वनों का महत्व पर निबंध हिंदी में | वन संसाधन का महत्व | स्पीच | importance of forests essay in hindi

importance of forests essay in hindi , वनों का महत्व पर निबंध हिंदी में | वन संसाधन का महत्व | स्पीच ?

वनों का महत्व : इस पृथ्वी पर विद्यमान सभी जीवधारियों का जीवन मिट्टी की एक पतली परत पर निर्भर करता है। वैसे यह कहना अधिक उचित होगा कि जीवधारियों के “जीवन-चक्र” को चलाने के लिए , हवा , पानी तथा विविध पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है तथा मिट्टी इन सब को पैदा करने वाला स्रोत है।

यह मिट्टी वनस्पति जगत को पोषण प्रदान करती है जो समस्त जन्तु जगत को प्राण वायु , जल तथा ऊर्जा देता है। वनस्पति का महत्व मात्र इसलिए ही नहीं है कि उससे प्राण वायु , जल , पोषक तत्व , प्राणदायिनी औषधियाँ मिलती है , बल्कि इसलिए भी है कि वह जीवन आधार मिट्टी बनाती है तथा उसकी सतत रक्षा भी करती है इसलिए वनों को मिट्टी बनाने वाले कारखाने भी कहा जा सकता है।

वृक्ष सम्पदा की कमी के कारण हमारे देश में प्रतिवर्ष 600 करोड़ टन मिट्टी पानी के साथ बह जाती है। इस मिट्टी के साथ नाइट्रोजन , फास्फोरस तथा पोटेशियम जितनी मात्रा में बह जाते है , वह देश के प्रतिवर्ष उर्वरक उत्पादन से लगभग दुगनी बैठती है। मिट्टी में एक सेंटीमीटर मोटी पर्त बनने में प्रकृति को लगभग 400 वर्षो का समय लग जाता है तथा नष्ट होने में एक वर्ष का समय लग जाता है तथा नष्ट होने में एक वर्ष का समय भी बहुत है।

हर वर्ष इतनी मिट्टी का क्षरण एक भयानक स्थिति है। इस भयावह स्थिति से बचने का केवल एक ही उपाय है – धरती के 23 प्रतिशत भू-भाग (पर्वतीय क्षेत्रों में 60 प्रतिशत भू-भाग) पर वनों का पाया जाना।

1. वृक्ष सम्पदा भूक्षरण को रोकती है : वृक्षों का झुरमुट वर्षा की तेज रफ़्तार का असर सीधे मिट्टी पर नहीं पड़ने देता। पत्तियों से टपक कर जो जल धरती पर पड़ता है , उसकी गति अत्यंत कम हो जाती है तथा उससे मिट्टी के कण नहीं उखड़ते।

दुसरे , मिट्टी पर पत्तियों की जो बिछावन होती है , उसके कारण पानी धीरे धीरे रिस कर जमीन के नीचे पहुँचता है जो भूमिगत जल के रूप में संचित होता रहता है। इस प्रकार वृक्ष संपदा न केवल मिट्टी का संरक्षण करती है , बल्कि हमारे दैनिक जीवन में काम आने वाले जल का भण्डार भी बनाती है। जहाँ वन होते है , झरने स्वत: ही फूटते रहते है। जब वृक्षों की कमी होती है तो उपजाऊ मिट्टी कट कट कर नदियों में चली जाती है , जहाँ जाकर वह गाद बना लेती है तथा बहता पानी नदियों के किनारों से बाहर उफन कर बाढ़ का विकराल रूप धारण कर लेता है।

वनों का एक महत्वपूर्ण कार्य नदियों के बहाव को नियंत्रित करना है। एक वनाच्छादित जलागम क्षेत्र में 95 प्रतिशत वार्षिक बरसात का पानी वन के नीचे जडो के स्पंज जैसे जाल में संचित हो जाता है।

यह पानी फिर धीरे धीरे वहाँ से साल भर निकल कर भूमिगत जल के भण्डारो की पूर्ति करता है और नदी नालों तथा झरनों के बहाव को सूखे मौसम में भी कायम रखता है। जब जंगल कट जाता है तो वर्षा के पानी को चुराने के लिए स्पंज नहीं रह जाता , इसके फलस्वरूप वर्षा का पानी सल्वाट पहाडियों से बहकर नदी नालों में चला जाता है। मिट्टी में केवल पाँच प्रतिशत पानी ही रह पाता है।

इसके परिणामस्वरूप प्रलयंकारी बाढ़े आती है जिनसे घनी जनसंख्या वाले ऊष्ण कटिबंधीय देशों में भयंकर तबाही होती है , अत: राष्ट्रीय मानवीय समस्याओं पर स्वतंत्र आयोग के अनुसार सन 1960 तथा 1980 के मध्य बाढ़ पीड़ितों की संख्या तिगुनी हो गयी है। सातवें दशक के अन्त में बाढ़ से क्षतिग्रस्त लोगो की संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक थी। भारत में सरकारी अनुमान के अनुसार हर बीस व्यक्तियों में से एक को बाढ़ का खतरा है। पिछले वर्षो में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 2 करोड़ हैक्टेयर से बढ़ कर 4 करोड़ हैक्टेयर हो गया है।

इससे भी अधिक वर्षा का पानी मिट्टी में संचित नहीं होता है। स्थानीय नदी नालों में पानी का संग्रह नही होता तथा वे बरसात के बाद सूख जाते है। इसके परिणामस्वरूप सूखा , बाढ़ , चक्र प्रारंभ होता है , जिसमे बरसात में भारी बाढ़े तथा सूखे मौसम में भयंकर सूखा होता है। अकेले महाराष्ट्र राज्य में ही पाँच वर्षो में पानी की कमी वाले गाँवों में छह हजार की वृद्धि हो गयी। अब उनकी संख्या 23 हजार हो गयी है। उत्तर प्रदेश के हिमालय क्षेत्र के गाँव में जल स्रोतों में 45 प्रतिशत की कमी आ गयी है। पिछले एक वर्ष के सूखे के फलस्वरूप प्रत्येक स्रोत में सामान्यतया साठ प्रतिशत की पानी कम हो गया है। भागीरथी तथा उसकी सहायक नदियों ने जाडे के दिनों में (जब बर्फ पिघल कर पानी नहीं आता) एक सामान्य नाले का रूप ले लिया है।

2. वृक्ष सम्पदा मिट्टी की ऊपरी सतह को उपजाऊ बनाने में भी मदद करती है : जमीन के गर्भ में पोषक तत्वों का विपुल भण्डार है। वृक्षों की जड़ अत्यंत गहराई से इन पोषक तत्वों को खिंच कर पत्तियों के माध्यम से धरती की ऊपरी सतह पर पहुंचा देती है। अनाज फसलों की जड़े इतनी गहराई तक नहीं पहुँच पाती तथा उन्हें मिट्टी की ऊपरी सतह के उपजाऊपन पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यदि वृक्षों की कमी होती है , तो कुछ ही वर्षो में मिट्टी की उपरी सतह उपजाऊ बनी रहेगी , रेगिस्तान की छाया से दूर रहेगी। अनाज फसलों से अधिक उत्पादन भी उस दशा में लिया जा सकता है।

एक बार वनस्पति का कवच हट जाने के बाद उष्णकटिबंधी क्षेत्रों की मिट्टी से अधिक क्षरण होने लग जाता है। वन विनाश से सर्वाधिक भू क्षरण नेपाल में हो रहा है। वहां पर सन 1940 के पश्चात् 90 प्रतिशत पेड़ कट गए। नेपाल से प्रतिवर्ष 24 करोड़ टन मिट्टी बहकर चली जाती है। भारत पीछे नहीं है। भारत में प्रतिवर्ष 600 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी बहकर चली जाती है। इथिओपिया से जहाँ वन विनाश के फलस्वरूप अकाल पड़ा हुआ है , प्रति हैक्टेयर 269 टन उपजाऊ मिट्टी का क्षरण विश्व के वर्षा वनों की हरियाली धोखा देने वाली भी है। पेड़ पौधों के बाहुल्य के बावजूद भी इसके निचे की मिट्टी बहुत कमजोर है। एक बार जंगल कटे नहीं कि उनके नीचे तली में जो थोड़े बहुत उर्वरक रहते है वे वर्षा से धुलकर बह जाते है तथा सारी भूमि बंजर बेकार भूमि में बदल जाती है।

3. सूरज की किरणें जब नंगी धरती पर पड़ती है , तो ऊपरी सतह पर पाए जाने वाले पोषक तत्व झुलस जाते है। वृक्षों का छत्रक सूरज की किरणों की सीधी मार से मिट्टी को बचाता है।

मिट्टी की नमी को सुरक्षित रखकर वृक्ष धान्य फसलों को बड़ा लाभ पहुंचाते है।

4. हरे भरे वन तथा मौसम चक्र को अनुकूल बनाये रखते है , जो कि हमारी अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता के लिए आवश्यक है।

5. वन हवाओं की तेज रफ़्तार तथा तूफान को नियंत्रित करते है , जिससे खेतो की मिट्टी उड़कर अन्यत्र नहीं पहुँचती। इस प्रकार वन हमारे गाँवों को धुल भरी आँधी के थपेड़ो से बचाते है।

6. वे वायुमंडल में छोड़ी गई कार्बन डाई ऑक्साइड तथा अन्य विषैली गैसों का परिशोधन करते है।

7. अनुसंधानों से यह भी ज्ञात हुआ है कि वृक्ष ध्वनि प्रदुषण को भी नियंत्रित करते है।

8. जहाँ पर वन अधिक होते है , वर्षा भी अधिक होती है। भारत में वर्षा उत्तर की हिमालय पर्वतमाला के कारण होती है। बंगाल की खाड़ी से मानसूनी हवाएं उठती है तथा हिमालय के हरे भरे जंगलो से ठंडी होकर बरस पड़ती है। अगर हिमालय पर्वत न होता तो हमारा देश भी अरब देशो की तरह रेगिस्तान होता। हिमालय को बचाने के लिए उस पर हरे भरे वनों का पाया जाना परम आवश्यक है।

जहाँ भी वन समाप्त हुए , संस्कृतियाँ तथा समाज समाप्त हो गए क्योंकि भूमि अनुपजाऊ रेगिस्तान में बदल गई तथा समाज भूख प्यास तथा अकाल के शिकार हो गए। अगर मिट्टी है तथा वह उपजाऊ है तो वहां खुशहाली है , वैभव है , विकास है। इसके लिए आवश्यक है मिट्टी बनाने वाले उसका संरक्षण करने वाले कारखानों की रक्षा। राष्ट्रीय वन निति में वनों की मुख्य पैदावार मिट्टी , जल तथा वायु घोषित हो , तभी वनों की रक्षा की जा सकती है , अन्यथा वे लालची अर्थव्यवस्था के खातिर धराशायी किये ही जाते रहेंगे।

9. वन विनाश के फलस्वरूप विश्व में चौदह करोड़ लोगो की जो शिकार पर सतत पैदावार के आधार पर वन उपजों के संग्रह या खेती पर आश्रित है , सांस्कृतिक मृत्यु हो जाने की सम्भावना है। इनमे से अधिकांश लोग पूरी तरह से गुजारे के लिए वनों पर आधारित रहते है। वनों से उन्हें घर बनाने के लिए सामान , कृषि यंत्रों के लिए लकड़ी , परम्परागत औषधियों के लिए जड़ी बूटियाँ , कपड़ों के लिए रेशा तथा रंग और अपने धार्मिक तथा सांस्कृतिक उत्सवों की सामग्री मिलती है। भारत में तो कई वनवासी जातियां ऐसी है , जो भौतिक सभ्यता द्वारा निर्मित किसी भी वस्तु का उपयोग नहीं करती। अरुणाचल प्रदेश में बाँस पर चांवल पकाते है तथा पानी भरते है तो बस्तर में तुमड़ी से पानी भरते है तथा पत्तलों पर खाना खाते है।

10. वन केवल भौतिक वस्तुओं का ही स्रोत नहीं है , वनवासी संस्कृति ही इसके बुनियाद पर खड़ी है। वनों में उनके पूर्वजों की आत्माएँ विश्राम करती है तथा देवी देवता निवास करते है। इनकी सांस्कृतियाँ हजारों वर्ष पुरानी है तथा इसका प्रमाण यह है कि वे आज भी अपनी जीवन पद्धतियों को कायम रखे हुए है। उनके पास विविध प्रकार की वनस्पतियों तथा जीव जंतुओं के बारे में ज्ञान का अगाध भण्डार है। वे वनों का इस प्रकार उपयोग करते है कि वनों से उन्हें निरंतर उपज मिलती रहे। वास्तव में वनों से सतत् उपज लेने की यही वास्तविक वैज्ञानिक पद्धति है। उन्होंने अपने रीती रिवाजों में उन नियमों को एक अंग बना लिया है , जो वनों के अंधाधुंध शोषण को नियंत्रण करते है। जखोल पंचगाई (उत्तरकाशी) में नकदूण जड़ , जो अन्न की कमी के दिनों में भूख मिटाने का एक साधन है , निकालने के लिए साल में एक दिन निर्धारित किया गया है। इसी प्रकार मसूरी के निकट अगलाड़ नदी में भी मछली मारने के लिए एक निश्चित दिन पर मौण का मेला लगता है।

परन्तु विश्व भर में आदिवासियों को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने के बहाने से उखाड़ कर एक कृत्रिम जीवन के लिए बाध्य किया जा रहा है। उनकी भूमि अथवा तो खनन से अथवा भीमकाय बाँधो के निर्माण से ध्वस्त हो गई है। ये आदिवासी अथवा तो शहरों की झुग्गी झोपड़ियों में बसने के लिए अथवा बन्धुआ मजदूरी अथवा कभी कभी तो देह व्यापार जैसे घृणित व्यवसाओं को अपनानें के लिए मजबूर हो जाते है।