आयात प्रतिस्थापन किसे कहते हैं Import substitution industrialization in hindi परिभाषा क्या है ?

(Import substitution industrialization in hindi) आयात प्रतिस्थापन किसे कहते हैं परिभाषा क्या है ? नीति हिंदी में अर्थ महत्व |

प्रभाव: तृतीय चरण – साम्राज्यवाद और औद्योगीकरण
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में पूँजीवाद की प्रकृति बदल रही थी। औद्योगिक और बैंकिंग पूँजियों जैसी विभिन्न प्रकार की पूँजियाँ विलीन होती जा रही थीं। इससे निर्यात हेतु पूँजी-आधिक्य वाले ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, आदि जैसे उन्नत पूँजीवादी देशों में वृहद् वित्तीय अल्पतन्त्रों को बढ़ावा मिला। इन देशों के बीच, उदाहरण के लिए, भारत जैसे देशों को पूँजी निर्यात करने और उद्योग स्थापित करने हेतु गहरी होड़ लगी थी। वास्तव में, इस होड़ ने ही प्रथम विश्व-युद्ध को जन्म दिया। इस होड़ के पीछे इरादा था अधिक-से-अधिक लाभ कमाना और इसे अपने देश निर्यात कर देना। यह साम्राज्यिक अर्थव्यवस्था के लाभार्थ अन्य देशों के साथ-साथ उपनिवेशों के घरेलू बाजार पर भी कब्जा करने का एक तरीका था। हॉब्सनं नामक एक प्रसिद्ध यक्तिवादी अर्थशास्त्री और सपरिचित क्रांतिकारी लेनिन इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि अब पूँजीवाद प्रवेश कर चुका है, जिसको उन्होंने नाम दिया, साम्राज्यवाद का चरण। (साम्राज्यवाद इसी कारण पूरी तरह से उपनिवेशवाद जैसा नहीं है, यह उपनिवेशवाद के समाप्त हो जाने पर भी जारी रहा और भूमण्डलीकरण के नए नाम से हमारे साथ आज भी है।)

शताब्दी के अंत तक और 1914 से पूर्व भारत में उद्योगः भली-भाँति विकसित हो चुके थे। ये उद्योग व्यापक नहीं थे बल्कि कुछ परिक्षेत्रों में संघनित थे – जैसे कलकत्ता के आसपास जूट-मिलें और बम्बई के आसपास सूती-वस्त्रोद्योग, आदि । अन्य उद्योग, नामतः चावल-मिलें, परिष्कृत चीनी, सीमेंट इत्यादि बनाने हेतु भी लगने शुरू हो गए। टाटा (इस कार्य हेतु एकमात्र अनुमतिप्राप्त भारतीय) भी स्टील बनाने हेतु एक भारी उद्योग स्थापित कर चुके थे।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह प्रक्रिया तेजी से बढ़ी। इस काल की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि वे भारतीय पूँजीपति जिन्होंने व्यापार के माध्यम से काफी बड़ी पूँजी जोड़ी हुई थी अपने निजी उद्योग लगाने लगे। युद्धोपरांत, उन्नत पूँजीवादी विश्व में ब्रिटेन की स्थिति अपेक्षाकृत रूप से घटी और उसे अन्य औद्योगिक शक्तियों की प्रबल प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। भारतीय पूँजीपतिवर्ग ने उद्योग शुरू करने के लिए ब्रिटेन से बड़ी रियायतें झटक ली और उस पर एकतरफा मुक्त-व्यापार को संशोधित करने हेतु दवाब डाला, परिणामतरू भारतीय पूँजीपति वर्ग को कुछ राजकीय संरक्षण मिल गया। जनाधारित राष्ट्रीय आंदोलन के उदय ने भी आशान्वित भारतीय पूँजीपतिवर्ग को ब्रिटेन के साथ और बेहतर सौदेबाजी करने में मदद की।

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन स्थापित होने के बाद, उद्योगों में भारतीय पूँजीपति वर्ग की परिसंपत्तियाँ ब्रिटिश पूँजीपतियों के मुकाबले और तेजी से बढ़ी। भारतीय उद्योगों को कोई राजकीय सहायता नहीं दी जाती थी परन्तु ब्रिटेन पर भारतीय उद्योग व अन्य साम्राज्यिक शक्तियों के सामने रखी जाने वाली संरक्षात्मक शुल्कदार का अनुदान देने हेतु दवाब था, यद्यपि उसके अपने माल पर, अधिमान्य व्यवहार की सुविधा जारी रही। द्वितीय विश्व-युद्धकाल तक भारत ऊपर वर्णित उद्योगों के अलावा, कच्चे-तेल व कच्चे-लोहे, स्टील, सीमेंट, आदि जैसी माध्यमिक वस्तुओं की भाँति उपभोक्ता-वस्तुओं में भी आत्म-निर्भरता का एक अच्छा मापदण्ड हासिल कर चुका था। पहले ब्रिटेन से जो आयात होता था उसमें से काफी कुछ अब देश में ही पैदा किया जा रहा थाय औद्योगीकरण की इस पद्धति का अर्थशास्त्रियों द्वारा “आयात-प्रतिस्थापन‘‘। औद्योगीकरण के रूप में उल्लेख किया जाता है।

इस चर्चा को समाप्त करने से पूर्व इस औद्योगीकरण के एक महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण पर प्रकाश डालना आवश्यक है। विकास के औपनिवेशिक तरीके ने उद्योग और कृषि के बीच एक गंभीर वियोजन थोप दिया, जैसा कि बागची द्वारा उल्लेख किया गया है। वे अधिकांश क्षेत्र जिनमें उद्योग विकसित हुए, कृषिक रूप से पिछड़े रहे और वे जो पंजाब जैसे कृषिक रूप से उन्नत हुए, औद्योगिक रूप से पिछड़े रहे । परिणाम यह हुआ कि कृषिक क्षेत्र उद्योग के लिए पृष्ठ प्रदेश बन गए। यह पूर्व-औपनिवेशिक पद्धति से बिल्कुल भिन्न हुआ जहाँ उद्योग व कृषि एक परस्पर लाभप्रद संबंध से गहरे जुड़े थे। यह पूरे भारत में असमान विकास के एक विशिष्ट प्रतिमान के रूप में फलित हुआ। लगभग उन सभी क्षेत्रों में जहाँ मुस्लिम जनसंख्या का बाहुल्य था, कोई उद्योग नहीं पनपा और ये पृष्ठ प्रदेश ही रहे। कोई बड़ा मुस्लिम मध्यवर्ग भी नहीं पनपा। इसने भी मुस्लिम अलगाववाद में योगदान किया जिसने, जैसा कि हम जानते हैं, देश के विभाजन और पाकिस्तान के जन्म की ओर उन्मुख किया – एक पेचीदा कहानी जो यहाँ नहीं कही जा सकती।

बोध प्रश्न 4
नोटः क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) भारत में आधुनिक उद्योग के विकास को किसने प्रवृत्त किया?
2) वे कौन-से मुख्य सामाजिक दवाब थे जो भारत में उद्गमित हुए?
3) ‘‘आयात-प्रतिस्थापन‘‘ औद्योगीकरण क्या है?

बोध प्रश्न 4
1) प्रथम विश्व-युद्ध के आलोक में ब्रिटेन की स्थिति अन्य उन्नत देशों के मुकाबले घटी। इसने भारतीय उद्योगपतियों को ब्रिटिश सरकार से रियायतें (संरक्षात्मक शुल्कदर नीति) प्राप्त करने का एक अवसर प्रदान किया। इससे आधुनिक भारतीय उद्योग के विकास में मदद मिली।
2) जूट-वस्त्र, सूती-वस्त्र, परिष्कृत चीनी, सीमेंट, आदि ।
3) मध्यवर्ग, जमींदार, उद्योगपतियों का एक छोटा समूह ।
‘‘आयात-प्रतिस्थापन‘‘ का अर्थ है वह आर्थिक व्यवस्था जिसमें आयात की जाने वाली वस्तुएँ अपने देश में ही उत्पादित की जाती हैं।

कुछ उपयोगी पुस्तकें व लेख
चन्द्र, बिपन, एस्सेज ऑन कॉलोनिअलिज्म, (दिल्ली, ओरिएण्ट लौंगमैन, 1999), देखें अध्याय – 3 व 4।
पाब्लोव, वी०, ‘‘इण्डिया‘‘ ज सोशिओ-इकनॉमिक स्ट्रक्चर फ्रॉम दि 18‘ थ टु मिड-20‘थ सैन्चुरी‘‘ वी. पाब्लोव, वी. रास्तानिकोव, और जी. शिरोव, इण्डिया: सोशल एण्ड इकनॉमिक डिवलपमेंट, (मॉस्को, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1975)।
बागची, अमिया कुमार, पॉलिटिकल इकॉनमी ऑव अण्डरडिवलपमेंट, (कैम्ब्रिज, सी.यू.पी., 1982), भारतीय संस्करण भी उपलब्ध है। देखें विशेषतः अध्याय 4 और अध्याय-2, 6 व 7। तथा उनका “रिफ्लैक्शन्स ऑन् पैटर्न्स ऑव रीजनल ग्रोथ इन इण्डिया ड्यूरिंग दि पीरियड ऑव ब्रिटिश रूल‘‘, बंगाल पास्ट एण्ड प्रेसैण्ट, खण्ड-ग्ब्ट, भाग-1, नं. 180, जनवरी-जून 1976 भी देखें।
सरकार, सुमित, मॉडर्न इण्डिया, (दिल्ली मैकमिलन, 1983)।
हबीब, इफोन, ‘‘कॉलोनाईजेशन ऑव दि इण्डियन इकॉनमी, 1757-1900‘‘, सोशियल साइण्टिस्ट, मार्च 1975, उनका एस्सेज इन इण्डियन हिस्ट्री रू टुवर्ड्स ए मासिस्ट पर्सपैक्टिव, (नई दिल्ली, तूलिका, 1995)।