मी जातीय अल्पसंख्यकों द्वारा शासन को कभी भी स्वीकार नहीं किया गया, जिन्होंने अपने स्वायत्ता पर जोर देते हुए लम्बे समय तक हथियारबंद संघर्ष चलाया। धीरे-धीरे निजाम ने बहुसंख्यक बर्मी आबादी के बीच भी अपनी वैधता खो दी। काफी हद तक इसकी वजह से अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए द्विपक्षीय एवं बहु-पक्षीय विदेशी सहायता को स्वीकार करता आया है। 1976 में “एड बर्मा कन्सोर्टियम’’ की स्थापना की गई थी, जिसमें जापान, फैडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रेलिया तथा संयुक्त राज्य अमरीका को सदस्य देशों के रूप में शामिल किया गया था। जनतंत्र-समर्थक आंदोलन को देखते हुए इन सभी देशों ने अपनी सहायता देना बंद कर दिया। इससे सैनिक सरकार पर भारी दबाव पड़ा क्योंकि सितम्बर 1988 तक पहले ही देश पर विदेशी ऋण का बोझ उसके सकल घरेलू उत्पाद का 70 फीसदी तक हो गया था। ये सभी देश निजी उद्योगों के लिए और अधिक सुविधाओं तथा विदेशी निवेश पर बचे खचे प्रतिबंधों को भी हटाये जाने की मांग कर रहे थे। बर्मा की सरकार ने 1977 में पहले दबाव के आगे घुटने टेक दिये, जब इसने निजी स्वामित्व के अधिकार का कानून पारित किया था। फिर नवम्बर 1988 में, एस.एल.ओ.आर.सी. ने पुनः निजी विदेशी निवेशों पर से प्रतिबन्ध हटा लिये। यह उम्मीद की जा रही थी कि इससे अधिक विदेशी पूँजी को आकर्षित किया जा सकेगा और उसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था का पुनरोद्धार तथा सैनिक-शासन को मजबूत किया जा सकेगा।

1989 में, एस.एल.ओ.आर.सी. द्वारा इस दिशा में कुछ और कदम उठाए गए । स्वदेशी निजी निवेशों को प्रोत्साहन देने के लिए 4 संयुक्त क्षेत्र के निगमों की स्थापना की गई। यह उम्मीद की गई कि इससे निजी निवेश को आकर्षित किया। जा सकेगा तथा सरकारी नियंत्रण भी सुनिश्चित हो पायेगा। इसके अलावा एक विदेशी निवेश आयोग भी गठित किया गया। मई 1989 में, इसने यह घोषणा की कि नौ विशेष क्षेत्रों में विदेशी निवेश पर कोई पाबंदी नहीं रहेगी। इन क्षेत्रों के लिए अनेक कर रियायतें भी दी गई। केवल एक ही शर्त थी कि मुनाफों का हस्तांतरण म्यांमार विदेश व्यापार बैंक के जरिये होना चाहिए।

हालांकि यह सही है कि कुछ देशों में ऐसी रियायतों के बाद अनुकूल प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं, किन्तु एस.एल.ओ.आर.सी. की उम्मीदों से विदेशी निवेश की मात्रा कहीं कम रही। इसका परिणाम निरंतर जारी आर्थिक संकट के रूप में सामने आया जो वर्तमान राजनैतिक पृष्ठभूमि में एक और लोकप्रिय जन-विस्फोट का कारण बन सकता था। सैनिक शासकों ने, इसीलिए थाई सीमांत के पास जातीय विद्रोहियों के खिलाफ बगावत विरोधी उपायों को पुनः शुरू करके जनता का ध्यान बँटाने की कोशिश की तथा बंगलादेश की सीमा के पास मुस्लिम रोहिगियाओं पर नये सिरे से दमन शुरू किया। इन दोनों ही हरकतों के कारण एस.एल.ओ.आर.सी. को थाई तथा बंगलादेशी सरकार के साथ विवाद में उलझना पड़ा जिससे बर्मी राष्ट्रवाद को उभारने का उसे अवसर हाथ लगा। किंतु शायद यह रणनीति अंततः जनता के आक्रोश को शान्त करने में सफल होने वाली नहीं थी । बर्मा में जनतंत्र के संकट के सवाल पर विश्व-जनमत जागृत होता दिखाई दे रहा था। 1991 का नोबल शांति पुरस्कार ऑग सेन स्यू की को दिया जाना, जो कि अभी तक घर में नजरबंद हैं, इसका संकेत देता है। इन परिस्थितियों में, विश्व भर में यह उम्मीद की जा रही है कि शीघ्र ही बर्मा के आततायी सैनिक हुक्मरानों को जनता की इच्छा के आगे सिर झुकाने पर बाध्य किया जा सकेगा।

शब्दावली
साम्राज्यवाद: मुख्यतः साम्राज्यवाद को किसी खास देश तथा विश्व बाजार में अर्थव्यवस्था तथा राजनीति में इजारेदारों व वित्तीय पूंजी की सत्ता से पहचाना जाता है।
राष्ट्रीयकरण: भूमि, औद्योगिक समूहों, बैंकों, परिवहन, आदि के निजी स्वामित्व का राज्य के स्वामित्व में संक्रमण।
राजनैतिक व्यवस्था: राज्य की संस्थाओं, राजनैतिक दलों, सार्वजनिक एसोसिएशनों तथा मानव व्यवहार के नियमों का एक समुच्चय, जिसके अनुसार राजसत्ता का प्रयोग किया जाता है तथा राजनैतिक जीवन को संगठित किया जाता है।
राजनैतिक क्रांति: किसी एक वर्ग की राजसत्ता को उखाड़ फेंका जाना तथा किसी अन्य वर्ग की राज्य सत्ता की स्थापना ।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
बर्टिल लिंटर, 1989, आउटरेज: बर्माज स्ट्रगल फॉर डेमोक्रेसी हांगकांग
डेविट आई स्टीनबर्ग, 1981 बर्माज रोड टूवर्ड्स डवलपमैण्ड, ग्रोथ एण्ड
हग टिंकर, 1957 द यूनियन आफ बर्मा: ए स्टडी आफ द फर्स्ट आइडियोलोजी अण्डर मिलिटरी रूल,
वेस्टव्यू प्रेस, बाउल्डर कोलोबराडों
ईयर्स आफ इझिडयेन्डेन्य, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, लंदन
फैक एन ट्रेगर, 1958 बिल्डिंग एक वैलफेयर स्टेट इन बर्मा 1948-1956, इंस्टीट्यूट ऑफ पैसिफिक रिलेशन्स, न्यूयार्क
जोजफ सिल्वस्टीन, 1977 बर्मा मिलिटरी रूल एण्ड पॉलिटिक्स आफ स्टेगनेशन, कॉर्नल यूनिवर्सिटी प्रेस इथाका एण्ड लंदन
लुईस जे. वॉलिन्सकी, 1962 इकोनोमिक डवलपमेण्ट इन बर्मा 1951-1960, द स्वैन्टीयथ सैन्चरी फण्ड न्यूयार्क
रॉबर्ट एच. टेलर, 1987 द स्टेट इन बर्मा, सी. हर्टस एण्ड कम्पनी लंदन।