मठ का अर्थ क्या है | मठ किस धर्म से सम्बन्धित है मतलब क्या होता है स्थापना किसने और कब की Mats meaning in hindi

Mats meaning in hindi मठ का अर्थ क्या है | मठ किस धर्म से सम्बन्धित है मतलब क्या होता है स्थापना किसने और कब की ?

मठ (Mats)
मठ की स्थापना ईसा पश्चात 8वीं शताब्दी में शंकर के नाम से प्रचलित आदि शंकराचार्य द्वारा की गई। वे अद्वैत(Adwait)-दर्शन के भी संस्थापक हैं। जो ज्ञान व भक्ति का समन्वय करते हैं तथा अति उच्च वैचारिक धरातल पर विभिन्न धार्मिक विश्वासों को एक करने का प्रयास करते हैं। मठ का अर्थ है उन संन्यासियों का निवास स्थान जो निर्गुण/सगुण के आधार पर अद्वैत, सिद्धांत का प्रचार करते हैं।

मठ का अर्थ ऐसे स्थान से भी है जहां दूसरों के भले के लिए जीवन और ज्ञान के संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त करने के इच्छुक छात्र निवास करते हैं। इस प्रकार मठ इसके संस्थापक द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक सिद्धांत के विकास तथा प्रचार को समर्पित आध्यात्मिकं झुकाव के लिए निर्मित शिक्षण संस्थान है। श्री चैतन्य मठ चैतन्य महाप्रभु की कृष्ण-भक्ति का प्रचार करता है तथा रामकृष्ण मठ सभी धार्मिक अनुभवों विशेषतया हिन्दू धर्म, व ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म की एकलक्ष्यता के बारे में प्रचार करता है।

मठ की जड़ें संघ में निहित होती हैं। संगठन के रूप में इसमें संघ जैसी कई विशेषताएं हैं यद्यपि सैद्धांतिक रूप से यह संघ से भिन्न है। मठ जिसकी जड़ें वेदांत में हैं, निरीश्वरता पर आधारित है। मठ तथा अद्वैत तथा उनका संगठनात्मक अंतर्सबंध बौद्ध धर्म और मीमांसका के विरोध के फलस्वरूप विकसित हुए। आदि शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों में भारत की क्षेत्रीय एकता के प्रति बढ़ती चेतना को उजागर करते चार मठों ( बद्रीनाथ, पुरी, द्वारका तथा श्रींगेरी) की स्थापना की। (जवाहरलाल नेहरू: 1960-182) मठ को आठवीं शताब्दी में हिन्दू धर्म की सुधार प्रक्रिया का उत्पादन भी माना जाता है (पाणिकार, के. एम. 99-101)।

मठ की स्थापना अद्वैत मठ (Adwait Math) अर्थात एक ईश्वरवादी विश्वास के प्रसार के लिए स्वार्थरहित आध्यात्मिक प्रचारकों के संगठन व शिक्षण के लिए की गई थीं।

मठ परंपरा का यह गुण रामकृष्ण मठ के संस्थापक विवेकानन्द की शिक्षाओं में अधिक प्रभाव के साथ प्रतिध्वनित होता है। श्री चैतन्य गोडिया मठ का उद्देश्य राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण तथा विभिन्नताओं के बावजूद लोगों में एकता के सूत्र को पहचानने में लोगों की मदद करना है। (पारलौकिक तथा इहलौकिक) परम्परा तथा आधुनिकता और आध्यात्मिक तथा परोपकारी समाज कार्य में सामंजस्य स्थापित करते हुए आज मठ मध्ययुगीन आधुनिक दार्शनिक विश्व दृष्टिकोण तथा इसके प्रतिपादन की एक परम्परा बन गया है। सामाजिक तौर पर यह एक उच्च जाति-मध्यम वर्गीय व्यवस्था है। इसके सामान्य सदस्य अधिकतर व्यवसायी तथा व्यापारी व नव धनाढ्य हैं। मध्यम वर्ग के विस्तार के साथ इसका भी विकास तथा विस्तार हुआ है।

मठ वास्तव में एक पेंडुलम की भांति हैं जो पृथकत्व तथा मेल के बीच झूलता है। इसका आध्यात्मिक सिद्धांत इसका रीति तंत्रय इसका पुरोहित वर्ग तथा इसके साधारण अनुयायीं और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि इसे विशिष्टता अथवा पृथकता का चोगा पहनाती है। सैद्धांतिक रूप से यह सभी का स्वागत करता है। अतः अब यह स्पष्ट है कि मठ ऐसे सदस्यों का संगठन है जिसमें किन्हीं महत्वपूर्ण मद्दों पर आपसी मतभेद हो सकते हैं, और जिससे उनमें फूट पड़ जाती है। जब लगभग सारे ही मुददों पर सदस्यों के विचार अलग होते हैं या धार्मिक विश्वासों का खुलासा वे अपने अपने नजरिए से करते हैं तो मठ में इसी पथ का अनुसरण किया जाता है जिससे फूट पड़ जाती है।

मठं के तीन उद्देश्य हैंः (1) इसका प्रथम उद्देश्य आध्यात्मिक है-इसके द्वारा प्रस्तुत आध्यात्मिक ज्ञान को परिभाषित करना, बनाए रखना व इसका प्रचार करना । इस कार्य के लिए यह आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचारकों के शिक्षण तथा नियुक्ति के लिए संस्थागत साधनों की संरचना करता है। (2) यह दार्शनिक नैतिक मूल्यों को मनुष्यों में उजागर करने का प्रयास करता है। जिसका मुख्य उद्देश्य परिवार, राजनीति तथा समाज में व्यक्तिक चरित्र का पुनःस्थापन है। (3) परोपकारी सामाजिक कार्यों का संगठन तीसरा उद्देश्य है। इसमें दवाखानों तथा चिकित्सालयों, शैक्षणिक संस्थाओं व संस्कृत पाठशालाओं का संचालन सम्मिलित है। अपने आध्यात्मिक उद्देश्य के अनुसरण के लिए मठ बहुधा पुस्तकों तथा पत्रों के प्रकाशन के लिए मुद्रण की व्यवस्था भी करता है। यह शिक्षण तथा अनुसंधान के लिए पुस्तकालय भी बनाता है।

आजकल मठ अधिकतर एक संविधान के अनुरूप संचालित न्यास के तत्वाधान में स्वीकृत समिति के रूप में कार्य करता है। मठ तथा आश्रम को ट्रस्ट में परिवर्तित करने की प्रवृति लगातार प्रबल होती रही है तथा इसके कई कारण बताए जाते हैं । यह मठ की सम्पति का उपलब्ध सर्वोतम संस्थागत बचाव है। नामांकित/दीक्षित अनुयायी को उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति के पैतृक अधिकार का प्रचलित नियम संघर्ष को जन्म देता है तथा यह नियम सभी परिस्थितियों में मठ की सम्पति को बिखरने अथवा दुरुपयोग होने से नहीं बचा सकता। ट्रस्ट का यह रूप इसे धन एकत्र करने में भी मदद करता है क्योंकि पंजीकृत धर्मार्थ संस्था को दिए जाने वाला दान व्यक्ति विशेष की आय के एक निश्चित प्रतिशत तक आयकर से मुक्त होता है।

बॉक्स 2
चैतन्य मठ की संगठनात्मक संरचना
मठ की एक गद्दी व प्रधान कार्यालय है। ये दोनों एक स्थान पर स्थित नहीं हैं। इसमें दो स्तरीय सदस्यता का प्रावधान है सामान्य व विशिष्ट । नियुक्ति व चयन विशिष्ट सदस्यों तक सीमित है जिन्हें प्रबंध निकाय द्वारा चुना जाता है तथा यह चयन प्रधान आचार्य द्वारा संपुष्टि के बाद होता है। एक हजार रुपये तथा इससे अधिक दान देने वाले इसके संरक्षक कहे जाते हैं पर वे इसके प्रबंधन में कोई भूमिका नहीं निभाते।

शीर्ष पर प्रबंध निकास की अध्यक्षता, संस्थापक प्रधान आचार्य तथा उसके सहयोगी द्वारा होती है। सचिव तीन प्रकार के होते है सचिव, सह-सचिव तथा सहायक सचिव । नियमानुसार सहायक सचिवों का कार्य सदैव भारत भ्रमण पर रहना है, प्रचार कार्य करना तथा मठ की शाखाओं का निरीक्षण करना है।

स्थानीय मठ की एक शाखा का मुखिया मठ रक्षक होता है, जिसकी नियुक्ति प्रबंधन निकाय तथा प्रधान आचार्य द्वारा की जाती है। उसके नीचे मठ सेवक होते हैं जिनका कार्य खाना पकाना, सफाई करना तथा मठ के अन्य इस प्रकार के कार्य करना है। उनके लिए यह ‘सेवा‘ ईश्वर के प्रति सेवा है। स्थानीय मठ में तीन तरह के लोग होते हैं ब्रहमचारी (छात्र-सेवक) वानप्रस्थी तथा सन्यासी । ब्रहमचारी के रूप में मठ की सेवा करने के पश्चात सदस्य को गृहस्थाश्रम की ओर लौटने की स्वतंत्रता होती है। गृहस्थाश्रम का कर्तव्य निभाने के बाद सदस्य वापिस मठ में वानप्रस्थी के रूप में आ सकता है तथा अंत में सन्यास में प्रवेश कर मठ तथा मानवता की सेवा कर सकता है।

भगवा वस्त्रधारी मठ के कार्यकर्ता प्रभु/महाराज कहलाते हैं। वे इस तरह के शासन तंत्र से बंधे हैं जिसका आधार वरिष्ठता, सदस्य की आध्यात्मिक उपलब्धि की मान्यता, मन के आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा तथा मिशन के उद्देश्य-प्राप्ति के लिए की गई सराहनीय सेवा है। विष्णुपाद की पदवी सर्वोच्च सम्मान का प्रतीक है तथा प्रभुपाद शासन तंत्र में इसके बाद का स्थान रहता है। मिशन के कार्य के प्रति, तथा मन तथा वाक् (वाणी) से समर्पित त्रिदंडी स्वामी कहलाता है। आचार्य के पास किसी को मत तंत्र में लेने, विशेष रूप से सन्यासी के रूप में लेने का अधिकार है। यह अधिकार प्रत्यायोजित किया जाता है।