अगोचर प्रकार्य की परिभाषा दीजिये | अगोचर प्रकार्य किसे कहते है क्या है अर्थ मतलब Imperceptible function in hindi

Imperceptible function in hindi अगोचर प्रकार्य की परिभाषा दीजिये | अगोचर प्रकार्य किसे कहते है क्या है अर्थ मतलब ?

समकालीन दृष्टिकोण
उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय समाज में एक बड़े पैमाने पर सामाजिक रूपांतरण हुआ जिसकी विशेषता यह थी कि गिरजाघर, राजतंत्र, सामंतवाद की पकड़ तथा अधिकारों में ह्रास हुआ एवं धर्म निरपेक्ष वैचारिकी, लोकतंत्रीय राज्य तथा औद्योगिक क्रांति का उदय हुआ। उसी के अनुरूप विचारों, विश्लेषण की पद्धतियों तथा संप्रत्ययीकरण में परिवर्तन हुआ।

इस शताब्दी में समाज विज्ञान के क्षेत्र में दो सुस्पष्ट बौद्धिक प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर हुई:
ऽ प्रथम प्रवृत्ति में प्रमुख बल सामाजिक व्यवस्था की केन्द्रिकता पर था जिसके प्रमुख घटक पर्यवेक्षण, बंधुत्व संसक्ति एवं एकीकरण थे।
ऽ दूसरी प्रवृत्ति में, सामाजिक गत्यात्मकता केंद्रीय विषय वस्तु थी जिसके घटक विरोधाभास एवं संघर्ष थे।

इन दोनों बौद्धिक प्रवृत्तियों से प्रकार्यवादी एवं माक्र्सवादी दृष्टिकोणों का उद्भव हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत पूर्णतया ब्रिटिश शासन की अधीनता के अंदर आ चुका था। ऐसी सामाजिक राजनीतिक पृष्ठभूमि में गांधीवादी विचार पद्धति ने अधीनता, उपनिवेशी सांस्कृतिक प्रभुत्व, ग्रामीण उद्योगों के ह्रास एवं अंधविश्वास की पकड़, भय तथा अस्पृश्यता की समस्याओं को जड़ से उखड़ फेंकने का रास्ता दिखाया।

समकालीन सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण में एक निश्चित बदलाव दृष्टिगोचर होता है। इसकी संक्षिप्त व्याख्या निम्नलिखित ढंग से की जा सकती है:
ऽ सामाजिक समस्याओं, उनकी उत्पत्ति की पूर्वकालीन व्याख्या व्यक्तियों के प्रसंग में की जाती थी। अब, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक या संरचनात्मक कारकों पर बल है।
ऽ पूर्वकालीन विश्लेषण के मुख्य बल सामाजिक व्यवस्था के अनुरक्षण तथा संतुलन के पर्यवेक्षण पर था जो कि सामाजिक परिवर्तन को एक संदेहास्पद घटना के रूप में मानता था। अब यह स्वीकार किया गया है कि तनाव तथा सामाजिक समस्याओं का उद्भव सामाजिक प्रणाली में विरोधाभास के कारण होता है जिसका हल किया जा सकता है। समकालीन समाजशास्त्र में सामाजिक समस्याओं की प्रकृति एवं उत्पत्ति की व्याख्या के भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्य पाए जाते हैं। इन परिप्रेक्ष्यों ने दो प्रमुख दृष्टिकोणों को जन्म दिया है जो निम्नलिखित हैं:
ऽ प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण
ऽ माक्र्सवादी दृष्टिकोण

भारतीय संदर्भ में अपने राजनीतिक आंदोलन एवं सामाजिक पुनर्निर्माण के प्रयोगों के प्रकाश में गांधी ने सामाजिक समस्याओं की समाप्ति एवं भारतीय समाज के पुनर्गठन के लिए एक वैचारिक ढाँचा विकसित किया। इस तरह सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण का तीसरा पक्ष गांधीवादी दृष्टिकोण है।

 प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण
प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण समाज को एक प्रणाली के रूप में प्रस्तुत करता है, इसके अनुसार समाज अंतःसंबद्ध भागों का एक समुच्चय है जो सब मिलकर एक समग्र की रचना करते हैं। विश्लेषण की मूल इकाई समाज है तथा उसके विभिन्न भागों को उनके समग्र के संबंध में समझा जाता है। इस प्रकार सामाजिक संस्थाएँ, जैसे कि परिवार तथा धर्म का प्रकार्यवादियों द्वारा विश्लेषण, सामाजिक प्रणाली के एक भाग के रूप में, न कि पृथक इकाइयों के रूप में किया जाता है।

इस प्रकार समाज के सभी भाग प्रकार्यात्मक हैं जहाँ तक कि वे व्यवस्था कायम रखते हैं और उनकी स्वस्थ उत्तरजीविता में योगदान देते हैं। प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण दुष्क्रिया के प्रत्यय को किसी सामाजिक संस्था के प्रभावों के लिए भी प्रयोग करता है जो समाज के अनुरक्षण को कम करते हैं। दुष्क्रिया का प्रत्यय सामाजिक समस्याओं के आधुनिक अध्ययन के विशेष महत्व रखता है।

प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण दो समाजशास्त्रियों – अगस्त काम्टे एवं हरबर्ट स्पेंसर की कृतियों में स्पष्ट है। बाद में, उसका विकास इमाइल दुर्खीम ने किया। टेलकेट पारसन्स एवं राबर्ट के मर्टन ने उसका परिष्कार किया। पूर्वकालीन प्रकार्यवादियों ने जीव और मानव शरीर में सादृश्यता प्रदान की। जिस प्रकार एक जीव कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ रखता है जिनकी संतुष्टि उसकी उत्तरजीविता के लिए अनिवार्य है उसी प्रकार समाज की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं जिनकी पूर्ति उसकी निरंतरता के लिए आवश्यक कालीन प्रकार्यवादियों का मुख्य बल निम्नलिखित बिंदुओं पर था:

ऽ भागों (व्यक्तियों, परिवार, धर्म, शिक्षा, विधि इत्यादि) तथा समग्र (समाज) के बीच संबंधों का अच्छी तरह बुना होना,
ऽ व्यवस्था का सरलतापूर्वक कार्य करना,
ऽ व्यवस्था को कायम रखना,
ऽ संसक्ति, तथा
ऽ सामाजिक बंधुत्व

1) प्रकार्यवादी पूर्वापेक्षाएँ
इस दृष्टिकोण के प्रमुख उपादानों में कुछ प्रकार्यात्मक पूर्वापेक्षाएँ (सामाजिक अस्तित्व की आवश्यक दशाएँ) हैं। ये एकात्मकता, अनुकूलन एवं अनुरक्षण की प्रक्रियाओं को मजबूत करती हैं। इनके साथ ही ये पूर्वापेक्षाएँ समाज के सुचारू प्रकार्य में भी सहायता देती है। मुख्य पूर्वापेक्षाएँ निम्नलिखित हैं:
ऽ भूमिका विभिन्नीकरण,
ऽ संचार,
ऽ प्रतिमानात्मक नियमन,
ऽ समाजीकरण, और
ऽ सामाजिक नियमन।

पप) भूमिका की अवधारणा
प्रकार्यात्मक विश्लेषण में ‘‘भूमिका‘‘ की अवधारणा का महत्वपूर्ण स्थान है। उसका अर्थ उस कार्य से है जो एक व्यक्ति का एक संस्था से करने की आशा की जाती है। व्यक्तियों को उनके व्यक्तिगत अभिप्रेरकों तथा सामाजिक आवश्यकता के आधार पर भूमिका सौंपी जाती है। इस तरह की भूमिका निष्पादित करने वाले लोग एक स्थिति या वर्ग के होते हैं। सभी समाजों में व्यक्तियों की एवं संस्थाओं के क्षेत्र में भूमिका विभिन्नीकरण पाया जाता है। ऐसे व्यक्तियों के समूह भिन्न-भिन्न भूमिका निष्पादित करते हैं। उसी प्रकार सामाजिक संस्थाएँ जैसे परिवार एवं धर्म भी अपनी सौंपी हुई तथा प्रत्याशित भूमिका निष्पादित करते हैं जो एक दूसरे से भिन्न होती है।

प्रकार्यवादी विश्लेषण के अनुसार यदि प्रकार्यवादी पूर्वापेक्षाएँ भंग हो जाती हैं, यदि भूमिका विभिन्नीकरण या भूमिका निष्पादन उचित नहीं है तो समाज की प्रकार्यात्मकता प्रभावित होगी और विभिन्न सामाजिक समस्याओं का उत्पन्न होना निश्चित है।

सामान्य निरूपणों की व्याख्या करने के बाद अब हम कुछ प्रमुख प्रकार्यवादी विचारकों के दृष्टिकोण की विशिष्ट व्याख्या में प्रवेश करते हैं:

पप) सामाजिक तथ्य और प्रतिमानहीनता
प्रकार्यवादी विश्लेषण में जिस प्रकार से भागों तथा समय के बीच संबंध की व्याख्या की गई है, उससे ऐसा आभास होता है कि समग्र भागों का एक योग है। फिर भी, दुर्खीम ने इस निरूपण को अपने श्रम विभाजन, धर्म तथा आत्महत्या के अध्ययनों में स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार किया है।

दुर्खीम के विश्लेषण के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
ऽ समाज की स्वजातिक प्रकृति,
ऽ सामाजिक तथ्य, तथा
ऽ प्रतिमानहीनता।

उसके अनुसार समाज एक स्व-विकसित वास्तविकता है (उसके शब्दों में यह वास्तविकता स्वजातिक है) जो कि व्यक्तियों से बाह्य है तथा उन पर आरोपित है। एक समाज के सदस्य सामाजिक तथ्यों द्वारा बाध्य हैं जो कि दुर्खीम द्वारा कार्य करने, सोचने तथा अनुभूति के ढंगों के रूप में परिभाषित किए गए हैं। ये व्यक्तियों से बाह्य हैं तथा बाध्यकारिता की शक्ति रखते हैं, जिसके कारण व्यक्तियों को सामाजिक तथ्यों के पालन करने की बाध्यता होती है।

दुर्खीम के विश्लेषण में, सामाजिक तथ्यों को सामान्य तथा व्याधिकीय प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। श्रम विभाजन, धर्म, विधि एवं नैतिकता सामान्य सामाजिक तथ्य हैं, जबकि प्रतिमान हीनता समाज की व्याधिकीय दशा है। श्रम विभाजन के उग्र स्वरूप की विशेषताएँ घातक प्रतिस्पर्धा, हित अभिविन्यास तथा व्यक्तियों में समाज का अभाव के रूप में प्रकट होती हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिमान हीनता की प्रवृत्तियों का विकास होता है। दुर्खीम के प्रत्यय में, प्रतिमान हीनता एक प्रमुख सामाजिक समस्या है। दुर्खीम का विचार है कि अति विभिन्नीकरण तथा उग्र श्रम विभाजन होने पर सामूहिक अंतरात्मा की प्रबलता में कमी आती है। ऐसी स्थिति में एक समूह के सदस्यों की क्रियाएँ सामान्य सामाजिक आदर्शों द्वारा नियमित नहीं हो सकतीं। विभिन्नीकरण का उग्र रूप सामान्य विश्वासों, नैतिकता तथा आदर्शों का अभाव प्रमाणविहीनता उत्पन्न करता है जिसे दुर्खीम द्वारा प्रतिमान हीनता कहा गया है।

अभ्यास 1
अपने ग्राम/स्थानीय क्षेत्र/कार्यालय के व्यक्तिगत बोध के आधार पर इन तीन क्षेत्रों में से किसी एक पर दो पृष्ठों में श्रम विभाजन की वास्तविक प्रकार्यात्मकता पर एक नोट लिखिए।

पअ) सामाजिक व्यवस्था तथा मूल्य-मतैक्य
जिस प्रकार दुर्खीम का प्रमुख संबंध सामाजिक एकात्मकता के विषय से है उसी प्रकार, पारसन्स सामाजिक व्यवस्था पर बल देता है, जिसे अपनी पुस्तक ‘‘द सोशल सिस्टम‘‘ में विकसित किया है। उसका कहना है कि सामाजिक जीवन का मुख्य लक्षण पारस्परिक लाभ तथा शांतिपूर्ण सहयोग है, न कि पारस्परिक शत्रुता तथा विनाश। पारसन्स का विश्वास है कि सामान्य मूल्यों के प्रति वचनबद्धता केवल समाज के लिए व्यवस्था का एक आधार प्रदान करती है।

पारसन्स के अनुसार ‘‘मूल्य-मतैक्य‘‘ समाज में आधारभूत संयोजन सिद्धांत का निर्माण करता है। सामान्य लक्ष्य, एकता तथा सहयोग की व्युत्पत्ति सहभाजित मूल्यों, एकता एवं सहयोग से हुई है। क्या वांछनीय तथा उपयुक्त है, इसकी सामान्य संकल्पना मूल्य प्रदान करते हैं। विशिष्ट स्थितियों में लक्ष्य दिशा देते हैं। भूमिकाएँ साधन प्रदान करती हैं जिनसे मूल्यों तथा लक्ष्यों को कार्य में परिणति किया जाता है।

पारसन्स के अनुसार दो प्रमुख ढंगों से सामाजिक संतुलन (व्यवस्था के सभी अंगों का संतुलन) कायम रहता है:
ऽ प्रथम में समाजीकरण होता है जिसके माध्यम से मूल्यों का संचार एक पीढ़ी से दूसरी में होता है तथा मूल्यों को आत्मसात किया जाता है जिससे वे व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन सकें। पश्चिमी समाज में परिवार तथा शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार्य से संबंधित प्रमुख संस्थाएँ हैं।
ऽ दूसरे, सामाजिक नियंत्रण की विभिन्न विधियों के द्वारा भी यह कायम रहता है जो विचलन को रोकती हैं और व्यवस्था को बनाए रखती हैं। इस प्रकार, समाजीकरण और सामाजिक नियंत्रण की प्रक्रियाएँ प्रणाली के संतुलन और व्यवस्था के अनुरक्षण के लिए आधारभूत हैं।

इस प्रकार समाजीकरण तथा सामाजिक नियंत्रण की प्रक्रियाएँ समूह के सदस्यों के मध्य ‘‘मूल्य-मतैक्य‘‘ की चेतना का संचार करती हैं और व्यवस्था के अनुरक्षण में सहायक होती हैं।

पारसन्स के अनुसार अनुकूलन, लक्ष्य प्राप्ति, एकीकरण और प्रतिरूप अनुरक्षण प्रकार्यात्मक पूर्वापेक्षाएँ हैं। समाज के अस्तित्व के लिए ये अनिवार्य पूर्व दशाएँ हैं।

सारांश में यह कहा जा सकता है कि मूल्य-मतैक्य, व्यवस्था, समाजीकरण और सामाजिक नियंत्रण के अभाव में सामाजिक समस्याएँ पैदा होती हैं।

मूल्य-मतैक्य, सामाजिक संतुलन तथा व्यवस्था, प्रकार्यात्मक पूर्वापेक्षाओं, अनुकूलन, लक्ष्य प्राप्ति, एकीकरण तथा प्रतिरूप अनुरक्षण के अभाव में दुर्बल हो जाती हैं। इस स्थिति में समाज को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

अभ्यास 2
भारत में विभिन्न धर्मों, भाषाओं तथा क्षेत्रों के लोगों के सामाजिक एकीकरण की प्रकृति पर दो पृष्ठों में एक टिप्पणी तैयार कीजिए।

अ) सामाजिक दुष्क्रिया, प्रतिमानहीनता और संरचना
मर्टन कहता है कि सामाजिक समस्याएँ वस्तुनिष्ठ एवं आत्मनिष्ठ दोनों पक्ष रखती हैं जिन्हें वह गोचर एवं अगोचर अथवा अंतर्निहित की संज्ञा देता है। उसके अनुसार केवल गोचर सामाजिक समस्याओं, जिन्हें स्पष्ट रूप से समाज में पहचाना गया है, का ही केवल अध्ययन नहीं किया जाए बल्कि अगोचर सामाजिक समस्याओं का भी अध्ययन किया जाए, जो कि उन दशाओं की ओर संकेत करती हैं जिनका प्रचलित हितों एवं मूल्यों से विरोध है, परंतु सामान्यतः ऐसा माना नहीं जाता। गोचर समस्याएँ व्यक्त एवं वस्तुनिष्ठ हैं जबकि अगोचर समस्याएँ दबी हुई अथवा अंतर्निहित होती हैं। सामाजिक समस्याओं के दोनों गोचर तथा अगोचर पक्ष, दुष्क्रिया से प्रभावित होते हैं।

मर्टन के विश्लेषण में सामाजिक समस्याओं का अध्ययन व्यवहार के प्रतिमान, विश्वास तथा संगठन के दुष्क्रिया पर भी केंद्रित हैं केवल उनके प्रकार्यों पर ही नहीं। मर्टन के अनुसार एक सामाजिक दुष्क्रिया एक प्रक्रिया है जो सामाजिक व्यवस्था की स्थिरता तथा अस्तित्व को क्षतिग्रस्त करती है। यह प्रत्यय इस भ्रम को तोड़ता है कि समाज में हर चीज सद्भाव एवं एकीकरण के लिए ही कार्य करती है।

एक सामाजिक दुष्क्रिया व्यवस्था के एक विशेष भाग की प्रकार्यात्मक आवश्यकता की पूर्ति में एक विशिष्ट अपर्याप्तता है। दुष्क्रिया परिणामों का एक समुच्चय प्रदान करता है जो कि एक सामाजिक व्यवस्था में प्रकार्यों की आवश्यकताओं में हस्तक्षेप करता है। उदाहरणार्थ, ग्रामों से नगरों को बड़े पैमाने पर प्रवासन सामाजिक एकात्मकता, जनांकिकीय रचना तथा ग्रामीण जीवन के आचार तत्व को कायम रखने के लिए दुष्क्रियात्मक है। साथ ही, वह नगरीय जीवन के लिए भी दुष्क्रियात्मक है क्योंकि वह भीड़-भाड़ में वृद्धि करता है और नगरीय सुख सुविधाओं में कमी पैदा करता है। एक सामाजिक व्यवस्था में वही सामाजिक प्रतिरूप कुछ के लिए दुष्क्रियात्मक और दूसरों के लिए प्रकार्यात्मक हो सकता है।

मर्टन ने सुझाव दिया कि सामाजिक संरचना की कुछ दशाएँ ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करती हैं जिसमें सामाजिक संहिताओं का अतिलंघन एक सामान्य प्रत्युत्तर बन जाता है। सामाजिक तथा सांस्कृतिक संरचना के तत्वों में दो तत्व सामाजिक समस्याओं की अध्ययन सुलभता के उद्देश्य से महत्वपूर्ण हैं। इस प्रसंग में, सामाजिक संरचना के दो पक्ष दृष्टि में रखना आवश्यक है:
ऽ प्रथम में, संस्कृति द्वारा परिभाषित लक्ष्य सम्मिलित हैं। इसमें आकांक्षात्मक संदर्भ समाविष्ट हैं। इन सांस्कृतिक आकांक्षाओं में से कुछ मानव की मौलिक प्रेरणाओं से संबंधित हैं परंतु वे उनके द्वारा निर्धारित नहीं होती।
ऽ संरचना का दूसरा पक्ष समाज द्वारा अनुमोदित साधन है।

प्रत्येक सामाजिक समूह अपने सांस्कृतिक उद्देश्यों के साथ उस नियमन को जोड़ता है जो इन उद्देश्यों की ओर बढ़ने के लिए अनुमोदित पद्धतियों की संस्थाओं में मूलरूप से निहित हैं।

लक्ष्यों तथा संस्थागत साधनों पर विभिन्न विभेदक बल के कारण समाज अस्थिर हो जाता है और वहाँ प्रतिमानहीनता विकसित होती है।

इस तरह मर्टन द्वारा प्रतिपादित प्रतिमानहीनता का सिद्धांत – तथा अवसरों की संरचनाएँ बताती हैं कि विभिन्न प्रकार के विचलित व्यवहार की दरें वहाँ सबसे उच्च होती हैं जहाँ संस्कृति द्वारा उत्प्रेरित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समाज द्वारा प्रदत्त विधिसंगत साधनों तक लोगों के पहुंचने के अवसरों का अभाव होता है। उदाहरणार्थ, संस्कृति इसकी पुष्टि करती है कि एक समाज के सभी सदस्यों को अपनी सामाजिक परिस्थिति सुधारने का अधिकार है, परंतु उसके लिए स्वीकृत साधनों से वे वंचित कर दिए जाते हैं। अवसरों की यह अस्वीकृति सामाजिक समस्याओं के संरचनात्मक स्रोतों को समझने में सहायक हो सकती हैं।

बोध प्रश्न 2
II) अगोचर प्रकार्य की परिभाषा कीजिए तथा प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण में उसकी महत्ता चार पंक्तियों में दर्शाइए।

बोध प्रश्न 2 उत्तर

पप) मर्टन के अनुसार, प्रकार्य एवं सामाजिक समस्याएँ दोनों आत्मनिष्ठ एवं वस्तुनिष्ठ पक्ष रखती हैं। गोचर प्रकार्य प्रकट एवं वस्तुनिष्ठ है, अगोचर प्रकार्य छिपे हुए तथा आत्मनिष्ठ हैं। अगोचर सामाजिक समस्याएँ उन दशाओं की ओर संकेत करती हैं जो सामयिक हितों तथा मूल्य के लिए विषमता रखती हैं परंतु उनके सारगुण को लोग ऐसा समझ नहीं पाते।