भक्ति और सूफीवाद में अंतर | भक्ति और सूफीवाद की तुलना Sufism and Bhakti in hindi difference

Sufism and Bhakti in hindi difference  comparison between  भक्ति और सूफीवाद में अंतर | भक्ति और सूफीवाद की तुलना ?

सूफीवाद एवं भक्ति: एक तुलना (Sufism and Bhakti : A Comparison)
भारतीय पृष्ठिभूमि में, सूफीवाद की परपंरा का क्या महत्व है, इस बात की रूपरेखा प्रस्तुत कर लेने के बाद, आइए, अब हम भक्ति परंपरा में सूफीवाद की भूमिका पर विचार करें।

आपने शायद पहले ही यह गौर किया होगा कि सूफियों द्वारा दी गई शिक्षाओं में से बहुत सी शिक्षाएँ ईश्वर पर ध्यान केन्द्रित करने तथा भक्ति संगीत व गीतों के महत्व की भक्ति शिक्षाओं से काफी मिलती-जुलती थी। यह माना जाता है कि इन दोनों के बीच की अन्योन्याक्रिया के चलते ही मध्यकालीन रहस्यवाद के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ जो कि संकीर्ण अथवा पुराणपंथी प्रथाओं से मुक्त था और जिसने खासतौर पर जाति-प्रथा के प्रचलन तथा उत्पीड़न का विरोध किया। जैसा कि कहा गया है कि भारत में आने वाले पहले सूफी संत थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, जो 1193 में दिल्ली आये तथा अजमेर के पुष्कर नामक स्थान में जाकर बस गये। उनके अनुयायी हिन्दे व मुसलमान दोनों थे। हम सभी अजमेर में उनकी दरगाह पर होने वाले उर्स (न्ते) से परिचित हैं, जिसे असंख्य अनुयायी आज भी प्रमुख तीर्थ स्थल की मान्यता देते हुए आते हैं। जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, ये सूफी इस्लामी रहस्यवादी थे, जिन्होंने ईश्वर के प्रति तीव्र व गहन प्रेम के माध्यम से अमरत्व प्राप्त करने के मार्ग की गुहार की। सूफियों की शिक्षाओं ने न केवल अनुयायियों को ही बल्कि अनेक ऐसे भक्ति परंपरा के संतों को भी अत्यधिक प्रभावित किया जो कि अपने भीतर सूफी तथा भक्ति दोनों की शिक्षाओं का समावेश करना चाहते थे। 15वीं-16वीं शताब्दी के इसी तरह के दो उल्लेखनीय संत थे कबीर तथा गुरु नानक । हम संक्षेप में मध्यकालीन रहस्यवाद के विकास में उनकी भूमिकाओं पर विचार करेंगे।

भारत में सूफीवाद का प्रसार (The Spread of Sufism in India)
सूफीवाद भारत में अरेबिया, मैसोपोटामिया एवं ईरान से प्रवाहित हुआ । हमें भारत के विभिन्न हिस्सों में सूफी शिक्षाओं का प्रसार करते हुए विभिन्न संतों के उदाहरण देखने को मिलते हैं। उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं, शेख मोइनुद्दीन चिश्ती जो स्वयं अजमेर में बसे और शेख निजामुद्दीन औलिया जिनकी शिक्षाएं तथा अनुयायी पूरे भारत भर में फैल गये।

जहाँ तक भारत में सूफीवाद के विस्तार का प्रश्न है, हम देखते हैं कि इसका चरित्र यहाँ के वातावरण के अनुकूल रूपान्तरिक हो गया । इस तरह अलौकिकता के पहलू को अनदेखा किया गया और शिष्यों को व्यक्तिगत निर्देश दिये गये। सभी सूफी हालांकि शिष्य नहीं रखते थे। जो रखते थे, वे शेख कहलाते थे। शेख को शिक्षक होने के अलावा संरक्षक, मित्र, साथी तथा धर्मोपकारी अथवा वली के रूप में भी माना जाता था। यह भी विश्वास किया जाता था कि उनके पास दैवीय शक्तियाँ अथवा कारामॉ भी हुआ करते थे। शेख अथवा पीर शिष्यों अथवा मुरीदों के आध्यात्मिक मार्गदर्शक लोग किसी बीमारी का इलाज करने अथवा किसी मनोकामना को पूरा करने के लिए, उनको दैवीय-शक्तियों के प्रयोग में लाये जाने की आकांक्षा लेकर आते थे। यहाँ तक कि आज भी हम देखते है कि अनेक श्रद्धालु जो कि किसी पीर की समाधि अर्थात दरगाह पर आते हैं वे किसी मनोकामना की पूर्ति अथवा आशीर्वाद लेन के लिए आते है।

हम यह उल्लेख कर चुके हैं कि सूफियों के बीच चार प्रमुख व्यवस्थाएँ मौजूद थीं। अपनी शिक्षाओं पर बल देने तथा भारत में इनके प्रचार-प्रसार की सीमा की दृष्टि से हम इनमें से प्रत्येक को अन्य से भिन्न पाते हैं। हालांकि सभी चारों व्यवस्थाओं ने शरीयत को ही आध्यात्मिक मार्गदर्शिका माना है सभी की मान्यता यह रही है कि सूफी को जीवन-जगत की भौतिक वस्तुओं से दूर रहना चाहिए। समय-समय पर प्रत्येक व्यवस्था के समर्पित शिष्य हुए है। जिन्होंने आगे चलकर वह स्थान हासिल किया है जिस पर पहुँचकर वे स्वयं अपने शिष्य बना पाने में समर्थ हुए हैं। इन्हें खलीफा कहा जाता था। इन खलीफाओं ने अपनी व्यवस्था का प्रसार-प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

इन चारों व्यवस्थाओं में से सोहरावर्दी सबसे ज्यादा दकियानूस थे और उन्होंने उत्तर-पश्चिम भारत में सूफीवाद के प्रसार में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। वे यह विश्वास करते थे कि अपने कर्तव्यों का बेहतर ढंग से निर्वाह करने के लिए उन्हें उस समय की राजनीतिक सत्ता के साथ मधुर संबंध बनाकर रखने होंगे।

इन व्यवस्थाओं में से, चिश्ती सूफियों को ही सबसे अधिक माना जाता है। वे समूचे । देश में फैल गये और उनके प्रमुख शेख निजामुद्दीन दिल्ली में बस गये तथा इस व्यवस्था को एक कीमती चरित्र प्रदान किया। चिश्ती लगातार इस बात पर जोर देते रहे कि राजनीतिक सत्ता एक ऐसा प्रभाव है जिससे बचा जाना चाहिये। 1325 ई. में निजामुद्दीन की मृत्यु हो जाने तथा उनके स्थान पर 1356 में नसीरूद्दीन के आसीन हो जाने के समय तक एक आध्यात्मिक साम्राज्य का बनना शुरू हो गया था। यह शेख निजामुद्दीन औलिया के व्यक्तित्व के साथ अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा । इस समय तक चिश्ती व्यवस्था बिहार तथा बंगाल तक प्रसारित हो चुकी थी तथा राजस्थान में यह और भी पुरानी व्यवस्था बन चुकी थी जो कि 1190 में अजमेर में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने शुरू की थी। इस व्यवस्था का दक्कन में प्रसार शेख गेसू-दराज द्वारा किया गया।

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सूफीवाद इस्लाम की एक सृजनात्मक अभिव्यक्तियों में से है। यह एक रहस्यवादी पथ है जो कि इस्लाम के बाहर रहकर विकसित हुआ। सूफीवाद रहस्यवादी चिश्ती की गुहार करता है। जिन अनेक सूफी संतों ने सूफीवाद के विकास का दायित्व अपने ऊपर लिया उनमें हसन अल-बसवी, इब्राहम, इब्ने अधम, राजिबाती अदाविधाज, धू उ-ल नन अल मिसरी शामिल हैं। इनमें से प्रत्येक संत ने अपनी तरह से सूफीवाद का विकास किया। उदाहरण के लिय अल-हलाज जब किशोरावस्था में थे तभी से. वे सूफी बन गये। वे बीस वर्षों तक एकांत में रहें और बहुत से गुरूओं से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। उनकी बुनियादी शिक्षाएँ नैतिक सुधार तथा प्रेम के साथ तीव्र एकरूपता की थी। उनकी रहस्यवादी उक्ति थी ‘‘आना-उ-ल-हाग‘‘ (मैं दैवी सत्य हूँ) अलहलाज को बदनाम करने वाले लोगों ने उनका सिर काटकर तथा जलाकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया किन्तु वे इस विश्वास के साथ कि शायद खुदा की यही मर्जी है, इज्जत और शान के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए।
(एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन) ।

इस बात पर गौर करना जरूरी है कि व्यवस्था तथा अनेक शेखों की व्यक्तिगत समझ की भिन्नताओं के चलते, अनुयायियों के कोई एक संगठित मुस्लिम समुदाय का निर्माण नहीं हो सका। इसकी जगह प्रत्येक व्यवस्था के अपने समर्पित अनुयायी थे जिन्होंने आपस में मिलकर भाईचारा कायम कर लिया था आगे चलकर सूफीवाद ने अपनी आध्यात्मिक तीव्रता खो दी और उसका चरित्र समाज सेवा करने वाला जैसा हो गया। 14वीं शताब्दी के अंत तक, हिन्दू धर्म ने सूफियों के बीच अनुक्रिया का आह्वान कर दिया। हिन्दी गीतों तथा भाषा के समर्पण भाव के चलते सूफी तथा हिन्दू एक दूसरे के निकट आये । सांस्कृतिक स्तर पर दोनों तरह के लोगों के बीच मेलजोल बढ़ा। दरअसल हम देखते हैं कि एक ऐसी समान पृष्ठभूमि तैयार हुई जिसके तहत हिन्दुओं व मुसलमानों के बोधात्मक मूल्यों को परस्पर स्वीकृति प्रदान किये जाने को एक-दूसरे द्वारा स्वीकार किया जाने लगा।

संस्कृतियों की परस्पर अदला-बदली के बारे में आगामी अनुभागों के तहत चर्चा की जाएगी जो कि खासतौर पर सूफीवाद तथा भक्ति पंरपरा के मिलन से संबद्ध है।