मठ किसे कहते है | मठ की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब शारदा मठ कहां स्थित है Mathas in hindi

Mathas in hindi meaning definition where is मठ किसे कहते है | मठ की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब शारदा मठ कहां स्थित है ?

परिभाषा :

मठ (Mathas) ः धार्मिक अथवा संन्यासियों के केन्द्र

मठ (Mathas)
मठ अथवा धार्मिक केन्द्र, हमेशा से हिन्दू धार्मिक संगठन का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य रहे हैं। चूँकि वीरशैववाद मंदिरों की पूजा को बढ़ावा नहीं देता था और उसमें विश्वास नहीं करता था । अतः मठों ने मंदिरों का एक संस्थागत विकल्प प्रस्तुत किया। वीरशैववाद ने बड़े-बड़े मठ स्थापित किये जिनकी समूचे कर्नाटक तथा पड़ोसी क्षेत्रों में छोटी-छोटी इकाइयाँ थी। बड़े मठों के मुखिया संन्यासी थे और जनता में उनकी काफी इज्जत थी । मठों से जुड़े सभी मामलों में उस इलाके के लोगों को निर्णय-प्रक्रिया में भाग लेने के लिये आमंत्रित किया जाता था। विभिन्न पृष्ठभूमियों से जुड़े लोगों को धार्मिक तथा साथ ही धर्म-निरपेक्ष मामलों पर चर्चा में शामिल करने का यह प्रचलन बसवा के काल से ही चला । उसके अनुभव मंतय (चर्चाओं के कक्ष) में विभिन्न पृष्ठभूमियों वाले लोग मिलकर वीरशैववाद से जुड़े विचारों पर चर्चा करते थे।

मठों की उल्लेखनीय गतिविधियाँ लिंगायत विचारधारा का प्रचार करना, जरूरतमंदों को भोजन व आवास उपलब्ध कराना तथा धर्म-निरपेक्ष विषयों को लोगों को शिक्षित करना रही हैं। लिंगायतवाद के विचारों का प्रचार करते हुए मठों ने खासतौर पर अनुष्ठानों अथवा संन्यास, (सांसारिक इच्छाओं व वस्तुओं का त्याग) की सलाह नहीं दी है। उन्होंने हृदय की पवित्रता, कर्तव्य परायणता का विकास करने, तथा ईश्वर तक पहुँचने के लिये सद्धकर्मों को अपनाने पर जोर दिया है। मठों के मुखियाओं तथा सदस्यों के साथ कोई प्रदर्शन व आडम्बर नहीं जुड़ा था । मठों के तहत श्रेणीबद्धता को न्यूनतम रखा गया तथा मठ के प्रमुख के पद पर नियुक्ति नामांकन अथवा वरिष्ठता के क्रम द्वारा होती है।

कार्यकलाप 2
अपने परिवार अथवा पड़ोस अथवा समुदाय से ऐसे लोगों का चयन कीजिए जो परंपरागत जाति नियमों तथा आकांक्षाओं की लीक से अलग हट गये हैं। वे लीक से अलग चलने वाले एक व्यक्ति के रूप में किस हद तक सफल रहे हैं, अथवा एक जाति बहिष्कृत या विद्रोही के रूप में, कितने सफल रहे हैं- वीरशैववाद में नये-नये शामिल होने वाले लोगों द्वारा बर्दाश्त की गई कशमकश को ध्यान में रखते हुए जिन व्यक्तियों का आपने अवलोकन किया है, उनकी कशमकश को सूचीबद्ध कीजिये।

समूचे कर्नाटक में लिंगायत मठ निराश लोगों की सहायता का एक स्रोत बन गये । यद्यपि शासकों के संरक्षण तथा स्थानीय सरदारों के जरिये अक्सर अनुदान प्राप्त होते रहते थे फिर भी जनता द्वारा स्वयं अपनी इच्छा से भी चन्दा दिया जाता था । मठ में रहने वाला गुरू जो कि अय्या (बड़ा) कहलाता था, न केवल आवास व भोजन उपलब्ध कराता था, बल्कि स्थानीय समुदाय के भीतर अनुशासन भी कायम रखता था। वे लोग जो कि मठों से संबद्ध थे, उसके निर्देशों का पालन करते थे। मठों ने, न सिर्फ लिंगायत समूहों को, बल्कि विभिन्न अवसरों पर गैरलिंगायतों की भी सहायता की। वे 12वीं शताब्दी से ही कर्नाटक की राजनीतिक प्रक्रिया के साथ निकट रूप से संबंधित रहे थे।

खासतौर पर उथल-पुथल वाले कालों के दौरान, मठों को जनमत की राय का मूल्यांकन करने के लिये “साउण्डिग बोर्डो‘‘ की तरह इस्तेमाल किया गया । ऐसा 15 से 18वीं शताब्दी के बीच खासतौर से हुआ।

अगले अनुभाग में हम कुछ विचलनों तथा कमियों पर ध्यान केन्द्रित करेंगे, जो कि वीरशैववादी समुदाय में इसकी उत्पत्ति के उत्तरवर्ती कालों के दौरान विकसित हो गई थी। हम वीरशैववाद की समकालीन हैसियत की रूपरेखा भी प्रस्तुत करेंगे।

उत्तरवर्ती घटना-विकास एवं समकालीन स्थिति
(Subsequent Developments and Contemporary Status)

अब हम उस घटना विकास पर विचार करेंगे जो कि मध्यकालीन दौर से अब तक वीरशैववाद के भीतर घटे हैं।

 वीरशैववादी समुदाय के भीतर धर्मसंकट एवं विभाजन (Dilemmas
and Divisions within the Veerashaivite Community
)
12वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक वीरशैववाद कर्नाटक में एक शक्तिशाली सामाजिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ, जिसने असंख्य अनुयायी पैदा कर लिये । द्रूत धर्मान्तरणों जिन्हें इसने कराया था, के चलते इसके सदस्यों से अक्सर गलतियाँ व चूकें होने लगीं। नये धर्मान्तरित लोगों को अपनी पुरानी विचारधारा तथा कर्मों का त्याग करने में कठिनाई महसूस हई । खासतौर से जाति तथा पुजा से जुड़े मसलों में। वे पुराने व नये मूल्यों के बीच में फंस गये। एक ही घर में कुछ लोग वीरशैववादी बन गये, जबकि अन्य लोगों ने ऐसा नहीं किया। परिवारों के भीतर आपसी कलह पैदा हो गई। वीरशैववाद को बड़े पैमाने पर हिन्दू धर्म के रूढ़िवादी तबकों खासतौर से ब्राह्मणों के विरोध का सामना करना पड़ा, जिनकी हैसियत रूतथा सत्ता को नये मत ने चुनौती दी थी। इन दबावों के बावजूद, कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों तथा अपने विचारों व प्रचलनों को मिले समर्थन की वजह से, लिंगायतवाद कर्नाटक में एक अजेय शक्ति बन गया। प्रो, वेणुगोपाल के अनुसार, लिंगायतों की संख्या में सबसे म ज्यादा वृद्धि 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में हुई। कर्नाटक के अनेक सामंतों, खासतौर से दक्षिण कर्नाटक के सामंतों सरदारों ने लिंगायत रास्ते का अनुसरण करना शुरू कर दिया। इस सामंती संरक्षण ने जहाँ तक एक तरफ इस मत को प्रतिष्ठा तथा आर्थिक सामर्थ्य को बढ़ाया वहीं दूसरी तरफ इसके भीतर विघटन भी पैदा कर दिया।

16वीं शताब्दी के बाद से वीरशैववादियों ने धर्मान्तरण कराने की अपनी गतिविधियों को धीमा कर दिया। बाहरी लोगों के लिये दरवाजे बंद किये जाने लगे और समुदाय के भीतर दरार उभरने लगी। धोबियों, नाइयों, दस्तकारों तथा व्यापारियों के वंशनुगत प्रतिष्ठा समूह उबरना शुरू हो गये तथा ये समूह सजातीय विवाह करने लगे। उनकी प्रतिबद्धताएँ विभिन्न मठों के लिये थीं। वर्षों में जमा की गई दौलत पर नियंत्रण करने तथा सत्ता हथियाने की साजिशों ने वीरशैववादी समुदाय के भीतर विघटन पैदा कर दिये।

वीरशैववादियों द्वारा प्रतिपादित विचारों व प्रचलनों से अनेक विचलन दिखाई पड़ने लगे, उदाहरण के लिये, लिंगायतों में ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म की तरह एक पुजारी समूह का कोई प्रावधान नहीं था। लिंगाचार सभी लिंग धारण करने वालों के बीच एकता का प्रतीक था। किंतु समय के साथ-साथ, लिंगायतों के बीच गुरू तथा जंगम व्यवस्था, एक वंशानुगत वर्ग चरित्र अपनाने लगी, जिसके बारे में पूर्व लिंगायतों ने कभी सोचा भी नहीं था । मठों की बढ़ती हुई संख्या ने गुरू अथवा जंगम प्रणाली में अपने चहेते लोगों को भर्ती करना और भी आसान बना दिया। मठों तथा उनसे संबंध इमारतों, शैक्षिक ट्रस्टों, जिन्हें जनता के चन्दे से स्थापित किया गया था, उन पर नियंत्रण, वंशानुगत उत्तराधिकारी का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गया। एक पुजारी समूह की मौजूदगी ने न सिर्फ भक्तों के बीच असमानताओं को जन्म दिया, बल्कि कायका के सिद्धान्त की उपेक्षा का भी रास्ता तैयार किया।

जैसा कि पिछले अनुभाग 25.5.1 में उल्लेख किया गया है कि मठ गुरू और रिक्त मठ के बीच बंट गए थे और हरेक लिंगायत के अपने अलग अनुयायी थे। इस व्यवस्था ने दावा किया कि उनकी परम्पराएँ 12वीं शताब्दी के लिंगायत तबके से कहीं ज्यादा प्राचीन हैं। इस व्यवस्था ने बसवा व उनके अनुयायियों पर निम्न जातियों को जल्दबाजी में लिंगायतवाद में मिला लेने या इस तरह अनुशासन को कमजोर बना देने का आरोप लगाया गया। विरक्त अनुयायियों ने दावा किया कि गुरू मठ ब्राह्मणवादी परंपराओं को बढ़ावा दे रहे हैं, जिन्होंने जातियों के उत्पीड़न तथा पुजारियों के वर्चस्व को बढ़ावा दिया था। 17वीं शताब्दी तक गुरू तथा जंगम वैमनस्य, सता तथा नियंत्रण के संघर्ष के रूप में व्यापक तौर पर दिखाई देने लगा। यद्यपि इन अन्दरूनी विभाजनों ने समुदाय को कमजोर बनाया, फिर भी लिंगायत कर्नाटक में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में एक शक्तिशाली समुदाय बन गया।